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नियमसार-प्राभृतम् निमित्तेन त्रैलोक्यमूनि गत्वा सदानन्तानन्तकालमपि उपचारेणाथर्मद्रव्यनिमित्तेन तत्रैव स्थास्यन्ति । एते सर्वे सिद्धा भगवन्तो मम सर्वमनोरथसिद्धि क्रियासुः ॥१८४।।
एवं “आउस्स खयेण" इत्यादिना सिद्धपदप्राप्तिकथनपरत्वेन एक सूत्रं गतम्, तदनु “जाइजरमरणरहियं'' इत्याविना सिद्ध जीवेषु के के गुणाः सन्ति, किं किं तत्र नास्तीति कथनपरत्वेन षट् सूत्राणि गतानि, ततः "णियाणमेघ सिद्धा" इत्यादिना आधाराधेययोरभेदस्थापनपरत्वेनैक सूत्रं गतम्, तत्पश्चात् "जीघाण पुग्गलाणे" इत्याविना सिद्धानां लोकानस्थितिहेतुसमर्थनपरत्वेनैक सूत्रमिति नभिः सूत्रः चतुर्थोऽन्तराधिकारो गतः ।
अधुना ग्रन्यस्योपसंहारप्रकरणे स्थलघुता प्रदर्शयन्तोऽस्मिन् मन्थे केन हेतुना कि कि च कथितमिति सूत्रयन्ति श्रीकुन्धकुन्ददेवाः
णियमं णियमस्स फलं, णिदिद? पवयणस्स भत्तीए । पुवावरविरोधो जदि, अवणीय पूरयंतु समयपहा ॥१८५॥
निमित्त से तीन लोक के मस्तक पर जाकर सदा अनंतानंत काल तक भी उपचार से अधर्म द्रव्य के निमित्त से वहीं पर स्थित रहेंगे। ये सभी सिद्ध भगवान् मेरे सर्वमनोरथ की सिद्धि करें ।।१८४॥
इस प्रकार "आउस्स खयेण" इत्यादि सिद्धपद प्राप्ति के कथन में तत्पररूप से एक सूत्र हुआ। इसके बाद "जाइजरमरणरहिय" इत्यादि रूप से सिद्ध जीवों में कौन से गुण हैं और वहाँ पर क्या क्या नहीं हैं ? इत्यादि कथनरूप से छह सूत्र हुए हैं। पुनः "णिव्वाणमेव सिद्धा' इत्यादि गाथा द्वारा आधार-आधे में अभेद स्थापित करते हुये एक सूत्र हुआ है। तत्पश्चात् "जीवाण पुग्गलाणं" इत्यादि गाथा द्वारा सिद्धों के लोकाग्र में स्थितिहेतु का समर्थन करते हुये एक सूत्र हुआ। इस तरह नव सूत्रों द्वारा चौथा अंतराधिकार पूर्ण हुआ ।
अब ग्रन्थ के उपसंहार के प्रकरण में अपनी लघुता को दिखलाते हुये इस ग्रन्थ में किस हेतु से क्या क्या मैंने कहा है ! ऐसा श्री कुंदकुंददेव स्वयं सूचित कर
अन्वयार्थ—(पवयणम्स भत्तीए णियम णियमस्स फलं णिद्दिठं) मैंने प्रवचन की भक्ति से नियम और नियम का फल कहा है । (जदि पुव्वावरविरोयो)