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नियमसार-प्राभृतम् "अपरा धावक्षमुहूर्ता धेवनीयस्य" इति सूत्रवधनात् । ततः स्थित्यनुभागबंधाभावे प्रकृतिप्रदेशबंधौ न किंचिद् हानि कुरुतः । तेन हेतुनैव विलिनां भगवतां कर्मबंधो नास्ति । समयसारमधीत्य ये केचित् कथयन्ति-~-वयं सम्यादृष्टयोऽस्माकं बन्धो नास्ति, तन्न साधु । किंच, वीतरागयथाख्यातचारित्राविनाभाविवीतरागसम्यग्दृष्टीनामेवाबंधा'वस्था घटते । तथाहि---
असंतलोणमोहे, जोगिम्हि य सममिट्ठिबी सावं ।
णप्रपन्यो पयडोणं बंधस्संतो अणंतो य॥ तात्पर्यमेतत्--सरागसम्यग्दष्ट यः सरागसंयताश्च शुद्धनयेन अबंधकाः, व्यवहारनयन स्वस्वाणस्थानात् पूर्वविच्छिन्नानन्तानुबंधिमिथ्यात्वादिप्रकृतीनामबंधकाः,
दूसरी बात यह है कि वेदनीय कर्म को जघन्य भी स्थिति बारह मुहूर्त है । "वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहर्त है' ऐसा सूत्र में कहा है । इसलिये स्थिति और अनुभाग बंध के अभाव में प्रकृति और प्रदेशबंध कुछ हानि नहीं कर पाते हैं। इसी हेतु से केवली भगवान के कर्मबंध नहीं है । समयसार को पढ़कर जो कोई कहते हैं कि “हम लोग सम्यग्दृष्टि हैं, हमको बंध नहीं है ।" ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वीतराग यथाख्यातचारित्र से सहित वीतराग सम्यग्दृष्टि महापुरुषों के ही अबन्ध की अवस्था घटित होती है । - उसे ही कहते हैं
उपशांत कषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली के एक समय की स्थिति बाला साता का बन्ध जानना चाहिये। तेरहवें गुणस्थान के अंत समय में साता प्रकृति की ही व्युच्छित्ति होती है और चौदहवें में बंध के कारण योग का अभाव होने से न बंध है, न व्युच्छित्ति ।
तात्पर्य यह है कि सराग सम्यग्दृष्टि और सरागसंयत शुद्धनय से अबंधक हैं, किंतु व्यवहारनय से भपने अपने गुणस्थान से पूर्व विच्छिन्न-पृथक हुई अनंतानुबन्धी, मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों के अबन्धक है। शेष प्रकृतियों के बन्धक होते हैं, न कि सर्वथा अबन्धक । ऐसा जानकर नयविवक्षा से सिद्धांत के अर्थ को निर्णीत करके
१. तत्त्वार्थसूत्र, १०८, सूत्र १८ । २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १०२ ।