________________
नियमसार-प्राभतम्
४५७ तु वृषभास्यस्तीर्थकरा दीक्षाकाले "नमः सिद्धेभ्यः" इत्युक्त्वा सिद्धवन्दना कूत्या सर्वसावद्ययोग प्रत्याख्याय परमसमतास्वरूपसामायिकसंयम प्रपद्य कायोत्सर्गे तस्युः । यद्यपि स्तवप्रतिक्रमणक्रियाद्वयमेषां न दृश्यते, तथाप्यास चतुःक्रियास्वेव लीयते । अथवा पूर्वसंचितकर्मदोषाणां निर्जरणं निराकरणमेव प्रतिक्रमणमनंतसिद्धानां वंदनैव स्तवश्च भवति । भरतेश्वरो दोक्षामावायान्तर्मुहूर्तकाल एवासंख्यातवारं सप्तमषष्ठगुणस्थानयोरारोहणावरोहणं चकार, अनंतरं केवली बभूव । ततो दीक्षाकाले एव सर्वसावद्ययोगाद्विरतिः, तदेव सायधयोगनिराकरणप्रतिक्रमण भाविकाले सावद्ययोगत्यागरूपप्रत्याख्यान पंचपरमगुरुसाक्षिणो दोक्षाग्रणे स्तवो वंदनाच सर्वसत्वेषु जीवितमरणादिषु च परमसमतापरिणतिः सामायिक धर्म्यध्याने स्थितिः कायोत्सर्गश्चैताः षडावश्यकक्रियाः व्यवहारनयापेक्षाः संजाताः, तदानीमेव धर्म्यशुक्लध्यानयोः निश्चय
समाधान--आपने ठीक ही कहा है; फिर भी वृषभदेव आदि तीर्थकर महापुरुष दीक्षा के समय "सिद्धों को नमस्कार हो" ऐसा उच्चारण करके सिद्धवंदना करके, सर्व सावध योग-सदोष मन वचन काय की प्रवृत्ति को त्याग कर, परमसमतास्वरूप सामायिक संयम को प्राप्त कर, कायोत्सर्ग में स्थित हये थे । यद्यपि चतुर्विशति स्तव और प्रतिक्रमण ये दो क्रियायें इनके नहीं देखी जाती हैं, फिर भी ये उन चार क्रियाओं में ही अन्तर्भूत हो जाती हैं । अथवा पूर्व में संचित कर्मसमूह वे हो दोष उनकी निर्जरा करना उन्हें दूर करना हो प्रतिक्रमण है और अनंत सिद्धों की वंदना हो स्तव क्रिया है।
भरतेश्वर ने दीक्षा लेकर अंतर्मुहूर्त काल में ही असंख्यात बार सातवें छठे गुणस्थानों में चढ़ना-उतरना किया था। अनंतर केवली हुये थे। इसलिये दीक्षा के समय सर्वसावध योग से जो विरत होना है, वही सावध योग के निराकरण रूप से प्रतिक्रमण है। भावी काल में सावध योग का त्याग करता यह प्रत्याख्यान है । पंचपरमेष्ठी की साक्षीपूर्वक दीक्षा ग्रहण करने में स्तत्र और वंदना हो गयी तथा सभी प्राणीमात्र में और जीवन-मरण आदि में परमसमता परिणतिरूप सामायिक और धर्मध्यान में स्थिति होना यह कायोत्सर्ग, इस तरह ये छहों आवश्यक क्रियायें व्यवहारनय की अपेक्षा से हो चुकी हैं । उसो काल में धर्मध्यान और शुक्लध्यान में निश्चय क्रियायें भी परिपूर्ण हो चुकी हैं । उसी प्रकार से श्री बाहुबली के भी दीक्षा