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________________ ४४४ नियमसार-प्राभुत सत्यमेतत्-किंतु तस्य भगवतो महायोगिनाथस्य ध्यानमन्तर्मुहूर्तमेव, धर्मध्यानरूपेण मध्ये मध्येऽभवत्, तदतिरिक्तसमये धर्म्यध्यानस्य भावना संततिः चिन्ता वा मन्तध्या । उक्तं च स्वामिभिः "उत्तमसंहननस्यैकापचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥" तात्पर्यमेतत्--महामुनयः प्राक् स्वाध्यायदेववन्दनादिक्रियाभिः मूलोत्तरगुणनिष्णाताः भूत्वा पश्चा' याने स्थाधा स्वामाश्रितक्रियाः साधयेयुः ॥१५३।। एवं गाथाद्वयेनात्मवशमुनेः स्यरूपं प्रतिपाद्य, तदनु गाथाद्वयेन आवश्यकेन को लाभस्तदभावे का हानिरिति निरूप्य गाथाचतुष्टयन द्वितीयोऽन्तराधिकारो गतः। यदि ध्यानरुप शक्तिनं विद्युत, सहि किं कर्तव्यभित्ति प्रश्ने कथयन्ति गरिवर्या:जदि सक्कदि कादं जो, पडिकमणादि करेज्ज झाणमयं । सत्तिविहीणो जा जइ, सद्दहणं चेव कायव्वं ॥१५४॥ समाधान- आपका कहना सत्य है, किंतु उन भगवान् महायोगीश्वर का ध्यान अंतर्मुहूर्त ही था, जो कि धर्मध्यान रूप से मध्य-मध्य में होता रहता था। उससे अतिरिक्त समय में धर्मध्यान की भावना, संतति अथवा चितन मानना चाहिये । श्री उमास्वामी आचार्य ने कहा है__ "उत्तम संहनन धारी मुनि को एकाग्रचिता निरोधरूप ध्यान अंतर्मुहूर्त तक ही हो सकता है।" ___ तात्पर्य यह है कि महामुनि पहले स्वाध्याय, देववंदना आदि क्रियाओं द्वारा मुलगण और उत्तरगुण में निष्णात होवें । पश्चात् ध्यान में स्थित होकर अपने आश्रित क्रियाओं को सिद्ध कर लेवें ॥१५३॥ इस प्रकार दो गाथाओं द्वारा आत्मवश मुनि का स्वरूप प्रतिपादित करके, अनंतर दो गाथाओं द्वारा आवश्यक से क्या लाभ है ? उसके अभाव में क्या हानि है ? ऐसा निरूपण करके चार गाथाओं द्वारा यह दूसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ। यदि ध्यान की शक्ति न होवे तो क्या करना चाहिये ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव कहते हैं - अन्वयार्थ (जदि कादं सक्कदि जो पडिकमणादि झाणमयं करेज्ज) यदि १. सत्त्वार्थसूत्र, अ० ९, सूत्र २७ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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