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________________ नियमसार-प्राभृतम् तत्राज्ञानानि मिथ्यात्वसासादनद्वये गुणस्थाने, तृतीये च ज्ञानाज्ञानानि मिश्ररूपेण । मतितावधिज्ञानानि असंयतसम्यग्दृष्टेः आरभ्य क्षीणकषायावसानम । मनःपर्ययंतु कतिपयद्धिसंपन्नप्रवर्धमानचारित्राणां केषांचित् महामुनीनामेव । एषु ज्ञानेषु यद् भावश्रुतज्ञानं तदेव केवलज्ञानकारण, अवधिमनःपर्ययाभावेऽपि तेन तदुत्पत्तिसंभवात् । इति ज्ञात्वा द्रव्यश्रुतावलम्बनेन भावश्रुतज्ञानमेव प्रार्थनीयं भवत्तीत्यभिप्रायः। 'असंयत सम्यग्दृष्टि' गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक मतिज्ञान, श्रुतज्ञान राधिज्ञात सीनों जान पाये जाते हैं और मनःपर्ययज्ञान कुछ ऋद्धिसंपन्न, वृद्धिंगत चारित्र वाले किन्हीं-किन्हीं महामुनियों के ही होता है । __ इन ज्ञानों में जो भावश्रुतज्ञान है वही केवलज्ञान का कारण है, क्योंकि अवधि, मनःपर्ययज्ञान के न होने पर भी उस भावश्रुतज्ञान से केवलज्ञान की उत्पत्ति संभव है। ऐसा जानकर द्रव्यश्रुत के अवलंबन से भावश्रुत-ज्ञान की ही प्रार्थना करनी चाहिये, यहाँ यह अभिप्राय है । भावार्थ-यहाँ पर अध्यात्मभाषा में श्री कुन्दकुन्ददेव ने सम्यग्ज्ञान के चारों भेदों को विभाव ज्ञान कह दिया है, क्योंकि यहाँ विभाव से कर्मोपाधिसापेक्ष की ही विवक्षा है । यही कारण है कि मानस मतिज्ञान जो स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष होने से केवलज्ञान के लिये सहकारी कारण है और भावश्रुत-ज्ञान जो कि केवलज्ञान के लिये बीजभूत है, इनको भी विभावज्ञान कह दिया है। यहाँ टीका में यह स्पष्ट किया है कि भतिज्ञान सिद्धांत भाषा में परोक्ष है और न्यायग्रन्थों में इसे संव्यवहार प्रत्यक्ष माना है। तीन ज्ञान ही मिथ्यात्व के निमित्त से विपरीत परिणमन करके मिथ्याज्ञान हो जाते हैं। इस बात को उदाहरण देकर पुष्ट कर दिया है । यद्यपि ये चारों सम्यग्ज्ञान वीतराग छद्मस्थ महामुनियों के यथाख्यातचारित्र में भी पाये जाते हैं, फिर भी इन्द्रिय-मन आदि पर द्रव्य के अवलंबन से ही उत्पन्न होते हैं अतः विभावज्ञान कहे गये हैं। उस निर्विकल्प शुक्ल ध्यान में इन्द्रियों का व्यापार नहीं है फिर मन के अवलंबन से ही ध्यान की सिद्धि होती है। अतः बारहवें गुणस्थान तक अतीन्द्रियज्ञान नहीं है ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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