Book Title: Aarhati Drushti
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004411/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहती-दृष्टि समणी मंगलाजा S Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहती-दृष्टि Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्हती-दृष्टि [जैनदर्शन निबन्धावली] 833338888889980908 BRE 188 समणी मंगलप्रज्ञा Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (c) : आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान) अर्थ-सौजन्य : श्री दिलीप बैद दिलीप ट्रेडिंग कारपोरेशन . 618, महावीर नगर, टैंक रोड जयपुर-३०२ 018 प्रकाशक : कमलेश चतुर्वेदी, प्रबन्धक : आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान) मूल्य : पचासी रुपये, प्रथम संस्करण 1998, मुद्रक : आर के भारद्वाज लेजर एवं ऑफसेट प्रिंटर्स दिल्ली-११००३२ ARHATI DRISTI : by Samani Mangla Prajna . Rs. 85.00 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसंपदा - समणी मंगलप्रज्ञा की अध्ययन-रुचि, ग्रहणशीलता और भावाभिव्यक्ति की क्षमता ने जैन दर्शन के विविध पक्षों पर कार्य किया है / 'आहती-दृष्टि' उनकी पहली पुस्तक है। इसमें इक्यावन निबंध हैं / हर व्यक्ति में सत्य को खोजने और तथ्यों को संकलित करने की मनोवृत्ति होती है। पुराना लेखक बहुत खोज सकता है और नया कम, ऐसा कोई नियम नहीं है। नए लेखक भी अपनी प्रतिभा का उपयोग करते हैं और कुछ अनजाने तत्त्वों को जानकारी के क्षेत्र में ले जाते हैं। समणी मंगलप्रज्ञा ने काफी श्रम किया है / उनके श्रम की बूंदें पाठक के मन को भी अभिषिक्त कर पाएंगी, ऐसा विश्वास आचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती लाडनूं ( राजस्थान) 15 अप्रैल 1998 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीसंपदा जीवन की सार्थकता का एक सूत्र है-श्रुत की आराधना / श्रुत की आराधना करने वाला साधक यदि गहराई में पहुंचता है तो वह प्रह्लाद भाव को भी प्राप्त होता है और ज्ञान रत्न को भी उपलब्ध कर सकता है। प्राकृत श्लोक में कहा है जह-जह सुयमोगाहइ, अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं / तह-तह पल्हाइ मुणी, णव-णव संवेगसद्धाए / साधक जैसे-जैसे श्रुत का अवगाहन करता है, ज्ञान की गहराइयों में जाता है। वैसे-वैसे उसे अतिशय रस आता है और उसे आनन्द का अनुभव होता है। उसमें संवेग के नये-नये आयाम खुलते हैं और उसकी मानसिक प्रसन्नता अत्यधिक बढ़ जाती है। . परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री तुलसी और ज्योतिपुञ्ज आचार्य श्री महाप्रज्ञ के सान्निध्य और मार्गदर्शन में साधु-साध्वियाँ, समण-समणियां श्रुत की आराधना में आगे बढ़े हैं; बढ़ रहे हैं। समणी मंगलप्रज्ञाजी अध्ययनशील है, दर्शन का अध्ययन किया है, गहराई में पैठने का प्रयास भी किया है, इसका प्रमाण है—प्रस्तुत पुस्तक 'आर्हती-दृष्टि' / समणीजी को ऐसी अनेक पुस्तकें तैयार करने का लक्ष्य और यथोचित प्रयास रखना चाहिए ताकि उनका स्वयं का अध्ययन भी विकसित हो और वह अन्य अध्येताओं के लिए भी उपयोगी बने / विश्वास है, प्रस्तुत पुस्तक जैन-दर्शन के अध्येताओं को ज्ञान-खुराक देने में अर्ह सिद्ध होगी। युवाचार्य महाश्रमण भिक्षु-विहार जैन विश्व भारती, लाडनूं 26-8-98 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीसंपदा जैन-दर्शन एक वैज्ञानिक दर्शन है। इसकी वैज्ञानिकता असंदिग्ध है, क्योंकि इसका उत्स वीतराग वाणी है। वीतराग रागद्वेष के विजेता होते हैं, सत्य के साक्षात् द्रष्टा होते हैं और अनन्त शक्ति के स्वामी होते हैं। भगवान् महावीर इस युग के चौबीसवें तीर्थंकर हैं। उन्होंने साढ़े बारह वर्ष साधना कर सत्य का साक्षात्कार किया। उनकी वाणी जैन आगमों में संदृब्ध है। आचार्य श्री तुलसी और आचार्य श्री महाप्रज्ञ के सान्निध्य में जैन-आगमों के अध्ययन की वैज्ञानिक पद्धति विकसित हुई। उसके कारण अनेक साधु-साध्वियां जैन-दर्शन के गंभीर तत्त्वों को आधुनिक शैली में प्रस्तुति देने में सक्षम बने / समणी मंगलप्रज्ञाजी उनमें से एक हैं। उन्हें जैन विश्व भारती संस्थान, मान्य-विश्व-विद्यालय में अध्ययन अध्यापन करने का अवसर उपलब्ध हुआ। जैन विद्या परिषदों में संभागी बनने का भी मौका मिला। इन्होंने समय-समय पर आत्मा, सर्वज्ञता, नय-निक्षेप, अनेकांत, स्याद्वाद, लोकवाद, परिणामवाद, कर्मसिद्धान्त आदि विभिन्न विषयों पर अध्ययनपूर्वक अनेक लेख लिखे। 'आर्हती-दृष्टि' इसी प्रकार के चुने हुए लेखों का एक संकलन है। जैन-दर्शन के जिज्ञासु पाठकों के लिए प्रस्तुत कृति एक दर्पण बन सकती है। जो विषय प्रस्तुत पुस्तक में समाविष्ट नहीं हो सके हैं, उन पर भी लेखिका अपनी कलम चलाए और अपने लेखन को अधिक सशक्त एवं सुरुचिपूर्ण बनाएं, यही मंगलकामना साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा ऋषभद्वार लाडनूं 28 मार्च 1998, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका पाठकों के सम्मुख समणी मंगलप्रज्ञाजी की कृति 'आर्हती-दृष्टि' प्रस्तुत हो रही है। दृष्टि शब्द से सम्बद्ध अन्य दो शब्द हैं-द्रष्टा और दार्शनिक / द्रष्टा वह है जो सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार करले। दार्शनिक वह है जिसने अभी सम्पूर्ण सत्य को जाना नहीं है; जो सत्य के अनुसन्धान में लगा है / द्रष्टा ने सम्पूर्ण सत्य को जान लिया है अत: उसमें कोई ऊहापोह शेष नहीं रहा, वह निर्विकल्प एवं निर्विचार है / दार्शनिक सम्पूर्ण सत्य को जानने का दावा नहीं करता। वह अभी सत्य के अनुसन्धान में लगा है इसलिए ऊहापोह करता है; अनेक विकल्पों में से कौन-सा विकल्प ग्राह्य है, इसकी चिन्ता करता है। तर्क-वितर्क उसका उपकरण है / वह विचार के जगत् में जीता है; उसे चिन्तक की गरिमामयी संज्ञा से अभिहित किया जाता है। - समणी मंगलप्रज्ञाजी द्रष्टुत्व को प्राप्त करने की प्रक्रिया में तो हैं किन्तु उनकी वर्तमान भूमिका द्रष्टा की नहीं, दार्शनिक की है। उनकी प्रस्तुत कृति में हम सम्पूर्ण सत्य के अभिव्यक्त होने की आशा नहीं कर सकते किन्तु सत्य के प्रति एक सुविचारित दृष्टि की अपेक्षा अवश्य की जा सकती है। यह सुविचारित दृष्टि अर्हत् अर्थात् द्रष्टा के साथ जुड़कर प्रामाणिकता को प्राप्त हो जाती है, इसलिए ही प्रस्तुत कृति का नामकरण 'आर्हती-दृष्टि' हुआ है। समस्त भारतीय दार्शनिकों की यह विशेषता रही है कि वे द्रष्टा द्वारा प्रतिपादित सम्पूर्ण सत्य की मर्यादाओं के अन्तर्गत ही ऊहापोह, तर्क-वितर्क और सङ्कल्प-विकल्प की अठखेलियां करते हैं। तर्क दुधारी तलवार है; वह आगम के विरुद्ध भी जा सकती है और आगम के पक्ष में भी। भारतीय दार्शनिक इस सम्बन्ध में पूर्णत: सावधान है कि उसका तर्क आगमानुकूल हो, आगम विरुद्ध नहीं। श्रुतिमतस्तर्कोऽनुसन्धीयताम्' / समणी मंगलप्रज्ञाजी ने भी अपनी इस कृति में इसी भारतीय परम्परा का अनुकरण किया है। - पश्चिम के कुछ विचारक, और उनका अनुकरण करने वाले कुछ भारतीय भी, यह आरोप लगाते रहे हैं कि भारतीय-दर्शन धर्म का पिछलग्गू है क्योंकि यहां का दार्शनिकं आगमोक्त सत्य को अन्तिम सत्य मानकर चलता है। आपातत: यह आरोप सत्य प्रतीत होता है किन्तु गम्भीरता से देखें तो इस आरोप का खोखलापन दो आयामों में स्पष्ट हो जाता है। प्रथमत: देश काल के अनुसार परिस्थितियों के बदल जाने पर Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 / आर्हती-दृष्टि भी मनुष्य स्वभाव की कुछ ऐसी मूलभूत प्रवृत्तियां हैं जो बदलती नहीं; उन प्रवृत्तियों से सम्बद्ध समस्याएं और समाधान शाश्वत हैं। आगम उन्हीं शाश्वत समाधानों का प्रतिनिधि है / तर्क के आधार पर इन समाधानों के साथ छेड़छाड़ करना मानव-कल्याण के साथ खिलवाड़ करना है। भारतीय दार्शनिक तर्क की नौका को विचार की सरिता में खेते समय श्रद्धा की पतवार कभी नहीं छोड़ता और इसलिए उसकी नौका एक दिन उस तट पर आ लगती है जिसे मुक्ति कहा जाता है और जहां स्वयं तर्क की नौका भी अनावश्यक हो जाती है / जीवन के शाश्वत मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता के अभाव में दार्शनिक का तर्क-वितर्क केवल वागविलास या वाक्छल ही होकर रह जाता है ।समणी मंगलप्रज्ञाजी की कृति में मोक्ष की प्रबल इच्छा प्रतिबिम्बित होती है, वाग्विलास की बाल चपलता नहीं। आस्था के बिना तर्क-वितर्क मनोरञ्जन भले ही कर दे, लेकिन जीवन को कोई निश्चित दिशा नहीं दे पाता। भारतीय परम्परा में जैन, बौद्ध अथवा वैदिक, किसी भी सम्प्रदाय के दार्शनिक क्यों न रहे हों, उन्होंने हजारों-हजारों साधकों को दिशा दी है। पश्चिम का दार्शनिक यह नहीं कर पाया। जैन-दर्शन की एक विशेषता है कि वह किसी दृष्टि को एक दृष्टिकोण ही मानता है, सम्पूर्ण सत्य का प्रतिनिधि नहीं। इसलिए उसके लिए दृष्टि की विभिन्नता अथवा दृष्टि का पारस्परिक विरोध भी कोई समस्या उत्पन्न नहीं करता प्रत्युत सत्य के वृहद् से वृहत्तर रूप को उजार करने का माध्यम बनने के कारण अभिनन्दनीय ही सिद्ध होता है। अनेकान्त का यह दृष्टिकोण अन्त में दार्शनिकता को'द्रष्टत्व में परिणत कर देता है। यदि सम्पूर्ण समुद्र को दृष्टि से ओझल नहीं किया जाये तो समुद्र जल की एक बँद सम्पूर्ण समुद्र के जल के स्वाद से हमें परिचित करवा सकती है। जैन आचार्य 'कथञ्चित्' के पक्षपाती रहे हैं, 'सर्वथा' का उन्होंने सर्वदा विरोध किया है परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु सव्वहा वयणा। जेणाणं पुण वयणं सम्मं खु कहंचि वयणादो। समणी मंगलप्रज्ञाजी ने 'आर्हती-दृष्टि' में अनेक विचारोत्तेजक प्रश्न उठाये हैं। उनका प्रथम लेख ही यह प्रश्न उपस्थित करता है कि जड़ और चेतन में परस्पर सम्बन्ध कैसे स्थापित होता है ? प्रश्न रोचक है किन्तु ऐसा नहीं है कि इसका उत्तर इदमित्थन्त्रया दिया जा सके। जैन आचार्य अनेकान्त पर आधृत भेदाभेदवाद का आश्रय लेकर प्रश्न का उत्तर देना चाहते हैं। बहुश्रुत लेखिका ने अन्य दर्शनों के भी समाधानों की ओर लेख में इङ्गित किया है / लेख में केवल सङ्कलन नहीं है, मौलिकता भी है, उदाहरणत: Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा गया है कि पुद्गल का आकर्षण सेन्टरी पीटल है और आत्मा का आकर्षण सेन्टरी फ्यूगल है / परम्परागत बहिर् आत्मन् और अन्तर् आत्मन् को विज्ञान की सेन्टरी पीटल और सेन्टरी फ्यूगल संज्ञाओं से अभिहित करना लेखिका की अपनी मौलिक सूझबूझ का परिणाम है। इसपर भी यह नहीं कहा जा सकता कि प्रश्न का अन्तिम समाधान लेख में हो गया है ।दार्शनिक का काम अन्तिम समाधान देना है भी नहीं, उसका इष्ट देवता 'प्रश्न' है, 'उत्तर' नहीं / प्रश्न को ठीक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर देना उसका प्रथम कर्तव्य है, उत्तर की खोज तो निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। संस्कृत का 'क' शब्द प्रश्नवाचक भी है और परम तत्त्व का वाचक भी। ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम' के दोनों अर्थ हैं--यह प्रश्न भी है कि हम किस तत्त्व की उपासना करें और उत्तर भी है कि हम परम-तत्त्व की उपासना करें / परम-तत्त्व क्योंकि सदा ही रहस्यमय बना रहता है इसलिए उसका 'क' नाम सार्थक है / प्रस्तुत कृति में इस 'क' देवता की ही उपासना है। इस 'क' देवता की उपासना में ही आनन्द निहित है। ____ प्रस्तुत कृति में जो प्रश्न उठाये गये हैं, उनमें से अधिकतर पुराने हैं किन्तु कुछ प्रश्न नितान्त नवीन भी हैं, उदाहरणत: आत्मा के वजन का प्रश्न / कुछ विषय तो पुराने हैं किन्तु उन्हें नवीन परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न किया गया है, उदाहरणत: परम्परागत दस संज्ञाओं को आधुनिक मनोविज्ञान के संदर्भ में देखा गया है / कुछ लेखों में प्राचीन सामग्री को नया रूप दे दिया गया है, जैसा कि जैन व्याख्या पद्धति विषयक लेख में देखने को मिलता है / तुलनात्मक अध्ययन का पुट सभी लेखों में है किन्तु कुछ लेख शुद्ध रूप से तुलनात्मक ही हैं, जैसे 'विभिन्न भारतीय दर्शनों में आश्रव' / अनेकान्त सम्बन्धी पांच छह लेखों में अनेकान्त का सैद्धान्तिक स्वरुप तो स्पष्ट किया ही गया है, व्यावहारिक रूप भी बताया गया है। सभी प्रकार के दार्शनिक प्रश्नों से जूझते समय लेखिका के अवचेतन मन में आधुनिक पाठक के मन में उठने वाले सन्देह छाये रहे हैं और वह उन प्रश्नों का समाधान केवल परम्परागत शास्त्रीय पद्धति से करके ही सन्तुष्ट नहीं होती है अपितु पाश्चात्य विचारकों के विचारों का भी उपयोग करती हैं। आत्मा का अस्तित्व एवं पुनर्जन्म के प्रश्न कुछ उसी प्रकार के प्रश्न हैं / प्राचीन काल के लेखक इन अवधारणाओं को मानकर चलते थे, इनकी सिद्धि का विशेष प्रयल नहीं करते थे, किन्तु आज का पाठक शायद कुछ भी मानकर चलने को तैयार नहीं है। इसलिए पुनर्जन्म जैसी अवधारणा भी प्रमाण की अपेक्षा रखती है। अनेक स्थलों पर लेखिका की प्रतिपादन शैली सहज ही पाठक को बाँध लेती Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 / आईती-दृष्टि है, उदाहरणत: ‘जैन योग में अनुप्रेक्षा' नामक लेख के प्रारम्भिक कुछ वाक्य लें-'यह संसार शब्द एवं अर्थमय है। शब्द अर्थ के बोधक होते हैं। अर्थ व्यङ्गय एवं शब्द व्यञ्जक होता है। साधना के क्षेत्र में शब्द एवं अर्थ दोनों का ही उपयोग होता है। साधक शब्द के माध्यम से अर्थ तक पहुंचता है तथा अन्तत: अर्थ के साथ उसका तादात्म्य स्थापित हो जाता है। अर्थ से तादात्म्य स्थापित होने से ध्येय, ध्यान एवं ध्याता का वैविध्य समाप्त होकर उनमें एकत्व हो जाता है / उस एकत्व की अनुभूति में योग परिपूर्णता को प्राप्त होता है। इसी प्रकार सम्यक् दर्शन के महत्त्व को प्रतिपादित करने के लिए लेखिका द्वारा यह उद्धरण दिया जाना पाठक के मन पर गहरी छाप छोड़ता है भ्रष्टेनापि च चारित्राद् दर्शनमिह दृढ़तरं ग्रहीतव्यं / सिध्यन्ति चरणरहिता दर्शनरहिता न सिध्यन्ति / ऐसा प्रतीत होता है कि जैन दर्शन के इतिहास में अनेक पड़ाव ऐसे आये जब जैन दर्शन ने किन्हीं चुनौतियों का सामना करने के लिए नया मोड़ लिया। सूत्रयुग की चुनौतियों को तत्त्वार्थसूत्र ने झेला ।प्रमाण-युग की चुनौतियों का न्यायावतार और आप्तमीमांसा ने सामना किया। अध्यात्म-प्रधान स्वर को कुन्द-कुन्द ने मुखरित किया। चारित्र की शिथिलता का मुकाबला आचार्य भिक्षु ने किया। आज के युग में दो नई चुनौतियां जैन दर्शन के सामने हैं-एक पाश्चात्य चिन्तन एवं दूसरा विज्ञान / समणी मंगलप्रज्ञाजी ने अपने लेखों में इन दोनों चुनौतियों को अपने सामने रखते हुये विचार-विमर्श किया है। आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करते समय उन्होंने न केवल पाश्चात्य दार्शनिकों का मत अपितु वैज्ञानिकों का मत भी दिया है ।पुनर्जन्म के सम्बन्ध में प्रोटो-प्लाज्मा का उल्लेख अत्यन्त रोचक एवं ज्ञानवर्धक है। नन्दी के कथन 'अक्खरस्स अणंततमो भागो निच्चुघाडिओ हवई' का Cosmological Freedom के साथ सम्बन्ध स्थापित करना लेखिका की बहुश्रुतता का परिचायक है / इसी प्रकार 'द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा' के संदर्भ में लेखिका ने न केवल जैनेतर भारतीय दर्शन का अपितु पाश्चात्य दर्शनों का भी मत बहुलतया उद्धृत किया है / परिणामवाद के प्रसंग में Philosophy of being तथा Philosophy of becoming का उल्लेख सर्वथा प्रासङ्गिक है / जैन लोकवाद के सिद्धान्त की डार्विन के विकासवाद से तुलना भी लोकवाद और विकासवाद के अध्येताओं के लिए ज्ञानवर्धक सिद्ध होगी। ज्ञान के पाँच प्रकारों का साङ्गोपाङ्ग वर्णन जैन ज्ञान-मीमांसा के अध्येताओं के लिए प्रामाणिक Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढंग से विपुल सामग्री प्रस्तुत करता है / मल्लवादी के द्वादशार नयचक्र सम्बन्धी लेख में लेखिका ने अल्प परिचित विषय की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। भारतीय दर्शनों का वस्तुवादी एवं प्रत्ययवादी दर्शनों के रूप में विभाजन सभी दर्शनों की समझ को बढ़ाने वाला है। प्रसङ्गवश मिथ्यात्वी की करणी से निर्जरा होने का सिद्धान्त भी आया है जो लेखिका के परम आराध्य आचार्य भिक्षु का योगदान है। दृष्टिवाद के अन्तर्गत उत्कालिक सूत्र के शब्दार्थ का विश्लेषण करते हुये लेखिका ने कहा है कि इस सूत्र में अन्य दर्शनों का वर्णन था; 'अन्य दार्शनिक जिस किसी भी समय चर्चा के लिए आ जाते थे अत: उसका समय निश्चित नहीं था, अत: वह उत्कालिक सूत्र के रूप में परिगणित था।' इन सब प्रसङ्गों से लेखिका की बहुश्रुतता, दार्शनिक विषयों के उपस्थापित करने की क्षमता और मौलिक सूझ-बूझ परिलक्षित होती है। लेखिका एक समणी हैं / उनका गुरु के प्रति सर्वतोभावेन समर्पणभाव है / तेरापंथ के नवम आचार्य श्री तुलसी और वर्तमान दशम आचार्य श्री महाप्रज्ञ की देखरेख में उनकी शिक्षा-दीक्षा हुयी है। इन दोनों आचार्यों ने अपने आचार्य नाम को अन्वर्थक बनाते हुये संघ में पूर्ण शक्ति से आचार का प्रवर्तन किया। जैन-परम्परा में आचार शब्द इतना व्यापक है कि उसके अन्तर्गत दर्शन, चरित्र,तप एवं वीर्य के साथ ज्ञान भी समाविष्ट हो जाता है। प्रस्तुत कृति ज्ञानाचार की आराधना का अभिनव फल है / मैं व्यक्तिगतरूप से भी लेखिका की साधना का साक्षी रहा हूं और इस आधार पर कह सकता हूं कि उनकी साधना के परिणाम स्वरूप और भी अधिक सरस, सुस्वादु तथा सुगन्धित फल हमें प्राप्त होने वाले हैं। उनके नाम में पड़ा मंगल शब्द उनकी साधना के समस्त विघ्नों का नाश करेगा, इसी आशा सहित, . दुर्गाष्टमी, विक्रम सम्वत 2055 डॉ. दयानन्द भार्गव विभागाध्यक्ष, जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म, दर्शन विभाग जैन विश्व भारती संस्थान, ( मान्य-विश्व-विद्यालय) लाडनूं Page #17 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अस्तित्व की जिज्ञासा के साथ दर्शन का जन्म होता है। जीव एवं जगत् के अस्तित्व को जानने/समझने की मनोवृत्ति ने दर्शन जगत् में विभिन्न आयामों का उद्घाटन किया है। आचारांगसूत्र 'मैं कौन हूं?, कहां से आया हूं? इस अस्तित्व की जिज्ञासा से ही प्रारम्भ होता है। द्रष्टा पुरुषों ने आत्मदर्शन की प्रक्रिया के द्वारा इस जिज्ञासा को समाहित किया। आगम युग में आत्म-साक्षात्कारकर्ता ऋषि उपस्थित थे। उन्होंने साधना के द्वारा वस्तु सत्य का साक्षात्कार किया तथा स्याद्वाद मर्यादित वाणी से उसको अभिव्यक्त किया। जब तक आत्मद्रष्टा ऋषि उपस्थित थे तब तक वस्तु सत्य के निरुपण के लिए हेतुवाद' के उपयोग की आवश्यकता नहीं थी। ऋषि युग में हेतु नहीं था ऐसा तो नहीं कहा जा सकता किन्तु उसके प्रयोग का क्षेत्र सीमित था, यह निर्विवाद स्वीकृति है। समय बदला। साक्षात् द्रष्टा ऋषि परम्परा विच्छिन्न हो गयी। तब सत्य प्राप्ति का साधन हेतु बना ।आगमयुग में सत्य बोध का साधन ऋषियों का साधना बल था। दर्शन-युग में वह स्थान तर्क एवं हेतु को प्राप्त हो गया। आगम युग में प्राप्त सत्यों को प्रमाण एवं तर्क के द्वारा सुरक्षित रखने का प्रयल किया गया। जिस सत्य का अन्वेषण ऋषियों ने किया था, तर्कग में उसे हेत की कसौटी पर कसने का प्रयल हुआ। सभी भारतीय दार्शनिक परम्पराओं का प्रवेश प्रमाण के क्षेत्र में हुआ। जैन परम्परा भी इससे अछूती नहीं रही।यद्यपि यह सत्य है कि प्रमाण युग में जैन तार्किकों का प्रवेश अन्य तार्किकों की अपेक्षा बाद में हुआ। जैन दार्शनिक, प्रमाणयुग में प्रवेश करके अपने समकालीन चिंतकों की श्रेणी में तो प्रविष्ट हो गये किन्तु आगमयुग में प्राप्त सत्यों को यथावत् सुरक्षित नहीं रख सकें, अपितु यों भी कहा जा सकता है कि आगम की बहुत-सी मौलिक प्रस्थापनाएं उनके हाथ से निकल गयी। . ___ आगम के आलोक में दर्शन की प्रस्तुति आज के युग की अनिवार्य अपेक्षा है। आचार्यश्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ इस अपेक्षा को अनेक बार अभिव्यक्त कर चुके हैं। आगम का दर्शन महत्त्वपूर्ण है, वर्तमान युग में उसकी प्रस्तुति की अपेक्षा है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी अहर्निश इस दिशा में प्रयलशील है। वर्षों से आगम Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 / आर्हती-दृष्टि शोध/ संपादन के कार्य में निरत उनकी अन्तःप्रज्ञा नित्य नवीन तथ्यों को उद्घाटित करने में समर्थ है। गुरुदेव श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के अथक परिश्रम से जैनागमों का पुनरुद्धार हुआ है एवं हो रहा है। गुरुदेव श्री तुलसी ने अनेक बार कहा-आज जैन विद्या के गम्भीर विद्वानों की आवश्यकता है / उनका निमण किया जाये, यह वर्तमान युग की महती आवश्यकता है। अपने इस चिन्तन की 'क्रयान्विति के लिए उन्होंने अपने जीवन काल में सघन प्रयल किये। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी उनके हर चिन्तन एवं क्रियान्वयन में अनन्य सहयोगी बने रहे। ___ जैन विद्या का सघन प्रशिक्षण दिया जाये इस दिशा में वर्षों से प्रयल चल ही रहे थे। एक बार लाडनूं में 1986 में आचार्यश्री तुलसी के सान्निध्य एवं तत्कालीन युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के निर्देशन में विधिवत् स्नातकोत्तर स्तर के पाठ्यक्रम का निर्धारण हुआ। प्रारम्भ में कुछ व्यक्तियों को उस पाठ्यक्रम के अध्ययन के लिए चयनित किया गया। उस अध्ययन प्रक्रिया में मुझे भी योजित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अध्ययन के लिए आठ पेपर निर्धारित हुये। पाठ्यक्रम मुख्यत: आगम एवं आगम के निकटवर्ती ग्रंथों के आधार पर निर्मित हुआ, जिसमें जैन दर्शन की अनेक नवीन एवं मुख्य अवधारणाओं का समावेश हुआ। पाठ्यक्रम निर्माण के साथ ही उसके अध्ययन का मुख्य दायित्व परमपूज्य आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी पर था। मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि आठ में से चार पेपर का अध्ययन पूज्य आचार्यवर ने करवाया था। दो-दो पेपर के अध्यापन का दायित्व अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त डॉ. नथमल टाटिया एवं विश्रुत विद्वान् डॉ. दयानन्द भार्गव ने बड़ी ही निष्ठा के साथ वहन किया था ।इस अध्ययन काल में वाचन के साथ-साथ विद्यार्थी को लेखन के लिए प्रोत्साहित किया जाता / सप्ताह अथवा पन्द्रह दिन में विद्यार्थी को अपने पाठ्य विषय पर कुछ लिखना आवश्यक होता था। पन्द्रह दिन में गुरुदेव के सानिध्य में संगोष्ठी होती थी, जिसमें सभी विद्यार्थियों को अपना लिखित वक्तव्य प्रस्तुत करना होता था। यह क्रम गुरुदेव के लाडनूं प्रवास में प्राय: चलता रहा, जिससे विद्यार्थियों की लेखन के प्रति अभिरुचि बनी रही, तत्पश्चात् परीक्षा के लक्ष्य से भी उस विषय से सम्बन्धित लेखन का क्रम निरन्तर चलता रहा ।समणश्रेणी के बारह वर्ष की सम्पन्नता पर एक चिंतन उभरा कि इस अवसर पर पूज्य गुरुदेव के श्री चरणों में कोई रचनात्मक उपहति प्रस्तुत की जाये। क्रियान्वयन के फलस्वरुप उस समय मैंने भी जैन दर्शन से सम्बन्धित लेखों का संग्रह 'अर्पणा' नाम से गुरुदेव के श्रीचरणों में उपहृत किया। उसीका संवर्धित एवं र Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिष्कृत रूप प्रस्तुत पुस्तक 'आहती- दृष्टि' है। / विभिन्न कालखण्डों में लिखित इन निबंधों को पुस्तक रूप देने की न कल्पना थी न ही ऐसा लक्ष्य था, किंतु एक संयोग मिला और वे लेख पुस्तकाकार में प्रस्तुत हैं। प्रस्तुत कृति में द्रव्य-मीमांसा, अनेकान्त, ध्यान, अनुप्रेक्षा, स्याद्वाद, नय, निक्षेप एवं ज्ञान-मीमांसा आदि विषयों से सम्बद्ध लेख समाविष्ट है। प्रस्तुत प्रयास दर्शन की जिज्ञासा को संवर्धित करने में सहयोगी बन सके, यही मेरे श्रम की सार्थकता है। आभार-प्रस्तुति - आस्था के अमिटधाम परमश्रद्धेय पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी शक्ति के महापुञ्ज थे। उनके कण-कण से ऊर्जा का ऊर्जस्वल प्रवाह सतत प्रवाहित था। उनकी अमियपगी सन्निधि में आगम-अमृत का निर्झर अविरल गतिशील था। उस आलोकपुञ्ज की अमृत-सन्निधि में रहने एवं गुरुदेव के श्रीमुख से अनेक ग्रंथों की वाचना प्राप्त करने का अपूर्व सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। उस दिव्यात्मा के प्रति शाब्दिक कृतज्ञता ज्ञापित , कर उपचार निभाना नहीं चाहती अपितु उनसे प्राप्त प्रेरणा के आधार पर अध्यात्म एवं ज्ञान के क्षेत्र में निरन्तर प्रयत्नशील बनी रहं, यही हार्दिक अभीप्सा है। .अध्यात्म एवं दर्शन के शिखर पुरुष, श्रद्धा और समर्पण के महासुमेरु प्रज्ञा-पुरुष आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का प्रज्ञा आलोक सम्प्रति जन-जन में शांति एवं चित्त समाधि का अभिनव प्रसाद वितरित कर रहा है। आपका आगम, अध्यात्म एवं दर्शन का गहनगम्भीर ज्ञान उस दिशा में प्रस्थान करने वालों के लिए आलोक-स्तम्भ है / अपने शिष्य समुदाय को विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञता प्राप्त करवाने के लिए आप कृत-संकल्प हैं। आपके सागरवरगंभीरा एवं चंदेसु निम्मलयरा जैसे उदात्त प्रभास्वर व्यक्तित्व के * प्रज्ञामण्डल में बैठकर अध्यात्म एवं दर्शन के अमृत-कण बटोरने का अनमोल अवसर मुझे प्राप्त हुआ है / यह अवसर मुझे सतत उपलब्ध होता रहे एवं आपश्री के मंगल आशीर्वाद से मैं सतत. विकास के मार्ग पर गतिशील बनी रहूं, यही कामना है। . तेरापंथ धर्मसंघ के नवोदित सूर्य परमपूज्य युवाचार्यश्री महाश्रमणजी अध्यात्म शक्ति के प्रतीक हैं। उनके अध्यात्मोन्मुखी व्यक्तित्व से अध्यात्म की प्रखर प्रेरणा स्वत: स्फूर्त है / उनका प्रसन्न एवं प्रशांत आभावलय साधक में अभिनव उल्लास का संचार कर देता है / आपसे प्राप्त प्रेरणा जीवन विकास का पाथेय बनती रहे, यह काम्य है। / परमश्रद्धेया संघ महानिदेशिका महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी साध्वी समाज का गौरव है। आपके महिमा मण्डित व्यक्तित्व एवं नेतृत्व ने साध्वी समाज कों / गरिमापूर्ण ऊंचाइयां प्रदान की है। संघ के हर सदस्य के प्रति आपका वात्सल्यपूर्ण Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20/ आर्हती-दृष्टि व्यवहार उसमें विकास के अभिनव स्पन्दन प्रस्फुटित करता है / आप द्वारा प्रेरणा-पाथेय प्राप्त कर निरन्तर प्रगति के पथ पर बढ़ती रहूं, यह मेरा अभिलषित है। प्रस्तुत पुस्तक 'आर्हती-दृष्टि' परम पूज्य आचार्यवर के चरणों में बैठकर जो कुछ सीखा, उसकी प्रतिध्वनिमात्र है / 'तेरा तुझको सौंपते क्या लागत है मोय' की अभिव्यक्ति मेरा समर्पण सूत्र है। इसमें जो कुछ श्रेय है वह इस अध्यात्म-चतुष्ट्यी का है। मैं इनके प्रति कृतज्ञता का उपचार निभाना नहीं चाहती अपितु इनका अनुशासन, आशीर्वाद, वात्सल्य एवं प्रेरणा मेरे सृजन कर्म को संवर्धित करने में निमित्त बने, यही हार्दिक आकांक्षा है। जैन-विश्व-भारती के शान्त, स्वच्छ, आध्यात्मिक परिसर में समणी नियोजिका जी एवं सभी समणीजी का सहज, आत्मीय सहकार प्राप्त कर आन्तरिक प्रसन्नता की अनुभूति होती है। ___ इस पुस्तक के निरीक्षण एवं परीक्षण में जैन दर्शन एवं वेद-विज्ञान के लब्धप्रतिष्ठ एवं ख्यातनामा विद्वान् आदरणीय डॉ. दयानन्द भार्गव का अमूल्य मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। उन्होंने इस पुस्तक की भूमिका लेखन में अपने अमूल्य क्षणों का नियोजन करके प्रस्तुत कृति की मूल्यवत्ता को वृद्धिंगत किया है। इसके लिए उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ / जिनका भी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष में सहकार प्राप्त हुआ है, उन सभी के प्रति विनम्र कृतज्ञ प्रणति / मैं निरन्तर इस क्षेत्र में गति करती रहूँ, इसी मंगल एवं शुभकामना के साथ समणी मंगलप्रज्ञा गौतम ज्ञानशाला जैन विश्व भारती लाडनूं 5 अप्रेल 1998 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका 1. जीव और शरीर के सम्बन्ध सेतु 2. आत्म-मीमांसा. 3. आत्मा एवं पुनर्जन्म 4. आत्मा का वजन 5. आत्मा की देह परिमितता 6. जीव की पहचान 7. जीव और जीवात्मा अर्हत् की सर्वज्ञता 9. विचयध्यान और अनुप्रेक्षा 10. जैनयोग में अनुप्रेक्षा 11. धुताध्ययन : एक परिशीलन 12. सम्यग् दर्शन : स्वरूप विमर्श 13. द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा 14. गुण पर्याय भेद या अभेद 15. परिणामवाद 16. तत्त्ववाद के क्षेत्र में जैन दर्शन की मौलिक देन 17. द्रव्यार्थिक, एवं पर्यायार्थिक नय 18. व्यञ्जनपर्याय और अर्थपर्याय 19. द्वादशार नयचक्र में नय का विश्लेषण 20. निक्षेपवाद 21. सत्य व्याख्या का द्वार : अनेकान्त 22. अनेकान्त का तात्त्विक एवं तार्किक आधार 23. समाज व्यवस्था में अनेकान्त 24. अनेकान्त की सर्वव्यापकता 25. विभज्यवाद 26. स्याद्वाद Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 187 195 217 221 234 22 / आर्हती-दृष्टि 27. चतुर्विध सत् की अवधारणा 28. भगवती के सन्दर्भ में सप्तभंगी 29. लोकवाद : विकास का सिद्धांत 30. जैन व्याख्या पद्धति : एक अनुशीलन 31. काल स्वभावादि पंचक 32. कर्म सिद्धान्त और क्षायोपशमिक भाव 33. विभिन्न भारतीय दर्शनों में आश्रव 34. नव तत्त्व : उपयोगितावाद 35. विशेषावश्यक भाष्य : एक परिचय . 36. ज्ञान स्वरूप विमर्श 37. जैनज्ञान मीमांसा का विकास 38. मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान 39. अवधिज्ञान 40. मन : पर्यवज्ञान 41. केवलज्ञान 42. मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान की भेदरेखा 43. इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रक्रिया : जैन एवं बौद्ध परम्परा 44. श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित उत्पत्ति एवं विकास , 45. श्रुतानुसारी अश्रुतानुसारी की अवधारणा 46. कालिक एवं उत्कालिक सूत्र 47. धारावाहिक ज्ञान : प्रामाण्य एक चिन्तन 48. प्रामाण्य स्वत: या परत: 49. शरीर में अतीन्द्रिय ज्ञान के स्थान 50. मनोविज्ञान के सन्दर्भ में दस संज्ञाएं 51. परोक्ष प्रमाण की प्रामाणिकता * संदर्भ ग्रन्थ सूची 253 264 285 296 310 225 339 344 348 354 361 366 378 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव और शरीर के सम्बन्ध सेतु विश्व-प्रहेलिका को सुलझाने का प्रयत्न सभी दार्शनिकों ने किया है। जगत् की व्याख्या सभी ने अपनी दृष्टि से भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। सभी के सामने यह प्रमुख समस्या थी कि इस जगत् का नियामक तत्त्व क्या है ? जगत् का सम्पूर्ण प्रपंच एक तत्त्व का विस्तार है अथवा अनेक तत्त्वों की समन्विति है। द्वैतवादी और अद्वैतवादी विचारधारा ___ विश्व-व्याख्या के संदर्भ में दो प्रकार की विचारधाराओं का प्रस्फुटन हुआद्वैतवादी और अद्वैतवादी ।अद्वैतवादियों ने एक तत्त्व के आधार पर विश्व-व्याख्या प्रस्तुत की। द्वैतवाद ने दो तत्त्वों को विश्व व्याख्या में आधारभूत बनाया। अद्वैतवाद में भूताद्वैत तथा चैतन्याद्वैत प्रसिद्ध है / भूताद्वैतवादियों के अनुसार यह जगत् जड़ द्रव्य से पैदा हुआ है। जड़ से भिन्न किसी चेतन नामक द्रव्य का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। चेतन की उत्पत्ति जड़ से ही हुई है / चेतनाद्वैतवाद में कहा है-सम्पूर्ण जगत् चेतनामय है। चेतन भिन्न जड़ का कोई अस्तित्व नहीं है / चेतनाद्वैत (ब्रह्माद्वैत) में वेदान्त तथा भूताद्वैत (जड़ाद्वैत) में चार्वाक का शीर्षस्थ स्थान है। द्वैतवाद की जगत् व्याख्या दो तत्त्वों की फलश्रुति है / उनके अनुसार यह दृश्यमान चराचर जगत न केवल जड़ से पैदा हआ है और न ही चेतन से / चेतन तथा जड़ की समन्विति से ही यह जगत है। चेतन जड़ को पैदा नहीं कर सकता। अचेतन चेतन का उत्पत्तिकारक नहीं है / दोनों का स्वतः स्वतन्त्र अस्तित्व है। इन दोनों के योग से सृष्टि का जन्म होता है / यह द्वैतवाद की अवधारणा है। विजातीय तत्त्वों के सम्बन्ध की समस्या - अद्वैतवाद के सामने सम्बन्ध की समस्या नहीं थी यद्यपि ब्रह्म (चेतन) से जड़ अथवा जड़ से चेतन की उत्पत्ति कैसे हुई यह समस्या उनके सामने थी परन्तु दो विसदृश तत्त्वों का योग कैसे हुआ यह कठिनाई उनके समक्ष नहीं थी / द्वैतवादी दर्शनों को इस समस्या से जूझना पड़ा। दो विसदृश पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध कैसे हो सकता है, इसका समाधान देना उनके लिए आवश्यक हो गया था ।सांख्य प्रकृति एवं / पुरुष ये दो तत्त्व मानता है। पुरुष अमूर्त, अकर्ता है। सांख्य दर्शन के अनुसार बंध Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 / आर्हती-दृष्टि एवं मोक्ष पुरुष के नहीं होते हैं / उनके अनुसार प्रकृति ही बंधती है और वही मुक्त होती है। 'प्रकृतिरेव नानापुरुषाश्रया सती बध्यते संसरति मुच्यते च न पुरुष इति / उसने विसदृश पदार्थों का सम्बन्ध करवाये बिना ही संसार की व्याख्या की। विकास का पूरा भार प्रकृति पर ही डाल दिया। जो कार्य चेतन द्रव्य को करना था वह कार्य बुद्धि से करवाया। पुरुष को सर्वथा अमूर्त मान लेने के कारण ही बुद्धि को उभय मुखाकार दर्पण की उपमा से उपमित किया गया। विज्ञानवादी बौद्ध ने इस प्रश्न को ही टाल दिया। उसने कहा—विज्ञान ही सत् है / बाह्य पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं है / अतः उनकी सम्बन्ध की चर्चा ही अनावश्यक है। भगवान् बुद्ध से भी प्रश्न पूछा गया-आत्मा और शरीर में भेद है या अभेद? उन्होंने आत्मा और शरीर में सर्वथा न भेद को स्वीकार किया न ही अभेद को। उन्होंने कहा-शरीर और आत्मा में सर्वथा भेद या अभेद मानने से ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं है / अतः मैं मध्यम मार्ग का उपदेश देता हूं। नैयायिक एवं वैशेषिक भी द्वैतवादी दार्शनिक हैं। उनके यहां भी परमाणु तथा चेतन—ये दोनों भिन्न तत्त्व हैं / जगत् के उपादान कारण ये ही हैं। इनका सम्बन्ध ईश्वरीय शक्ति के द्वारा होता है / इनको इन दोनों में सम्बन्ध करवाने के लिए निमित्त कारण के रूप में ईश्वर को स्वीकार करना पड़ा। . पाश्चात्य मत भारतीय दार्शनिकों के समक्ष ही यह समस्या नहीं थी, पाश्चात्य दार्शनिक भी आत्मा और शरीर में क्या सम्बन्ध है इस पर निरन्तर चिन्तन कर रहे थे। किसी ने अद्वैतवाद का समर्थन करके समस्या से मुक्ति पाने का प्रयत्न किया तो किसी ने द्वैतवाद को स्वीकृति देकर चेतन और जड़ में सम्बन्ध खोजने का प्रयल किया। बेनेडिक्ट स्पिनोजा अद्वैतवाद के समर्थक थे। उन्होंने मनस् और शरीर को एक ही तत्त्व के दो पहल के रूप में स्वीकार किया, अतः उन दो तत्त्वों में परस्पर सम्बन्ध की समस्या ही नहीं थी। लाइबनित्स ने मन और शरीर में कार्य-कारणभाव स्वीकार करके समस्या को समाहित करने का प्रयत्न किया। उनके अनुसार मन का शरीर पर और शरीर का मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। रेने देकार्त ने Mind and body, मनस् (आत्मा) और शरीर की निरपेक्ष सत्ता स्वीकार की। उन दोनों की क्रिया, स्वभाव, स्वरूप में भी भिन्नता का स्पष्ट प्रतिपादन Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जीव और शरीर के सम्बन्ध सेतु / 25 किया। जड़ तत्त्व का मुख्य लक्षण विस्तार तथा चेतन द्रव्य का लक्षण विचार है। देकार्त के शब्दों में-The mind or soul of a man is entirely different from body. जब दो तत्त्वों की निरपेक्ष सत्ता स्वीकृत हुई तो उनका आपस में क्या सम्बन्ध है यह समस्या महत्त्वपूर्ण हो गई। जब दोनों सर्वथा भिन्न हैं तो इनमें परस्पर अन्तर्किया कैसे होती है ? मन का शरीर पर और शरीर का मन पर प्रभाव कैसे पड़ता है? देकार्त ने इसका समाधान शरीरशास्त्रीय दृष्टिकोण से दिया। उसने बतलाया कि शरीर का मन और मन का शरीर पर वास्तविक रूप से कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसने शरीर और आत्मा (मनस) का सम्बन्ध-सेतु मस्तिष्क के अग्रभाग में स्थित पीनियल ग्रन्थि को माना। इसी ग्रन्थि के कारण मन और शरीर में परस्पर सहयोग दिखलाई पड़ता है / देकार्त के इस अभ्युपगम पर कई आपत्तियां भी उपस्थित की गयीं, जैसे(१) निराकार आत्मा साकार पीनियल में कैसे रहती है ? (2) दो भिन्न तत्त्वों में परस्पर अन्तक्रिया कैसे हो सकती है? (3) देकार्त का यह सिद्धान्त शक्ति संरक्षण के विरुद्ध है। यह नहीं कहा जा सकता कि शारीरिक घटनाओं से मानसिक घटनाएं और मानसिक से शारीरिक घटनाएं होती हैं / देकार्ते के सिद्धान्त में उपर्युक्त कठिनाइयां होते हुए भी आधुनिक वैज्ञानिक शरीर और मन में अन्तक्रिया मानते हैं / इस समस्या को सुलझाने के लिए चिन्तकों का ध्यान केन्द्रित हुआ है तथा इसको सुलझाने के लिए प्रयल भी किए हैं। जैन दर्शन की मान्यता ___जैन दर्शन द्वैतवाद का पक्षधर है। इसके अनुसार जड़ और चेतन ये दो तत्त्व विश्व-व्यवस्था के नियामक हैं / दोनों का स्वभाव एवं अस्तित्व स्वतन्त्र है / चेतन और अचेतन का परस्पर अत्यन्ताभाव है फिर भी उनका परस्पर सम्बन्ध है। सिद्धसेन दिवाकर ने कहा—संसारी आत्मा कर्म के साथ क्षीर-नीर की तरह मिली हुई है, अतः अभिन्न है तथा उनका तात्त्विक अस्तित्व स्वतन्त्र है, अतः वे परस्पर भिन्न भी हैं। संसारावस्था में जड़, चेतन में परस्पर क्षीर-नीर की तरह एकीभाव सम्बन्ध है। जो अनुसंचरण करनेवाला जीव है वह पुद्गल के साथ घुला-मिला है इसलिए चेतन और अचेतन सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है / भगवती सूत्र में जीव और पुद्गल के सम्बन्ध सेतुओं का निरूपण करते हुए कहा गया है___. 'अत्थि णं जीवा य पोग्गला या अण्णमण्णबद्धा, अण्णमण्णपुट्ठा, अण्णमण्णमोगाढा, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा, अण्णमण्णघडताए चिट्ठइ। जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध हैं, स्पष्ट हैं, अवगाहित हैं, स्नेह से प्रतिबद्ध हैं। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 / आर्हती-दृष्टि जीव और पुद्गल में आपस में मिलने की प्रायोग्यता को स्नेह कहा गया है / आश्रव जीव का स्नेह है तथा आकर्षित होने की अर्हता पुद्गल का स्नेह है / जीव में धन शक्ति है तथा पुद्गल में ऋण शक्ति है अतः वे परस्पर मिल जाते हैं। भगवती में भंगवान महावीर ने एक उदाहरण के द्वारा जीव और पदंगल के परस्पर सम्बन्ध को स्पष्ट किया है। तालाब में पानी है / उसमें सैंकड़ों छिद्रवाली नौका है। जिस प्रकार वह नौका पानी से भर जाती है वैसे ही जीव के छिद्र आश्रव हैं, कर्म रूपी पानी उन आश्रव रूपी छिद्रों से भर जाता है। राग-द्वेष से युक्त आत्मा के कर्म बंधते हैं। स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम्। रागद्वेषक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येव / राग-द्वेष से युक्त आत्मा के कर्मों का बन्ध होता है। प्रश्न फिर भी बना रहता है कि जीव और पुद्गल के आपसी सम्बन्ध का सेतु क्या है ? इनका परस्पर सम्बन्ध कैसे होता है ? दोनों परस्पर विरोधी स्वभाववाले हैं। चेतन अमूर्त और जड़ मूर्त है। क्या इनका सम्बन्ध करवानेवाला कोई तीसरा पदार्थ है? जैसा कि न्याय-वैशेषिक ने द्रव्य और गुण में परस्पर सम्बन्ध करवाने के लिए तीसरे समवाय पदार्थ को स्वीकृति दी।जड़-चेतन का सम्बन्ध करवाने के लिए उन्होंने ईश्वर को स्वीकार किया है। जैन-दर्शन ने जगत् निर्माण में किसी भी ईश्वरीय शक्ति को स्वीकृति नहीं दी है। उन्होंने इस समस्या को समाहित करने का यौक्तिक प्रयत्न किया। जीव और पुद्गल का भौतिक सम्बन्ध है। जैन ने जीवों को दो भागों में विभक्त किया-सिद्ध एवं संसारी / सिद्धात्मा सर्वथा अमूर्त होती है अतः उसके साथ कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध नहीं हो सकता। आत्मा स्वरूपतः अमूर्त है किन्तु संसारावस्था में वह कथंचित् मूर्त भी है / संसार दशा में जीव और पुद्गल का कथंचिद् सादृश्य होता है। अतः उनका * सम्बन्ध होना असम्भव नहीं है / संसारी आत्मा सूक्ष्म और स्थूल-इन दो प्रकार के शरीरों से आवेष्टित है / एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय स्थूल शरीर छूट जाता है, सूक्ष्म शरीर नहीं छूटता। सूक्ष्म शरीरधारी जीव ही दूसरा शरीर धारण करते हैं, इसलिए अमूर्त जीव मूर्त शरीर में प्रवेश कैसे करता है, यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है क्योंकि संसारी आत्मा कथंचिद् मूर्त है / भगवती सूत्र में इस प्रश्न को सुलझाया गया है। वहां कहा गया है कि अरूप सरूप नहीं हो सकता / कर्म, राग, मोह, लेश्या एवं शरीर के कारण जीव मूर्त भी है। शरीर सम्बन्ध के कारण जीव पांच वर्ण, गंध आदि से भी युक्त है / जीव स्वरूप से अमूर्त है किन्तु बद्धावस्था की अपेक्षा मूर्त भी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जीव और शरीर के सम्बन्ध सेतु / 27 है अतः उसका पुद्गल के साथ सम्बन्ध होता है / सेन्ट्रिपिटल आकर्षण पुद्गल का है तथा सेन्ट्रिफ्यूगल आकर्षण जीव का है / पुद्गल जीव को आकर्षित करते हैं तथा जीव भागने की कोशिश करता है। पुरा भाग नहीं सकता अतः संसार में परिभ्रमण करता है। जब भाग जाता है तब मुक्त बन जाता है / जीव और पुद्गल में भोग्य-भोक्त सम्बन्ध है / जीव भोक्ता है, पुद्गल भोग्य है। जीव और शरीर जीव और शरीर का परस्पर भेदाभेद है। यह भेदाभेद अनेकान्त दृष्टि के द्वारा ही समझा जा सकता है / गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा आया भंते! काये? अण्णे काये? गोयमा ! आया वि काये, अण्णे वि काये।' इत्यादि / आत्मा और शरीर में सर्वथा अभेद नहीं है, यदि सर्वथा अभेद होता तो ये दोनों एक ही हो जाते / सर्वथा भेद भी नहीं है। सर्वथा भेद होने से परस्पर कभी भी नहीं मिल सकते थे। अतः अपने विशेष गुणों के कारण इनमें परस्पर भेद भी है और सामान्य गुणों के कारण अभेद भी है / भगवान् महावीर ने आत्मा को शरीर से भिन्न और अभिन्न दोनों कहा है। ऐसी स्थिति में दो प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होते हैं यदि शरीर आत्मा से अभिन्न है तो उसे आत्मा की तरह अरूपी और सचेतन भी होना चाहिए। जैन दर्शन में समाधान प्राप्त है कि शरीर रूपी भी है और अरूपी भी है। सचेतन भी है और अचेतन भी है। ___आत्मा और शरीर में अत्यन्त भेद माना जाए तो कायकृत कर्मों का फल आत्मा को नहीं मिलना चाहिए। अत्यन्त अभिन्न मानें तो शरीर दाह के समय आत्मा भी नष्ट हो जाएगी जिससे परलोक सम्भव नहीं है। इन्हीं दोषों को देखकर भगवान् बुद्ध ने कह दिया कि भेद और अभेद ये दोनों पक्ष उचित नहीं हैं / जबकि भगवान् महावीर ने दोनों विरोधिवादों का समन्वय स्थापित किया है / एकान्त भेद और अभेद मानने पर जो दोष आते हैं वे उभयवाद की स्वीकृति में विलीन हो जाते हैं / जीव और शरीर का कथंचिद् भेदाभेद है। शरीर नाश के बाद भी आत्मा रहती है तथा सिद्धावस्था में अशरीर आत्मा भी होती है। अतः आत्मा और शरीर परस्पर भिन्न हैं / संसारावस्था में शरीर और आत्मा का क्षीर-नीरवत् या अग्नि-लोहपिण्डवत् तादात्म्य होता है, अतएव काय से किसी वस्तु का स्पर्श होने पर आत्मा में संवेदन होता है। कायक्त कर्म का भोग भी आत्मा करती है, अतः शरीर और आत्मा अभिन्न हैं। भगवती सूत्र में जीव Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 / आर्हती-दृष्टि के गति, इन्द्रिय आदि दस भेद गिनाये हैं। यदि जीव और काय का अभेद न माना जाए तो इन परिणामों को जीव परिणाम के रूप में नहीं गिनाया जा सकता था। उसी प्रकार जीव को सवर्ण, सगन्ध आदि माना है,। वह भी जीव शरीर के अभेद हेतु से ही माना है। ___भगवती सूत्र में जीव को अरूपी, अकर्म कहा गया। इन व्याख्याओं से जीव और शरीर की भिन्नता की सूचना ही प्राप्त होती है। इस प्रकार सापेक्ष दृष्टि से जीव और शरीर का भेदाभेद सिद्ध हो जाता है / शरीर औदारिक शरीर की अपेक्षा रूपी है तथा कार्मण की अपेक्षा अरूपी भी है। आत्मा-शरीर के सम्बन्ध के सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द के विचार भिन्न प्रकार के हैं। वे निश्चयनय के अनुसार आत्मा को शुद्ध मानते हैं। उसके किसी प्रकार का बन्ध है ही नहीं / व्यवहारनय से वह बंधी हुई है। व्यवहार नय असद्भूत है। जीवो चरितणाणदसणट्ठिउ यं ससमयं जाण। पुग्गलकम्मपदेसो च जाण परसमय // कुन्दकुन्द का झुकाव वेदान्त, सांख्य दर्शन की तरफ प्रतीत होता है। उनका कहना है कि आत्मा यदि स्वरूपतः बंधी हुई है तो वह कभी भी मुक्त नहीं हो सकती। जीव और पुद्गल का सम्बन्ध अनादि है। सभी भारतीय दार्शनिकों ने ऐसा स्वीकार किया है। न्याय-वैशेषिक दर्शन ने जगत् को ईश्वरकृत् मानकर भी संसार को अनादि माना है तथा चेतन एवं शरीर के सम्बन्ध को भी अनादि स्वीकार किया है। 'अनादिचेतनस्य शरीरयोगः अनादिश्च रागानुबन्धः' कर्म सिद्धान्त के अनुसार आत्मा और अनात्मा के सम्बन्ध को अनादि मानना अनिवार्य है। यदि ऐसा न माना जाए तो कर्म सिद्धान्त की मान्यता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। यही कारण है कि उपनिषदों के टीकाकारों में शंकर को ब्रह्म और माया के सम्बन्ध को अनादि मानना पड़ा। भास्कराचार्य ने सत्य रूप उपाधि का ब्रह्म के साथ अनादि सम्बन्ध माना है। रामानुज, निम्बार्क एवं मध्व ने अविद्या को अनादि माना है / वल्लभ के अनुसार जिस प्रकार ब्रह्म अनादि है वैसे ही उसका कार्य भी अनादि है। अतः जीव तथा अविद्या का सम्बन्ध भी अनादि है। सांख्य मत में प्रकृति एवं पुरुष का संयोग, बौद्धमत में नाम और रूप के सम्बन्ध को अनादि माना है। जैन दर्शन भी जीव और कर्म के संयोग को अनादि स्वीकार करता है / जैसे मुर्गी और अण्डे में, बीज और वृक्ष में पौर्वापर्य नहीं बताया जा सकता वैसे ही जीव और कर्म के सम्बन्ध में पौर्वापर्य नहीं है / यदि Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव और शरीर के सम्बन्ध सेतु / 29 कर्मों से पहले आत्मा को मानें तो उसमें कर्म लगने का कोई कारण ही नहीं बनता। कर्म को आत्मा से पहले मानें तो जीव के बिना कर्म करेगा कौन? जीव और कर्म के सम्बन्ध का आदि नहीं है। उनका सम्बन्ध अपश्चानुपूर्विक ही है। ___Medical science ने भी शरीर और मन के सम्बन्ध को स्वीकार किया है। वे परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं अतः उनमें परस्पर सम्बन्ध है / भाव, शरीर की बीमारी को पैदा करता है / ईर्ष्या से अल्सर इत्यादि रोग हो जाते हैं / शरीर, भाव को प्रभावित करता है। यदि लीवर खराब है तो भाव विकृत हो जाएगा। शरीर और आत्मा में सम्बन्ध है अतएव उनमें अन्तक्रिया होती है। ____ इस प्रकार कहा जा सकता है कि अनेकान्त दृष्टि से जीव और शरीर में भेदाभेद है। जैन दर्शन के अनुसार संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त है / वह पुद्गल (कर्म) युक्त है। आश्रव जीव एवं शरीर के सम्बन्ध का सेतु है। संसारी अवस्था में जीव और शरीर को पृथक् नहीं माना जा सकता। संदर्भ 1. स्याद्वाद मञ्जरी, पृ. 138 2. भगवई, 1/312-13 3. भगवई, 13/128 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म मीमांसा दार्शनिक जगत् में दृश्य और मूर्त पदार्थ की भांति अदृश्य तथा अमूर्त पदार्थ की खोज निरन्तर चालू रही है। मानव का मन सिर्फ दृश्य जगत् को देखने से ही संतुष्ट नहीं हुआ। उसने क्षितिज के उस पार भी झांकने का प्रयत्न किया। इस प्रयत्न की फलश्रुति है अदृश्य एवं अमूर्त पदार्थों का अभ्युपगम। ___आत्म तत्त्व की अन्वेषणा भी इसी दृष्टिवालों ने की / दृश्य जगत् से पार देखनेवालों ने आत्मा को स्वीकार किया जिनकी दृष्टि इन्द्रिय और मन पर ही टिकी रही उनकी दृष्टि इस दृश्य जगत् से बाहर नहीं जा सकी। फलस्वरूप आत्मा के अस्तित्व एवं नास्तित्व का अभ्युपगम हजारों वर्षों से चला आ रहा है। भारतीय दर्शन की श्रमण .. और वैदिक दोनों परम्पराओं के अनेक आचार्य आत्मा को पौदगलिक मानते रहे हैं। आत्मा के अस्तित्व को नकारने में सबसे अधिक प्रसिद्धि बृहस्पति (चार्वाक) या लोकायत मत को मिली। सूत्र-कृताङ्ग सूत्र से ज्ञात होता है भगवान् महावीर के समय में भी अनेक भूतवादी सम्प्रदाय थे जो भूतों से भिन्न आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। आचार्य अजितकेशकंबल श्रमण सम्प्रदाय के आचार्य थे तथा आत्मा को नकारनेवालों में अग्रणी थे। इन भूतवादियों के अतिरिक्त वेदान्त, सांख्य, न्याय-वैशेषिक, मीमांसक तथा जैन ये सारे दर्शन आत्मवादी हैं / आत्मा के अस्तित्व को इन्होंने एकस्वर से स्वीकार किया है, यद्यपि आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में इन दर्शनों में भी आपस में बहुत अधिक मतभेद रहा है / यह सच भी है। आत्मा अमूर्त तथा इन्द्रियातीत पदार्थ है उसके स्वरूप के बारे में मतभेद होना स्वाभाविक है / जैन और वेदान्त दर्शन ने तो आत्मा के स्वरूप को अनिर्वचनीय कहा है। आचाराङ्ग में आत्मा को नेति-नेति के सिद्धान्त से व्याख्यायित किया जैसे कि वृहदारण्यक में ब्रह्म के स्वरूप को नेति से प्रस्तुत किया गया। आचाराङ्ग में आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा सव्वे सरा नियटृति, तक्का जत्थ न विज्जइ मइ तत्थ न गाहिया। शब्द आत्मा तक नहीं पहुँच सकते थे वे लौट आते हैं अर्थात् आत्मा का स्वरूप शब्दातीत है। तर्कातीत है / वह बुद्धि का विषय भी नहीं बन सकती। वह न दीर्घ है न हस्व, न त्रिकोण है न चतुष्कोण, न वृत्त है न परिमंडल, न कृष्ण है न शुक्ल, न स्त्री Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म मीमांसा / 31 है न पुरुष / आत्मा को उपमा से नहीं बताया जा सकता वह अरूपी सत्ता है। वह इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य नहीं है। आत्मा चैतन्य स्वरूपा है / उपनिषद् भी आत्मा को अवक्तव्य मानते हैं—'स एष नेति नेति, यतो वाचा निवर्तन्ते, नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यः / ' उपनिषद् आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार तो करता है किन्तु उसका स्वरूप शब्दातीत है यह अभिप्राय उपर्युक्त मंत्रों से स्पष्ट होता है। __ आत्मा स्वानुभव का विषय है। अनुभव स्वसंवेद्य होता है। किन्तु परप्रत्यायन के लिए परोक्षज्ञान ही उपयोगी बनता है। इसलिए सूक्ष्म या स्थूल, अमूर्त या मूर्त किसी भी द्रव्य के अस्तित्व या नास्तित्व का समर्थन तर्क के द्वारा करने की परम्परा प्रचलित है। आत्मा के स्वसंवेद्य होने पर भी तर्क के आधार पर उसका अस्तित्व सिद्ध करने का प्रयास दार्शनिकों ने किया है। जब-जब अनात्मवादी दार्शनिकों ने आत्मा को नकारते हुए उसके नास्तिव सिद्धि के लिए हेतु प्रस्थापित किये तब प्रतिवाद स्वरूप आत्मवादियों ने भी हेतु रूपी हेति का अवलम्बन लिया। अनात्मवादियों के द्वारा आत्मा के नास्तित्व की प्रस्थापना भूतवादी दार्शनिकों ने भूतों से भिन्न आत्म तत्त्व को स्वीकार करने में असहमति . प्रकट की। उनका अभ्युपगम है कि भूतों से अतिरिक्त किसी अन्य स्वतंत्र आत्मतत्त्व का अस्तित्व नहीं है / अनुमान प्रमाण को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा.: 'इह कायाकारपरिणतानि चेतनाकारणभूतानि भूतान्येवोपलभ्यन्ते, न पुनस्तेभ्यो व्यतिरिक्तो भवान्तरयायी यथोक्तलक्षणः कश्चनाप्यात्मा, तत्सद्भावे प्रमाणाभावात्' अर्थात् शरीराकार में परिणत चेतना के कारणभूत भूत ही उपलब्ध हो रहे हैं उनसे अतिरिक्त भवान्तरगामी चैतन्यस्वरूप कोई आत्मा नहीं है। उसके सद्भाव को सिद्ध करनेवाले हेतुओं का अभाव है। शरीर ही आत्मा है / इसलिए ही हमें यह प्रत्यय होता है 'स्थूलोऽहं', 'कृशोऽहं' मैं स्थूल हूं, कृश हूं। अजितकेशकंबल के दार्शनिक विचारों का वर्णन सूत्रकृताङ्ग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में है। पैर के तलवे से ऊपर सिर के केशाग्र के नीचे और तिरछे चमड़ी तक जीव है। शरीर ही आत्मा है। शरीर जीता है तब तक आत्मा जीता है / यह मर जाता है तब आत्मा भी मर जाता है। शरीरपर्यन्त ही जीवन होता है। अतएव आत्मा और शरीर एक है। जो शरीर और आत्मा को भिन्न मानते हैं उनका मत सम्यक नहीं है क्योंकि शरीर से भिन्न आत्मा दृष्टिगोचर ही नहीं होती। आत्मा को कोई भी शरीर से अतिरिक्त नहीं दिखा सकता जैसे कोई पुरुष म्यान से तलवार निकालकर दिखा सकता है यह म्यान है और यह तलवार है वैसे यह शरीर है और यह आत्मा है ऐसा कोई नहीं दिखा सकता / तिल से तैल, दही Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 / आर्हती-दृष्टि से नवनीत, ईख से रस, अरणी से आग निकालकर पृथक् रूप से दिखाई जा सकती हैं वैसे आत्मा को शरीर से अलग करके नहीं दिखाया जा सकता / जल के बिना जल के बुबुद् नहीं होते वैसे ही भूतों से व्यतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है। जब कोई व्यक्ति अलात को घुमाता है तो दूसरों को लगता है चक्र घूम रहा है उसी प्रकार भूतों का समुदाय भी विशिष्ट क्रिया के द्वारा जीव की भ्रान्ति उत्पन्न करता है। अतएव यह सुनिश्चित है कि आत्मा और शरीर एक है। शरीर भिन्न आत्म तत्त्व का अस्तित्व नहीं भूतात्मवाद का निराकरण आत्मवादियों ने यह सिद्ध किया कि शरीर से भिन्न आत्मा का अस्तित्व है / यदि भूतों से ही. चैतन्य की उत्पत्ति होती तो सर्वदा और हर क्षण जीवों की उत्पत्ति होनी चाहिए। ऐसा प्रतीति का विषय नहीं बनता है तथा भूतों की शरीराकार परिणति ही यदि चैतन्य को उत्पन्न करती है तो मृत्यु कभी भी नहीं होनी चाहिए तथा चित्रलिखित चित्रों में भी चैतन्य होना चाहिए। भूत जड़ रूप है आत्मा चैतन्यरूप अतः जड़ से चैतन्य कैसे पैदा हो सकता है ? उपादान की मर्यादा को जाननेवाला जड़ लक्षणवाले भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति को कैसे स्वीकार कर सकता है। यदि यह तर्क प्रस्तुत किया जाये कि अलग-अलग भूत चैतन्य पैदा नहीं कर सकते किन्तु वे मिलकर चैतन्य नामक तत्त्व को पैदा कर देते हैं यह भी तर्क सिद्ध नहीं है क्योंकि जब प्रत्येक भूत में चैतन्य अनुपलब्ध है तो उनके समुदित होने पर भी चैतन्य की उत्पत्ति असम्भव है / बालुकणों में प्रत्येक में तैल अनुपलब्ध है तो सैंकड़ों मन बालुकणों से भी तैल की प्राप्ति नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाये कि प्रत्येक भूत में चैतन्य अव्यक्त रूप से है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति उनके समुदित होने से होती है। यह तर्क तो भूतचैतन्यवाद का निराकरण करके आत्मवाद को ही स्थापित करता है क्योंकि स्वयं भूतवादियों ने भूतों में चैतन्य को स्वीकार किया है / अतएव स्पष्ट है कि चैतन्य भूतातिरिक्त पदार्थ है वह भूतों का न तो धर्म है न ही उनका फल है। अचेतनानि भूतानि न तद्धर्मो न तत्फलम्। चेतनाऽस्ति च यस्येयं स एतात्मेति चापरे / / भूत कठोर तथा जड़ स्वभाववाले हैं। चेतना में ये दोनों धर्म नहीं है फिर वह भूतों का फल कैसे है? Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म मीमांसा / 33 काठिन्याबोधरूपाणि भूतान्यध्यक्षसिद्धितः। . चेतना तु न तद्रूपा सा कथं तत्फलं भवेत् / / अतएव यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाता है कि भूतों से अतिरिक्त भी आत्मा का अस्तित्व है। आत्मा की प्रत्यक्षादि प्रमाण से सिद्धि - आत्मा की सिद्धि किसी प्रमाण से नहीं होती यह कथन भी समीचीन नहीं है क्योंकि आत्मा के साधक प्रत्यक्षादि प्रमाणों का सद्भाव है। प्रत्यक्ष चार प्रकार का स्वीकृत है (1) इन्द्रिय, (2) मानस, (3) योगज, (4) स्वसंवेदन। प्रथम दो प्रत्यक्ष आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने में समर्थ नहीं हैं। योगज प्रत्यक्ष हमारे से परोक्ष होने से बुद्धि का विषय नहीं है। चतुर्थ स्वसंवेद्य प्रत्यक्ष के द्वारा आत्मा सिद्ध है। अहं सुखी, अहं दुखी-इस प्रकार का ज्ञान आत्मा के होने पर ही हो सकता है अन्यथा नहीं / प्रतिवादी कह सकता है कि अहं प्रत्यय तो शरीराश्रित भी होता है / अतः यह अनैकान्तिक है तथा अपने साध्य को सिद्ध करने में असमर्थ है। उनका यह वचन भी तर्कसंगत नहीं है क्योंकि अहं प्रत्यय शरीराश्रित भी होता है उसमें आत्मवादी के कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि आत्मा के साथ शरीर का अनादिकाल से सम्बन्ध होने से इस प्रकार का ज्ञान पैदा होता है / स्वामी अपने निकट के भृत्य को 'यह मैं ही हूं' ऐसा कहते हुए देखा जाता है तथा 'अहं सुखी' इत्यादि अन्तर्मुख प्रत्यय आत्मा को ही आलम्बन बना पैदा होते हैं जैसा न्यायमंजरी में कहा हैसुखादिचैत्यमानं हि स्वतंत्रं नानुभूयते, मतुबर्थानुवेधात्तु सिद्धं ग्रहणमात्मनः। इदं सुखमिति ज्ञानं दृश्यते न घटादिवत, अहं सुखीति तुज्ञप्तिरात्मनोऽपि प्रकाशिका // “मैं सुखी' इत्यादि अनुभव शरीर को नहीं हो सकते किन्तु उसे होते हैं जो शरीर से भिन्न है / शंकराचार्य के शब्दों में सबको यह विश्वास होता है कि 'मैं हूं। मैं नहीं हूं' ऐसा विश्वास किसी को नहीं होता—'सर्वोप्यात्माऽस्तित्वं प्रत्येति न नाहमस्मीति / ' जिजीविषा जीवत्व सिद्धि का प्रबल साधक प्रमाण है। जातमात्र क्षुद्रकीट में भी जिजीविषा होती है। पातंजल योगभाष्य में कहा गया—'मा भुवंमा भुयासम्' ऐसा कोई नहीं चाहता मैं नहीं था एवं नहीं होऊ / भगवान् महावीर ने भी कहा सब्वे जीवा वि इच्छंति जीविठं न मरिजिउं / / Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 / आर्हती-दृष्टि - यह जिजीविषा सभी प्राणियों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। तर्कशास्त्र का नियम है कि सत् सप्रतिपक्ष होता है / 'यत्सत् तत्सप्रतिपक्षम्' जो सत् है वह सप्रतिपक्ष है। जिसके प्रतिपक्ष का अस्तित्व नहीं है उसके अस्तित्व को तार्किक समर्थन नहीं मिल सकता / यदि चेतन नामक सत्ता नहीं होती तो न चेतन = अचेतन-इस अचेतन सत्ता का नामकरण और बोध ही नहीं होता। . आत्मा और पुद्गल में परस्पर अत्यन्ताभाव है / जैन दर्शन के अनुसार जीव का अजीव होना और अजीव का जीव होना सर्वथा असम्भव है। इन दोनों का स्वभाव त्रिकाल में भी परिवर्तित नहीं हो सकता। निषेध भी सत् का होता है जो है ही नहीं उसका निषेध नहीं हो सकता। गुण द्वारा गुणी का ग्रहण आत्मा गुणी है। चैतन्य उसका गुण है। गुण हमारे प्रत्यक्ष है आत्मा परोक्ष / परोक्ष गुणी की सत्ता प्रत्यक्ष गुण से प्रमाणित हो जाती है / जैसे—'अदृष्टोऽपि पदार्थों लभ्यमान लिङ्गेन गृह्यत एव' प्रकाश और आतप के द्वारा सूर्य को कमरे में बैठा हुआ व्यक्ति भी जान लेता है। चैतन्य आत्मा का विशिष्ट गुण है। वह चैतन्य आत्मा के अतिरिक्त अन्य पदार्थों में नहीं मिलता है अतएव चैतन्य की उपलब्धि ही आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध कर रही है। संकलनात्मक ज्ञान एवं स्मृति इन्द्रियां अपने-अपने विषय को ग्रहण कर सकती हैं किन्तु उनका संकलनात्मक ज्ञान वे नहीं कर सकतीं जबकि मैं स्पर्श, रस आदि को जानता हूं ऐसे संकलनात्मक ज्ञान की प्रतीति होती है और जो यह ज्ञान करती है वही आत्मा है। स्मृति भी आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करती है। इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर भी उनके द्वारा गृहीत विषय का स्मरण बना रहता है / जो स्मार्ता है वही आत्मा है। . इन्द्रिय प्रत्यक्ष की असमर्थता इन्द्रिय प्रत्यक्ष आत्मा को नहीं जानता पर इतने मात्र से आत्मा के अस्तित्व को नहीं नकारा जा सकता। इन्द्रिय से तो हम दो-तीन पीढ़ी पूर्व के पूर्वजों को भी नहीं जानते क्या इतने मात्र से उनका अभाव हो जाएगा। आत्मा अमूर्त है इन्द्रिय ग्राह्य नहीं। भगवान् महावीर ने कहा-'नो इन्दियगेज्झ अमुत्तभावा' इन्द्रिय तो सूक्ष्म, दूरवर्ती एवं व्यवहित पदार्थों को नहीं जानती पर ऐसे पदार्थों का अस्तित्व अवश्य है अतः इन्द्रिय ग्राह्य न होने पर भी आत्मा का अस्तित्व अवश्य है / ' Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म मीमांसा / 35 संशय विकल्प का जागरण भी आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करता है / जो यह सोचता है 'मैं नहीं हूं' वह जीव है। अचेतन को अपने अस्तित्व में कभी संदेह नहीं होता। प्रसिद्ध आधुनिक दार्शनिक रेने देकार्ते ने इसके आधार पर आत्म अस्तित्व को सिद्ध किया है। अनुमान आत्मा के साधक अनेकों अनुमान उपलब्ध है। जैसे—' रूपाद्युपलब्धि: सकर्तृका, क्रियात्वात् छिदिक्रियावत् / यश्चास्याः कर्ता स आत्मा।' ___ रूपादि पदार्थों का ज्ञान सकर्तृक होता है। रूपादि की उपलब्धि क्रिया है। जैसे-छेदन क्रिया का कर्ता अवश्य होता है / इसका जो कर्ता है वह आत्मा है / यहां इन्द्रियों का कर्तृत्व नहीं है / वे तो करण होने से कर्ता के अधीन हैं / यदि उनको कर्ता माना जाये तो इन्द्रिय के विनष्ट हो जाने पर उनके द्वारा गृहीत विषय का स्मरण नहीं होना चाहिए किन्तु होता है। अतएव जो स्मार्ता है, वही आत्मा है। आत्मा ग्राहक, इन्द्रियां ग्रहण के साधन हैं और पदार्थ ग्राह्य है। बाधक-साधक प्रमाण . . ‘पदार्थ का नास्तित्व तब सिद्ध होता है जब उसके साधक प्रमाणों का अभाव हो अथवा बाधक प्रमाणों का सद्भाव। किन्तु आत्म अभ्युपगम के सन्दर्भ में ऐसा नहीं है। आत्मा के उपर्युक्त तथा अतिरिक्त अनेकों साधक प्रमाण मौजूद हैं तथा बाधक प्रमाणों का अभाव है। अतएव आत्मा का अस्तित्व निर्विवाद रूप से सिद्ध है। पाश्चात्य दर्शन एवं विज्ञान का अभिमत ___ पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी आत्मा को स्वीकार किया है तथा उसके अस्तित्व में तर्क उपस्थित किए हैं। (1) प्लेटो के अनुसार आत्मा का अस्तित्व शरीर से पूर्ववर्ती है / उसका अस्तित्व स्वतंत्र है तथा उसका स्वतंत्र स्वरूप भी है / (2) अरस्तु के अनुसार आत्मा के कारण ही जीवित पदार्थों में जीवन का अस्तित्व है / (3) देकातें के अनुसार मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं। (4) इसी प्रकार डॉ. गेट्स ने भी आत्मा के बारे में कई प्रयोग किये। इन्होंने ऐसी प्रकाश किरणों की खोज की है, जिनका रंग कालापन लिए हुए गाढा लाला है। ये किरणें मरे हुए पशुओं से प्राप्त की गयी। इन्होंने एक मरणासन्न चूहे को गिला में रखकर ये किरणें उस पर फेंकी। दीवार पर उस चूहे की छाया दिखायी दी। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 / आर्हती-दृष्टि निकलते ही वह छाया गिलास से निकली और दीवार की ओर बढ़ी। उस दीवार पर रोडापसिन नामक पदार्थ का लेप किया गया था, इस मसाले का प्रयोग करने के बाद ही दीवार पर ये किरणें स्पष्ट दिखाई देती हैं / यह छाया कुछ दूर तक ऊपर तक जाती दिखाई दी। उसके पश्चात् उसका कहीं कुछ पता नहीं चला। डॉ. गेट्स ने इस छाया की सही स्थिति जानने के लिए गैलवानोमीटर से उन किरणों की शक्ति तथा मानव शरीर में संचालित विद्युत तरंगों की शक्ति को मापा और उन्हें लगा कि दीवार पर पड़नेवाली प्रकाश किरणों की अपेक्षा शरीर की ताप शक्ति अधिक होती है। गेट्स के अनुसार यही विद्युत शक्ति आत्मा की प्रकाश शक्ति है। .. डॉ. हेनरी वराहुक ने जो फ्रांस के रहनेवाले हैं। अपने मरणासन्न बच्चे पर ऐसे प्रयोग किये हैं। इस तरह लंदन के प्रसिद्ध डॉ. डब्ल्यू. जे. किल्लर ने अपनी पुस्तक 'दि ह्यमन एटमोस्फियर' में भी अपने कई प्रयोगों का वर्णन किया है, जो उन्हें रोगियों की जांच करते समय प्राप्त हुए थे। वे निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानव देह में एक प्रकाशपुञ्ज का अस्तित्व अवश्य है, जो मृत्यु के पश्चात् भी यथावत् रहता है। __ वैज्ञानिकों के इन प्रयोगों का सार यह कि शरीर में एक प्रकाशपुञ्ज का अस्तित्व है और वही आत्मतत्त्व है / जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का स्वरूप तो अमूर्त है किन्तु संसारी अवस्था में वह सर्वथा अमूर्त नहीं हो सकती। क्योंकि उसके साथ अनादिकाल से कार्मण और तैजस शरीर का योग है / ये दोनों शरीर पौद्गलिक अर्थात् मूर्त हैं / अतः इनके संयोग से संसारस्थ आत्मा भी कथंचिद् मूर्त है। वैज्ञानिकों को प्रयोग काल में शरीर से निकलते हुए प्रकाशपुञ्ज का आभास हुआ है शायद वही तैजस कार्मण शरीर युक्त आत्मा है / तैजस शरीर तेजोमय है / आत्मा के अमूर्त होने पर भी उसके योग से प्रकाशपुञ्ज की अनुभूति होना असम्भव नहीं है। - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा एवं पुनर्जन्म आत्मा भारतीय दर्शन जगत् का प्राण तत्त्व है / आत्मा के अस्तित्व, उसके स्वरूप आदि के बारे में भारतीय मनीषियों ने प्रभूत चिन्तन किया है / पाश्चात्य दर्शन परम्परा में भी आत्मा पर विमर्श हुआ है / आत्मा को केन्द्र में रखकर दो प्रकार की विचारधाराएं विकसित हुई / एक वह जो आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व को स्वीकार करती थी तथा अन्य आत्म-अस्तित्व को वार्तमानिक ही मानती थी। - चार्वाक् के अतिरिक्त समस्त भारतीय चिन्तकों ने आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व को स्वीकार किया है / अनात्मवादी कहलाने वाले बौद्ध दर्शन ने भी चित्तसन्तति प्रवाह को स्वीकृति देकर इसी चिन्तन का परोक्षतः समर्थन किया है / आत्मा के कालिक अस्तित्व को स्वीकार करने वाली दार्शनिक परम्पराओं ने प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों के द्वारा आत्मा के ढ़कालिक अस्तित्व को स्थापित करने का सफल भगीरथ प्रयास किया तथा पुनर्जन्म को भी आत्म-त्रैकालिकता के हेतु रूप में प्रस्तुत किया है। 'प्रेत्यसद्भावाच्च' अर्थात् पुनर्जन्म का सद्भाव होने से आत्मा की त्रैकालिकता सिद्ध है। दार्शनिक जगत् में आत्मवाद एवं पुनर्जन्म के सन्दर्भ में तीन मान्यताएं प्रचलित हैं- . ___(1) आत्मा है, पुनर्जन्म नहीं है। (2) आत्मा एवं पुनर्जन्म दोनों ही नहीं हैं। (3) आत्मा एवं पुनर्जन्म दोनों ही हैं। ईसाई-इस्लाम धर्म-आत्मा की सत्ता को तो स्वीकार करते हैं किन्तु क्रमिक पुनर्जन्म की सत्ता स्वीकार नहीं करते। . . चार्वाक् दर्शन आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म आदि किसी भी अतीन्द्रिय सत्ता को स्वीकृति नहीं देता। ___ अन्य भारतीय दर्शन आत्मा, परमात्मा एवं पुनर्जन्म इन तीनों की सत्ता स्वीकार करते हैं। आत्मा की इनके अनुसार त्रैकालिक सत्ता है। आचारांग में कहा गया. 'जस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तत्थ कओ सिआ' जिसका पूर्व एवं पश्चात् नहीं - होता उसका मध्य भी नहीं होता / आत्मा वर्तमान में है, इससे स्पष्ट होता है कि आत्मा .. का पूर्व में अस्तित्व था तथा भविष्य में होगा। आत्मा की त्रैकालिक सत्ता पूर्वजन्म Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 / आहती-दृष्टि एवं पनर्जन्म की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। ___दर्शन का प्रादुर्भाव पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म सम्बन्धी विचारणा से होता है। आचारांग-सूत्र के प्रारम्भ में ही यह जिज्ञासा है—'अस्थि मे आया ओववाइए, णत्थि मे आया ओववाइए' मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है या नहीं है / दिशा, विदिशाओं में अनुसंचरण करने वाला कौन है ? 'के अहं आसी के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि' मैं अतीत में कौन था? यहां से च्युत होकर भविष्य में कहा जाऊँगा। 'कौन हूं, आया कहां से, और जाना है कहां?' इस प्रकार की जिज्ञासाएं दार्शनिक चिन्तन की पृष्ठभूमि है। पुनर्जन्म भारतीय चिन्तन का सर्वमान्य सिद्धान्त रहा है। सभी चिन्तकों ने इस सिद्धान्त की पुष्टि में अपने प्रज्ञा बल का समायोजन किया है / भारतीय दृष्टि से पुनर्जन्म का मूल कारण कर्म है / और कर्म के कारण ही जन्म-मरण होता है—'रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च जाइमरणं वयन्ति / ' अविद्या, वासना, अदृष्ट आदि कर्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। विभिन्न भारतीय दर्शनों में पुनर्जन्म उपनिषद् - वेदान्त दर्शन ने पुनर्जन्म को स्वीकृति दी है / उपनिषद् का घोष है—'सस्यमिव पच्यते मृत्यः, सस्यमिव जायते पुनः' डॉ. राधाकृष्णन् सर्वपल्ली ने कहा-'पुनर्जन्म में विश्वास कम-से-कम उपनिषदों के काल से चला आ रहा है / वेदों और ब्राह्मणों के काल का यह स्वाभाविक विकास है और इसे उपनिषदों में स्पष्ट अभिव्यक्ति मिली / है।' वेदान्त दर्शन के प्रमुख आचार्य निम्बार्क ने पुनर्जन्म एवं उसके कारणों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि आत्मा अजर, अमर एवं अविनाशी है / जब तक जीव अविद्या से आवृत्त है / तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है / अविद्या निवृत्ति के पश्चात् पुनर्जन्म का अभाव हो जाता है। सांख्य योग दर्शन सांख्य दार्शनिकों के अनुसार आत्मा को अपने पूर्वकृत कर्म के फलस्वरूप दुःख के उपभोग हेतु बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है। ‘आत्मनो भोगायतनशरीरं' शरीर भोग का आयतन है / लिङ्ग शरीर के द्वारा आत्मा एक भव से दूरे भव में जाकर शरीर धारण करती रहती है। जब तक विवेक ख्याति नहीं होती तब तक यह चक्र चलता रहता है / पातञ्जल योग भाष्य में भी कहा गया है कि–'सति मूले तद् विपाको Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा एवं पुनर्जन्म / 39 जात्यायुर्भोगः।' जब तक क्लेश रहते हैं तब तक जाति, आयु एवं भोग के रूप में . उनके विपाक को भोगना पड़ता है। न्याय-वैशेषिक ये भी आत्मा को त्रिकालवर्ती मानते हैं / आत्मा के नित्य होने से जन्मान्तर की सिद्धि होती है। पूर्वकृत कर्म भोग के लिए आत्मा को पुनर्जन्म करना पड़ता है'पूर्वकृतफलानुभवनात् तदुत्पतिः।' अदृष्ट के कारण जीव संसार में परिभ्रमण करता रहता है। मीमांसा ___ यज्ञ आदि कर्मकाण्ड में विश्वास करनेवाला मीमांसा दर्शन भी पुनर्जन्म को स्वीकार करता है। आत्मा, परलोक आदि में उसका विश्वास है / यज्ञ से अदृष्ट नाम का तत्त्व पैदा होता है और वह सम्पूर्ण जीवन व्यवस्था का नियामक होता है। गीता . . गीता को सब उपनिषदों का सार कहा गया है। भारतीय संस्कृति का गीता महिमा-मण्डित ग्रन्थ है। उसमें पुनर्जन्म का तत्त्व स्पष्ट रूप से प्रतिपादित हआ है। ग्रन्थकार कहते हैं—'जातस्य हि ध्रुवं मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्य च / ' जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु एवं मृत का जन्म निश्चित रूप से होता है। जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को छोड़कर नवीन वस्त्र धारण करता है, वैसे ही यह आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण कर लेती है। . . वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। ... तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ जिस प्रकार इस शरीर में बाल्य, यौवन एवं बुढ़ापा आता है, वैसे ही आत्मा को देहान्तर की प्राप्ति होती है। धीर पुरुष वैसी स्थिति में मोहित नहीं होता। बौद्ध ... बौद्ध दर्शन को अनात्मवादी माना जाता है। क्योंकि उसने आत्मा की स्वतंत्र सत्ता न मानकर सन्तति प्रवाह के रूप में उसका अस्तित्व स्वीकार किया है / इस दर्शन में भी पुनर्जन्म का सिद्धान्त स्वीकृत है / भगवान् बुद्ध ने अपने पैर में चुभने वाले कांटें को पूर्वजन्म में किए हुए प्राणीवध का विपाक माना है. इत एकनवतिकल्पे शक्त्या मे पुरुषो हतः। तेन कर्म विपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः / / Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 / आहती-दृष्टि जैन जैन दर्शन आत्मवादी-कर्मवादी दर्शन है / कर्मवाद की अवधारण में पुनर्जन्म सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान् महावीर ने कहा-राग और द्वेष कर्म के बीज हैं तथा कर्म जन्म-मरण का मूल कारण है। पुनर्जन्म कर्म-युक्त आत्मा के ही हो सकता है। अकर्मा आत्मा जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त होती है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को पुष्ट करते हुए कहा है कि बालं शरीरं देहतरपुव्वं इंदिया इमत्ताओ। जुवदेहो बालादिव स जस्स देहो स देही त्ति / / जिस प्रकार युवक का शरीर बालक शरीर की उत्तरवर्ती अवस्था है वैसे ही बालक का शरीर पूर्वजन्म के बाद में होने वाली अवस्था है / इसका जो अधिकारी है, वही आत्मा है / जाति-स्मृति ज्ञान पूर्वजन्म का पुष्ट प्रमाण है। भगवान् महावीर अपने शिष्यों को संयम में दृढ़ करने के लिए जाति-स्मृति करवा देते थे। मेघकुमार जब संयम से च्युत होने लगा तब भगवान् ने उसको पूर्वजन्म का स्मरण करवा दिया। जैन आगमों में आगत 'पोट्ट-परिहार' शब्द भी पुनर्जन्म सिद्धान्त का संवाहक है / गोशालक को उत्तरित करते हुए भगवान् ने कहा था कि ये तिल पुष्प के बीज मरकर पुनः इसी पौधे की फली में फलित होंगे। भगवती, आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगमों में विपुल मात्रा में पूर्वजन्म के निदर्शन उपलब्ध हैं। , पाश्चात्य विचारकों की दृष्टि में पुनर्जन्म पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी पुनर्जन्म के बारे में विचार किया है। प्राचीन युनान के महान् दार्शनिक पाइथोगोरस के अनुसार साधुत्व की अनुपालना से आत्मा का जन्म उच्चतर लोक में होता है और दुष्ट आत्माएं निम्न योनियों में जाती हैं। .. सुकरात का मन्तव्य था कि मृत्यु स्वप्नविहीन निद्रा और पुनर्जन्म जागृत लोक के दर्शन का द्वार है / प्लेटो ने भी पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। प्लेटो के शब्दों में-The soul always wears her garment a new. The soul has a natural strength which will hold out and be born many times. दार्शनिक शोपनहार के शब्दों में पुनर्जन्म एक असंदिग्ध तत्त्व है। विज्ञान जगत् में पुनर्जन्म की अवधारणा दार्शनकि जगत् में तो पुनर्जन्म चर्चा का विषय रहा ही है, आधुनिक विज्ञान के . Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा एवं पुनर्जन्म / 41 क्षेत्र में भी उस पर विमर्श हो रहा है। सामान्यतः पदार्थ की ठोस, द्रव, गैस एवं प्लाज्मा ये चार अवस्थाएं होती हैं। सोवियत रूस के वैज्ञानिक श्री वी. एस. निश्चेको ने पदार्थ की पांचवीं अवस्था की खोज की है, जो जैव-प्लाज्मा (प्रोटोप्लाज्मा, बायोप्लाज्मा) कहलाती है। निश्चेको के अनुसार जैव-प्लाज्मा में स्वतन्त्र इलेक्ट्रॉन और प्रोटोन होते हैं जिनका नाभिक से कोई सम्बन्ध नहीं होता। इनकी गति बहुत तीव्र होती है। यह मानव की सुषुम्ना नाड़ी में एकत्रित रहता है। प्रोटो-प्लाज्मा से सम्बन्धित अनेकों तथ्य इन्होंने प्रस्तुत किए हैं। प्रोटोप्लाज्मा से सम्बन्धित निष्कर्षों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत में प्रचलित सूक्ष्म शरीर की अवधारणा का जैव-प्लाज्मा से बहुत साम्य है। प्रोटो प्लाज्मा की तुलना प्राण तत्त्व से की जा सकती है। वैज्ञानिकों के अनुसार प्रोटो-प्लाज्मा शरीर की कोशिकाओं में रहता है। मरने के बाद यह तत्त्व शरीर से अलग हो जाता है। वही तत्त्व जीन में परिवर्तित हो जाता है / बच्चा जब जन्म लेता है, तब बायोप्लाज्मा पुनः जन्म ले लेता है। शरीर जल जाता है, प्रोटोप्लाज्मा नहीं जलता यह आकाश में व्याप्त हो जाता है / जैन दृष्टि के अनुसार इसे सूक्ष्म शरीर कहा जा सकता है। सूक्ष्म शरीर चतुःस्पर्शी होने से द्रव, गैस, ठोस आदि रूप नहीं होता। यह सूक्ष्म होता है / सूक्ष्म शरीर के संसर्ग से युक्त आत्मा ही पुनर्जन्म लेती है। प्रोटोप्लाज्मा की अवधारणा से आत्मा की अमरता एवं पुनर्जन्म ये दोनों ही सिद्धान्त स्पष्ट होते हैं / वैज्ञानिकों के अनुसार जब प्रोटो-प्लाज्मा का कणं स्मृति पटल पर जागृत हो जाता है तब शिशु को अपने पूर्वजन्म की घटनाएं याद आने लगती हैं। जैन दर्शन के अनुसार पूर्वजन्म की स्मृति सूक्ष्म शरीर में संचित रहती है और निमित्त प्राप्त कर उद्भूत हो जाती है। परामनोविज्ञान एवं पुनर्जन्म ___ परा-मनोविज्ञान के क्षेत्र में पुनर्जन्म पर बहुत अन्वेषण हो रहा है / परा-मनोविज्ञान विज्ञान की ही एक शाखा है। इसमें पुनर्जन्म आदि सिद्धान्तों का अन्वेषण निरन्तर गतिशील है / योरोप एवं अमेरिका जैसे नितान्त आधुनिक एवं मशीनी देश पुनर्जन्म का आधार खोजने में लगे है। वर्जीनिया विश्व-विद्यालय के परा-मनोविज्ञान विभाग के अध्यक्ष डॉ. ईआन स्टीवेन्सन ने पूर्वजन्म की स्मृति सम्बन्धी अनेक तथ्यों का आकलन किया है। अपनी अनवरत शोध के पश्चात् अपना स्पष्ट मत प्रस्तुत करते हुए कहा है कि पुनर्जन्म सम्बन्धी अवधारणा यथार्थ है। . जन्म एवं मृत्यु के अस्तित्व में किसी को सन्देह नहीं है। ये प्रत्यक्ष घटनाएं हैं Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 / आर्हती-दृष्टि किन्तु मृत्यु के बाद पुनः जन्म होगा, यह प्रत्यक्ष का विषय नहीं है। अतः इस विषय में सन्देह का अवकाश है / इस सन्देह के परिप्रेक्ष्य में कुछ दार्शनिक (चार्वाक्.आदि) इस जन्म से पूर्व किसी जन्म को स्वीकार ही नहीं करते। जन्म ही नहीं तो मृत्यु का अभाव तो स्वतः सिद्ध है। कुछ तत्त्वदर्शियों ने इसका अभ्यास किया और जन्म एवं मृत्यु का साक्षात्कार किया। उन्होंने उद्घोषणा की कि पूर्वजन्म और पुनर्जन्म होता है एवं उसका ज्ञान किया जा सकता है। पूर्वजन्म की ज्ञप्ति के हेतु पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म का ज्ञान शक्य है / भगवान् महावीर ने पूर्वजन्म को जानने के तीन हेतु बतलाए हैं. (1) स्व-स्मृति-स्वतः ही स्वयं को पूर्वजन्म की स्मृति हो जाना / अनेक बच्चों को सहज ही पूर्वजन्म की स्मृति होती है / परा-मनोवैज्ञानिकों ने अनेकों घटनाओं का संग्रह किया है। उन घटनाओं की सत्यता प्रमाणित है। (2) पर-व्याकरण—किसी आप्त के साथ व्याकरण अर्थात् प्रश्नोत्तरपूर्वक मनन कर कोई उस पूर्वजन्म के ज्ञान को प्राप्त करता है / मेघकुमार को महावीर ने जाति-स्मृति करवाई थी। . (3) अन्य के पास श्रवण बिना पूछे ही किसी अतिशय ज्ञानी के द्वारा स्वतः ही निरुपित तथ्य को सुनकर कोई पूर्वजन्म का संज्ञान कर लेता है। पुनर्जन्म की सिद्धि अस्तित्ववादी दार्शनिकों ने पुनर्जन्म की पुष्टि के लिए अनेक युक्तियां प्रस्तुत की हैं / जो इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं होता उसकी सिद्धि अनुमान आदि प्रमाणों से की जाती है / पुनर्जन्म भी प्रत्यक्षातीत है अतः उसकी सिद्धि भी तार्किक ग्रन्थों में तर्क से हुई है। नवजात शिशु में हर्ष, भय, शोक आदि संवेग देखे जाते हैं, उनका कारण पूर्वजन्म ही है। ___ पूर्वजन्म में किए हुए आहार के संस्कार के कारण ही नवजात शिशु स्तनपान .. करने लगता है। सभी प्राणियों में जिजीविषा होती है, मृत्यु से भय होता है / जातमात्र कृमि में भी मरण-त्रास देखा जाता है / मरण-त्रास अज्ञानी की भांति ज्ञानी में भी देखा जाता है—'स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा रुढोऽभिनिवेशः' यह मरणत्रास भी पूर्वजन्म की सिद्धि का पुष्ट प्रमाण है / ऐसे ही अनेकों हेतुओं के द्वारा पुनर्जन्म की सिद्धि की गई है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा एवं पुनर्जन्म / 43 पुनर्जन्म के हेतु . भारतीय चिन्तन के अनुसार कर्म पुनर्जन्म का मूल है / अनिगृहीत क्रोध, मान, माया एवं लोभ आदि कषाय पुनर्जन्म के मूल को सिंचन देते हैं—'सिंचति मूलाई पुणभवस्स।' माया और प्रमाद के कारण भी व्यक्ति पुनः ‘जन्म-मरण करता है माई पमाई पुणरेइ गब्भ' आचारांग का यह शाश्वत उद्घोष है। प्रमादी कषायी व्यक्ति बार-बार संसार चक्र में घूमता है-'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनं / ' पुनर्जन्म को समाप्त करने के लिए कर्मदल को नष्ट करना आवश्यक है। पूर्वजन्म स्मृति के हेतु ___ कुछ मनुष्यों को पूर्वजन्म की स्मृति जन्मजात होती है। सुश्रुत संहिता में कहा गया है कि पूर्वजन्म में शास्त्राभ्यास के द्वारा भावित अन्तःकरण वाले मनुष्य को पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है भावितः पूर्वदेहेषु सततं शास्त्रबुद्धयः / भवन्ति सत्त्वभूयिष्ठाः पूर्वजातिस्मरा नराः / / ... कुछ व्यक्तियों को पूर्वजन्म की स्मृति जन्मजात नहीं होती लेकिन निमित्त मिलने पर उबुद्ध हो जाती है / आचारांग भाष्य में पूर्वजन्म स्मृति के कुछ कारणों का निर्देश प्राप्त है—(१) मोहनीय कर्म का उपशम, (2) अध्यवसान शुद्धि, (3) ईहापोह, मार्गणा, गवेषणा करना। (1) उपशान्त मोहनीय—मोहनीय कर्म के विशिष्ट प्रकार के उपशम से भी जाति-स्मृति पैदा हो जाती है / उत्तराध्ययन के नमिपवज्जा अध्ययन में इसका उल्लेख है। ‘उवसंतमोहणिज्जो सरई पोराणियं जाई' उसका मोह उपशान्त था जिससे उसे पूर्वजन्म की स्मृति हुई। (2) अध्यवसान शुद्धि-मृगापुत्र को साधु देखकर जाति स्मृति प्राप्त हुई / उस समय उसका मोह उपशान्त एवं अध्यवसाय शुद्ध थे। साहुस्स दरिसणेण तस्स अन्झवसाणम्मि सोहणे। मोहंगयस्स संतस्स जाइसरणं समुप्पन्नं / / साधु के दर्शन और अध्यवसाय पवित्र होने पर मैने ऐसा कहीं देखा है इस विषय में यह सम्मोहित हो गया, चित्तवृत्ति सघन रूप में एकाग्र हो गई। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 / आर्हती-दृष्टि ईहापोह-मार्गणा-गवेषणा मेघकुमार को ईहा (पूर्वस्मृति के लिए मानसिक चेष्टा) अपोह क्या मैं हाथी था? इस प्रकार अतीत का चिन्तन करते-करते गवेषणा प्रारम्भ की एवं उसे जाति-स्मृति हो गई। जाति-स्मृति सनिमित्तक एवं अनिमित्तक उभय प्रकार की होती है। तदावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाली जाति स्मृति अनिमित्तक एवं बाह्य निमित्त के द्वारा प्राप्त होने वाली सनिमित्तक जाति-स्मृति है। जाति-स्मृति सबको क्यों नहीं? जाति-स्मृति सबको क्यों नहीं होती? इस विषय में तन्दुल वेयालिय प्रकीर्णक में कारण निर्दिष्ट करते हुए कहा-जन्म और मृत्यु के समय जो दुःख होता है, उस दुःख से सम्मूढ होने के कारण व्यक्ति को पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती। जायमाणस्स जं दुक्खं मरमाणस्स वा पुणो। तेण दुक्खेण समूढो जाइं सरइ बप्पणो॥ मूर्छा में स्मृति लुप्त हो जाती है, इसलिए पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती तथा विशिष्ट निमित्त के बिना पूर्वजन्म के विद्यमान संस्कारों का भी साक्षात्कार नहीं होता, यह भी स्मृति के न होने का कारण है। जाति स्मृति से लाभ _जाति-स्मृति से धर्म के प्रति सहज श्रद्धा और संवेग में सहज वृद्धि होती है। संसार-चक्र का उसे साक्षात्कार हो जाता है। आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व में उसे कोई सन्देह नहीं रहता। मुमुक्षा भाव एवं अनासक्ति का सहज विकास होता है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त दार्शनिक जगत् में तो सहज प्रतिष्ठित ही है। वैज्ञानिक शोध के निष्कर्षों के आधार पर उसकी स्व प्रतिष्ठा सम्भावित है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का वजन भारतीय दर्शन ने आत्मा के सम्बन्ध में विविध प्रकार से विचार किया है / उसका आकार-प्रकार कैसा है ? वह व्यापक है अथवा सीमित ? उसका स्वरूप कैसा है? उसका कार्य क्या है ? उसका अस्तित्व त्रैकालिक है अथवा वार्तमानिक ? आदि अनेक प्रश्नों पर प्रायः सभी भारतीय दार्शनिकों ने ऊहापोह किया है और निष्कर्षतः अपनाअपना स्वतन्त्र अभिमत भी प्रस्तुत किया है। ___ आत्मा भारहीन है अथवा भारयुक्त ? इस प्रश्न पर जैन दर्शन के अतिरिक्त किसी भी भारतीय या पाश्चात्य दार्शनिक का ध्यान आकृष्ट हुआ हो, ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता। जैन-दार्शनिकों ने आत्मा के वजन के बारे में चिन्तन किया है / 'रायपसेणिय सूत्र' में केशी श्रमण एवं राजा प्रदेशी के संवाद से यह तथ्य प्रकट होता है। राजा प्रदेशी परम नास्तिक था, आत्मा जैसी किसी भी वस्तु में उसका विश्वास नहीं था। आत्मा है या नहीं इसके लिए उसने अनेक व्यक्तियों पर विभिन्न प्रकार के प्रयोग किये। वह श्रमण केशी से कहता है-मुनिप्रवर ! आत्मा जैसे किसी भी पदार्थ का अस्तित्व नहीं है, क्योंकि मैंने चोर को मरने से पहले तौला तथा मरने के तुरन्त बाद उसका वजन किया, किन्तु उसके वजन में कोई अन्तर नहीं आया, अतः आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिकों ने आत्मा के वजन के संदर्भ में प्रयोग किये हैं। आत्मा को तौलने के लिए उन्होंने संवेदनशील तराजू का निर्माण किया है। राजा प्रदेशी के पास उस समय इतने संवेदनशील मापक यन्त्र नहीं थे, जितने आज उपलब्ध हैं / इसके कारण ही प्रदेशी को मरने के बाद और मरने के पहले शरीर में अन्तर मालूम नहीं हुआ। आज के वैज्ञानिक मानते हैं कि मरने के समय शरीर से एक तत्त्व निकलता है जो भारयुक्त है। स्वीडिश डॉ. नेल्स जैकवसन के अनुसार आत्मा का वजन 21 ग्राम है / उन्होंने आत्मा का वजन ज्ञात करने के लिए मृत्यु-शय्या पर पड़े व्यक्तियों को एक अत्यधिक संवेदनशील तराजू पर रखा और जैसे ही उनकी मृत्यु हुई अर्थात् आत्मा शरीर से पृथक् हुई, तराजू की सुई 21 ग्राम नीचे चल गई। .. अमेरिकन डॉ. विलियम मैकडूगल ने भी आत्मा के विषय में विभिन्न खोजें की है। उन्होंने एक ऐसी तराजू का निर्माण किया जो अशक्त मरीज के पलंग पर लेटे रहने Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 / आर्हती-दृष्टि के बावजूद ग्राम के हजारवें भाग तक का वजन बता सकती है। उसने इस भारतौलक मशीन को मरणासन्न रोगी के पलंग से जोड़ दिया। वह मशीन उस व्यक्ति के कपड़े, पलंग, फेफड़ों की सांसों तथा उसे दी जानेवाली दवाइयों का वजन लेती रही। जब तक रोगी जीवित रहा, मशीन की सुई एक स्थान पर स्थिर रही लेकिन जैसे ही रोगी के प्राण निकले सुई पीछे हट गई और रोगी का वजन आधा छटांक कम हो गया। मैकडूगल ने ऐसे प्रयोग कई व्यक्तियों पर किये और उसने निष्कर्ष निकाला कि जीवन का आधारभूत तत्त्व है और वह अति सूक्ष्म है / उसका भी वजन है तथा वही सूक्ष्म तत्त्व आत्मा है / इस प्रकार आज के वैज्ञानिकों ने आत्मा नामक तत्त्व को स्वीकृति दी है और उसको भारयुक्त भी माना है। ____ जैन दार्शनिक आत्मा को अमूर्त मानते हैं और जो अमूर्त तत्त्व होता है वह भारहीन होता है अतः जैन दर्शन के अनुसार आत्मा भारहीन है। आज के वैज्ञानिक जो भार बता रहे हैं वह सूक्ष्म शरीर का है। जैन दर्शन के अनुसार संसारी आत्माएं सूक्ष्म शरीर से युक्त होती हैं। प्रत्येक संसारी आत्मा के साथ दो सूक्ष्म शरीर-तैजस और कार्मण जुड़े हुये हैं। कार्मण शरीर चतुःस्पर्शी परमाणुओं से निर्मित होने के कारण भारमुक्त है / वैज्ञानिक जो भार बता रहे हैं संभवतः वह तैजस शरीर का है जो अनवरत संसारी आत्मा से युक्त रहता है / सूक्ष्म शरीर के साथ आत्मा को कथंचिद् अभेद भी है। इस आधार पर यह वजन आत्मा का कहा जा सकता है / इसमें किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए। जैन दर्शन ने सांसारिक आत्मा का कथंचित् मूर्त भी माना है / मूर्त पदार्थ भारयुक्त हो सकते हैं। अतएव आत्मा का वजन होता है, यह कथन असमीचीन नहीं हैं। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा की देह-परिमितता भारतीय दर्शन अध्यात्म-प्रधान दर्शन है। उसने एक अभौतिक, अलौकिक तत्त्व के विषय में चिन्तन किया। उसके चिन्तन के आलोक से आत्म तत्त्व प्रकाशित हुआ। आत्म तत्त्व की स्वीकृति के साथ ही एक प्रश्न उभरा कि इस आत्म तत्त्व का निवास स्थान कहां है ? इस संदर्भ में भिन्न-भिन्न विचारधाराओं का प्रादुर्भाव हुआ। उपनिषद् साहित्य में आत्मा का परिणाम ___उपनिषद् साहित्य में आत्मा के परिणाम के बारे में विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत हुए हैं / वृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है—यह मनोमय पुरुष (आत्मा) अन्तर् हृदय में चावल या जौ के दाने जितना है / छान्दोग्योपनिषद् ने आत्मा को प्रदेश मात्र कहा है। कोषीतकी में आत्मा को शरीर प्रमाण माना गया है। जैसे-तलवार अपनी म्यान में और अग्नि अपने कुंड में व्याप्त है, उसी तरह आत्मा शरीर में नख से लेकर शिखा तक व्याप्त है। ‘एष प्रज्ञात्मा इदं शरीरमनुप्रविष्टः।' मुए. कोपनिषद् में आत्मा को सर्वव्यापक माना है। तैत्तिरीय उपनिषद् में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय इन सब आत्माओं को शरीर परिमाण स्वीकार किया है। जब आत्मा को अवर्ण्य माना जाने लगा तब ऋषियों ने इसे अणु से अणु और महान् से महान् मानकर संतोष किया। 'अणोरणीयान् महतो महीयान् / ' अन्य भारतीय दर्शन में आत्मा का परिणाम __ सांख्य, न्याय-वैशेषिक आदि सभी वैदिक दर्शनों ने आत्मा को व्यापक माना है। शंकर को छोड़कर रामानुज आदि ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार इसके अपवाद हैं। उन्होंने ब्रह्मात्मा को व्यापक एवं जीवात्मा को अणु परिमाण स्वीकार किया है। बौद्ध के अनुसार आत्मा विज्ञानों का प्रवाह है अतः उसका कोई परिमाण नहीं हो सकता। वास्तव में आत्मा का कोई आश्रय है ही नहीं, जिससे आत्मा उसके अनुरूप कोई परिमाण धारण कर सके। जैन दर्शन ने आत्मा को अणु विभु परिमाण से रहित मध्यम परिमाणवाला स्वीकार किया है / जैन ने आत्मा को शरीर-व्यापी स्वीकार किया है। आत्मा के परिमाण के संदर्भ में अणु विभु एवं मध्यम इन प्रकारों का उल्लेख है जो उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 / आर्हती-दृष्टि .. जो दर्शन आत्मा को व्यापक मानते हैं उनके मत में संसारी-आत्मा के ज्ञान, सुख-दुःख इत्यादि गुण शरीर मर्यादित आत्मा में ही अनुभूत होते हैं, शरीर के बाहर वाले आत्म प्रदेशों में नहीं / इस प्रकार संसारी आत्मा को व्यापक माना जाये अथवा शरीर-व्यापी, संसार का भोग तो शरीर व्यापी आत्मा ही करती है। संसारावस्था तो शरीरस्थित आत्मा में ही है। नैयायिक विद्वान् श्रीधर ने न्यायकंदली में कहा है- . 'सर्वगतत्वेऽप्यात्मनो देहप्रदेशे ज्ञातृत्वम्, नान्यत्र, शरीरस्योपभोगायतनत्वात् / अन्यथा तस्य वैयर्थ्यादिति / ' ___ जैन दर्शन के अनुसार आत्मा शरीर-व्यापी है। स्थानाङ्ग सूत्र में-धर्म, अधर्म, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश तुल्य माने गये हैं अर्थात् ये चारों द्रव्य असंख्य प्रदेशी हैं अतः व्याप्त होने की क्षमता के अनुसार आत्मा लोक के समान विराट् है। केवली समुद्घात के समय आत्मा कुछ समय के लिए व्यापक बन भी जाती है। भगवती सूत्र में जीवास्तिकाय को लोक-प्रमाण कहा गया है। प्रदेश संख्या की दृष्टि से धर्म, अधर्म, 'लोकाकाश तथा एक जीव समतुल्य हैं किन्तु अवगाह की अपेक्षा से ये समान नहीं है / धर्मास्तिकाय आदि पूरे लोक में व्याप्त है। ये तीनों द्रव्य गतिशन्य तथा निष्क्रिय हैं। इनमें ग्रहण, उत्सर्ग नहीं होता। किसी प्रकार की प्रतिक्रिया भी इनमें नहीं होती इसलिए इनके परिमाण में कोई परिवर्तन नहीं देखा जाता। संसारी जीवों में पुद्गल का ग्रहण होता है। उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया होती है अतः उनका परिमाण सदा एक सरीखा नहीं रहता। उसमें संकोच-विकोच होता रहता है / कार्मण शरीर युक्त आत्मा में संकोच-विकोच होता है। कार्मण शरीर के चले जाने पर संकोच-विकोच भी नहीं होता। मुक्त आत्मा में कार्मण शरीर के अभाव के कारण ही संकोच-विकोच नहीं होता है / संसारी आत्मा कार्मण शरीर युक्त है अतः उसमें संकोच-विकोच होता रहता है / जैन के अनुसार समुद्घात के समय को छोड़कर आत्मा शरीर परिमाण है गुरुलघुदेहपमाणो अत्ता चत्ता हु सत्तसमुघायं। ववहारा णिच्छदो असंखदेसो हु सो णेओ। नयचक्र-१२१ आत्मा के व्यापकत्व की वैकल्पिक स्थिति है मूलतः वह शरीर-प्रमाण ही है। आचार्य हेमचन्द्र ने आत्मा के शरीर परिमाणत्व की सिद्धि तथा उसके व्यापकत्व का निराकरण करते हुए अन्ययोगव्यवच्छेदिका में कहा है Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा की देह-परिमितता / 49 यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवत् निष्प्रतिपक्षमेतत्। .. * तथापि देहाद् बहिरात्मतत्वमतत्त्ववादोपहताः पठन्ति / / - जिस पदार्थ के गुण जहां उपलब्ध होते हैं वह पदार्थ वहीं होता है, अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता / आत्मा के ज्ञान आदि गुण शरीर में उपलब्ध हैं अतः आत्मा शरीर-व्यापी ही है, विभु नहीं है / आत्मा के शरीर परिमाणत्व को प्रस्तुत करते हुए आचार्य मल्लिषेण ने स्याद्वादमञ्जरी में कहा है-'आत्मा सर्वगतो न भवति, सर्वत्र तद्गुणानुपलब्धेः यो यः सर्वत्रानुपलभ्यमानगुणः स स सर्वगतो न भवति, यथा घटः तथा चायम् तस्मात् तथा व्यतिरेके व्योमादि।' इस प्रकार जैन दार्शनिकों ने एक स्वर से आत्मा के देह परिमाणत्व को स्वीकृति दी है तथा उसके व्यापकत्व का निराकरण किया है। विशेषावश्यक भाष्य में आत्मा के देह परिमाणत्व को सिद्ध करनेवाली युक्तियों का उल्लेख है। आत्मा कार्मण शरीर की सहायता से संकोच-विकोच स्वभाववाला होने के कारण ही देह परिमाण है। संकोच-विकोच के कारण ही एक ही आत्मा हाथी के शरीरवाली एवं कुंथु के शरीर जितनी सीमित भी हो जाती है / आत्मा के इस संकोच-विकोच को भगवती में दीपक के उदाहरण से स्पष्ट किया है। दीपक को यदि खले आकाश में रखा जाता है तो उसका प्रकाश विस्तृत हो जाता है। उसी दीपक को यदि कमरे में ढकनी के नीचे रखा जाता है तो उसका प्रकाशं सीमित हो जाता है / इसी प्रकार कार्मण शरीर के आवरण से आत्मा में संकोच विस्तार होता रहता है। जो आत्मा बालक के शरीर में रहती है वही युवा तथा वृद्ध शरीर में रहती है। कार्मण शरीर के कारण उसमें संकोच-विकोच सम्भव है। पाश्चात्य मत में आत्मा का परिमाण - आत्या के परिमाण के बारे में पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी विचार किया है। प्लेटो के अनुसार जीवात्मा का स्थान प्राणियों का शरीर है / उन्होंने आत्मा को कई भागों में विभक्त किया है—बौद्धिक, अबौद्धिक कुलीन तथा अकुलीन / उनके अनुसार आत्मा के विभिन्न भाग शरीर के विभिन्न भागों में स्थित है / बौद्धिक आत्मा का स्थान सिर है। अबौद्धिक कुलीन आत्मा का स्थान छाती है तथा अबौद्धिक अकुलीन आत्मा का स्थान शरीर का निचला भाग है / आधुनिक दार्शनिक रेने देकार्ते ने आत्मा का स्थान मस्तिष्क के अग्र भाग में स्थित पीनियल ग्रन्थि को माना है। शरीर में आत्मप्रदेशों की सघनता आत्मा शरीर-व्यापी है फिर भी उसके कुछ विशिष्ट स्थान हैं जहां आत्म-प्रदेश सघनता से रहता है, जिनको मर्म स्थान कहा जाता है। 'बहुभिरात्मप्रदेशैरधिष्ठिता Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 / आर्हती-दृष्टि देहावयवा मर्माणि / ' इनको चैतन्य केन्द्र भी कहा जाता है / आत्मा शरीर परिमाण होते हुए भी आत्म प्रदेशों की सघनता एवं विरलता के कारण देकार्ते का मत 'आत्मा पीनियल ग्रन्थि में रहती है' सर्वथा आलोच्य नहीं है क्योंकि प्रेक्षाध्यान की भाषा में पीनियल को ज्योति केन्द्र कहा जाता है। वहां आत्म प्रदेशों की सघनता है। शायद इस सघनता के कारण ही देकार्ते ने आत्मा का निवास स्थान पीनियल ग्रन्थि को माना है। ऐसे ही योग की भाषा में समझने से प्लेटो का भी आत्मा के निवास स्थान का अभिमत समझ में आ जाता है। योग के अनुसार प्रशस्त केन्द्र शरीर के ऊपरी भाग में हैं तथा कामकेन्द्र इत्यादि उसके निम्न भाग में हैं। शरीर परिमाणत्व पर आक्षेप एवं परिहार ___आत्मा को शरीर परिमाण मानने पर जैन दार्शनिकों के सामने समस्या उपस्थित की गई कि–'यत् सपरिमाणं तद् सावयवं यत्सावयवं तदनित्यम् / ' जैन का मंतव्य है कि आत्मा कथंचित् अनित्य भी है / जो सपरिमाण होता है, वह सावयव तथा जो सावयव है वह अनित्य है, इस प्रकार जैन के सामने आत्मा के अनित्य होने का प्रसंग उपस्थित किया गया। जो सावयव हो वह अनित्य हो यह जरूरी नहीं है। जैसे घटाकाश, पटाकाश रूप से आकाश सावयव है और नित्य भी है तथा जैन के अनुसार संसार में सम्पूर्ण पदार्थ नित्यानित्य है। आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु। आत्मा नित्य भी है, अनित्य भी है / आत्मा का चैतन्य स्वरूप कदापि नहीं छूटता अतः आत्मा नित्य है / आत्मा के प्रदेश संकुचित एवं विकसित होते रहते हैं, कभी सुख कभी दुःख इत्यादि पर्यायान्तरो से आत्मा अनित्य है। अतः स्याद्वाद दृष्टि से सावयवता भी आत्मा के शरीर परिमाण होने में बाधक नहीं हैं। आत्मा को शरीर प्रमाण मानने से शरीरच्छेद के साथ आत्मा के छेद का प्रसंग भी उपस्थित होगा। जैन को कथंचिद् आत्मोच्छेद मानने में कोई आपत्ति नहीं है। ऐसी अनेक आपत्तियां दार्शनिकों ने आत्मा के देह परिमितत्व के संदर्भ में उपस्थित की हैं किन्तु स्याद्वाद, अनेकान्तवाद के समक्ष वे सब परास्त हो जाती हैं। अतः आत्मा के शरीर परिमाण होने में कोई आपत्ति नहीं है। 'आत्मा व्यापको न भवति, चेतनत्वात यत्त व्यापकं न तत् चेतनम, यथा व्योमः चेतनश्चात्मा, तस्माद् न व्यापकः।' / आत्मा न अणु रूप है न विभु रूप किन्तु वह मध्यम परिमाण वाली शरीर-व्यापी है। यह जैन दर्शन का मन्तव्य है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव की पहचान संसार जड़ और चेतन, सजीव और निर्जीव इन दो तत्त्वों से परिपूर्ण हैं / लोक का कोई भी स्थान ऐसा नहीं है जहां ये दो तत्त्व उपलब्ध न होते हों। जड़ और चेतन की भेद रेखा क्या है ? किस लक्षणवाले को जीव कहा जाये तथा अजीव पदार्थ का लक्षण क्या है ? यह प्रश्न मस्तिष्क में आंदोलित होता रहता है। ____ भारतीय दार्शनिकों ने जीव के स्वरूप को व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया। चार्वाक् इतर सारे भारतीय दर्शन आत्मवादी हैं। अतएव उन्होंने अपने चिन्तन के . . अनुसार इसकी व्याख्या की है। सांख्य दर्शन आत्मा को नित्य निष्क्रिय, सर्वगत एवं चिद्स्वरूप मानता है। अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः / अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्मः आत्मा कापिलदर्शने // मांख्य जीव को कर्त्ता नहीं मानता, फल भोक्ता मानता है। उसके अनुसार कर्तृत्व शक्ति प्रकृति में है। - न्याय वैशेषिकों के अनुसार आत्मा नित्य एवं विभु है / सुख, दुःख, बुद्धि, द्वेष इत्यादि उसके लिङ्ग हैं / इच्छाद्वेषप्रयलसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गम् / ' वे ज्ञान को आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं मानते किन्तु आगत गुण मानते हैं अतएव उनकी आत्मा मुक्ति अवस्था में जड़ रूप बन जाती है। बौद्ध के अनुसार आत्मा स्थायी एवं नित्य नहीं है। चेतना का प्रवाहमात्र है। अतएव बौद्ध अपने आपको अनात्मवादी कहते हैं / ___वेदान्त के अनुसार आत्मा (ब्रह्म) एक है किन्तु देहादि उपाधियों के कारण नाना प्रतीत होती हैं। ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् में कहा गया ‘एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यस्थितः' इस प्रकार वेदान्त दर्शन एकात्मवादी है / इसके विपरीत वेदान्त का ही एक अंग विशिष्टाद्वैत जीवों की संख्या अनन्त तथा उन सबका स्वतन्त्र अस्तित्व मानता मीमांसक भी आत्मा को नित्य मानता है किन्तु अवस्था भेदकृत भेद भी उसे मान्य है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 / आर्हती-दृष्टि - जैन दर्शन के अनुसार आत्मा परिणामी नित्य है / चैतन्य स्वरूप है / शुभाशुभ कर्म की कर्ता एवं भोक्ता है / स्वदेह परिणाम है न अणु न विभु किन्तु मध्यम परिमाण वाला है। उपयोग लक्षण वाला है जीवो उवयोगमओ अमुत्तिकत्ता सदेह परिमाणो भोत्ता संसारत्यो सिद्धो सो विस्ससोडगई। - आत्मा अस्तित्ववान् है अविनाशधर्मा है / वह कर्मों का कर्ता है तथा कृत को का भोग भी वहीं करता है ।अस्थि अविणासधम्मी करेइ वेएई सन्मतिप्रकरण, 3/55) हरिभद्राचार्य ने जीव के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा “तत्र ज्ञानादिधर्मेभ्यो भिन्नाभिन्नो विवृतिमान् / शुभाशुभकर्म कर्ता भोक्ता कर्म फलस्य च।" . चैतन्य लक्षणो जीव / जैन दर्शन के अनुसार जीव दो प्रकार के हैं—संसारी एवं सिद्ध / सिद्ध जीव शुद्ध बुद्ध मुक्त है उनको हम नहीं देख सकते / शुद्ध जीव को परिभाषित करते हुए कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है जीवस्स णत्थि वण्णो णवि गंधो णवि रसो णवि य फासो जवि एवं ण सरीरं णवि संठाणं ण संहणणं समयसार गा 50 .यह स्थिति शुद्ध जीव की है, निश्चयनय की व्याख्या है। किन्तु हमारे अनुभव का विषय संसारी जीव बनता है। उसकी पहचान किससे होती है। यह विमर्शनीय बिन्दु है। अब हमारा जीव के अभिज्ञान से तात्पर्य संसारी जीव से है / भगवती सूत्र में जीव की पहचान के लक्षण को प्रस्तुत करते हुये कहा गया है कि जीव के जीवत्व की अभिव्यक्ति शक्ति एवं प्रयल के द्वारा उत्था (चेष्टा) पूर्वक गति से होती है / उत्थान, बल, पराक्रम इत्यादि वीर्य की अवस्था विशेष है। शक्ति के द्वारा जीव अपने जीवत्व को अभिव्यक्त करता है। प्रयल और उवयोग जीव और अजीव की विभाजक रेखा है। भगवती में ही कहा गया ‘उवओगलक्खणे णं जीवे जीव का लक्षण उपयोग है। चेतना के व्यापर को उपयोग कहा जाता है / चेतना का व्यापार बिना शक्ति के नहीं हो सकता। मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से मतिज्ञान की प्राप्ति होती है किन्तु उसकी प्रवृत्ति नामकर्म के उदय तथा वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से होगी / अतएव प्रयत्न Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव की पहचान / 53 एवं उपयोग जीव के अभिज्ञान के हेतु हैं। . द्रव्यसंग्रह में आचार्य नेमिनचन्द्र ने कहा है कि व्यवहार नय की अपेक्षा जिसके तीनों कालों में इन्द्रिय बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण पाये जाते हैं, वह जीव हैं तथा निश्चय नय से चेतना ही जीव है। व्यवहार नय से आठ प्रकार का ज्ञानोपयोग एवं चार प्रकार का दर्शनोपयोग सामान्य जीव का लक्षण है किन्तु शुद्धनय की अपेक्षा शुद्धज्ञान तथा दर्शन ही जीव का लक्षण है। उपर्युक्त जीव का लक्षण व्यवहार तथा निश्चय नय के आधार पर किया गया है। - पञ्चास्तिकाय में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा ण हि इंदियाणि जीवा काया पुण छप्पयार पण्णता। जं हवदि तेसु णाणं जीवो ति यतं परूवंति // . पञ्चास्तिकायगा, 121 स्पर्श आदि इन्द्रियों तथा पृथ्वीकाय आदि काय ये जीव नहीं है। उनमें जो ज्ञान मात्रा है, वही जीव है। ___ आचार्य नेमिचन्द्र ने इन्द्रिय इत्यादि जिनके होते हैं उनको जीव कहा और आचार्य कुन्दकुन्द ने उनमें जीवत्व का निषेध किया है। तत्काल देखने से दोनों के कथन में विरोध प्रतीत होता है / किन्तु नयदृष्टि से विचार करने से विरोध समाप्त हो जाता है। नेमिचन्द्र की व्याख्या व्यवहार नयानुगामिनी और आचार्य कुन्दकुन्द की व्याख्या निश्चय नया--गामिनी है। व्यवहारनय से कुन्दकुन्द को भी इन्द्रिय आदि जीव रूप में मान्य है तथा निश्चयनय के अनुसार इन्द्रियादि के जीवत्व का अस्वीकार नेमिचन्द्र जी को भी मान्य है। ___ जीव की पहचान एवं उसको अजीव से पृथक् करने के कुछ असाधारण लक्षण पश्चास्तिकाय में उपलब्ध है। जाणादि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुखं विभेदि दुक्खादो। कुवदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं॥ जीव समस्त पदार्थों को जानता देखता है। वह सुख की अभिलाषा करता है। दुःख से भयभीत होता है / हित अहित को करता है तथा उनके फल को स्वयं भोगता है। दशवैकालिक सूत्र में भी जीव की इच्छा शक्ति का निरूपण है। संसार के कोई 'भी प्राणी मरना नहीं चाहते जीना चाहते हैं / उनकी यह चाह (इच्छा) ही उनमें जीवत्व Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 / आर्हती-दृष्टि की सिद्धि करती है। पातञ्जल योग दर्शन में भी जीव की अमर रहने की इच्छा का निरूपण है ‘मा भूवं मा भूयासम्' कोई भी प्राणी यह नहीं चाहता कि मैं नहीं था और नहोऊँ / वह यही चाहता है मैं था और हमेशा रहंगा / इस प्रकार की भावना छोटे-से-छोटे जातमात्र कीड़े में भी होती है / जीव स्वहित के लिए प्रवृति एवं अहित से निवृत्ति करते हैं। उनकी यह चेष्टा उनके जीवत्व को सूचित करती है। जिन पदार्थों में सुख दुःख का संवेदन नहीं होता अपने हिताहित के लिए प्रवृत्ति निवृत्ति नहीं होती, जिनमें उपयोग लक्षण नहीं है वे अजीव हैं अचेतन हैं / ____ आत्मा का नैश्चयिक लक्षण चेतना है वह न्यूनाधिक रूप में सम्पूर्ण जीवों में होती है। कर्मों के आवरण के कारण जीवों में चेतना सर्वथा आवृत्त नहीं हो सकती / उसका अक्षर के अनन्तवे भाग जितना अंश सदैव उद्घाटित रहता है, अक्खरस्स अणंततमो भागो निच्चुग्घाडियो हवइ' अन्यथा जीव अजीव में ही परिणत हो जाता है। तत्त्वार्थ सूत्र में औदयिक अदि पांच भावों को जीव का स्वरूप बताया गया'औपशमिकक्षायिकभावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ. च।' औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक भाव के आधार पर जीव अपने व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व का निर्माण करता है। पांच भाव जीव के व्यक्तित्व निर्धारण के पेरामीटर हैं / व्यक्ति क्यों है? कैसा है ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान इन भावों के आधार पर ही किया जा सकता है। भाव जीव की पहचान के मुख्य एवं महत्त्वपूर्ण घटक तत्त्व हैं। इन भावों के आधार पर व्यक्ति की भौतिक, मनोवैज्ञानिक, चैतसिक एवं आत्मिक अवस्थिति की व्याख्या की जा सकती है। उसके शरीर का आकार-प्रकार, बुद्धि की सामान्यता एवं विशिष्टता, संवेगों की बहुलता एवं न्यूनता, विचारों की पवित्रता या अपवित्रता आदि तथ्यों का संज्ञान पांच भावों के आधार पर करना दार्शनिक एवं विज्ञान जगत् के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकता है। खाना, पीना, सोना, उठना, निद्रा, भय, प्रजनन वृद्धि क्षत-संरोहण ये जीव के व्यावहारिक लक्षण है / बॉयोलोजी में कोशिका के लक्षण दिये गये-वृद्धि, चयापचय, प्रजनन और संवेदना ये लक्षण ही जीव और अजीव की भेदरेखा है। उपर्युक्त लक्षण अजीव में नहीं पाए जाते / एक मशीन खा सकती है किन्तु उसके शरीर में वृद्धि नहीं हो सकती। मशीन को चलाने के लिए पैट्रोल ईंधन आदि दिये जाते हैं। उससे वह चलती तो रहती है किन्तु उस आहार का सात्मीकरण नहीं कर सकती / जीव पदार्थ अपने आहार का ग्रहण, परिणमन एवं उत्सर्ग आहार पर्याप्ति के द्वारा कर लेता है। यह सामर्थ्य जीव में ही है अजीव में नहीं / सजीव पदार्थ ही अपने द्वारा गृहीत आहार Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव की पहचान / 55 का सात्मीकरण कर सकता है। यह सात्मीकरण की क्षमता जीव पदार्थ में ही है। अजीव में नहीं। अतः पर्याप्ति भी जीव का लक्षण है। यन्त्र में प्रजनन क्षमता नहीं है वे अपने सजातीय से न तो उत्पन्न होते हैं और न ही सजातीय को पैदा करते हैं ।इसके विपरीत जीव सजातीय से उत्पन्न भी होता है और सजातीय को पैदा भी करता है। ___कोई भी यन्त्र मनुष्यकृत नियमन के बिना इधर-उधर घूम नहीं सकता। तिर्यग् गति नहीं कर सकता। एक रेलगाड़ी पटरी पर दौड़ सकती है, हवाई जहाज आकाश में उड़ सकता है किन्तु अपनी इच्छा से एक इंच भी इधर-उधर नहीं हो सकता जबकि एक छोटी-सी चींटी अपनी इच्छा से तिर्यग्गति करती रहती है / यन्त्र क्रिया का नियामक तत्त्व चेतनावान् प्राणी ही है। यन्त्र और प्राणी की स्थिति एक-सी नहीं है / ये लक्षण जीवधारियों की अपनी विशेषता है / जड़ पदार्थ में उपलब्ध नहीं होते हैं। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव : जीवात्मा आत्मा की अवधारणा भारतीय दर्शन की आत्मा है / प्रत्येक भारतीय दर्शन ने निर्विवाद रूप से आत्मा के अस्तित्व को स्वीकृति दी है। आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में उनकी विचारधारा में मतभेद है। आत्मा के परिप्रेक्ष्य में वहां एक प्रश्न उभारा गया कि-आत्मा एक है या अनेक।। एकात्मवाद और नानात्मवाद की चर्चा के संदर्भ में सांख्य दर्शन अनेक आत्माओं के अस्तित्व को स्वीकृत करता है / नैयायिक एवं वैशेषिक आत्मा को सुख दुःख और ज्ञान की निष्पत्ति की अपेक्षा से एक तथा सुखादि की व्यवस्था से अनेक भी मानता है। वेदान्त आत्मा को एक मानता है तथा जैन दर्शन आत्मा के नानात्व में विश्वास. रखता है। जैन के अनुसार जीवात्मा ही परमात्मा बन जाता है / इससे वह वेदान्त के निकट पहँच जाता है किन्तु वेदान्त के जीवात्मा अनेक हैं, परमात्मा एक है ।जैन के अनुसार जितने जीवात्मा है, उतने परमात्मा हो सकते हैं। जैन अनेकात्मवादी है। एकात्मवादी वेदान्त शुद्धस्वरूप, व्यापक ब्रह्म को ही स्वीकार करता है, उसके अनुसार ब्रह्म सत्य है जगत् मिथ्या है, इन दार्शनिकों के सामने एक समस्या उत्पन्न होती है कि जब ब्रह्म शुद्ध स्वरूप है विकार रहित है तो हिंसादि कार्य कौन करता है ? इसका समाधान वे जीव और जीवात्मा इन दो शब्दों से प्रस्तुत करते हैं / उपनिषद् में दो शब्द प्रयुक्त हुए-जीव, समष्टिगत आत्मा अर्थात् ब्रह्म जीवात्मा अर्थात् प्रत्यगात्मा (Indivisual-soul) / भगवती सूत्र में भी यह चर्चा पूर्वपक्ष के रूप में उल्लिखित है 'प्राणातिपात आदि अठारह पापों में वर्तमान जीव अन्य है तथा जीवात्मा अन्य है, इसी प्रकार अन्य स्थितियों में भी जीव और जीवात्मा की पृथक् सत्ता को उन्होंने व्याख्यायित किया है। सूत्रकृताङ्ग सूत्र में इसी भाव को अभिव्यक्त करने वाला श्लोक है-एक ही पृथ्वी स्तूप, पर्वत, गुफा आदि नाना रूपों में दिखाई देता है, वैसे ही एक ब्रह्म ही नाना रूपों में प्रतिभासित हो रहा है। ब्रह्म-बिन्दु उपनिषद् में कहा गया—एक ही भूतात्मा सबमें व्यवस्थित है / वह एक होने पर भी जल में चन्द्र के प्रतिबिम्ब की भांति नाना रूपों में दिखाई देता है एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः / एकथा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् // . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव : जीवात्मा / 57 कठोपनिषद् में भी जीव के एकत्व का प्रतिपादन है। जैसा कहा भी है कि अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा, रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च // ___ (कठोपनिषद्) भगवान महावीर ने कहा—जीव और जीवात्मा को पृथक् मानने की कल्पना सम्यक् नहीं है / जीव और जीवात्मा एक ही है। जो जीव है वही जीवात्मा है जो जीवात्मा है वही जीव है। जैन दृष्टि यह रही है कि एक आत्मा या समष्टि चेतना वास्तविक नहीं है और न वह दृश्य जगत् का उपादान भी है / अनन्त आत्माएं हैं और प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र इसलिए है कि उसका उपादान कोई दूसरा नहीं है। चेतना व्यक्तिगत है। प्रत्येक आत्मा का चैतन्य अपना-अपना है / एकात्मवादियों का कहना है कि ब्रह्म शुद्ध स्वरूप है, व्यापक है / वह हिंसा आदि क्रिया नहीं करता। हिंसा में (प्रवृत्ति और निवृत्ति शरीरावछिन्न जीवात्मा ही करती है, उनकी यह मान्यता तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती है / वे प्रतिबिम्बवाद के समर्थक हैं किन्तु उनके सामने एक समस्या उपस्थित होती है कि जो घटना बिम्ब में नहीं है वह प्रतिबिम्ब में कैसे घटित हो सकती है ? हिंसादि बिम्ब में नहीं है तो उसके प्रतिबिम्ब जीवात्मा में भी वे कैसे हो सकती है ? पानी में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ता है, आकाश स्थित चन्द्र यदि मेघाच्छादित नहीं है तो वह पानी में भी मेघाच्छादित नहीं दिखाई दे सकता। अंगुली हिलायेंगे तो वह दर्पण में हिलती हुई दिखाई देगी अन्यथा नहीं अतः जैन दर्शन नाना आत्माओं को ब्रह्म का प्रतिबिम्ब स्वीकार नहीं करता / जीव और जीवात्मा की पृथक् सत्ता उसको मान्य नहीं है। उसके अनुसार आत्माएं अनेक हैं तथा उन सबका स्वतंत्र अस्तित्व है। वे ब्रह्म जैसी किसी भी वस्तु का प्रतिबिम्ब नहीं हैं। ___ एकात्मवाद में क्रिया की सार्थकता नहीं होती इसलिए एकात्मवादी ज्ञानवादी होते हैं, क्रियावादी नहीं होते। एकात्मवाद में न कोई हिंस्य होता है और न कोई हिंसक / इसलिए वे हिंसा करते हुए भी हिंसा को नहीं मानते। ___ जैन दर्शन के अनुसार जीव अपनी प्रत्येक क्रिया का उत्तरदायी होता है / उसकी क्रिया स्वप्रेरित है। 'ठाणं' सूत्र में आगत ‘एगे आया' का वक्तव्य संग्रह नय की अपेक्षा शुद्ध चैतन्य की समानता के आधार पर दिया गया है / सब आत्माओं का स्वरूप एक जैसा होने पर भी उन सबका स्वतन्त्र अस्तित्व है / अतः जैन दर्शन के अनुसार मुक्तावस्था में भी सभी आत्माओं का स्वतन्त्र अस्तित्व रहता है। सभी आत्माओं का वैयक्तिक अस्तित्व है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत् की सर्वज्ञता सभी भारतीय दर्शनों में परस्पर एकवाक्यता है और वह एकवाक्यता है सब दर्शनों की अध्यात्म प्रधानता। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा रत्नत्रय की आराधना के द्वारा परम प्रकर्ष स्थिति को प्राप्त कर सकती है। आत्मा स्वरूपत: ज्ञ स्वभाव वाली है। आवारक कर्मों के नाश हो जाने पर वह सम्पूर्ण ज्ञायक भाव को प्राप्त कर लेती है। अतएव जैन दर्शन ने सदा से ही त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों के प्रत्यक्ष दर्शन के अर्थ में सर्वज्ञता स्वीकार की है / मीमांसा दर्शन के अतिरिक्त सभी भारतीय दर्शनों ने सर्वज्ञता को स्वीकार किया है। जैन आगमों में सर्वज्ञता के प्रसंग से केवलज्ञान का उल्लेख है / जो समस्त द्रव्य तथा उनकी त्रिकालवी पर्यायों को जानता है वह केवलज्ञान है / आचार्य समन्तभद्र ने सर्वप्रथम आगममान्य सर्वज्ञता को युक्ति और तर्क द्वारा सिद्ध करने का प्रयत्न करके दर्शन शास्त्र में सर्वज्ञ की चर्चा का अवतरण किया। उन्होंने कहा कि आप्त वही हो सकता है जो निर्दोष और सर्वज्ञ हो तथा जिसके वचन युक्ति और आगम के विरुद्ध न हो / सर्वज्ञता के निषेध में मुखरित स्वर को प्रतिहत करते हुए उन्होंने कहा- . दोषावरणयोहानि - निशेषातिशायनात् / क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः / / दोष और आवरण का सर्वथा नाश सम्भव है क्योकि उनमें तारतम्य देखा जाता है अर्थात् क्लेश और अज्ञान व्यक्ति में भिन्न-भिन्न स्तर में पाये जाते हैं उनमें तारतम्य होता है और जहां तारतम्य होता है उसकी पराकाष्ठा भी अवश्य होती है अत: उस तारतम्य की जहाँ विश्रान्ति हो जाती है वह सर्वज्ञता है / आचार्य हेमचन्द्र ने भी सर्वज्ञ सिद्धि में यही युक्ति दी है। 'प्रज्ञातिशयविश्रान्त्यादिसिद्धेस्तत्सिद्धिः' पातञ्जल योग भाष्य में सर्वप्रथम यह युक्ति प्राप्त होती है "तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्।' जब आत्मा-दोष और आवरण से मुक्त हो जाती है तब वह सर्वज्ञ बन जाती है। जैसे अग्नि, मृत्पुटपाक आदि कारणों के द्वारा सोने के बहिरंग व अन्तरंग दोनों मलों का नाश हो जाता है वैसे ही कर्म मल के नाश होने से सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है। आत्मा का स्वभाव जानने का है जब प्रतिबन्धक कर्म दूर हो जाते है तब उसका ज्ञ स्वभाव प्रकट Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत् की सर्वज्ञता / 59 . होगा ही। अग्नि का स्वभाव जलाने का है अग्नि की शक्ति का कोई प्रतिबन्धक न हो तो वह जलायेगी। इस कारिका के द्वारा सर्वज्ञता होती ही नहीं है इस अत्यन्तायोग का व्यवच्छेद हो गया। सर्वज्ञता होती है यह अवधारणा स्थापित हो जाती है। . बौद्ध दर्शन में भी क्लेशावरण एवं ज्ञेयावरण ये दो आवरण माने है / हीनयान शाखा के अनुसार मात्र क्लेश का नाश हो जाने से मुक्ति हो जाती है जबकि महायान के अनुसार मुक्ति के लिए क्लेश एवं आवरण का क्षय होना आवश्यक है। सांख्य दर्शन में मुक्ति के लिए विवेक ख्याति होनी आवश्यक है सर्वज्ञता होनी आवश्यक नहीं किन्तु जैन के अनुसार दोष और आवरण दोनों के नाश होने से ही मुक्ति संभव है। अन्यथा मुक्ति नहीं हो सकती। ___ सर्वज्ञता होती है यह अवधारणा स्थापित हो गयी तब प्रश्न हुआ वह सर्वज्ञता कही पर सम्भव हो सकती है। किन्तु किसी व्यक्ति विशेष में नहीं हो सकती इस अयोग रूप शंका का व्यवच्छेद करते हुये आचार्य समन्तभद्र ने कहा है 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञासंस्थितिः // ' ___ आप्तमीमांसा श्लोक 5 ____इस कारिका के द्वारा किया। सूक्ष्म, अन्तरित एवं दूरवर्ती पदार्थ किसी पुरुष के लिए प्रत्यक्ष होते हैं क्योंकि वे पदार्थ अनुमेय हैं जो पदार्थ अनुमेय होते हैं वे किसी के प्रत्यक्ष के विषय भी होते हैं / जैसे हम पर्वत पर स्थित अग्नि को अनुमान से जानते है परन्तु पर्वत पर स्थित पुरुष उसे प्रत्यक्ष से जानता है अत: इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जो किसी के लिए अनुमान के विषय होते हैं वे किसी के प्रत्यक्ष के विषय भी होते है अत: सूक्ष्म, दूरवर्ती पदार्थ हमारे अनुमान के विषय हैं अत: वे किसी न किसी के प्रत्यक्ष के विषय भी होंगे। जो इनको प्रत्यक्ष से जानता है वह सर्वज्ञ है / क्रमश: सर्वज्ञता को सिद्ध करते हुए आचार्य कहते हैं स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् / अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते / __ आप्तमीमांसा श्लोक-६ हे भगवान् ! वह सर्वज्ञ आप ही है क्योंकि आपके वचन युक्ति आगम के अविरुद्ध है। अर्हत् के द्वारा अभिमत तत्त्वों में किसी भी प्रमाण से कोई बाधा नहीं आ सकती Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 / आर्हती-दृष्टि है अत: अर्हत् ही सर्वज्ञ है इस कारिका के द्वारा आचार्य ने अन्ययोग का व्यवच्छेद करके अर्हत् को ही सर्वज्ञ स्वीकार किया है। जैसा कि हमने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि मीमांसा दर्शन के अतिरिक्त सभी भारतीय दर्शन सर्वज्ञता को स्वीकार करते है। जैन दर्शन के अनुसार आत्माएं अनादि काल से संसार में है तथा वे साधना के द्वारा अत्यन्त प्रकर्ष को प्राप्त करती हैं। वे सदैव मुक्त एवं सर्वज्ञ नहीं है जैसा कि सांख्य ईश्वर को मानता है। इसके विपरित अन्य भारतीय दर्शन सबको सर्वज्ञ होने की अनुमति नहीं देते उनके अनुसार ब्रह्म या ईश्वर सर्वज्ञ है जो अनादि मुक्त हैं / सांख्य न्याय-वैशेषिक ईश्वर को सर्वज्ञ मानते हैं। अन्य आत्माएं भी योगज सर्वज्ञता को प्राप्त कर सकती है। ईश्वर में सर्वज्ञता नित्य है / इस्लाम, ईसाई, यहूदी भी धर्म भी ईश्वर को स्वीकार करते हैं और उसे सर्वज्ञ मानते है। जैन दर्शन ईश्वरत्व को स्वीकार करता है पर वह विभूति रूप ईश्वर को स्वीकार करता है किन्तु सृष्टि कर्तृत्व के रूप में ईश्वर को स्वीकार नहीं करता। बौद्ध भी ईश्वर , को सृष्टिकर्ता नहीं मानते है / सांख्य के अनुसार ईश्वर ज्ञाता एवं उपदेष्टा है स्रष्टा नहीं। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा में ईश्वरत्व शक्ति विद्यमान है / उस शक्ति से प्रत्येक आत्मा ईश्वर एवं सर्वज्ञ बन सकती है। नन्दी का कथन है 'अक्खरस्स अणंततमोभागो निच्चुघाडियो हवइ' आज की भाषा में यही Cosmological freedom है। जो वार्य-कारण की परम्परा चल रही है Natural phenomena अर्थात् जो नियतिवाद है उसका सर्जक पुरुष ही है और ,वही पुरुष अपने पुरुषार्थ के द्वारा उस कार्य-कारण की धाराओं को मोड़ सकता है और Cosmological freedom से सम्पूर्ण सर्वज्ञता को प्राप्त कर सकता है। अन्य भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनों के अनुसार वह Cosmological freedom मात्र ईश्वर में है जबकि जैन के अनुसार सब जीवों में है अत: इसी के द्वारा जीव अपने में अन्तर्निहित सर्वज्ञता को प्राप्त कर सकते हैं। सर्वज्ञता और मोक्ष ___ सर्वज्ञता की चर्चा दार्शनिक क्षेत्र की विशिष्ट चर्चा रही है। मुक्ति का जिज्ञासु साधक मोक्ष मार्ग के तत्वों के अन्वेषण में लगा रहता है। प्राचीन काल में सर्वज्ञता का सम्बन्ध मोक्ष के साथ ही था। 'सर्व जानातीति सर्वज्ञः' जो सबको जानता है वह सर्वज्ञ है / मुक्ति के लिए सर्वज्ञ होना आवश्यक है या नहीं इस जिज्ञासा के सन्दर्भ में तथा कैवल्य एवं सर्वज्ञता के विषय में हम अपनी मीमांसा प्रस्तुतं करेगें। मीमांसा दर्शन के अतिरिक्त प्राय: सभी भारतीय दार्शनिकों ने सर्वज्ञता को स्वीकार Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत् की सर्वज्ञता / 61 किया है। भले ही वह सर्वज्ञता किसी में भी क्यों न रहे / न्याय वैशेषिक दर्शन ईश्वर के ज्ञान को उत्पाद विनाश से रहित त्रैकालिक युगपत् सब पदार्थों को जानने वाला मानते हैं। अत: ईश्वर सर्वज्ञ है / ईश्वर से भिन्न आत्माओं में भी वह सर्वज्ञता स्वीकार करता किन्तु सब मुक्त होने वाली आत्मा सर्वज्ञ हो यह अनिवार्य शर्त नहीं है / मोक्ष जाने के बाद भी सर्वज्ञ योगियों में पूर्ण ज्ञान शेष नहीं रहता क्योंकि वह ज्ञान ईश्वर ज्ञान की तरह नित्य नहीं है योगजन्य होने से वह अनित्य है / निष्कर्षत: न्याय वैशेषिक दर्शन जो मुक्ति को मानता है उसके अनुसार मुक्ति के लिए क्लेशों का नाश होना आवश्यक है। सर्वज्ञता का होना आवश्यक नहीं है। सांख्य योग और वेदान्त सम्मत सर्वज्ञत्व का स्वरुप भी वैसे ही है जैसा न्याय वैशेषिक मानते हैं। सांख्य और योग दर्शन ईश्वर को स्वीकार करते है तथा उससे सर्वज्ञ भी मानते हैं। अपरिणामी चेतन पुरुष में सर्वज्ञता का समर्थन न करने से बुद्धि तत्व में ही ईश्वरीय सर्वज्ञत्व का समर्थन करता है। सांख्य, योग और वेदान्त दर्शन में भी मोक्ष प्राप्ति के लिए सर्वज्ञत्व अनिवार्य शर्त नहीं है बिना सर्वज्ञता के भी मोक्ष प्राप्ति सम्भव है। सांख्य के अनुसार मुक्ति का हेतु विवेकख्याति है। विवेकख्याति होने से मोक्ष अवश्य हो जाता है / सांख्य का कहना है-'ज्ञानस्यैव पराकाष्ठा वैराग्य तन्नातरीयकं कैवल्यम्' ज्ञान की पराकाष्ठा वैराग्य है और कैवल्य उसका अविनाभावि है / यह कैवल्य आत्मा की वीतराग अवस्था की ही सूचना देता है सर्वज्ञता की नहीं। बौद्ध दर्शन की दो शाखाएं है-हीनयान और महायान / हीनयान शाखा के अनुसार मुक्ति के लिए अज्ञान का नाश होना अनिवार्य नहीं है, अक्लिष्टज्ञानम् / क्लेशों का नाश हो जाने से मुक्ति हो जाती है / 'क्षयानुत्पादज्ञाने बोधि: / ' मेरा आसव क्षय हो गया तथा उसका कभी उत्पाद नहीं होगा उसका ऐकान्तिक और आत्यन्तिक नाश हो गया है यही बोधि है, वीतरागता है / बौद्ध दर्शन के इतिहास को देखे तो ज्ञात होता है कि वह प्रारम्भ से सर्वज्ञवादी नहीं था धर्मज्ञवादी था। स्वयं बुद्ध ने बोधि प्राप्त होने के बाद कहा मेरा शिष्य कहाँ है / यदि वे सर्वज्ञ होते तो ऐसा प्रश्न क्यों पूछते / बाद के आचार्यों ने उनको सर्वज्ञ कहना शुरु किया। शान्तरक्षित सर्वज्ञता को सिद्ध करते हुए कहते है कि चित् स्वयं प्रभास्वर है अतएव स्वभाव से प्रज्ञाशील है / क्लेशावारण और ज्ञेयावरण ये आगन्तुक है / नैरात्मय दर्शन के द्वारा भावना बल से स्थायी सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है। संक्षेप में हम यही कह सकते हैं कि बोद्ध दर्शन में मोक्ष के लिए सर्वज्ञता अनिवार्य शर्त नहीं थी बोधि होना आवश्यक था और उस वीतरागता से मोक्ष प्राप्त हो जाता है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 / आर्हती-दृष्टि जैनदर्शन जो सर्वज्ञता का प्रबल समर्थक है उसने मोक्ष के लिए सर्वज्ञता को अनिवार्य रुप से स्वीकार किया है। समस्त ज्ञानावरण के समूल नाश होने पर आत्मा का स्वभाव केवलज्ञान प्रकट होता है जब तक आवारक कर्म रहते है तब तक आत्मा का ज्ञस्वभाव प्रकट नहीं होता है। आवरक कर्मों के दूर होने पर ज्ञ-स्वभाव तो प्रकट होगा ही। ..'ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते' जैन दार्शनिकों ने प्रारम्भ से ही त्रिकालत्रिलोकवर्ती ज्ञेयों के प्रत्यक्ष दर्शन के अर्थ में सर्वज्ञता मानी है और उसका समर्थन किया। आचार्य कुन्दकुन्द जो निश्चयनय के उद्गाता थे उन्होंने कहा जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं। केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं // केवली व्यवहार नय से सब पदार्थों को जानते है / कुन्दकुन्द के इस कथन से फलित होता है कि सर्वज्ञता का पर्यवसान आत्मज्ञता में ही होता है / यद्यपि कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों में सर्वज्ञता के व्यवहारिक कथन का वर्णन और समर्थन उपलब्ध होता है। आचारांग, भगवति आदि प्राचीन आगमों में भी सर्वज्ञता का उल्लेख है-'से भगवं अरहं जिणे सव्वन्नू सव्वभाषदरिसि. . . . / ' जैन दर्शन के अनुसार सर्वज्ञता मोक्ष प्राप्ति की अनिवार्य शर्त है। सर्वज्ञ हुये बिना कोई भी मुक्त नहीं हो सकता। यद्यपि ज्ञानावरण के क्षय से पूर्व नियम से मोह कर्म का क्षय हो जाता है। अर्थात् वीतरागता के बाद ही सर्वज्ञता हो सकती है और यदि हम जैन साधना पद्धति पर ध्यान दे तो वह वीतरागता की साधना है। सर्वज्ञता की साधना का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। राग द्वेष से मुक्ति की साधना का मार्ग उपलब्ध होता है। साधक उसके लिए ही प्रयत्न करता है। _ अन्य दर्शन जो जैन दर्शन के समकालीन है, किसी ने भी मोक्ष के लिए सर्वज्ञता को अनिवार्य नहीं माना जबकि जैन दर्शन ने सर्वज्ञता को अनिवार्य माना है / ऐसा क्यों हुआ यह प्रश्न निश्चित रुप से विद्वानों की मीमांसा का विषय होना चाहिए। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचय-ध्यान और अनुप्रेक्षा ___ जैन धर्म में ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान है / अनशन आदि से भी अधिक महत्त्व ध्यान को प्राप्त है / तपस्या के द्वारा वर्षों से जितनी निर्जरा नहीं हो सकती उतनी ध्यान से क्षणों में हो सकती है / लव सत्तमिया देव इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। भगवान महावीर ध्यान के लिए तपस्या करते थे। ध्यान के द्वारा ही वे सम्बोधि को प्राप्त हए। ध्यान के महत्त्व को प्रकट करते हुए कहा गया कि यदि अन्य जीवों के कर्मों का संक्रमण हो सकता हो तो क्षपक क्षेणी आरूढ़ मुनि अपनी ध्यान शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण कर्मवान् प्राणियों के कर्म को काटने में समर्थ हो सकता है। जैन-ध्यान-क्रम का उल्लेख व्यवस्थित रूप से स्थानाङ्ग में प्राप्त होता है। वहाँ चार प्रकार के ध्यान का उल्लेख है-आर्त, रौद्र धर्म्य और शुक्ल। ... मेरा विवेच्य विषय विचय-ध्यान अर्थात् धर्म्य-ध्यान है / प्राकृत में 'धम्म-झाणं' शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका संस्कृत रूपांतरण धर्म और धर्म्य दोनों हो सकते हैं। कुछ आचार्यों ने इसका संस्कृत रूपांतरण धर्म-ध्यान स्वीकार किया है। किन्तु अधिकांश ने धर्म्य-ध्यान का ही प्रयोग किया है। धर्म से युक्त को धर्म्य कहा जाता है। धर्म शब्द के एकाधिक अर्थ प्राप्त हैं। वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा जाता है। मोह-क्षोभ रहित आत्मा की निर्मल परिणति को भी धर्म कहा जाता है / सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र को भी धर्म कहा जाता है। क्षमा आदि भी धर्म के दस प्रकार हैं। इनको ध्येय बनानेवाला ध्यान धर्म्य-ध्यान कहलाता है। केवल निर्विचार अवस्था ही ध्यान नहीं है, राग-द्वेष शून्य, अहंकार-ममकार रहित विचार भी ध्यान है। केवल यथार्थ का अन्वेषण करनेवाला ध्यान विचय कहलाता है। विचिति, विवेक, विचारणा, विचय अन्वेषण और मार्गण समानार्थक है। विचय ध्यान के प्रकार ध्येय भेद से विचय चार प्रकार का है। द्रव्य और पर्याय अनन्त होने से ध्येय भी अनन्त हो सकते हैं। उन अनन्त ध्येयों का इन चार में समासीकरण किया गया है। अनन्त धर्मों का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता, अतएव उनका संक्षेप में कथन है। जैसे—जितने यथार्थतावच्छिन्न ज्ञान हैं, उतने ही प्रमाण हैं, परन्तु प्रधानता से उसके दो भेद हैं / जितने विचार के भेद हैं, उतने ही नय हैं, किन्तु प्रधानता से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो भेद हैं। वैसे ही द्रव्य-पर्यायापेक्ष ध्येय अनन्त और उन सबका Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 / आर्हती-दृष्टि समावेश आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान विचय के अन्तर्गत हो जाता है / आज्ञा आदि का विचय ध्येय है / यह ध्यान का स्वरूप नहीं है / ध्येय अनेक हो सकते हैं किन्तु ध्यान के स्वरूप अनेक नहीं हो सकते / ध्यान का स्वरूप है-स्मृतिसमन्वाहार / वह सब ध्येयों में एकरूप होता हैं / आज्ञा, अपाय आदि के विचय के लिए स्मृति-समन्वाहार करना क्रमशः आज्ञा विचय आदि है। स्मृति-समन्वाहार तथा एक आलम्बन पर चित्त का निरोध दोनों समानार्थवाची हैं / मन को एक आलम्बन में रोकना तथा दूसरे आलम्बनों से हटाना स्मृति-समन्वाहार है और यही एकाग्रचिन्ता 'निरोध . 1. आज्ञा विचय–जिनोपदिष्ट आगम के सूक्ष्म पदार्थों को आलम्बन बनाकर पदार्थ चिन्तन में चित्त के रोकने को आज्ञा-विचय कहा जाता है। 2. अपाय-विचय-शारीरिक, मानसिक दःखादि पर्यायों का अन्वेषण तथा राग-द्वेष आदि उपायों में चैतसिक एकाग्रता की प्राप्ति अपाय-विचय है।" 3. विपाक-विचय-कर्म विपाक में एकाग्रता विपाक-विचय है / विपाक व्यक्त होता है, विपाक का हेतु अव्यक्त है। फल के सहारे हेतु का साक्षात्कार किया जा सकता है / दुर्मेधा के सहारे ज्ञानावरण के सूक्ष्म पुद्गलों की, सुख-दुःख की अनुभूति से वेदनीय कर्म की अवगति हुई। विपरीत ग्राहिता के सहारे मोह कर्म की तथा जन्म-मरण की श्रृंखला से आयुष्य कर्म की पहचान हुई। शुभ, अशुभ शरीर तथा उच्च, नीच सन्तति के आधार पर नाम एवं गोत्र की तथा अलाभ के सहारे अन्तराय कर्म की शोध हुई।" विपाक विचय हेतु अन्वेषण की सर्वोत्कृष्ट प्रक्रिया है जिसके द्वारा परोक्ष का प्रत्यक्षीकरण होता है / छदस्थ व्यक्ति अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान उनके कार्यों से अनुमान के द्वारा करता हैकार्यादिलिङ्गद्वारेणैवाग्दिशामतीन्द्रियपदार्थावगमो भवति, विपाक विचय कार्य से कारण का साक्षात्कार करने की उत्तम प्रक्रिया है। 4. संस्थान-विचय–लोक की आकृति, उसमें होनेवाले पदार्थ और प्रकृति का जो चिन्तन किया जाता है वह संस्थान विचय कहलाता है / ' प्रेक्षा-ध्यान में शरीर-प्रेक्षा का प्रयोग संस्थान विचय का ही एक प्रकार है। शरीर-प्रेक्षा के द्वारा नाड़ी संस्थान जागृत हो जाता है। नाड़ी-संस्थान आन्तरिक अभिव्यक्ति का साधन है। जब वह जागृत हो जाता है, तब वह भीतर से आनेवाले कर्म विपाक को रोक लेता है। इससे साधक साधना के क्षेत्र में और अधिक गति कर सकता है। नाड़ी-संस्थान की निर्मलता चैतन्य के प्रकाश का बाहर आने का हेतु बन जाती है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-ध्यान और अनुप्रेक्षा ) 65 विचय ध्यान का लक्षण विचय ध्यान के चार लक्षण हैं१. आज्ञा-रुचि-अध्ययन के प्रति अनुराग। 2. निसर्ग-रुचि-सत्य के प्रति स्वाभाविक अनुराग / 3. सूत्र-रुचि-सूत्र के प्रति अनुराग। 4. अवगाढ़-रुचि-गहन सूत्राध्ययन के लिए अनुराग। स्वभाव से अथवा आगमोपदेश के द्वारा जिन-प्रणीत पदार्थों में श्रद्धान करना धर्म्य-ध्यान का लक्षण है।" विचय-ध्यान का फल :- अर्हेत् वाणी के चिन्तन से बुद्धि में उन्माद नहीं होता / राग-द्वेष के परिणाम-चिन्तन ‘से मनुष्य दोषमुक्त बनता है, कर्म-विपाक से मनुष्य अशुभ कार्य में आनन्द का अनुभव नहीं करता। जगत् वैचित्र्य को देखकर व्यक्ति संसार में आसक्त नहीं होता। ये क्रमशः आज्ञा, अपाय, विपाक एवं संस्थान विचय के फल हैं। विचय ध्यान के अधिकारी स्थानाङ्ग सूत्र में ध्यान के अधिकारियों की चर्चा प्रस्तुत नहीं की गई किन्तु उत्तरवर्ती आचार्यों ने इस संदर्भ में अपने विचार व्यक्ति किये हैं / आचार्य उमास्वाति ने सातवें गुणस्थान में स्थित एवं उपशान्त तथा क्षीणमोही को ही धर्म्य-ध्यान का अधिकारी स्वीकार किया है। इसेक विपरीत पूज्यपाद देवनन्दी तथा अकलंक ने चौथे गुणस्थान से ही धर्म्य-ध्यान का होना स्वीकार किया है / इनके मतानुसार श्रेणी आरोहण के पहले ही धर्म्य-ध्यान हो सकता है। श्रेणी आरोहण के बाद शुक्ल-ध्यान का होना ही इनको मान्य है। इस संदर्भ में एक विमर्शनीय बिन्दु है कि प्रथम तीन गुणस्थान वालों के कौन-सा ध्यान होता है / क्या इनके सिर्फ आर्त या रौद्र ध्यान ही होता है ? अथवा ये भी धर्म्य-ध्यान के अधिकारी हैं? इनका स्पष्ट उल्लेख योग ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं है। यहां यह ज्ञातव्य है कि आचार्य भिक्षु ने मिथ्यात्वी की करणी से भी निर्जरा का होना माना है / यदि मिथ्यात्वी की करणी से निर्जरा नहीं होती है तो मिथ्यादृष्टि से वह सम्यक् दृष्टि कैसे बनेगा। अतएव इसी तर्क के आधार पर प्रथम तीन गुणस्थान में धर्म्य-ध्यान का होना युक्तिसंगत लगता है। मिथ्यादृष्टि के भी विशुद्ध लेश्या, अध्यवसाय और परिणाम होते हैं। अतः जहाँ लेश्या विशुद्ध है, वहां धर्म्य-ध्यान हो सकता है। पान : कब, कहां विचय-ध्यान के संदर्भ में कुछ प्रश्न उभरते हैं / विचय ध्यान के लिए क्या-क्या Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 / आर्हती सामग्री अपेक्षित है? उसके लिए स्थान, मुद्रा, आसन तथा समय की.क्या मर्यादाएँ हैं? इन प्रश्नों के उत्तर आचार्यों ने अपने-अपने अनुभव के आधार पर प्रस्तुत किये हैं ? ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र ने अनेक स्थानों का ध्यान के लिए वर्जन किया तथा शान्त एवं विजन स्थान को इसके लिए विहित बताया। इसके साथ ही उन्होंने कहा-विचय-ध्यान के लिए देश, काल की मर्यादा नहीं हो सकती। इसके लिए तो एक ही नियम है कि जिस समय में या जिस स्थान में, जिस आसन या मुद्रा में चित्त की एकाग्रता सधती है वही देश, काल, आसन, मुद्रा ध्यान के लिए उपयोगी है। विचय ध्यान के आलम्बन . देखने और जानने की क्षमता को विकसित करने के लिए आलम्बन अपेक्षित है। आलम्बन गति में सहायक होते हैं। आलम्बन के सहारे व्यक्ति दुरुहमार्ग को भी आसानी से पार कर देता है। धर्म्य-ध्यान के भी चार आलम्बन हैं 1. वाचना-आचार्य द्वारा शिष्यों को अध्यापन / 2. प्रच्छना-जिज्ञासाओं का प्रस्तुतिकरण। 3. परिवर्तना–प्रलम्ब स्मृति के लिए पुनः-पुनः पठित को दोहराना / 4. अनुप्रेक्षा-पठित का अर्थ-चिन्तन / ये आलम्बन ध्याता की ध्येय के साथ एकतानता में सहायक बनते हैं। योगदर्शन में ध्यान और समाधि ये दो भिन्न-भिन्न माने गये हैं। जैन-योग में इन दोनों को एक ध्यान शब्द के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। पतञ्जलि का 'तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् (३/२)जैन-योग का धर्म्य-ध्यान है और योगदर्शन प्रतिपादित समाधि जैन-योग का शुक्ल ध्यान है / विचय की तुलना बौद्ध सम्मत क्लेश उन्मूलक धर्म-प्रविचय से की जा सकती है / बौद्ध के एक प्रस्थान झेन में समस्या देकर व्यक्ति को बिठा दिया जाता है, उसके द्वारा समाधान प्राप्त करना ये विचय ध्यान के ही प्रयोग हैं। जैन-योग में धर्म्य-ध्यान के आज्ञा, विचय आदि ही प्रकार उपलब्ध हैं। फिर आचार्य सिद्धसेन ने विचय की पृथक् परिभाषा प्रस्तुत की है। मिथ्यात्व एवं कषायरूपी आश्रवों के संवर को ही उन्होंने धर्म्य-ध्यान का मुख्य उद्देश्य बताया है। परम्परागत आज्ञा, अपाय, विपाक एवं संस्थान विचय के स्थान पर चित्त, विषय एवं शरीर के स्वभाव दर्शन पर" जो बल दिया है, वह सिद्धसेन दिवाकर की अपनी मौलिक उद्भावना है। विचय ध्यान की अनुप्रेक्षा ध्यान से शक्ति का जागरण होता है। स्वाध्याय से जाना जाता है कि शक्ति Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-ध्यान और अनुप्रेक्षा / 67 जागरण के पश्चात् अनुप्रेक्षा का प्रयोग कैसे करना चाहिए / जब शक्ति जागरण में इसका सहारा लिया जाता है तब खतरा पैदा नहीं होता है। विचय ध्यान के द्वारा , सचाइयों का ज्ञान होता है / अनुप्रेक्षा के द्वारा भ्रान्तियों का निरसन होता है / अनुप्रेक्षा स्वभाव परिवर्तन का सत्र है / जिस आदत का परित्याग करना है, पहले उसका विश्लेषण किया जाता है। आज के मनोवैज्ञानिकों ने सेल्फ एनालिसिस को चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार किया है। रोगी से उसकी स्थिति का विश्लेषण करवाया जाता है। वैसे ही धार्मिक क्षेत्र में अनुप्रेक्षा का प्रयोग है / क्रोध को छोड़ना है तो सबसे पहले उसके उपाय के बारे में, फिर उसके परिणाम के बारे में अनुप्रेक्षण किया जाता है और उन विश्लेषणों के द्वारा व्यक्ति के क्रोध की पकड़ छट जाती है। विचय-ध्यान से जो सचाई उपलब्ध हुई है उसका योग करना अनुप्रेक्षा है। धर्म्य-ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं"- . . 1. एकत्वानुप्रेक्षा—अकेलेपन का अनुभव। 2. अनित्यानुप्रेक्षा–संयोग का अनित्यता का अनुभव। 3. अशरणानुप्रेक्षा—अत्राणता का अनुभव। 4. संसारानुप्रेक्षा-संसार के भवभ्रमण की अनुप्रेक्षा / महर्षि पतञ्जलि ने चित्त-प्रसाद के लिए मैत्री, करुणा, मुदिता और अपेक्षा इन चार भावनाओं का उल्लेख किया है। चैतसिक मल प्रक्षालन के लिए अनुप्रेक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बौद्ध साहित्य में भी अनुप्रेक्षा का प्रयोग हुआ है / वहां अनुप्रेक्षा के स्थान पर अनुपश्यना शब्द प्रयुक्त है। दोनों शब्द एक ही आशय को अभिव्यक्त कर रहे हैं। अनित्यानुपश्यना, दुःखानुपश्यना, अनात्मानुपश्यना का सम्बन्ध क्रमशः - अनिमित्तानुपश्यना अपणिहितानुपश्यना तथा सुयंतानुपश्यना के साथ है। अनुप्रेक्षा के संदर्भ में एक प्रश्न उभारा गया कि अनुप्रेक्षाओं का पृथक् निर्देश क्यों किया गया? ये तो धर्म्य ध्यान के अन्तर्गत ही हैं। इसका समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा गयाअन्प्रेक्षा विकल्पात्मक होने के कारण धर्म्य-ध्यान से भिन्न है। अनित्यता का चिन्तन ज्ञानात्मक विचार है वही अनित्य अनुप्रेक्षा है तथा जब वहां पर चित्त निरुद्ध हो जाता है वही धर्म्य-ध्यान की अवस्था है। किन्तु यहां एक विचारणी बिन्दु है कि यदि विचय और अन्प्रेक्षा में ज्ञान और एकाग्रता का ही भेद मानें तो विचय और अनुप्रेक्षा का प्रकार एक ही होता, वास्तव में उनके प्रकार भिन्न हैं / अनित्य आदि अनुप्रेक्षा का आज्ञा आदि विचयों से सीधा सम्बन्ध नहीं है। प्रेक्षा-ध्यान के संदर्भ में इन दोनों का सम्बन्ध खोजा गया है। उसका निष्कर्ष यह है कि विचय धर्म या सत्य को खोजने की पद्धति है। अनुप्रेक्षा सत्य की खोज के साथ होनेवाले प्रिय-अप्रिय संवेदनों से Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 / आर्हती-दृष्टि मुक्त रहने की पद्धति है। दोनों में एकाग्रता का अभ्यास जरूरी है, किन्तु दोनों का प्रयोजन भिन्न है। अनुप्रेक्षा सत्य अनुभूति की प्रक्रिया है / विचय तथा अनुप्रेक्षा के द्वारा व्यक्ति अज्ञात को ज्ञात, परोक्ष को प्रत्यक्ष करने में सफलता प्राप्त कर सकता संदर्भ-सूची 1. भगवती, 14/84-88 / 2. प्रशमरति-प्रकरण, श्लोक 265 / 3. धर्मादनपेतं धर्म्यम् ।तत्त्वार्थ-वार्तिक, 4. वत्थुसहावो धम्मो। 5. आत्मनः परिणामो... ।तत्त्वानुशासन, ५२वाँ श्लोक। 6. तत्त्वार्थवार्तिक 9/36 / 7. अतीत का अनावरण। पृ. 83. 8. एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्। तत्त्वार्थ-सूत्र 9/27, 9. सम्बोधि, 12/34 / 10. तत्त्वार्थभाष्य, 9/37 / 11. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका, 9/37 / 12. सम्बोधि, 12/37 13. ठाणं, 4/66 / 14. ध्यान शतक, श्लोक 67 / 15. सम्बोधि, 12/38-39 / 16. भ्रम-विध्वंसन। 17. ज्ञाताधर्मकथा, 1/170 / 18. ज्ञानार्णव, 27/23 -34 / 19. ठाणं, 4/67 / 20. ध्यान द्वात्रिंशिका, २७वाँ श्लोक। 21. ठाणं, 4/68 22. पातञ्जल, 1/33 / 23. अभिधम्मत्थसंगहो, ९वाँ अध्याय / 24. तत्वार्थवार्तिक, वृति९/३७ / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनयोग में अनुप्रेक्षा यह संसार शब्द एवं अर्थमय है। शब्द, अर्थ के बोधक होते हैं। अर्थ व्यंग्य एवं शब्द व्यञ्जक होता है। साधना के क्षेत्र में शब्द एवं अर्थ दोनों का ही उपयोग होता है। साधक शब्द के माध्यम से अर्थ तक पहुँचता है तथा अन्ततः अर्थ के साथ उसका तादात्म्य स्थापित होता है / अर्थ से तादात्म्य स्थापित होने से ध्येय, ध्यान एवं ध्याता का वैविध्य समाप्त होकर उनमें एकत्व हो जाता है / उस एकत्व की अनुभूति में योग परिपूर्णता को प्राप्त होता है / इस एकत्व की अवस्था में चित्तवृत्तियों का सर्वथा निरोध हो जाता है। पातञ्जल योगदर्शन के अनुसार यह निरोध ही योग है / पूर्ण समाधि की अवस्था है। __ जैन दर्शन में योग शब्द का अर्थ है-प्रवृत्ति / मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति को योग कहा गया है / जैन-तत्त्व-मीमांसा में शुभयोग, अशुभयोग आदि शब्द प्रचलित है, किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में जैनयोग शब्द का प्रयोग इस प्रवृत्त्यात्मक योग के लिए नहीं हुआ है। यहाँ योग शब्द जैन साधना पद्धति के अर्थ में प्रयुक्त है। आगम उत्तरवर्ती जैन साहित्य में योग का तत्त्वमीमांसीय अर्थ प्रवृत्त्यात्मकता तो स्वीकृत ही रहा किन्तु साथ में साधना के अर्थ में भी इसका प्रयोग होने लगा। जैन आचार्यों ने साधनापरक ग्रन्थों के नाम योगशास्त्र आदि रखे एवं योग का साधनात्मक नाम सर्वमान्य हो गया। आत्मा का सिद्धान्त स्थिर हुआ तब आत्म-विकास के साधनों का अन्वेषण किया गया। आत्म-विकास के उन साधनों को एक शब्द में मोक्षमार्ग या योग कहा गया है। वस्तुतः जैन साधना पद्धति का नाम मोक्षमार्ग है / आ हरिभद्र ने कहा—'मोक्खेण जोयणांओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो'। वह सारा धार्मिक व्यापार योग है जो व्यक्ति को मुक्ति से जोड़ता है। योग या मोक्षमार्ग केवल पारलौकिक ही नहीं है किन्तु वर्तमान जीवन में भी जितनी शान्ति, जितना चैतन्य स्फुरित होता है वह सब मोक्ष है। * शान्ति एवं चैतन्य की स्फुरणां के लिए जैन साहित्य में अनेक उपायों का निर्देश है। उन उपायों में एक महत्त्वपूर्ण उपाय है-अनुप्रेक्षा / जैन आगम, तत्त्व-मीमांसीय एवं साधनापरक साहित्य में अनुप्रेक्षा/भावना के सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण एवं विशद विवरण प्राप्त है। मोक्षमार्ग में वैराग्य की अभिवृद्धि के लिए बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन प्रसिद्ध है। इन्हें बारह वैराग्य भावना भी कहते हैं। इनके अनुचिन्तन से व्यक्ति Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 / आर्हती-दृष्टि भोगों से निर्विण्ण होकर साम्यभाव में स्थित हो सकता है। ध्यान की परिसम्पन्नता के पश्चात् मन की मूर्छा को प्रोड़नेवाले विषयों का अनुचिन्तन करना अनुप्रेक्षा है / अनु एवं प्र उपसर्ग सहित ईक्ष् धातु के योग से अनुप्रेक्षा शब्द निष्पन्न हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-पुनः पुनः चिन्तन करना/विचार करना। प्राकृत में अनुप्रेक्षा के लिए अणुप्पेहा, अणुपेहा, अणुवेक्खा, अणुवेहा, अणुप्पेरखा, अणुपेक्खा आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इन सबका संस्कृत रूपान्तरण अनुप्रेक्षा है / आचार्य पूज्यपाद ने शरीर आदि के स्वभाव के अनुचिन्तनं को अनुप्रेक्षा कहा है। स्वामी कुमार के अभिमतानुसार सुतत्त्व का अनुचिन्तन अनुप्रेक्षा है / अनित्य, अशरण आदि स्वरूप का बार-बार चिन्तन, स्मरण करना अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा-तत्त्व चिन्तनात्मक है। ध्यान में जो अनुभव किया है उसके परिणामों पर विचार करना अनुप्रेक्षा है। ____ अध्यात्म के क्षेत्र में अनुप्रेक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है / अनुप्रेक्षा के विविध प्रयोगों से व्यक्ति की बहिर्मुखी चेतना अन्तर्मुखी. बन जाती है। चेतना की अन्तर्मुखता ही अध्यात्म है। जीवन का अभीष्ट लक्ष्य है। अनुप्रेक्षा के महत्त्व को प्रकट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जितने भी भूतकाल में श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं एवं भविष्य में होंगे वह भावना का ही महत्त्व हैं / आचार्य पद्मनन्दि बारह अनुप्रेक्षा के अनुचिन्तन की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि बारह भावना महान् पुरुषों के द्वारा सदा ही अनुप्रेक्षणीय है। उनकी अनुचिन्तना कर्मक्षय का कारण हैं / शुभचन्द्राचार्य कहते हैं कि भावना के अभ्यास से कषायाग्नि शान्त, राग नष्ट एवं अन्धकार विलीन हो जाता है तथा पुरुष के हृदय में ज्ञानरूपी दीपक उद्भासित हो जाता है।" तत्त्वार्थसत्र, कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रन्थों में अनुप्रेक्षा को संवर धर्म का विशेष हेतु माना है।" ___ आगम में एक साथ बारह अनुप्रेक्षा का उल्लेख नहीं है किन्तु उत्तरवर्ती साहित्य में उनका एक साथ वर्णन है। वारस-अणुवेक्खा, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, शान्त-सुधारसभावना आदि ग्रन्थों का निर्माण तो मुख्य रूप से इन अनुप्रेक्षाओं के लिए ही हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र आदि में भी इनका पर्याप्त विवेचन उपलब्ध है / शान्त-सुधारस आदि कुछ ग्रन्थों में इन बारह भावनाओं के साथ मैत्री आदि चार भावनाओं को जोड़कर सोलह भावनाओं का विवेचन किया गया है। जैन साहित्य में बारह भावनाओं का उल्लेख बहुलता से प्राप्त है / अनित्य आदि अनुप्रेक्षा के प्रथक-पृथक प्रयोजन का भी वहाँ पर उल्लेख है / आसक्ति विलय के लिए अनित्य अनुप्रेक्षा, धर्मनिष्ठा के विकास के लिए अशरण अनुप्रेक्षा, संसार से उद्वेग प्राप्ति हेतु संसार-भावना एवं स्वजन-मोह त्याग के Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनयोग में अनुप्रेक्षा / 71 लिए एकत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया जाता है / इसी प्रकार अन्य अनुप्रेक्षाओं का विशिष्ट प्रयोजन है। - उत्तराध्ययन सूत्र में अनुप्रेक्षा के परिणामों का बहुत सुन्दर वर्णन उपलब्ध है। अनुप्रेक्षा से जीव क्या प्राप्त करता है, गौतम के इस प्रश्न के समाधान में भगवान् महावीर ने अनुप्रेक्षा के लाभ बताये हैं। वहां पर अनुप्रेक्षा के छह विशिष्ट परिणामों का उल्लेख है 1. कर्म के गाढ़ बन्धन का शिथिलीकरण। 2. दीर्घकालीन कर्म स्थिति का अल्पीकरण। 3. तीव्र कर्म विपाक का मंदीकरण। 4. प्रदेश परिमाण का अल्पीकरण / 5. असाता वेदनीय कर्म के उपचय का अभाव। 6. संसार का अल्पीकरण। - अनुप्रेक्षा चिन्तनात्मक होने से ज्ञानात्मक है, ध्यानात्मक नहीं है। अनित्य आदि विषयों के चिन्तन में जब चित्त लगा रहता है तब वह अनुप्रेक्षा और जब चित्त उन विषयों में एकाग्र बन जाता है, तब वह धर्म्य-ध्यान कहलाता है" / ध्यान शतक में स्थिर अध्यवसाय को ध्यान एवं अस्थिर अध्यवसाय को चित्त कहा है और वह चित्त . भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्तनात्मक रूप होता है। .. . स्वाध्याय के पाँच भेदों में अनुप्रेक्षा भी एक है" / सूत्र के अर्थ की विस्मृति न हो इसलिए अर्थ का बार-बार चिन्तन किया जाता है / अर्थ का बार-बार चिन्तन ही अनुप्रेक्षा है / अनुप्रेक्षा में मानसिक परावर्तन होता है वाचिक नहीं होता" / धर्म्यध्यान एवं शुक्ल-ध्यान की भी चार-चार अनुप्रेक्षा बताई गई है / स्वाध्यायगत अनुप्रेक्षा, ध्यानगत अनुप्रेक्षा एवं बारह अनुप्रेक्षा में अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग हुआ है किन्तु सन्दर्भ के अनुकूल उनके तात्पर्यार्थ में कथंचित् भिन्नता है। प्राचीन ग्रन्थों में अनुप्रेक्षा का तत्त्व-चिन्तनात्मक रूप उपलब्ध है। यद्यपि धर्म्य एवं शुक्ल ध्यान की अनुप्रेक्षाओं का भी उल्लेख है किन्तु उनका भी चिन्तात्मक रूप ही उपलब्ध है / प्रेक्षा ध्यान के प्रयोगों में अनुप्रेक्षा के चिन्तनात्मक स्वरूप के साथ ही उसका ध्येय के साथ तदात्मकता के रूप को भी स्वीकार किया गया है। अनुप्रेक्षा का प्रयोग सुझाव पद्धति का प्रयोग है / आधुनिक विज्ञान की भाषा में इसे सजेस्टोलॉजी कहा जा सकता है / स्वभाव परिवर्तन का अनुप्रेक्षा अमोघ उपाय है / अनुप्रेक्षा के द्वारा जटिलतम आदतों को बदला जा सकता है / प्रेक्षा ध्यान में स्वभाव परिवर्तन के सिद्धान्त Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 / आर्हती-दृष्टि के आधार पर अनेक अनुप्रेक्षाओं का निर्माण हुआ है एवं उनके प्रयोगों से वाञ्छित परिणाम भी प्राप्त हुए हैं। ___ स्वभाव परिवर्तन के लिए प्रतिपक्ष भावना का प्रयोग बहुत लाभदायी है / प्रतिपक्ष की अनुप्रेक्षा से स्वभाव, व्यवहार और आचरण को बदला जा सकता है / मोह-कर्म के विपाक पर प्रतिपक्ष भावना का निश्चित प्रभाव होता है। दशवैकालिक में इसका स्पष्ट निर्देश प्राप्त है। उपशम की भावना से क्रोध, मृदुता से अभिमान, ऋजुता से माया और संतोष से लोभ के भावों को बदला जा सकता है / आचारांग सूत्र में भी ऐसे निर्देश प्राप्त हैं जो पुरुष अलोभ से लोभ को पराजित कर देता है, वह प्राप्त कामों में निमग्न नहीं होता। ___ अध्यात्म के क्षेत्र में प्रतिपक्ष भावना का सिद्धान्त अनुभव की भूमिका में सम्मत है। जैन मनोविज्ञान के अनुसार मौलिक मनोवृत्तियां चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ / यह मोहनीय कर्म की औदयिक अवस्था है। प्रत्येक प्राणी में जैसे मोहनीय कर्म का औदयिक भाव होता है वैसे ही क्षायोपशमिक भाव भी होता है। प्रतिपक्ष की भावना के द्वारा औदयिक भावों को निष्क्रिय कर क्षायोपशमिक भाव को सक्रिय कर / दिया जाता है / महर्षि पतञ्जलि ने भी प्रतिपक्ष भावना के सिद्धान्त को मान्य किया है। उनका अभिमत है कि अविद्या आदि क्लेश प्रतिपक्ष भावना से उपहत होकर तनु हो / जाते हैं / क्लेश प्रतिप्रसव (प्रतिपक्ष) के द्वारा हेय है / अनुप्रेक्षा के प्रयोग क्लेशों को तनु करते हैं। ___ अनुप्रेक्षा संकल्प शक्ति का प्रयोग है। अनुप्रेक्षा के प्रयोग से संकल्पशक्ति को बढ़ाया जा सकता है। व्यक्ति जैसा संकल्प करता है, जिन भावों में आविष्ट होता है, तदनुरूप उसका परिणमन होने लगता है / जंजं भावं आविसइ तं तं भावं परिणमई"। संकल्प शक्ति के द्वारा मानसिक चित्र का निर्माण हो गया तो उस घटना को घटित होना ही होगा। संकल्प वस्तु के साथ तादात्म्य हो जाने से पानी भी अमृतवत् विषापहारक बन जाता है। आचार्य सिद्धसेन ने कल्याण मन्दिर में इस तथ्य को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया है। तत्त्वानुशासन में कहा गया है कि व्यक्ति जिस वस्तु का अनुचिन्तन करता है वह तत् सदृश गुणों को प्राप्त कर लेता है। परमात्मस्वरूप को ध्यानाविष्ट करने से परमात्मा, गरुड़ रूप को ध्यानाविष्ट करने से मरुड़ एवं कामदेव के स्वरूप को ध्यानाविष्ट करने से कामदेव बन जाता है / पातञ्जल योगदर्शन में / भी यही निर्देश प्राप्त है / हस्तिबल में संयम करने पर हस्ति सदृश बल हो जाता है। गरुड़ एवं वायु आदि पर संयम करने पर ध्याता तत्सदृश बन जाता है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनयोग में अनुप्रेक्षा / 73 अनुप्रेक्षा ध्यान की पृष्ठभूमि का निर्माण कर देती है। अनुप्रेक्षा का आलम्बन प्राप्त हो जाने पर ध्याता ध्यान में सतत गतिशील बना रहता है। अनुप्रेक्षा/भावना आत्म-सम्मोहन की प्रक्रिया है / अर्हम् की भावना करनेवाले में अर्हत् होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है / ध्येय के साथ तन्मयता होने से ही तद्गुणता प्राप्त होती है / इसलिए आचारांग में कहा गया साधक ध्येय के प्रति दृष्टि नियोजित करे, तन्मय बने, ध्येय को प्रमुख बनाये, उसकी स्मृति में उपस्थित रहे, उसमें दत्तचित्त रहे / ___ बौद्ध एवं पातञ्जल साधना पद्धति में भी भावनाओं का प्रयोग होता है / पातञ्जल योगसूत्र में अनित्य, अशरण आदि भावनाओं का तो उल्लेख प्राप्त नहीं है किन्तु मैत्री, करुणा एवं मुदिता इनका उल्लेख है / महर्षि पतञ्जलि ने चित्त प्रसाद के लिए इन भावनाओं का उल्लेख किया है। उपेक्षा को इन्होंने भावना नहीं माना है। उनका अभिमत है कि पापियों में उपेक्षा करना भावना नहीं है अतः उसमें समाधि नहीं होती ___बौद्ध साहित्य में अनुपश्यना शब्द का प्रयोग हुआ है जो अनुप्रेक्षा के अर्थ को ही अभिव्यक्त करता है। 'अभिधर्म संग्रह में अनित्यानुपश्यना, दुःखानुपश्यना, अनात्मानुपश्यना, अनिमित्तानुपश्यना आदि का उल्लेख प्राप्त है / 'विशुद्धिमग्ग' में ध्यान के विषयों (कर्म-स्थान) के उल्लेख के समय दस प्रकार की अनुस्मृतियों एवं चार ब्रह्म विहार का वर्णन किया है / उनसे अनुप्रेक्षा की आंशिक तुलना हो सकती है। मरण-स्मृति कर्मस्थान में शव को देखकर मरण की भावना पर चित्त को लगाया जाता है जिससे चित्त में जगत् की अनित्यता का भाव उत्पन्न होता है / कायगतानुस्मृति अशौच भावना के सदृश है। मैत्री, करुणा, मुदिता एवं उपेक्षा को बौद्ध दर्शन में ब्रह्मविहार कहा गया है। ये मैत्री आदि ही जैन साहित्य में मैत्री, करुणा आदि भावना के रूप में विख्यात है। आधुनिक चिकित्साक्षेत्र में भी अनुप्रेक्षा का बहुत प्रयोग हो रहा है। मानसिक सन्तुलन बनाये रखने के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। Mind store नामकं प्रसिद्ध पुस्तक के लेखक Jack Black ने मानसिक सन्तुलन एवं मानसिक फिटनेस के प्रोग्राम में इस पद्धति का बहुत प्रयोग किया है। उनकी पूरी पुस्तक ही इस पद्धति पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती है। ध्यान के द्वारा ज्ञात सच्चाइयों की व्यावहारिक परिणति अनुप्रेक्षा के प्रयोग से सहजता से हो जाती है / अनुप्रेक्षा, संकल्प-शक्ति, स्वभाव-परिवर्तन, आदत-परिवर्तन एवं व्यक्तित्व-निर्माण का महत्त्वपूर्ण उपक्रम है / चिकित्सा के क्षेत्र में इसका बहुमूल्य योगदान हो सकता है / अनुप्रेक्षा के माध्यम से आधि, व्याधि एवं उपाधि की चिकित्सा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. 74 / आर्हती-दृष्टि हो सकती है / प्रेक्षा-ध्यान के शिविरों में विभिन्न उद्देश्यों से अनुप्रेक्षा के प्रयोग करवाये जाते हैं / उनका लाभ भी सैंकड़ों-सैंकड़ों व्यक्तियों ने प्राप्त किया है / अतः आज अपेक्षा इस बात की है कि अनुप्रेक्षा के बहु-आयामी स्वरूप को हृदयंगम करके स्व-पर कल्याण के कार्यक्रम में उसे नियोजित किया जाये। सन्दर्भ 1. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः, पा. यो. सू. 1/2 2. काय-वाङ्-मनो-व्यापारो योगः। 3. योगविंशिका, श्लो. 1 .. 4. अमूर्त्तचिन्तन, पृ. 1 5. शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। सर्वार्थसिद्धि 9/2 6. सुतत्तचिन्ता अणुप्पेहा। . कार्तिकेयानुप्रेक्षा, श्लो. 97 7. अनु पुनः पुनः प्रेक्षणं चिन्तनं स्मरणमनित्यादिस्वरूपाणामित्यनुप्रेक्षा। कार्तिकेय, पृ. 2 8. किं पलवियेण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले। सिज्झिहहि जे वि भविया तज्जाणह तस्समाहप्पं // .. वारस अणुवेक्खा, गा. 90 9. द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः / तद् भावना भवत्येव कर्मणां क्षयकारणम् // पंचविंशतिका, श्लो. 42 १०.विध्याति कषायाग्नि विगलित रागो विलीयते ध्वान्तम् / उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात् / / . .. ज्ञानार्णव, भा. अ. 192 11. (क) स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषजयचारित्रैः। तत्त्वार्थ, सूत्र 9/2 (ख) गुत्तीसमिदी धम्मो अणुवेक्खा.... संवरहेदूविसेसेण। ___ कार्तिकेयानुप्रेक्षा 96 12. (1) संगविजयणिमित्तमणिच्चताणुप्पेहं आरभते / (2) धम्मे थिरताणिमित्तं असरणतं चिन्तयति। (3) संसारुव्वेगकरणं संसाराणुप्पेहा। (4) सम्बन्धिसंगविजितायएगत्तमणुपेहेति। दशवै अग. चूर्णि, पृ. 18 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनयोग में अनुप्रेक्षा / 75 13. उत्तराध्ययन 29/23 14. तत्त्वार्थराजवार्तिक 9/36/13 . * 15. जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं / .. तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिन्त // ध्यान-शतक, गा. 2 16. ठाणं 5/220 17. सूत्रवदर्थेऽपि संभवति विस्मरमतः सोऽपि परिभावनीय इत्यनुप्रेक्षा। उत्तरा शा. वृ, पृ. 584 18. अणुप्पेहा नाम जो मणसा परियट्टेइ णो वायाए। दशवै. जि. चूर्णि, पृ. 29 19. ठाणं 4/68,72 . : 20. उवसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे।। ___ मायं चज्जवभावेण लोहं संतोसओ जिणे // दशवै. 8/38 . 21. लोभं अलोभं दुगञ्छमाणे, लद्धे कामे नाभिगाहइ। आचारांग 2/36 22. प्रतिपक्षभावनोपहताः क्लेशास्तनवो भवन्ति। पात. यो. सू. या 2/4, 23. ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः। पा. यो. सू. 2/10, 24. जं जं भावं आविसइ। 25. कल्याणमन्दिर, श्लो. 17 . 26. यदा ध्यान-बलाद् ध्याता शून्यीकृत्य स्वविग्रहम्। ध्येयस्वरूपाविष्टत्वात्तादृक् सम्पद्यते स्वयम् // .. तदा तथाविध-ध्यान-संवित्ति-ध्वस्तकल्पनः।। स एव परमात्मा स्याद्वैनतेयश्च मन्मथः / तत्त्वानुशासन, श्लो. 135-36 27. बलेषु हस्तिबलादीनि। पात. यो. सू. 3/24 -- 28. तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तन्निवेसणे। आचारांग 5/110 29. मैत्रीकरुणामुदितेति तिस्रो भावनाः / पा. यो. सू. भा. 3/23 30. अभिधम्मत्थसंगहो, ९वां अध्याय। 31. विशुद्धिमग्ग, परिच्छेद 7-8, पृ. 133-200 / Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धुताध्ययन : एक परिशीलन आचारांग, साधना का प्रतिपादक सूत्र है / इसमें आचार से भी अधिक व्याख्या साधना की है। इसके नौ अध्ययन हैं-शस्त्र परिज्ञा, लोक-विजय, शीतोष्णीय, सम्यक्त्व, लोकसार, धुत, महापरिज्ञा जो वर्तमान में अनुपलब्ध है, विमोक्ष एवं उपधान / प्रस्तुत निबन्ध में धुताध्ययन का विमर्श वाञ्छित है। धुत लक्ष्य को प्राप्त करने की साधनापद्धति है। इसके द्वारा साधक अपने लक्ष्य की प्राप्त की ओर अग्रसर होता है तथा अन्ततः उसको प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। संयम एवं मोक्ष की आराधना के लिए निःसंगता एवं कर्म-विधूनन अनिवार्य आवश्यकता है। आसक्ति एवं कर्म, ये दोनों साधक को पथच्युत करने में पर्याप्त हैं अतएव इनका अपनयन एवं विधूनन अत्यन्त अपेक्षित है। _ 'धुत' भारतीय साधना-पद्धति का प्रचलित शब्द था तथा भारत के सभी धर्मों में इसको सम्मानजनक स्थान प्राप्त था / बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'विसुद्धिमग्ग' में 13 धुताङ्गों का उल्लेख उपलब्ध है / भागवत में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है / अवधूत परम्परा धुत की साधना-पद्धति पर आधारित है, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। जैन-परम्परा में 'आयारी' जैसे प्राचीन आगम में इसका निरूपण प्राप्त है। धुत का अर्थ है-प्रकम्पित और पृथक्कृत / आचारांग भाष्यकार ने 'धुत' को तप की पद्धति के रूप में व्याख्यायित किया है। धृतवाद कर्म निर्जरा का सिद्धान्त है। जिन-जिन हेतुओं से कर्मों की निर्जरा होती है उन सबकी धुत संज्ञा होती है। प्रस्तुत अध्ययन में 'धुतवाद' का वर्णन हुआ है / इस अध्ययन के पांच उद्देशक हैं। नियुक्तिकार ने इन पांच उद्देशकों में पांच धुतों के वर्णन का उल्लेख किया है।' विधूनन के पांच प्रकार हैं जिनका क्रमशः उल्लेख इस अध्ययन के प्रथमादि उद्देशकों में उपलब्ध है 1. स्वजन विधूनन। 2. कर्म विधूनन। 3. शरीरोपकरण विधूनन / 4. गौरव विधूनन। 5. उपसर्ग सम्मान विधूनन / Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धुताध्ययन : एक परिशीलन / 77 इस अध्ययन में इन पांच धुतों का वर्णन तो मुख्य रूप से है ही साथ ही अनेक दूसरे धुतों का भी प्रतिपादन है जैसा कि 'धुताध्ययन' के सूत्रों के अध्ययन से ज्ञात होता है। यथा-सूत्र संख्या 8 से 23 तक अचिकित्साधुत का वर्णन है। ऐसे ही विनय, संयम इत्यादि धुतों का उल्लेख प्राप्त है। साधना मार्ग पर अग्रसर साधक को स्वजन विचलित करना चाहते हैं। प्रव्रज्या के समय आक्रन्दन से अथवा विषण्ण बनते हुए उसको रोकने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु आत्मसाधक उनको छोड़ देता है, उनका परित्याग कर देता है / यह स्वजन परित्याग - उपकरण एवं शरीर के प्रति ममत्व भाव होना सहज है। ये सब ममत्व चेतना को पुष्ट करते हैं। ममत्व भाव संसार वृद्धि का हेतु बनता है। अतएव ममत्व चेतना का परित्याग ही धुत साधना का प्रयोजन है। गौरव, अहंकार एवं मद व्यक्ति को अभिभूत कर देते हैं। इनके द्वारा आत्म-प्रज्ञा परास्त हो जाती है। आत्म-प्रज्ञा प्रापक के लिए गौरव त्रिक का परित्यागं करना आवश्यक है / ऋद्धि, रस एवं साता के गौरव से साधक उन्मत्त हो जाता है। पण्डितमन्य व्यक्ति ज्ञान के लव मात्र को प्राप्त करकेउन्मत्त हो जाता है / आत्मश्लाघा करने में संलग्न वह आचार्य की भी अवमानना करने लगता है / रस गौरव-युक्त व्यक्ति आहार-शुद्धि का ध्यान नहीं रखते। ऐसे व्यक्तियों को अपना व्रत-त्याग करने में भी संकोच नहीं होता है / साता गौरव वाले अपने साधुत्व को विस्मृत करके शरीर विभूषा में सम्पृक्त हो जाते हैं / उनका आत्म-साधना का लक्ष्य धूमिल हो जाता है। अतएव गौरव विधूनन अत्यन्त अपेक्षित है / अनुप्रेक्षा के प्रयोग से गौरव त्रिक पर सरलता से विजय प्राप्त की जा सकती है। इन सभी विधूननों में कर्म विधूनन ही प्रधान है / वस्तुतः स्वजन विधूनन, उपकरण, शरीर आदि विधूननों का पर्यवसान कर्म विधूनन में होता है / हम ऐसा भी कह सकते है कि राग-द्वेषं एवं मोह के विधूनन से कर्म विधूनन सम्पन्न होता है। कर्म-विधूनन प्रधान है अतः साधक को इसके लिए प्रयल करना अपेक्षित है। एकत्व अनुप्रेक्षा के द्वारा कर्म-विधूनन सम्पादित होता है / इसी तथ्य को प्रस्तुत करते हुए आचारांग कहता है कि साधक सब प्रकार के संग का परित्याग करे (यह भावना करे)-मेरा कोई नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं। स्वजन के प्रति आसक्ति, उपकरण एवं शरीर के प्रति आसक्ति, अहंकार एवं मद के द्वारा अभिभूत होना, ज्ञान गौरव से उन्मत्त होना—इन सबका उल्लेख धुताध्ययन में किया गया है। इन सब प्रकार की आसक्तियों में शरीर के प्रति आसक्ति सर्व प्रधान Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 / आर्हती-दृष्टि है। इस आसक्ति के विधूनन के बिना काम तृष्णा का विधूनन सम्भव नहीं है। शरीरासक्ति त्याग के लिए रस परित्याग एवं काय-क्लेश अत्यन्त आवश्यक है। रस-भोक्ता शरीर आसक्ति से विरत नहीं हो सकता तथा काम-तृष्णा पर भी विजय प्राप्त नहीं कर सकता, इसीलिए साधक के लिए प्रकाम रसों के सेवन का निषेध किया गया—'रसों का प्रकाम सेवन नहीं करना चाहिए। वे प्रायः मनुष्य की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं / जिसकी धातुएं उद्दीप्त होती हैं उसे काम-भोग सताते हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी। ___ काम-तृष्णा पर विजय पाने के इच्छुक को रस-परित्याग करना अपेक्षित है। देहाध्यास मोक्ष साधना में बाधक है। देहाध्यास काय-क्लेश के द्वारा प्रनष्ट हो सकता है। काय-क्लेश सहनशक्ति की क्रमिक वृद्धि के साथ-साथ शील, समाधि एवं प्रज्ञा को परिपक्व करता है / धुताध्ययन में कहा गया है—'जैसे-जैसे शरीर कृश होता है एवं मांस-शोणित सूखते हैं वैसे-वैसे प्रज्ञा का उदय पुष्ट होता है। प्रज्ञा के पुष्ट होने पर वैराग्य की पुष्टि होती है, वैराग्य की पुष्टि के साथ-साथ साधक अरति को अभिभूत कर सकता है जैसा कि इसी अध्ययन के सूत्र संख्या 70 में कहा गया है-'विरयं भिक्खु रीयंतं चिररातो सियं, अरती तत्थ किं विधारए' ? 'चिरकाल से प्रव्रजित, संयम में (उत्तरोत्तर) गतिशील विरत भिक्षु को क्या अरति अभिभूत कर पाएगी?' धुताध्ययन के उपर्युक्त दो सूत्रों का उल्लेख हमने इसलिए किया है कि ठीक यही बात बौद्धों के ‘सुत्तनिपात' के 'प्रधान सुत्त' में कही गई है। ‘मार' को सम्बोधित करके बुद्ध कह रहे हैं, 'खून के सूखने पर पित्त और कफ सूखते हैं, मांस के क्षीण होने पर चित्त अधिकाधिक प्रसन्न होता है, अर्थात् श्रद्धा का उन्मेष होता है। श्रद्धा का उन्मेष होने पर स्मृति, समाधि एवं प्रज्ञा पुष्ट होती है। उत्तमोत्तम वेदना की अधिवासना के साथ-साथ काम-तृष्णा पर पूर्ण विजय प्राप्त होती है एवं आत्मा परम शुद्धि में प्रतिष्ठित होती है। इस अध्ययन में साधक के लिए विभिन्न शब्द प्रयुक्त हुए हैं। यथा—शीलवान्, उपशान्त, प्रज्ञावान् / इन्हीं शब्दों के सम्पोषक अन्य शब्दों का उल्लेख भी प्राप्त है, जैसे-णिक्खित्तदण्डाणं, समाहियाणं, पण्णाणमंताणं-ये शब्द साधक की विभिन्न उत्तरोत्तर विकासशील अवस्थाओं का सूचन कर रहे हैं। शील, समाधि एवं प्रज्ञा-ये तीन शब्द बौद्ध परम्परा में भी प्रचलित हैं तथा साधना के विभिन्न स्तरों के निदर्शन के लिए ही इनका प्रयोग हुआ है / शील सम्पन्न साधक के मन में काम-तृष्णा विद्यमान रहती है किन्तु वह अनाचार का सेवन नहीं करता। सपाधि में काम तुम" "पशान्त Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. घुताध्ययन : एक परिशीलन / 79 हो जाती है / मन में भी उसका प्रादुर्भाव नहीं होता किन्तु अन्तःकरण में वह बीज रूप में विद्यमान रहती है। प्रज्ञा काम-तृष्णा के बीज को ही नष्ट कर देती है। शील की भूमिका छठे गुणस्थान तक है। उपशम श्रेणी समाधि की भूमिका है तथा क्षपक श्रेणी से प्रज्ञा का उदय होता है। दूसरे शब्दों में शील क्षायोपशमिक भाव है, समाधि औपशमिक एवं प्रज्ञा क्षायिक भाव के समान हैं। इन्द्रियाँ स्वभाव से ही अपने विषयों के प्रति आकर्षित होती हैं। इन्द्रियासक्ति आत्म-प्रज्ञा के उदय में बाधा रूप है / इन्द्रियासक्त व्यक्ति साधना की उच्च भूमिका में बरणन्यास नहीं कर सकता / साधक के इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता आवश्यक है। आचारांग में कहा है कि-'मुनि इन्द्रिय-विषयों की आकांक्षा न करने से आत्मज्ञ होते हैं।" आत्मज्ञ के लिए इन्द्रियासक्ति का परित्याग आवश्यक है। इन्द्रियासक्त अपने गृहीत ब्रतों की भी सम्यक परिपालना नहीं कर सकता। कषाय भी साधक की आत्म-साधना के पलिमन्थु हैं जो वशार्त एवं कातर होते हैं, वे व्रतों का विध्वंस करने वाले होते है। चार प्रकार के वशातों का उल्लेख उपलब्ध होता है-क्रोधवशात, मानवशात, मायावशात एवं लोभवशात / अनुप्रेक्षा के प्रयोग से वशार्तता को समाप्त किया जा सकता है। दशवैकालिक सूत्र में कषाय शमन के उपायों का निर्देश करते हुए कहा गया है-'उपशम से क्रोध का हनन करे, मृदुता से मान को जीते, ऋजुभाव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीते / 3 / प्रज्ञा का उदय करना साधक का लक्ष्य है। वह प्रज्ञा प्राप्ति का उपक्रम करता है। आयारो के सर्वेक्षण से ज्ञात होता है कि वह प्रज्ञा प्रधान है अर्थात् सारे आयारो में धर्म ध्यान की व्याख्या है / जैनों का ध्यान चिन्तन-प्रधान है—यह आयारो से स्पष्ट है। तपस्या का ध्येय है-प्रज्ञा का उन्मेष / तपस्या के माध्यम से प्रज्ञा का उन्मेष होता है। तपस्या साधना है, साध्य नहीं / साध्य की सम्पूर्ति के पश्चात् साधन की आवश्यकता नहीं होती। ध्येय के साक्षात्कार के पश्चात् साधक को तपःसाधना की आवश्यकता नहीं रहती। 'धुतवाद' का तात्पर्य यह है कि विवेकपूर्वक तपस्या को मात्र साधना मार्ग मानकर उसका अभ्यास करना परन्तु.तपस्या ध्येय नहीं है। धुत साधना की पद्धति है। धुत की उत्कृष्ट स्थिति महापरिज्ञा है / अन्तर्मन के मोह का विवेक करना महापरिज्ञा है। महापरिज्ञा महाधुत है, यह भी साधन है, साध्य नहीं / इसका पर्यवसान मोक्ष में होता है जो आठवें अध्ययन का विषय है / शस्त्र परिज्ञा से लेकर विमोक्ष पर्यन्त सम्पूर्ण साधना-पद्धति भगवान् महावीर के जीवन में फलित हुई जिसका साक्ष्य ‘उवहाण' . अध्ययन है जो आयारो का अन्तिम अध्ययन है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 / आर्हती-दृष्टि सन्दर्भ 1. आचारांग भाष्य आमुख, अ.६ 2. आचारांग नियुक्ति, गा. स. 251-52 / 3. आचारांग सूत्र, 6/28 4. आचारांग टीका, पृ. 5. 'अइअच्च सव्वतो संगंण महं अत्थि त्ति / इति एगोहमंसि।' आचारांग, सूत्र 6/38 6. रसापगाम न...... .उत्तराध्ययन 32/10 7. आगयपण्णाणाणं किसा बाहा भवन्ति, पयणुए य मंससोणिए। आ. 6/67 8. सुत्तनिपातः पधान-सुत्त 9-11 9. सीलमन्ता, उंवसन्ता, संखाए रीयमाणा। आ.६/८० १०.णिक्खित्तदण्डाणं समाहियाणं पण्णाणमंताणं / / आ. 6/3 11. आचारांग सूत्र, 6/73 12. वसट्टा कायरा जणा लूसगा भवन्ति। .. 13. उवसमेण / दशवैकालिक 8/38 6/95 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन : स्वरूप विमर्श - सत्य प्राप्ति की जिज्ञासा के साथ साधक साधना के क्षेत्र में गतिशील बनता है। प्रश्न उपस्थित होता है कि साधना का आदि बिन्दु क्या है ? धर्म का मूल क्या है ? इसके समाधान में चिन्तकों ने विभिन्न दृष्टिकोण से अपने मन्तव्यों को प्रस्तुत किया है। दशवैकालिक सूत्र में विनय को धर्म का मूल कहा गया है 'विणओ धम्मस्स मूलो'। कहीं पर दया, दान आदि को आचार/साधना का मूल माना गया है किन्तु समग्र दृष्टि से चिन्तन करने पर ज्ञात होता है कि जैन धर्म/दर्शन की आधारशिला दर्शन अर्थात् सम्यक् दर्शन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने दर्शन पाहुड़ में स्पष्ट कहा है-'दसणमूलो धम्मो', धर्म का मूल दर्शन है / जैन आचार का प्राण-तत्त्व सम्यक् दर्शन है / सम्यक् दर्शन के अभाव में ज्ञान एवं चारित्र की मुक्ति मार्ग में कोई उपयोगिता नहीं है। सम्यक्त्व के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए श्रीमद् जयाचार्य ने कहा है- जे समकित बिन हैं, चारित्र नी किरिया रे। बार अनन्त करी, पिण काज न सरिया रे / / ____ सम्यक्त्व के अभाव में अनन्त बार चारित्र की क्रिया करने पर भी समीहित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका में दर्शन के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है - प्रष्टेनापि च चारित्राद् दर्शनमिह दृढ़तरं ग्रहीतव्यम्। - सिध्यन्ति चरणरहिता दर्शनरहिता न सिध्यन्ति / जैन दर्शन दृष्टि शुद्धि पर विशेष बल देता है / जैन दर्शन में सम्यक्त्व को विशिष्ट स्थान प्राप्त है / जिस प्रकार ताराओं में चन्द्र और पशुओं में सिंह प्रधान है उसी प्रकार मुनि एवं श्रावक धर्म में सम्यक्त्व प्रधान है। तत्त्वार्थ सूत्र के प्रथम सूत्र में ही मुक्ति मार्ग का वर्णन करते हुए कहा गया है- 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की एकात्मकता ही मुक्ति का मार्ग है / मुक्तिमार्ग में प्राथमिकता एवं वरीयता सम्यक् दर्शन को ही प्राप्त है। . सम्यक् दर्शन का अर्थ है दृष्टि की यथार्थता/अविपरीतता / दर्शन जगत् में दर्शन Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 / आर्हती-दृष्टि शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है / दर्शन शब्द के तीन अर्थ सभी दार्शनिक परम्पराओं में मान्य रहे हैं—(१) चाक्षुष ज्ञान अर्थ में दर्शन शब्द का प्रयोग यथा—घट दर्शन, (2) आत्म-साक्षात्कार अर्थ में दर्शन शब्द का प्रयोग यथा-आत्मदर्शन एवं (3) सांख्य दर्शन, न्याय दर्शन आदि विशिष्ट विचारधारा के अर्थ में दर्शन शब्द का प्रयोग सर्वविदित है। जैन परम्परा में इन तीन अर्थों के अतिरिक्त दर्शन के दो अन्य अर्थ भी प्रचलित हैं- एक अर्थ श्रद्धान रूप दर्शन एवं दूसरा वस्तु के सामान्य बोध के अर्थ में प्रयुक्त है। प्रस्तुत प्रसंग में दर्शन का श्रद्धान रूप अर्थ अभिप्रेत है। 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' जीव आदि तत्त्वों पर श्रद्धा करना सम्यक् दर्शन है। . सम्यग्दर्शन का बहुप्रयुक्त जैन शब्द सम्यकत्व है। सम्यक्त्व एवं सम्यक् दर्शन * एकार्थक है / सम्यक् दर्शन के अभाव में क्रिया करता हुआ तथा स्वजन आदि का परित्याग करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि जीव सिद्ध नहीं होता। आचारांग नियुक्ति में कहा गया है कुणमाणोऽवि य किरियं परिच्चयन्तो वि सयणधणभोए। -. दिन्तोऽवि दुहस्स उरं न जिणइ * अन्धो पराणीयं // अहिंसा शाश्वत धर्म है / यह आचार पक्ष है / इसकी पृष्ठभूमि में सम्यक्त्व है। जब तक नवतत्त्व एवं षड्जीव-निकाय के प्रति श्रद्धा और सम्यग् बोध नहीं होता तब तक अहिंसा धर्म के अनुशीलन की पृष्ठभूमि भी तैयार नहीं होती। सम्यक्त्व आचार एवं विचार का केन्द्रीय तत्त्व है। . सम्यक्त्व प्राप्ति के हेतु सम्यक्त्व सम्पूर्ण धार्मिक आराधना का आधारभूत तत्त्व है। जैन परम्परा में उसके प्राप्ति के हेतुओं पर भी विस्तृत विचार हुआ है / सम्यक्त्व परिणाम की उत्पत्ति सहेतुक है अथवा निर्हेतुक? इस जिज्ञासा के समाधान का स्वरूप यह हो सकता है कि सम्यक्त्व निर्हेतुक नहीं हो सकता क्योंकि जो वस्तु निर्हेतुक है वह सदा एवं सर्वत्र सबमें युगपत् होनी चाहिए अथवा उसका सार्वकालिक अभाव होना चाहिए किन्तु सम्यक्त्व न तो सबमें समान है न ही उसका सर्वत्र अभाव है अतः वह सहेतुक है। यद्यपि तत्त्वार्थ में सम्यक्त्व को निसर्गज एवं अधिगमज उभय रूप स्वीकार किया है-'तनिसर्गादधिगमाद्वा' किन्तु निसर्ग सम्यक्त्व में भी पूर्व कारणता तो विद्यमान रहती ही है अतः सम्यक्त्व परिणाम सहेतुक है। सम्यक्त्व परिणाम को सहेतुक मानने पर यह विकल्प उपस्थित होता है कि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन-स्वरूप विमर्श | 83 उसका नियत हेतु क्या है ? प्रवचन-श्रवण, भगवत् भक्ति आदि जो सम्यक्त्व प्राप्ति में बाह्य हेतु माने जाते हैं उनको तो सम्यक्त्व का नियत कारण स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इन हेतुओं के सद्भाव में भी सम्यक्त्व प्राप्ति संदिग्ध है। अतः इस जिज्ञासा का यही समाधान हो सकता है कि सम्यक्त्व परिणाम प्रकट होने में नियत कारण जीव का तथाविध भव्यत्व नामक अनादि पारिणामिक स्वभाव-विशेष ही है। जब इस पारिणामिक भव्यत्व का परिपाक होता है तभी सम्यक्त्व का लाभ होता है। सम्यक्त्व के प्रकार सम्यक्त्व गुण प्रकट होने में आभ्यन्तर कारणों की जो विविधता है वही क्षायोपशमिक, क्षायिक आदि सम्यक्त्व के भेदों का आधार है। सम्यक्त्व के पाँच प्रकार का उल्लेख करते हुए जैन-सिद्धान्त-दीपिका में कहा है _ 'औपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-सास्वादनवेदकानि' ।अनन्तानुबन्धि चतुष्क एवं दर्शन मोहनीय त्रिक, इन सत प्रकृतियों का क्षयोपशम, क्षय एवं उपशम क्रमशः क्षायोपशमिक, क्षायिक एवं औपशमिक सम्यक्त्व का कारण बनता है। औपशमिक सम्यक्त्व से गिरते समय मिथ्यात्व प्राप्त करने से पूर्व की स्थिति सास्वादन सम्यक्त्व है। क्षायोपशमिक से क्षायिक सम्यक्त्व की ओर जाते समय उसकी अन्तिम प्रकृति का वेदन वेदक सम्यक्त्व कहलाता है / सम्यक्त्व प्राप्ति के क्रम की कर्मग्रन्थों में विशद चर्चा है / यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण की प्रक्रिया से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। .. जैन आगमों में सम्यक्त्व के विचार का क्रमिक विकास उपलब्ध है / पं. दलसुख भाई मालवणिया का अभिमत है कि केवल श्रद्धा अर्थ में सम्यक्त्व शब्द का अर्थ मौलिक नहीं है। जीवन में जो कुछ सम्यक् हो सकता है, उसी का सम्बन्ध सम्यक्त्व से है। किन्तु जब मोक्ष के उपायों की विशिष्ट चर्चा का प्रारम्भ हुआ तब श्रद्धा और सम्यक्त्व का एकीकरण हुआ और वह विस्तृत अर्थ छोड़कर संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। शब्द के अर्थ का समय के प्रवाह में संकोच विस्तार होता रहता है / सम्यक दर्शन, श्रद्धा, विश्वास, प्रतीति, रुचि आदि सम्यक्त्व के ही पर्यायवाची नाम हैं। जैन आगमों के अवलोकन से सम्यक्त्व के अर्थ एवं भाव की विकास यात्रा का सांगोपांग अवबोध हो जाता है। आचारांग सर्वाधिक प्राचीन जैनागम है / उसके चतुर्थ अध्ययन का नाम सम्यक्त्व है। नियुक्तिकार भद्रबाहु स्वामी ने उसके अधिकार को बताते हुए कहा—'पढमे सम्मावाओ' प्रथम उद्देशक में सम्यग्वाद का अधिकार है। सम्यग् अविपरितो वादः सम्यग्वादो यथावस्थितवस्त्वाविर्भावनं' अविपरीत अर्थात् यथार्थ वस्तु तत्त्व का Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 / आर्हती-दृष्टि प्रतिपादन सम्यग्वाद है। यहां सम्यक् शब्द का श्रद्धा रूप अर्थ परिलक्षित नहीं हो रहा है / आचारांग के सम्यक्त्व अध्ययन में सम्यक्त्व एवं मुनि जीवन का एकीकरण हुआ जं सम्मति पासहा तं मोणं ति पासहा। जं मोणं ति पासहा तं सम्मं ति पासहा॥ जो सम्यक्त्व है उसे मुनिधर्म के रूप में तथा जो मुनिधर्म है उसको सम्यक्त्व के रूप में देखो। आचारांग प्रधान रूप से नैश्चयिक सम्यक्त्व का प्रतिपादक ग्रन्थ है जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे। जे अणण्णारामे से अणण्णदंसी। आत्म-साक्षात्कार के रूप में नैश्चयिक सम्यक्त्व का निरूपण प्रस्तुत ग्रन्थ में प्राप्त . है / सम्यक्त्व के स्वरूप का निरूपण करते हुए सूत्रकृतांग में कहा गया है सोच्चा य धम्मं अरिहन्त भासियं समाहितं अट्ठपदोवसुद्धं / तं सद्दहमाणा य जणा अणाऊ इन्दा व देवाहिव आगमिस्संति॥ . अर्हत् भासित, शुद्ध अर्थ एवं पदयुक्त इस धर्म को सुनकर जो इसमें श्रद्धा करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं अथवा इन्द्र की तरह देवताओं के अधिपति होते हैं। यहां पर दर्शन का श्रद्धान रूप अर्थ लक्षित होता है। सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध में श्रमणोपासक में भी सम्यक्त्व के लक्षणों द्वारा भी श्रद्धान अर्थ लक्षित है / उनको जीव-अजीव के ज्ञाता, कुशल, निम्रन्थ प्रवचन में निःशंक निष्कांक्ष आदि विशेषणों से युक्त बताया है-समणोवासगा भवंति अभिगय जीवा-जीवा णिसंकिया णिक्कंखिया। ___ सूत्रकृतांग में निशंका, निष्कांक्ष और निर्विचिकित्सा जो सम्यक्त्व के अंग है उनका एक साथ प्रयोग हुआ है। जीव-अजीव आदि तत्त्व श्रद्धा के विषय हैं तथा श्रमण की तरह श्रमणोपासक भी सम्यग्दृष्टि होता है इसका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त है। उत्तराध्ययन में सम्यक्त्व की अवधारणा का विकसित एवं स्पष्ट वर्णन प्राप्त है। सम्यक्त्व को परिभाषित करते हुए २८वें अध्ययन में कहा है तहियाणं तु भावाणं सम्भावे उवएसणं। . भावेणं सहतस्स सम्मत्तं तं विहाहियं / / . Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सम्यग्दर्शन-स्वरूप विमर्श / 85 जीव-अजीव आदि यथार्थ पदार्थों में श्रद्धा होना सम्यक्त्व है। उत्तराध्ययन के अनेक स्थलों पर सम्यक्त्व विचारणा उपलब्ध है। जिसके उपदर्शन के लिए एक स्वतन्त्र प्रबन्ध अपेक्षित है। प्रज्ञापना में भी सम्यक्त्व की विशद् चर्चा है / भगवती, स्थानांग, अनुयोगद्वार आदि आगमों में तथा आगमेत्तर अन्य जैन ग्रन्थों में सम्यक्त्व की विस्तार से चर्चा हुई है। जैन दर्शन का सम्यक्त्व प्राणतत्त्व है। जैन दर्शन में तात्त्विक श्रद्धा की तरह व्यावहारिक श्रद्धा के साथ भी सम्यक्त्व का सम्बन्ध जोड़ा गया है। अरहंतो महदेवो जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिणपण्णत्तं तत्तं इयं सम्मत्तं मए गहियं // देव, गुरु एवं जिनप्रज्ञप्त धर्म में श्रद्धा भी साधना के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण __ आज के आस्थाहीन, कुण्ठाग्रस्त, भयत्रस्त युग में जीवन विकास के क्षेत्र में आस्था की महनीय आवश्यकता है / मोहाविष्ट चेतना योग से ऊर्ध्वारोहण कर योग में स्थिर हो यह काम्य है। आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सके इसके लिए सम्यक् श्रद्धा एवं आत्मदर्शन की महती आवश्यकता है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा दर्शन जगत् सार्वभौम सत्यों को उद्घाटित करने का प्रयत्न करता है / जीव, जगत् सम्बन्धी अवधारणा की विभिन्नता दर्शनों के पार्थक्य की आधार-भूमि है। विचारधारा में विभेद होने पर भी दार्शनिक क्षेत्र में ऐसे विषय हैं, जिन पर सभी दार्शनिकों ने चिन्तन किया है। उन मुख्य मुद्दों में एक है—द्रव्य-मीमांसा। ____ भारतीय एवं पाश्चात्य प्रायः सभी दार्शनिकों ने जगत् व्याख्या के सन्दर्भ में द्रव्य पर विचार किया है। युनानी दार्शनिक अरस्तु के अनुसार द्रव्य तथा स्वरूप ही दो मौलिक पदार्थ हैं, जिनसे सम्पूर्ण जगत् का निर्माण हुआ है। मेज का द्रव्य है काष्ठ तथा स्वरूप है आकृति / द्रव्य और स्वरूप दोनों अपृथक् हैं / द्रव्य केवल शक्ति है तथा स्वरूप ही वस्तु (actuality ) है / अरस्तु के अनुसार द्रव्य सभी वस्तुओं का मूल कारण है अतः सबका अधिष्ठान या आश्रय है। ... स्पिनोजा के अनुसार ईश्वर ही परम द्रव्य है / द्रव्य स्वतन्त्र, निरपेक्ष एवं अद्वितीय है। वह अपरिछिन्न तथा अपरिमित है / द्रव्य स्वतः सिद्ध है अर्थात् द्रव्य स्वयं अपना प्रमाण है, स्व-संवेद्य है। ___ लॉक के अनुसार गुणों के आश्रय या आधार का नाम द्रव्य है / द्रव्य की सत्ता गुणों के समान प्रत्यक्ष नहीं है / उसकी सत्ता अनुमेय है / लॉक के अनुसार द्रव्य अज्ञेय ___बुद्धिवादी देकार्त के अनुसार द्रव्य वह है जिसकी सत्ता स्वतन्त्र है तथा जिसका ज्ञान भी स्वतन्त्र है / देकार्त सापेक्ष एवं निरपेक्ष भेद से दो द्रव्य मानता है / ईश्वर निरपेक्ष द्रव्य है तथा चित्त और अचित्त सापेक्ष द्रव्य है / चित्त, अचित्त परस्पर तो स्वतन्त्र एवं निरपेक्ष हैं किन्तु दोनों ईश्वर पर आश्रित हैं / देकार्त द्वैतवादी तथा स्पिनोजा अद्वैतवादी ___लाइबनित्स के अनुसार द्रव्य वह नहीं जिसकी सत्ता स्वतन्त्र हो किन्तु द्रव्य उसे कहते हैं जो स्वतन्त्र क्रियाशक्ति से सम्पन्न हो / लाइबनित्स का द्रव्य शक्ति सम्पन्न, सक्रिय एवं परिणामी है / लाइबनित्य के अनुसार चिदणु विश्व की अन्तिम अविभाज्य .'' ईकाई है। - पातञ्जल महाभाष्य में गुणसमुदाय या गुण सन्द्राव को द्रव्य कहा गया है / उसी Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा / 87 ग्रन्थ में अन्यत्र कहा गया है भिन्न-भिन्न गुणों के उत्पन्न होने पर भी जिसकी मौलिकता का नाश नहीं होता, वह द्रव्य है। सांख्य दर्शन में धर्मी को त्रिकालयुक्त माना है। वेदान्त दर्शन ब्रह्म के रूप में कूटस्थ अद्वैत सत्ता को ही द्रव्य रूप में स्वीकार करता है। बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी होने से उसके दर्शन में स्थायी एवं आधारवान किसी भी द्रव्य की कल्पना ही नहीं है / पर्याय ही उस दर्शन में सत्य है। ___ वैशेषिक दर्शन सात पदार्थों को स्वीकार करता है / इन पदार्थों में सर्वप्रथम स्थान द्रव्य को प्राप्त है। द्रव्य की प्राथमिकता का कारण यह है कि यह अन्य पदार्थों का आधारभूत पदार्थ है। द्रव्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है—'क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्' अर्थात गुण तथा क्रिया जिसमें समवाय सम्बन्ध से रहते हों तथा जो समवायि कारण हो, वही द्रव्य कहलाता है / वैशेषिक के अनुसार गुण और क्रिया द्रव्य के कार्य है / अतः उत्पत्ति के प्रथम समय द्रव्य निर्गुण एवं निष्क्रिय होता है / द्रव्य बाद में गुणवान् एवं क्रियावान् बनता है / समवायि कारण का अर्थ है, जिसमें समवाय सम्बन्ध से कार्य उत्पन्न होते हैं / वैशेषिक नौ द्रव्य मानता है / जिनमें चार पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु अनित्य द्रव्य हैं एवं आकाश, दिक्, आत्मा, मन एवं काल पांच नित्य द्रव्य हैं। ... जैन दर्शन में सत्, द्रव्य, तत्त्व, तत्त्वार्थ एवं पदार्थ आदि शब्दों का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में होता रहा है / जो सत् रूप पदार्थ है, वही द्रव्य है / 'सद् द्रव्यलक्षणम्' उत्तराध्ययन सूत्र में 'गुणाणमासओ दव्वं' गुणों के आश्रय को द्रव्य कहा गया है। यद्यपि उत्तराध्ययन के उसी अध्ययन में ज्ञान के विषयभूत द्रव्य, गुण एवं पर्याय का उल्लेख तथा अनुयोग द्वार में द्रव्य, गुण एवं पर्याय का निरूपण है। किन्तु द्रव्य के लक्षण में दोनों ही सूत्रों ने गुण को ही स्थान दिया है। ___वाचकमुख्य उमास्वाति की द्रव्य परिभाषा में विकास प्राप्त होता है / उन्होंने गुण के साथ पर्याय को भी द्रव्य में स्वीकार किया है / 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' जो गुण और पर्याय से युक्त हो, वह द्रव्य है। गुणों को परिभाषित करते हुए वाचक ने कहा है-'द्रव्याश्रयाः निर्गुणा गुणाः।' द्रव्य जिनका आश्रय है तथा जो स्वयं अन्य गुणों को आश्रय नहीं देते, वे गुण हैं। - द्रव्य एवं गुण की इन परिभाषाओं में पुनरुक्ति परिलक्षित होती है / द्रव्य किसे कहते हैं ? जो गुणों का आश्रय है / गुण किसे कहते हैं जो द्रव्य के आश्रित हैं / तत्त्वार्थ - सूत्र में ही अन्यत्र द्रव्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है—'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 / आर्हती-दृष्टि सत् / ' 'सद् द्रव्यलक्षणम्' इस परिभाषा से पुनरुक्ति दोष का निर्गमन हो जाता है। उमास्वाति के द्रव्यलक्षण से यह फलित हो जाता है कि गुण और पर्याय से रहित द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है / मात्र प्रज्ञा से उसकी पृथक् कल्पना की जा सकती है। द्रव्य से रहित पर्याय एवं पर्याय रहित द्रव्य का सद्भाव नहीं है / 'पज्जयविजुदं दव्वं, दव्वविजुत्ता य पज्जवा णत्थि / ' द्रव्य से सन्दर्भित वाचक के तीनों सूत्रों का(१) 'उत्पादव्ययघोव्यात्मकं सत्', (2) “सद् द्रव्य लक्षणम्', (3) 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' समाहार कुन्दकुन्द ने पञ्चास्तिकाय की द्रव्य लक्षण की कारिका में किया है द्रव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं / गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू॥ जो द्रव्य है, वही सत् है तथा जो सत् है, वही द्रव्य है / सत्ता और द्रव्य परस्पर अनन्य है / इसी आशय का निरूपण पञ्चास्तिकाय की इस गाथा में हुआ है 'दवियदि गच्छदि ताई ताई सब्भावपज्जयाई जं। दवियं तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो।' सप्तभंग के आधार पर भी आ० कुन्दकुन्द ने द्रव्य को परिभाषित करने का प्रयत्न किया है सिय अत्यि, णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो च तत्तिदयं / दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण सम्भवदि / / जैन दर्शन में द्रव्य की विभिन्न परिभाषाओं में उसके आश्रय रूप की चर्चा बहुलता से है / द्रव्यानुयोग तर्कणा में द्रव्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है गुणपर्याययोः स्थानभमेकरूपं सदापि यत् / स्वजात्या द्रव्यमाख्यातं मध्ये भेदो न तस्य व॥ जैन सिद्धान्त दीपिका में भी द्रव्य की परिभाषा में कहा गया है—'गुणपर्यायाश्रयो द्रव्यम्' गुण एवं पर्याय का आश्रय द्रव्य है। द्रव्य शब्द की व्युत्पत्तिपरक परिभाषा से भी द्रव्य के स्थायित्व का बोध होता है—'अद्रुवत्, द्रवति, द्रोष्यति तांस्तान् पर्यायान् इति द्रव्यम्' जो भिन्न-भिन्न पर्यायों को प्राप्त हुआ है, हो रहा है तथा होगा, वह द्रव्य है। इसका फलित अर्थ यह है कि * विभिन्न अवस्थाओं का उत्पाद एवं विनाश होने पर भी जो ध्रुव है, जिसका नाश नहीं Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा / 89 होता, वह द्रव्य है / ट्रॅव्य में परिणमन होता है फिर भी उसकी स्वरूप हानि नहीं होती। यही सत्. पदार्थ की ध्रुवता है। जैन के अनुसार द्रव्य नित्य एवं अवस्थित है'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' जैन कूटस्थ नित्यता को स्वीकार नहीं करता। उसका द्रव्य परिणामी नित्य है / 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' द्रव्य के सामान्य तथा विशेष स्वरूप का च्यूत न होना ही उसका नित्यत्व है और अपने स्वरूप में स्थिर रहते हुए भी अन्य तत्त्व के स्वरूप को प्राप्त न करना द्रव्य का अवस्थित्व है। जैन को वेदान्त के ब्रह्म एवं सांख्य के पुरुषं जैसा कूटस्थ द्रव्य मान्य नहीं है / न ही बौद्ध की तरह द्रव्य रहित पर्यायात्मकता में उसका विश्वास है / उसका अपना स्वतन्त्र अभिमत है / द्रव्य, पर्याय दोनों की सापेक्ष स्वीकृति जैन दर्शन में है / 'द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु' जैन को मान्य है। द्रव्यं पर्यायरहितं पर्यायाद्रव्यवर्जिताः क्व कदा केन किंरूपा दृष्टा मानेन केन वा। जैन धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, आवाशास्तिकाय काल, पुद्गलास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय इन छः द्रव्यों को मानता है / जैन का द्रव्य वैशेषिक की तरह उत्पत्ति के प्रथम क्षण में निर्गुण एवं निष्क्रिय नहीं है / गुण द्रव्य का सहभू धर्म है / द्रव्य के साथ ही गुण उत्पन्न हो जाते हैं यद्यपि जैन एवं वैशेषिक दोनों का ही द्रव्य अनादि निधन एक प्रश्न उपस्थित होता है कि इन छः द्रव्यों के अतिरिक्त भी कोई द्रव्य है या नहीं। यदि है तो वह किंरूप है / परमाणु भी द्रव्य है / घट भी द्रव्य है तथा लोक भी द्रव्य है। इनके द्रव्यत्व में कोई अन्तर है या नहीं। जब हम अन्य दर्शनों की ओर दृष्टिपात करते हैं तो हमें द्रव्यत्व में भेद उपलब्ध होता है। जैसा कि हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि द्रव्य और सत् एक है / एक ही वस्तु के अभिधान है / वेदान्त दर्शन में पारमार्थिक, व्यावहारिक एवं प्रातिभासिक के भेद से सत् त्रिधा विभक्त है। ब्रह्म पारमार्थिक, जगत् व्यावहारिक एवं स्वप्न प्रातिभासिक सत् है। योगाचार बौद्ध का सत् भी त्रिधाविभक्त है / परिकल्पित, परतन्त्र और परिनिष्पन्न / परिकल्पित एवं परतन्त्र व्यावहारिक सत् है तथा परिनिष्पन्न पारमार्थिक सत् है / बौद्ध धर्म में संवृति सत् तथा परमार्थ सत् की भी अवधारणा है यत्र भिन्ने न तद्बुद्धिरन्यापोहे धिया च तत् / घटाम्बुवत् संवृति सत् परमार्थसदन्यथा / / Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 / आर्हती-दृष्टि - सांख्यदर्शन के अनुसार सृष्टि से लेकर जो प्रलय तक रहता है, वह पारमार्थिक एवं तात्विक सत् है / तथा घट, पट आदि व्यावहारिक सत् हैं / जैन के अनुसार भी सत् को द्विधा माना जाता है— व्यवहार और निश्चय / घट-पट आदि व्यावहारिक द्रव्य हैं तथा परमाणु आदि पारमार्थिक हैं / अर्थपर्याय मौलिक है, व्यंजन पर्याय व्यावहारिक .. जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य 6 भागों में विभक्त है। संक्षेप में उसे दो प्रकार का भी कहा जा सकता है। दो से कम नहीं हो सकता। जैसे वेदान्त ब्रह्म को ही एक तत्त्व के रूप में स्वीकार करता है। विश्व-व्यवस्था की समायोजना के सन्दर्भ में 6 द्रव्यों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन दृष्टि के अनुसार यह जगत् न केवल परिवर्तन रूप है, न स्थिर रूप / परिवर्तनशीलता के साथ यह अनादिनिधन भी है / जैन चिन्तन के अनुसार इस जगत् में पांच अस्तिकाय अथवा काल सहित धर्मादि छः द्रव्य मूल हैं। ‘पञ्चास्तिकायमयो लोकः' अथवा 'षड्द्रव्यात्मको लोकः / ' यह विश्व के सम्बन्ध में जैन की मान्यता है / जैन दर्शन में विश्व के लिए लोक शब्द व्यवहत हुआ है। , ____ पञ्चास्तिकाय की अवधारणा प्राचीन है ।आगमों में स्थान-स्थान पर विश्व-व्यवस्था के सन्दर्भ में अस्तिकाय शब्द का प्रयोग हुआ है। अस्तिकाय जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण एवं पारिभाषिक शब्द है। अस्ति एवं काय इन दो शब्दों के संयोग से अस्तिकाय शब्द परिनिष्पन्न हुआ है। प्रदेश-प्रचय को अस्तिकाय कहते हैं। जो अस्तिकाय है, वही सत् है / 'अस्तिकायः प्रदेशप्रचयः' तत्त्वार्थसूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य सिद्धसेनगणि ने अपनी तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका में अस्तिकाय शब्द की नवीन व्याख्या प्रस्तुत की है। उनके अनुसार काय शब्द उत्पाद एवं व्यय की ओर संकेत करता है तथा अस्ति पद से ध्रुवता का संकेत हो रहा है / अस्तिकाय शब्द वस्तु की त्रयात्मकता को प्रकट करता है / अस्तिकाय शब्द से ज्ञात होता है कि धर्म आदि पाँचों द्रव्य नित्य तथा अस्तित्ववान् हैं तथा वे परिवर्तन के विषय भी बनते हैं। जैन का अस्तिकाय वेदान्त के ब्रह्म एवं सांख्य के पुरुष की तरह कूटथ नित्य नहीं है / तथा बौद्ध के पर्याय की तरह सर्वथा क्षणिक भी नहीं है। अद्वैत में तत्त्व का विस्तार नहीं है / मात्र एक ब्रह्म की ही वहां परिकल्पना है। बौद्धों में द्रव्य का वर्गीकरण नहीं है। सांख्य 25 तत्त्व, नैयायिक 16 तत्त्व तथा वैशेषिक 6 पदार्थों को मानता है। जैन दर्शन का जगत् विश्लेषण पांच अस्तिकाय अथवा षड्द्रव्यों के रूप में उपलब्ध है / जैन आगम साहित्य में तत्त्व के चार वर्गीकरण , Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा / 91 मिलते हैं—(१) जीवंद्रव्य और अजीवद्रव्य, (2) पञ्चास्तिकाय, (3) षड्द्रव्य, (4) नौ तत्त्व / जैन दर्शन द्वैतवादी दर्शन है। इसलिए उसने मूल तत्त्व दो माने हैं—जीव और अजीव / पञ्चास्तिकाय, षड्द्रव्य या नवतत्त्व उन दो का ही विस्तार है। जीव-अजीव को सांख्य आदि द्वैतवादी दर्शन भी पुरुष एवं प्रकृति के रूप में स्वीकार करते हैं। किन्तु अस्तिकाय का सिद्धान्त जैन दर्शन का मौलिक है। जीवास्तिकाय की तुलना सांख्य-सम्मत पुरुष से तथा पुद्गल की तुलना प्रकृति से की जा सकती है / आकाश को प्रायः सभी दार्शनिकों ने स्वीकार किया है। किन्तु धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय की स्वीकृति जैन दर्शन की मौलिक अवधारणा है / द्रव्य शब्द का प्रयोग वैशेषिक दर्शन में भी हुआ है / अस्तिकाय अस्तित्व का वाचक शब्द है / वेदान्त में जैसे ब्रह्म का निरपेक्ष अस्तित्व है, वैसे ही जैन दर्शन में पांच अस्तिकाय का निरपेक्ष अस्तित्व है। पुद्गल के जैसे परमाणु होते हैं वैसे ही चार अस्तिकाय के भी परमाणु होते हैं। पुद्गल के परमाणु उससे अलग हो सकते हैं किन्तु चार अस्तिकाय के परमाणु स्कन्ध रूप में ही रहते हैं अतः उनको प्रदेश कहा जाता है / अस्तिकाय को प्रदेशात्मक बताकर भगवान् महावीर ने उसके स्वरूप को एक नया आयाम प्रदान किया है। जैन दर्शन में अस्तित्व का अर्थ है-परमाणु या परमाणु स्कन्ध / जीवास्तिकाय के परमाणु चैतन्यमय हैं तथा शेष के चैतन्य रहित हैं। धर्म आदि चारों अस्तिकाय के परमाणु स्कन्ध रूप में रहते हैं जबकि पुद्गल की स्कन्ध एवं परमाणु रूप दोनों अवस्थाएँ हैं। अस्ति शब्द के दो अर्थ है-(१) कालिक अस्तित्व, (2) प्रदेश / काय का अर्थ हैं राशि समूह / प्रदेश- समूह को अस्तिकाय कहते हैं। उसका कालिक अस्तित्व है। उनके द्वारा ही तीनों लोक निष्पन्न हुए हैं जेसिं अस्थिसहाओ गुणेहिं सह पज्जएहिं विविहेहिं / .. .ते होति अस्थिकाया णिप्पण्णं जेहिं तइलुक्कं / / अस्तिकाय नित्य है तथा त्रैकालिक भाव परिणत है। वे अस्तिकाय ही, काल जो परिवर्तन लिङ्गवाला है, उससे युक्त होकर द्रव्य कहलाते हैं- ते चेव अस्थिकाया तेकालियभावपरिणदा णिच्चा। गच्छन्ति दवियभावं परिचयट्टणलिङ्ग संजुत्ता / / ... अस्तिकाय सत् स्वरूप हैं लोक के कारणभूत हैं / उनका अस्तित्व नियत हैं। आकाश के एक क्षेत्र में सारे अस्तित्व अवगाहित होने पर भी उनका स्वरूप भिन्न-भिन्न Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 / आर्हती-दृष्टि रहता है / परस्पर एक-दूसरे में अनुप्रविष्ट होकर भी उनमें स्वरूप सांकर्य नहीं होता। ___ अस्तिकाय पांच हैं / जब काल इनके साथ जुड़ जाता है तब ये षड्द्रव्य कहलाने लगते हैं। आगमकालीन समय में पंचास्तिकाय की परम्परा थी। वहां पञ्चास्तिकाय को ही लोक कहकर पुकारा गया है जैसा कि भगवती में कहा गया है 'पंचत्थिकाय एस णं एवत्तिए लोएत्ति पवुच्चइ।' उत्तरकाल में षड्द्रव्य की चर्चा ने उभार ले लिया अतः पश्चाद्वी दार्शनिक परम्परा में पंचास्तिकाय एवं षड्द्रव्य का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। ___ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय का संक्षिप्त नाम धर्म एवं अधर्म है। भारतीय दर्शन में धर्म, अधर्म का प्रयोग आचार-मीमांसा के सन्दर्भ में, शभाशभ प्रवृत्ति के अर्थ में हुआ है, पर तत्त्व-मीमांसा की दृष्टि से धर्म और अधर्म का मौलिक तत्त्वों के रूप में निरूपण जैन दर्शन में ही प्राप्त होता है / षड्द्रव्यों में चार का उल्लेख तो इतर दर्शनों में भी मिलता है पर धर्म-अधर्म की स्वीकृति जैन दर्शन की मौलिक है। धर्म, अधर्म क्रमशः जीव और पुद्गल की गति और स्थिति में उदासीन सहायक द्रव्य है। पञ्चास्तिकाय में धर्मास्तिकाय को परिभाषित करते हुए कहा गया है “धम्मस्थिकायमरसं अवण्णगन्धं असद्दमफासं। लोगोगाढं पुढं पिहुलमसंखादियपदेसं // अगुरुलघुगेहिं सया तेहिं अणंतेहिं परिणदं णिच्चं / गदिकिरियाजुताणं कारणभूदं सयमकज्जं // उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए तह जीव पुग्गलाणं धम्मं वियाणेहि / धर्मास्तिकाय अमूर्त द्रव्य है अतः उसमें स्पर्श आदि पौद्गलिक गुण नहीं है। वह सम्पूर्ण लोक में व्याप्त असंख्य प्रदेशी द्रव्य है। गति क्रिया में संलग्न जीव और पुद्गलों की गति में उदासीन कारण है / जैसे जल मछली के गमन में उपकार करता है। गतिक्रिया के उपादान कारण जीव और पुद्गल स्वयं है। धर्म मात्र निमित्त कारण है। वह किसी को भी गति के लिए प्रेरित नहीं करता किन्तु जो भी गति करता है, उसको धर्म द्रव्य की अनिवार्य आवश्यकता होती है। शब्द भेद से विभिन्न ग्रन्थों में धर्म द्रव्य की प्रायः एक जैसी परिभाषा प्राप्त होती है / द्रव्यानुयोग तर्कणा में कहा गया Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा / 93 ' परिणामी गतेधर्मो भवेत्पुद्गलजीवयोः अपेक्षाकारणाल्लोके मीनस्येव जलं सदा / / दीपिका में लिखा है—'गतिसहायो धर्मः' तत्त्वार्थ सूत्रकार ने एक ही सूत्र में धर्मअधर्म के उपकार की चर्चा की है—'गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः / मूल आगम ग्रन्थों में ही पंचास्तिकाय का विशद विवेचन प्राप्त है / गौतम भगवान् से पूछते हैंभगवन् ! पंचास्तिकाय का स्वरूप क्या है ? 'पंच अत्थिकाया पण्णत्ता तं जहाधम्मत्थिकाए अधमत्थिकाए"। धम्मत्थिकाए णं भते ! कति वण्णे' कतिगंधे ! कति रसे। कति फासे / गोयमा। अवण्णे अगंधे, अरसे, अफासे, अरुवी, अजीवे, सासए, अवट्ठिए लोगदव्वे।' इसी धर्मास्तिकाय को व्याख्यायित करते हुए भगवती में कहा गया है 'दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगे दवे खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते कालओ न कयाइ न आसि, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ, भविसुं च भवति च भविस्सई च धुवे णियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए णिच्चे / भावओ-अवण्णे अगंधे, अरसे, अफासे / गुणओ-गमण गुणे / अधम्मत्थिकाए-ठाणगुणे।' अधर्मास्तिकाय का स्वरूप भी धर्मास्तिकाय जैसा ही है। मात्र उसके विशेष गुण में अन्तर है / धर्म गति सहायक अधर्म जीव एवं पुद्गल की स्थिति में उदासीन या सापेक्ष कारण है / आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्यमधमक्खं। - ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव॥ द्रव्यानुयोग तर्कणा में भी कहा है स्थितिहेतुरधर्म: स्यात्परिणामी तयोः स्थितेः। सर्व साधारणो धर्मो गत्यादिद्रव्ययोर्द्वयोः / / धर्म, अधर्म द्रव्य से एक द्रव्य क्षेत्र से लोक परिणाम काल से अनादि अनन्त भाव से अमूर्त गुण से क्रमशः जीव व पुद्गल की गति एवं स्थिति में सहायता करना / गौतम .. ने भगवान् महावीर से पूछा भन्ते ! गति सहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय से जीवों को Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 / आर्हती-दृष्टि क्या लाभ होता है। भगवान् ने कहा—गौतम / गति का सहारा नहीं होता तो कौन आता, कौन जाता, शब्द की तरंगे कैसे फैलतीं? आंखें कैसे खुलती ? कौन मनन करता? कौन बोलता? कौन हिलता-डुलता / यह विश्व उसके बिना अचल ही होता। जो चल है। इन सबका आलम्बन गति सहायक तत्त्व धर्म ही है। इसी प्रकार अधर्म के सन्दर्भ में गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-भन्ते ! स्थिति सहायक तत्त्व से जीवों को क्या लाभ होता है। तब भगवान् ने कहा—गौतम ! स्थिति का सहारा नहीं होता तो कौन खड़ा रहता? कौन बैठता? सोना कैसे होता? कौन मन को एकाग्र करता? मौन कौन करता? कौन निष्पन्द बनता? निमेष कैसे होता? यह विश्व चल ही होता / जो स्थिर है, उन सबका आलम्बन स्थिति सहायक द्रव्य अधर्म ही है। अतः धर्म-अधर्म दोनों ही द्रव्य जीव एवं पुद्गल के गति-स्थिति के उपकारक द्रव्य हैं। लोक के आकार का निर्धारण इन दोनों द्रव्यों के आधार पर होता है। लोक का आकार त्रिशरावसम्पुटाकार माना जाता है पर वास्तव में यह आकार धर्म एवं अधर्म का ही है। इनके आकार के आधार पर ही लोक के आकार की व्याख्या की जाती है। लोक एवं अलोक की विभाजक रेखा इन तत्वों के द्वारा ही निर्धारित होती है। इनके बिना लोक अलोक की व्यवस्था नहीं बनती। जैसा कि प्रज्ञापना की टीका में कहा है- 'लोकालोकव्यवस्थान्यथानुपपत्तेः।' ' धर्म और अधर्म की यौक्तिक अपेक्षा है ।गति-स्थिति निमित्तक द्रव्य, तथा लोक-अलोक की विभाजक शक्ति के रूप में उन दोनों की अनिवार्य अपेक्षा है। गति स्थिति सम्पूर्ण लोक में होती है। इसलिए हमें ऐसी शक्तियों की अपेक्षा है, जो स्वयं गतिशून्य और सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हों और अलोक में न हों / इस यौक्तिक आधार पर हमें धर्म-अधर्म की आवश्यकता का सहज बोध होता है। . धर्मास्तिकाय के अस्तित्व को अस्वीकार करने से अनेक समस्याएं हमारे समक्ष उपस्थित हो जाएंगी। द्रव्यानुयोग तर्कणा में कहा गया है सहजोर्ध्वगमुक्तस्य धर्मस्य नियम विना। कदापि गगनेऽनन्ते भ्रमणं न निवर्तते / / मुक्त जीव का सहज स्वभाव ऊर्ध्वगमन करना है / यदि धर्म द्रव्य का नियम स्वीकार नहीं किया जाता है तो उन जीवों का अनन्त आकाश में भ्रमण कभी भी समाप्त नहीं हो सकता। ऐसी ही समस्या अधर्म को अस्वीकारने से आती है Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा / 95 स्थितिहेतुर्यदा धर्मोनोच्यते क्वापि चेद् द्वयोः / तदा नित्या स्थिति: स्थाने कुत्रापि न गतिर्भवेत् / / आचार्य कुन्दकुन्द ने भी पञ्चास्तिकाय में कहा है-यदि आकाश अवगाह की तरह गमन एवं स्थिति में भी कारण हो जाए तो कई समस्याएं हमारे सम्मुख उपस्थित होती हैं / (1) प्रथम ऊर्ध्वगति स्वभाववाले सिद्ध जीव कहां ठहरेंगे? वे तो निरन्तर गति ही करते रहेंगे / (2) यदि आकाश को गमन हेतु मान लिया जाए तो अलोक का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और लोक सीमा की वृद्धि हो जाएगी। क्योंकि धर्म अधर्म ही तो लोक-अलोक के विभाजक तत्त्व है आगासं अवगासं गमणद्विदिकारणेहिं देदि जदि। उडुंगदिष्पधाणा सिद्धा चिटुंति किध तत्थ // जदि हवदि गमणहेदू आगासं ठाणकारणं तेसिं। . पसजदि अलोगहाणी लोगस्स अंतपरिवुड्डी // .. अलोक में जीव-पुद्गल नहीं होते। इसका कारण धर्म और अधर्म द्रव्य का अलोक में अभाव है। इसलिए धर्म-अधर्म लोक-अलोक के विभाजक बनते हैं। सिद्धसेनगणि ने आकाश के सम्बन्ध में एक शंका स्तुत की है कि आकाश का गुण अवगाह देना है जबकि अलोकाकाशं अवगाह नहीं देता ऐसी स्थिति में क्या आकाश का लक्षण अव्याप्त लक्षणांभास से दूषित नहीं हो जाएगा। टीकाकार स्वयं इसका समाधान देते हुए कहते हैं कि आकाश में अवगाह का गुण विद्यमान है, पर अलोक में धर्म-अधर्म का अभाव होने से जीव-पुद्गल वहां नहीं जा सकते। धर्म-अधर्म के अस्तित्व के सन्दर्भ में एक शंका यह भी की जाती है कि वे दोनों दिखाई नहीं देते फिर उसका अस्तित्व कैसे स्वीकार किया जाए। समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा गया वे दोनों अमूर्त द्रव्य हैं / 'नोइन्दियजेज्झ अमुत्त भावा' / अमूर्त पदार्थ इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होते, वे तो उपग्रह के द्वारा अनुमेय होते है। 'उपग्रहानुमेयत्वात्।' भगवती वृत्ति पत्र में भी कहा गया है कि छास्थों को अमूर्त पदार्थों का ज्ञान उनके कार्यों द्वारा होता है 'कार्यादिलिङ्गद्वारेणैवार्वाग्दृशामतीन्द्रियपदार्थावगमो भवति।' इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म अधर्म का स्वरूप की दृष्टि से ही वैशिष्ट्य नहीं. बल्कि ये दोनों लोक के महत्त्वपूर्ण घटक द्रव्य हैं / इनके अभाव में लोक-व्यवस्था ही Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 / आर्हती-दृष्टि नहीं हो सकती। ___धर्म-अधर्म के अस्तित्व के सूचक सिद्धान्त विज्ञान में प्राप्त हो रहे हैं / वैज्ञानिकों में सबसे पहले न्यूटन ने गति तत्त्व को स्वीकार किया। अल्बर्ट आइन्सटीन ने भी गति-तत्त्व को स्वीकृति दी। आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान से ये तथ्य और अधिक स्पष्ट हो गये हैं। गति, स्थिति और अवगाहन के साधारण कारण रूप से भिन्न-तत्त्वों को स्वीकार करने की ओर उनका भी ध्यान आकर्षित हुआ। इसके परिणामस्वरूप वे तेजोवाही ईथर क्षेत्र (field) और आकाश (space) इन तीन तत्त्वों को स्वतन्त्र रूप से स्वीकार करने लगे हैं, जिन्हें क्रमशः धर्म, अधर्म एवं आकाश स्थानीय माना जा सकता है। ___ आधुनिक वैज्ञानिकों के मतानुसार तेजोवाही ईथर सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है और यह विद्युत् चुम्बकीय तरंगों की गति का माध्यम है। प्रकाश के तरंग सिद्धान्त के अनुसंधान के समय वैज्ञानिकों का ध्यान इस प्रकार के तेजोवाही माध्यम की ओर गया था और उन्होंने उस समय ईथर में पौद्गतिक गुणों की कल्पना की थी। ईथर में पौद्गलिक गुण आकार, स्थापकत्व आदि होते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रकाश तरंगों की विभिन्न दिशाओं में होने वाली गति पर ईथर और पृथ्वी की सापेक्ष गति के कारण प्रभाव पड़ना चाहिए। किन्तु माइकलसन एवं मार्ले के प्रयोग से यह स्पष्ट है कि प्रकाश तरंगों की गति पर इस प्रकार का कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि ईथर पौद्गलिक नहीं है। प्रो. एडिंग्टन ने 'नेचर ऑफ फिजिकल वर्ल्ड' पुस्तक में लिखा है कि आजकल यह सर्वसम्मत है कि ईथर किसी भी प्रकार की प्रकृति (Matter) नहीं है तथा प्रकृति से भिन्न होने के कारण उसके गुण भी बिल्कुल विशिष्ट होने चाहिएं। प्रो. मैक्सवान ने रेस्टलैस युनिवर्स' में लिखा है कि माइकलसन और माले के प्रयोग एवं सापेक्षवाद के सिद्धान्त से यह स्पष्ट है कि ईथर साधारण पार्थिव वस्तुओं से भिन्न होना चाहिए। वैज्ञानिक अभी तक सूर्य, चन्द्र ग्रह आदि की स्थिरता का कारण और वस्तुओं के पृथ्वी की ओर गिरने का कारण गुरुत्वाकर्षण मानते रहे हैं / किन्तु अब गुरुत्वाकर्षण और विद्युत् चुम्बकीय शक्ति के कार्य के माध्यम स्वरूप क्षेत्र की ओर उनका ध्यान गया है। ___ नशांबर्ड ने एक स्थान पर लिखा है कि हम नहीं समझ पा रहे हैं कि बिना शक्ति के दूरवर्ती स्थान पर कार्य कैसे किया जा सकता है। अभी तक उसमें वे पौद्गलिक गुण मान रहे थे किन्तु पौद्गलिक मानने से उनके मार्ग में कठिनाइयां Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा / 97 आ रही हैं / सम्भव है कि भविष्य में वे इसकी अपौद्गलिकता को स्वीकार कर लें और इस तरह गति माध्यम ईथर की तरह स्थिति का माध्यम भी स्वीकार कर लिया जाये। धर्म-अधर्म की तुलना धन ईथर एवं ऋण ईथर के रूप में की जाती है। विश्व-प्रहेलिका के लेखक ने इन शब्दों का प्रयोग किया है। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं जैन दर्शन मान्य धर्म-अधर्म द्रव्य विश्व-व्यवस्था के मूल घटक हैं। उनका अस्तित्व जैन दर्शन में तो हजारों वर्षों से मान्य रहा है तथा उनका विस्तत वर्णनं प्राप्त है। तथा आज वैज्ञानिक जगत् में भी इन तथ्यों की स्वीकृति सत्य-संधान के मार्ग को प्रशस्त कर रही है। वैज्ञानिक तथ्यों के साथ धर्म-अधर्म की एकदेशीय तुलना तो निश्चित रूप से हो सकती है। आकाशास्तिकाय विश्व-संरचना के घटक द्रव्यों के सन्दर्भ में आकाश का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आकाश तत्त्व प्रायः सभी भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों ने स्वीकार किया है। यद्यपि उसके स्वरूप के सम्बन्ध में उनमें परस्पर मतभेद है। पर अस्तित्व के सम्बन्ध में सभी एकमत हैं / आकाश तत्त्व की वास्तविकता एवं अवास्तविकता को लेकर पाश्चात्य दर्शन जगत् में दो विचार हैं। डेकार्टस, लाइबनीत्स, काण्ट आदि आकाश को स्वतन्त्र एवं वस्तु सापेक्ष वास्तविकता के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। किन्तु प्लेटो, अरस्तु गेसेण्डी आदि आकाश को स्वतन्त्र एवं वस्तु सापेक्ष वास्तविकता के रूप में स्वीकार करते हैं। जैन दर्शन भी आकाश को अस्तिकाय मानता है अर्थात् आकाश का स्वतन्त्र अस्तित्व उसे मान्य है। वैशेषिक आदि कुछ दार्शनिक दिक् और आकाश को पृथक् द्रव्य मानते हैं पर जैन मान्यतानुसार दोनों पृथक् द्रव्य नहीं हैं / दिशा आकाश का ही विशेष भेद है। 'दिगपि आकाशविशेषः न तु द्रव्यान्तरम्' / कणाद् ने दिग् को स्वतन्त्र द्रव्य माना है। वैशेषिक मतानुसार जिसका गुण शब्द हो, वह आकाश तथा जो बाह्य जगत् को देशस्थ करता है, वह दिक् है / कणाद् के मत से आकाश और दिक् का भेद कार्य सापेक्ष है। यदि वह शब्दनिष्पत्ति का कारण बनता है तो आकाश और यदि बाह्य वस्तु को देशस्थ करता है तो दिक् है / जैन के अनुसार न तो दिशा स्वतन्त्र द्रव्य है और न ही शब्द आकाश का गुण / शब्द तो पौद्गलिक है। वह पुद्गल स्कंध के भेद व संघात से निष्पन्न होता है। जैन दर्शन सम्मत आकाश एवं वैज्ञानिक मान्य स्पेस के सिद्धान्त में बहुत कुछ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 / आहती-दृष्टि साम्य है / प्रो. एडिंग्टन ने लिखा है कि सापेक्षवाद के सिद्धान्त के पूर्व वैज्ञानिक आकाश को सीमित मानते थे, अनन्त आकाश की किसी ने कल्पना ही नहीं की थी। किन्तु सापेक्षवाद कहता है कि यदि आकाश सीमित है तो उसकी सीमा के बाहर क्या है ? इसलिए आकाश अनन्त है या ससीम है ? इस प्रश्न का उत्तर वह इस रूप में प्रस्तुत करता है कि आकाश ससीम है किन्तु उसका अन्त नहीं है / अंग्रेजी में इसी मंतव्य को ‘फाइनाइट बटअनबाउण्डेड' शब्दों द्वारा व्यक्त किया जाता है। ... __आइन्सटीन के अनुसार आकाश की ससीमता उसमें रहने वाली प्रकृति के निमित्त से है। प्रकृति (पुद्गल) के अभाव में आकाश अनन्त है / इनके विचार जैन दर्शन के निकट हैं। ___आकाश की स्वरूप-मीमांसा जैन दर्शन में विस्तार से हुई है / 'अवगाहलक्खणेणं आगासत्थिकाए' जो समस्त पदार्थों को आश्रय प्रदान करे, वह आकाश है। आकाश का गुण अवगाहन है। वह स्वयं अनालम्ब अथवा स्वप्रतिष्ठित है। शेष द्रव्यों का. आलम्बन है। स्वरूप की दृष्टि से सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठित हैं किन्तु क्षेत्र या आयतन की दृष्टि से वे आकाश प्रतिष्ठित हैं, इसलिए उसे सब द्रव्यों का भाजन कहा गया है 'भायणं सव्वदव्वाणं नहं मोगाहलक्खणं' द्रव्यानुयोगतर्कणा में कहा गया है * यो दत्ते सर्वद्रव्याणां साधारणमवगाहनम् / लोकालोकप्रकारेण द्रव्याकाशः स उच्यते // पंचास्तिकाय में भी यही भाव प्रकट हो रहे हैं सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाणं च / जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि आयासं। - गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-भंते ! आकाशतत्त्व से जीवों और अजीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान् ने कहा—गौतम ! आकाश नहीं होता तो ये जीव कहां होते? धर्म-अधर्म कहाँ व्याप्त होते? काल कहां वर्तन करता? पुद्गल का रंगमंच कहां बनता? यह विश्व निराधार ही होता? भगवती सूत्र में भी कहा गया है-'आगासत्थिकाएणं जीवदव्वाण च अजीवदव्वाण च भायणभूए।' द्रव्य आदि की दृष्टि से आकाश के स्वरूप पर विचार करें तो द्रव्य की दृष्टि से आकाश एक और अखण्ड द्रव्य है अर्थात् उसकी रचना में सातत्य है / क्षेत्र की दृष्टि से आकाश लोकालोक पारमाण है / यह सर्वव्यापी, अनन्त एवं असीम है। इसके प्रदेशों की संख्या अनन्त Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा / 99 है। काल से अनादि-अनन्त अर्थात् शाश्वत है / भाव से यह अमूर्त है / वर्ण, गंध, रस, स्पर्श रहित है अर्थात् अभौतिक एवं अचेतन है / गुण से अवगाहन गुण वाला है। समस्त आकाश द्रव्य अन्य द्रव्यों द्वारा अवगाहित नहीं है अतः एक होने पर अन्य द्रव्यों के अस्तित्व के कारण वह दो भागों में विभक्त है (1) लोकाकाश, (2) अलोकाकाश। द्रव्यानुयोगतर्कणा में कहा है धर्मादिसंयुतोलोकऽलोकस्तेषां वियोगतः। निरवधि: स्वयं तस्यावधित्वं तु निरर्थकम् / / आकाश का वह भाग जो धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल एवं जीव के द्वारा अवगाहित है, वह लोकाकाश है धम्माधम्मा पुग्गला काल जीवा यावदिये। आयासं सो लोगो तत्तो परदो अलोगो खं॥ जहाँ आकाश के अतिरिक्त अन्य द्रव्य नहीं है, वह अलोक है शेषद्रव्यशून्यमाकाशमलोकः / ' / अलोक एक विशाल गोले के समान है, जिसकी त्रिज्या अनंत है। धर्म आदि पाँच द्रव्यों को धारण करनेवाला लोकाकाश अनंत आकाश समुद्र में एक द्वीप के समान है। यहां यह तथ्य स्मरणीय है कि आकाश अखंड द्रव्य है। अन्य द्रव्यों के अस्तित्व के कारण ही वह लोक, अलोक रूप में विभक्त होता है। असीम आकाश का षड्द्रव्यात्मक भाग लोक है। वह चौदह रज्जु प्रमाण है। त्रिशरावसम्पुटाकार वाला है तथा तीन भागों में विभक्त है (1) ऊर्ध्व, (2) तिर्यकु (3) अधोलोक। ऊर्ध्वलोक सातरज्जु से कुछ कम है। वह वैमानिक देवता एवं सिद्धों का निवास स्थल है अधोलोक सात रज्जु से कुछ अधिक का है यह भवनपति देव तथा नारक जीवों का निवास स्थान है। तिर्यक् लोक अठारह सौ योजन का है। इसमें Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 / आर्हती-दृष्टि तिर्यंच, मनुष्य, ज्योतिष देव तथा व्यन्तर देव हैं / सूक्ष्म एकेन्द्रिय सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। चौदह रज्जु का लोक सातवें नरक महातम प्रभा के नीचे से प्रारम्भ होकर सिद्धशिला के अन्तिम छोर तक है / लोकपुरुष का आकार वर्तमान जैन प्रतीक के समान है / लोक की व्यवस्था चतुर्धा है / 'चतुर्धातत्स्थितिः' सबसे पहले आकाश, उसके ऊपर वायु, वायु के ऊपर पानी, पानी पर पृथ्वी तथा पृथ्वी पर त्रस-स्थावर जीव निवास करते हैं। आकाश द्रव्य आधारभूत है। शेष द्रव्य आधेय है / आकाश स्वप्रतिष्ठित है / आकाश अनंत प्रदेशी है किन्तु लोकाकाश असंख्य प्रदेशी है। यह दृश्यमान सम्पूर्ण जगत् लोकाकाश में ही स्थित है। पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं काल की विवेचना अन्यत्र वाञ्छित है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 गुण पर्याय : भेद या अभेद जो गुण-पर्यायात्मक होता है वह द्रव्य है / द्रव्य, गुण और पर्याय को आश्रय प्रदान करता है / द्रव्य का सहभावी धर्म गुण कहलाता है और क्रमभावी धर्म पर्याय / सहभावी धर्मो गुणः क्रमभावी धर्मः पर्यायः / गुण का द्रव्य के साथ सहभाव होता है। वैशेषिक दर्शन का मानना है कि 'उत्पन्नं द्रव्यं क्षणमगुणं निष्क्रियं च तिष्ठति।' द्रव्य उत्पत्ति के समय निर्गुण होता है / बाद में समवाय सम्बन्ध के द्वारा द्रव्य और गुण का सम्बन्ध हो जाता है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार गुण द्रव्य का सहभू धर्म है / उसका द्रव्य वैशेषिक की तरह उत्पत्ति के समय निर्गुण नहीं होता, सगुण होता है / यद्यपि नैयायिक-वैशेषिक और जैन दोनों का द्रव्य अनादिनिधन है तब गुण स्वतः ही अनादि-निधन हो जाता है / गुण द्रव्य की चिरस्थायी विशेषता है जबकि पर्याय अस्थायी विशेषता है। - उल्लेखनीय है कि प्राचीनतर आगमों में हमें गुण का विशेषता के अर्थ में उल्लेख नहीं मिलता किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र के एक पूर्ववर्ती अंश में तथा उमास्वाति और कुन्दकुन्द ग्रन्थों में गुण को द्रव्य तथा पर्याय से अतिरिक्त एक विशिष्ट पदार्थ माना है। उत्तराध्ययन ने द्रव्य की परिभाषा में गुण को ही स्थान दिया है / ‘गुणाणमासओ दव्व' पर्याय का उल्लेख ही नहीं किया है। उमास्वाति और कुन्दकुन्द ने गुण के अतिरिक्त पर्याय को भी द्रव्य के लक्षण में सम्मिलित किया है। जब गुण और पर्याय दो पृथक माने गये तब उनके सम्बन्ध की समस्या उत्पन्न होती है / वाचक उमास्वाति और आचार्य कुन्दकुन्द ने गुण और पर्याय में भेद स्वीकार किया है। पूज्यपाद ने भी गुण और पर्याय में भेद स्वीकार किया है। 'के गुणाः के पर्यायाः', 'अन्वयिनो गुणाः व्यतिरेकिनः पर्यायाः' गुण द्रव्य के अन्वयी होते हैं तथा पर्याय व्यतिरेकी / गुण के द्वारा ही द्रव्य की दूसरे द्रव्य से पृथकता होती है। आचार्य अकलंक गुण और पर्याय में भेदाभेद मानते हैं / हरिभद्र एवं यशोविजयजी गुण और पर्याय में अभेद स्वीकार करते हैं। अमृतचन्द्र, वादी- देवसूरी, विद्यानन्द आदि ने गुण एवं पर्याय में भेद स्वीकार किया है / द्रव्य पदार्थ मौलिक है। गुण पर्याय धर्म है। धर्मी धर्म से कथंचितृ भिन्न है / उदाहरणतः जैसे जीव द्रव्य है। ज्ञान उसका गुण है तथा घटज्ञान पटज्ञान उसकी पर्याय है। धर्म अधर्म द्रव्य है, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 / आर्हती-दृष्टि गति स्थिति में सहाय होना उनका गुण है। तथा गति स्थितिशील पदार्थों के साथ सम्बन्ध होना उनकी पर्याय है। पुद्गल द्रव्य है स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण ये इसके गुण है तथा घट, पट इत्यादि इसकी पर्याय है / ऐसा ही काल द्रव्य है / वर्तना उसका लक्षण है। सैकण्ड, मिनट, घण्टा उसकी पर्याय है / गुण पर्याय ये दो पृथक् शब्द ही उसके परस्पर भेद की सूचना दे रहे हैं। यदि उनमें अभेद होता तो पृथक् शब्दों के प्रयोग की भी कोई आवश्यकता नहीं थी / गुण दो प्रकार के बतलाये गये हैं / यथा—सामान्य और विशेष / सामान्य गुण 6 प्रकार का है विशेष 16 प्रकार का है / गुणों की संख्या सीमित है जबकि पर्याय अनन्त हैं गुण पर्याय की सांख्ययायिक स्वीकृति भी उनके परस्पर भेद की सूचना दे रही है। आचार्य सिद्धसेन का गुण और पर्याय के सम्बन्ध में अन्य आचार्यों से मतभेद है। तार्किक प्रतिभा के धनी सिद्धसेन उसी बात को स्वीकार करते हैं जो उनकी तर्क की कसौटी पर खरी उतरती हैं चाहे वह तथ्य आगम के अनुकूल हो या न हो वे तर्क सिद्ध तथ्य को ही स्वीकार करते थे। वे गुण और पर्याय में अभेद स्वीकार करते थे। उन्होंने कहा है कि गुण और पर्याय समानार्थक है अतः वे दोनों शब्द एक ही अवधारणा को स्पष्ट करते हैं। भगवान् महावीर ने दो नयों का ही वर्णन किया है द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। उन्होंने गणार्थिक नय का कहीं उल्लेख ही नहीं किया है। यदि गण पर्याय से भिन्न होता तो वे गुणास्तिक नय का उल्लेख अवश्य करते। किन्तु उन्होंने तो वर्णपर्याय का प्रयोग किया है / वर्णगुण का कहीं भी प्रयोग नहीं किया है अतः गुण और पर्याय में अभेद है तथा यह तथ्य आगम सिद्ध है। ___डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने प्रवचनसार के सम्पादकीय में सिद्धसेन दिवाकर के गुण-पर्याय अभेदवाद की आलोचना की है। उन्होंने कहा कि सिद्धसेन न्याय वैशेषिक एवं कुन्दकुन्द के गुण की स्थिति को एक जैसा समझ रहे हैं / वे स्वयं Confused हैं / उपाध्येजी की यह आलोचना कहां तक उचित है यह चिन्तनीय बिन्दु है / गुण और पर्याय दो शब्द हैं अतः इनमें भेद होना चाहिए तथा गुण मात्र द्रव्याश्रित होते हैं जबकि पर्याय द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित है। पुद्गल द्रव्य है स्पर्श रस आदि उसके गुण हैं / स्पर्श के भेद स्पर्श की पर्याय है / एक ही वस्तु चक्षु का विषय बनती है तब रूप बन जाती है। रसना से रस, घ्राण से गन्ध एवं स्पर्शनेन्द्रिय की विषयता के कारण स्पर्श हो जाती है / वस्तु की ये पर्यायें व्यवहाराश्रित हैं / यदि स्पर्श में और उसके भेद रूप पर्यायों में अन्तर होता तो संभिन्नस्रोतोपलब्धि के समय एक ही इन्द्रिय से सारे विषयों का ज्ञान कैसे होता तथा एकेन्द्रियादि जीव अपना व्यवहार कैसे चलाते। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण पर्याय : भेद या अभेद / १०३चिन्तन का फलित होता है कि जीव अपने व्यवहार के लिए इनको पृथक् कर लेता है। गुण और पर्याय को व्यवहार के स्तर पर भिन्न माना जा सकता है निश्चयतः वे दोनों अभिन्न हैं। आचार्य सिद्धसेन ने तो गुण और पर्याय में ही अभेद कहा किन्तु आचार्य सिद्धसेनगणी ने तो निश्चयतः द्रव्य पर्याय को भी अभिन्न मानकर नय से भिन्नता का प्रतिपादन किया है अभिन्नांशमतं वस्तु तथोभयमयात्मकम्। प्रतिपत्तेरुपायेन नयभेदेन कथ्यते॥ अतः यह निर्विवाद स्वीकार किया जा सकता है कि गुण और पर्याय में मौलिक भेद नहीं है। उनका पारस्परिक भेद व्यावहारिक है। .. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामवाद परिणाम या परिवर्तन की समस्या दार्शनिक क्षेत्र की मौलिक समस्या रही है। दार्शनिकों ने इस तरफ गम्भीरता से ध्यान केन्द्रित किया है। अस्तित्व के सम्बन्ध चिन्तकों की दो प्रकार की विचारधारा रही है / एक अवधारणा के अनुसार तत्त्व कूटस्थ है तथा इसके विपरीत दूसरी विचारधारा के समर्थक क्षणिक को वास्तविक सत् मानते हैं / जो सत् को सर्वथा कूटस्थ मानते हैं वे The Philosophy of being के समर्थक हैं तथा जो सत् के अनित्य मानते हैं वो The Philosophy of becoming के अनुगामी हैं। पहली विचारधारा के अनुसार परिवर्तन सर्वथा अवास्तविक है जबकि दूसरी विचारधारा के अनुसार वस्तु का परिवर्तन ही सत्व है / प्रथम के अनुसार कूटस्थ द्रव्य की सत्ता ही वास्तविक है जबकि दूसरे के अनुसार द्रव्यरहित पर्याय ही वास्तविक कूटस्थता के समर्थकों का मानना है कि परिवर्तन भ्रान्ति है और वह अज्ञान अथवा माया के द्वारा निर्मित है। क्षणिकता के समर्थकों का अभ्युपगम है कि द्रव्य की कल्पना निरर्थक है तथा स्वयं के प्रति राग एवं संसार के प्रति राग के कारण व्यक्ति द्रव्य की कल्पना करता है। भारतीय चिन्तन में being की फिलोसॉफी को आत्मवाद कहा जाता है तथा becoming की Philosophy को अनात्मवाद कहा जाता है / कूटस्थ द्रव्यवाद के समर्थक वेदान्ती हैं। उनके अनुसार ब्रह्म ही सत्य है वह कूटस्थ है, एक है। संसार की विविधता अवास्तविक है / 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' का सिद्धान्त उनके चिन्तन का महत्त्वपूर्ण घटक है। माया के कारण संसार का नानात्व दृष्टिगम्य होता है, माया ब्रह्म विरोधी है / सांख्य योग जिसने पुरुष और प्रकृति इन दो तत्त्वों को स्वीकार किया है। उसका पुरुष भी वेदान्त के ब्रह्म की तरह कूटस्थ नित्य है। वह अपरिणामी है। जबकि प्रकृति परिणामधर्मा है पुरुष के लिए ही वह प्रवृति करती है / अनात्मवाद के प्रबल समर्थक बौद्ध हैं। इनके अनुसार परिवर्तन ही सत्य है / इनका द्रव्य जैसी किसी भी सत्ता में विश्वास नहीं है। ये द्रव्य को काल्पनिक मानते हैं। सांख्य की प्रकृति की अवधारणा बौद्ध एवं ब्रह्मवादी का मध्यममार्ग है / अर्थात् उसमें परिवर्तन भी है और वह नित्य भी है / बौद्ध के अनुसार अतीत कभी पुनः नहीं आ सकता। किन्तु सांख्य Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामवाद | 105 की प्रकृति को मूल अवस्था की पुनः प्राप्ति हो सकती है। वेदान्त दर्शन में परिवर्तन को विवर्त, बौद्ध में प्रतीत्यसमुत्पाद, सांख्य में परिणाम एवं न्याय वैशेषिक दर्शन में उसे आरम्भवाद कहा जाता है। . भारतीय दर्शन के क्षेत्र में ऐसे भी दार्शनिक हैं जो being और becoming दोनों का एकसाथ सापेक्ष अस्तित्व स्वीकार करते हैं। इस सिद्धान्त के समर्थक जैनचिन्तक है। उनके अनुसार अस्तित्व द्रव्यपर्यायात्मक है। उत्पाद-व्यय भी उतने ही सत्य है जितनी ध्रुवता / अस्तित्व उभयात्मक है / जैन का परिवर्तन का सिद्धान्त सदसद् कार्यवाद कहलाता है / वस्तुतः जैन दर्शन परिणामवादी है। सांख्य योग तथा प्राचीन वेदान्त आदि के परिणामवाद से जैन-परिणामवाद का विशिष्ट अन्तर यह है कि सांख्य के अनुसार परिणाम चेतन तत्त्व का स्पर्श ही नहीं कर सकता, वह मात्र जड़ रूप प्रकृति में ही होता है / तथा भर्तृप्रपञ्च आदि का परिणामवाद मात्र चेतन तत्त्व स्पर्शी है किन्तु जैन परिणामवाद जड़-चेतन, सूक्ष्म-स्थूल समग्र वस्तु स्पर्शी है अतएव जैन परिणामवाद को सर्वव्यापक परिणामवाद समझना चाहिए। आरम्भवाद एवं परिणामवाद का जैन दर्शन में व्यापक रूप में समग्र स्थान तथा समन्वय है पर उसमें प्रतीत्यसमुत्पाद एवं विवर्तवाद का कोई स्थान नहीं है। यद्यपि भारतीय एवं पाश्चात्य प्रायः दार्शनिकों ने परिणामवाद पर विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण चर्चा प्रस्तुत की है। परन्तु उनकी चर्चा अन्यत्र वाञ्छित है। प्रस्तुत निबन्ध में हम सांख्य एवं जैन दर्शन के परिणामवाद की चर्चा में ही सीमित रहेंगे। सांख्य के अनुसार जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं कि पुरुष में परिणाम नहीं होता सिर्फ वह प्रधान परिणामवादी है / परिणाम को परिभाषित करते हुए योगभाष्य (3/13) में कहा गया 'अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृतौ धर्मान्तरोत्पतिः परिणाम:' तथा ऐसी परिभाषा युक्ति दीपिका में दी गई है जहत् धर्मान्तरं पूर्वं उपादत्ते यदा परम् / तत्त्वाद् अप्रच्युतो धर्मी परिणामः स उच्यते // कूटस्थ अवस्थित द्रव्य के पूर्व धर्म का नाश होना तथा उत्तर धर्म का उत्पाद होना परिणाम है / सांख्य ने तीन प्रकार के परिणाम माने हैं धर्म परिणाम, लक्षण परिणाम और अवस्था परिणाम / धर्मों के द्वारा धर्मी का परिणाम होता है लक्षण के द्वारा धर्म में परिणाम होता है तथा लक्षण का भी अवस्था Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 / आर्हती-दृष्टि के द्वारा परिणाम है। गुणवृत धर्म, लक्षण एवं अवस्था परिणाम शून्य एक क्षण भी नहीं रह सकता। सांख्य के अनुसार द्रव्य कूटस्थ रहता है उसके गुणों में परिवर्तन होता है जैसा कि उपर्युक्त परिणाम लक्षण से स्पष्ट है। जैन परिणाम सिद्धान्त के अनुसार द्रव्य और पर्याय दोनों में परिवर्तन होता है। पर्याय जो नष्ट हो गई है उसका पुनरागमन नहीं होता है / द्रव्य जो सर्व पर्यायों में अनुस्यूत रहता है वह भी परिणाम का विषय बनता है / जैन के अनुसार परिणाम की परिभाषा है—'तद्भावः परिणामः' / जैन के द्रव्य की नित्यता की अवधारणा भिन्न प्रकार की है। 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' अपने स्वरूप का नाश न होना ही नित्यता है। द्रव्य परिवर्तन में गुजरकर भी अपने अस्तित्व को नहीं छोड़ता है / जैन के अनुसार द्रव्य का नवीनीकरण होने पर भी वह स्थिर रहता है। उसके अनुसार अपरिवर्तित द्रव्य मात्र भ्रान्ति है / जैन परिवर्तनशील द्रव्य को स्वीकार करता है / सांख्य और जैन के परिवर्तन के सिद्धान्त में एक मौलिक मतभेद है / सांख्य द्रव्य को सर्वथा कूटस्थ स्वीकार करता है। जबकि जैन के अनुसार जैसे गुण और पर्याय में परिवर्तन होता है वैसे ही द्रव्य / में भी परिवर्तन होता है। . जैन ने वस्तु लक्षण को परिभाषित किया है—'उत्पादव्ययधौव्यात्मकं सत्' यहां ध्रुवता का तात्पर्य वेदान्त के ब्रह्म जैसी कूटस्थता से नहीं है किन्तु जैन के अनुसार परिवर्तन होने के बावजूद स्वरूप का नाश न होना ही ध्रुवता है / सांख्य त्रिविध परिणाम के द्वारा अपने परिणाम सिद्धान्त को व्याख्यायित करता है किन्तु अन्ततोगत्वा वह कह देता है 'परमार्थस्त्वेक एव परिणाम: धर्मिस्वरूपमात्रो हि धर्म, धर्मिविक्रियैवैषा धर्मद्वाराः प्रपञ्चयते।' यो (3/13) . __ वह धर्मी में भी विक्रिया (परिवर्तन) को मान्य कर लेता है। ऐसा होने से उसका अवस्थित द्रव्यस्य.... वाला परिणाम सिद्धान्त स्वतः निराकृत हो जाता है तथा उसका परिणाम जैन परिणाम सिद्धान्त के तुल्य हो जाता है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्ववाद के क्षेत्र में जैन दर्शन की मौलिक देन विश्व की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए प्रत्येक दार्शनिकों ने तत्त्वों की संख्या का निर्धारण किया है। यह जगत् क्या है ? किससे बना है ? इत्यादि प्रश्न प्राचीन काल से ही चले आ रहे हैं। जिन व्यक्तियों ने इनके बारे में चिन्तन प्रस्तुत किया उनका ही स्वतन्त्र दर्शन हो गया। ___ वेदान्त के अनुसार यह सारा जगत् ब्रह्ममय है। 'सर्व वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन' यह जो नानात्व है वह माया के कारण दृष्टिगोचर है। इसकी व्यावहारिक सत्ता है पारमार्थिक सत्ता केवल ब्रह्म की है / सांख्य दर्शन ने प्रकृति और पुरुष के समन्वय से इसकी व्याख्या की। सांख्य का पुरुष चेतन, अमूर्त भोगी कूटस्थ नित्य है। प्रकृति ही पुरुष के सन्निधान को प्राप्त कर इस संसार की रचना करती है। नैयायिक वैशेषिक ने जगत् का निमित्त कारण तो ईश्वर को स्वीकार किया किन्तु उपादान कारण चेतन और जड़ को ही माना। उसने तत्त्व व्याख्या में द्रव्य, गुण, कर्म इत्यादि 6 पदार्थ माने, फिर 9 द्रव्य, 24 गुण, 5 कर्म इस प्रकार विश्व-व्यवस्था को प्रकट करने का प्रयत्न किया। जैन-दर्शन ने इस दृश्य जगत् को लोक की अभिधा से अभिव्यक्त किया। धर्म, अधर्म, आकाश, काल पुद्गल और जीव इन छहों द्रव्यों की सह स्थिति जहाँ है वह लोक है। पञ्चास्तिकाय का सहावस्थान ही लोक है / संक्षेप में जीव और अजीव की सह स्थिति लोक है। विश्व-व्याख्या में जीव पुद्गल, आकाश तथा काल इन तत्त्वों की प्रस्तुति कई भारतीय पाश्चात्य दार्शनिकों ने दी किन्तु धर्म-अधर्म की स्वीकृति तत्त्ववाद के क्षेत्र में जैन दर्शन की मौलिक देन है। जैनेतर किसी भी दर्शन ने इस प्रकार की अभिव्यक्ति नहीं दी। भारतीय दर्शन में धर्म एवं अधर्म शब्द का प्रयोग तो हुआ है जिसका अभिप्राय है क्रमशः शुभ कर्म एवं अशुभकर्म से है किन्तु जैन की तत्त्वमीमांसा में आगत धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय का प्रयोजन उस अर्थ से सर्वथा भिन्न है। जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय का विश्व व्याख्या में महत्त्वपूर्ण स्थान है। ... जीव और पुद्गल की गति में उदासीन भाव से सहायक होनेवाले द्रव्य को धर्मास्तिकाय की अभिधा से सम्बोधित किया गया है। गति का असाधारण कारण धर्मास्तिकाय है। धर्मास्तिकाय सम्पूर्ण लोकव्यापी है / स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण से रहित Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 / आर्हती-दृष्टि है। जीवों के आगमन, गमन, मानसिक, वाचिक, कायिक क्रियाएं, आंखों के उन्मेष का कारण है। विश्व के सारे चल भाव धर्मास्तिकाय के कारण है। यदि यह नहीं होता तो पूरा विश्व ही अचल होता। गति में सहायता करना ही धर्मास्तिकाय का लक्षण जीव और पुद्गल के स्थिर रहने में सहायता देनेवाला तत्त्व अधर्मास्तिकाय कहलाता है / अधर्म भी लोकव्यापी, स्पर्श, रस वर्ण एवं गन्ध से रहित है / खड़ा रहना, बैठना, सोना, मन को एकाग्र करना मौन करना, शरीर को निस्पन्द बनाना आंखों का निमेष ये सब अधर्म द्रव्य की सहायता से ही होते हैं। यदि अधर्म द्रव्य नहीं होता तो सारा विश्व ही गतिमान होता। __गति और स्थिति दोनों सापेक्ष हैं / एक के अस्तित्व में दूसरे का अस्तित्व अत्यन्त अपेक्षित हैं। जीव और पुद्गल की गति एवं स्थिति में धर्म-अधर्म उपादान कारण नहीं है। किन्तु निमित्त कारण हैं / वे जीव और पुदगल को चलने एवं स्थिर रहने के लिए प्रेरित नहीं करते किन्तु यदि वे चलते एवं स्थिर रहते हैं तो धर्म, अधर्म उनको सहायता देते हैं / गति, स्थिति का मूल प्रेरक जीव एवं पुद्गल स्वयं है। जैसे मछली तैरना चाहती है तो वह बिना पानी तैर नहीं सकती, तैरने के लिए उसे पानी अत्यन्त अपेक्षित है। पथिक धूप से क्लान्त होकर ठहरना चाहता है / वृक्ष की छाया देखकर वह ठहर जाता है। वैसे ही धर्म एवं अधर्म ये दोनों तत्त्व जीव, पुद्गल की स्थिति, गति में अत्यन्त अपेशित हैं। ये दोनों तत्त्व स्वयं निष्क्रिय हैं। किन्तु सक्रिय पदार्थों को सहयोग देते हैं। लोक के आकार-प्रकार के लिए भी धर्म-अधर्म उत्तरदायी है। लोक का आकार त्रिशरावसम्पुटाकार माना जाता है वस्तुतः वह धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय का ही आकार है। उसके आकार के आधार पर ही लोक के आकार की उपलक्षण से व्याख्या की गई है। लोक एवं अलोक के विभाजक तत्त्व भी धर्म एवं अधर्म है। अतएव विश्व व्याख्या के सिद्धान्त के सन्दर्भ में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जो जैन दर्शन की मौलिक अवधारणा है। वैज्ञानिक जगत् में भी ऐसी अवधारणा का स्वीकार, परिहार होता रहा है। परमाणु तत्त्ववाद के सम्बन्ध में जैन दर्शन की दूसरी मौलिक देन है परमाणु का सिद्धान्त। यद्यपि परमाणु के सन्दर्भ में भारतीय तथा पाश्चात्य दोनों दार्शनिकों ने विचार किया है / पाश्चात्य दर्शन में डेमोक्रेट्स परमाणुवाद के जनक माने जाते हैं और कुछ दार्शनिकों का अभिमत भी है कि भारत में परमाणुवाद का सिद्धान्त यूनान से आया है किन्तु यह तर्कसंगत नहीं लगता क्योंकि जैन के परमाणुवाद में तथा डेमोक्रेटस के परमाणुवाद "रहा ह Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्ववाद के क्षेत्र में जैन दर्शन की मौलिक देन / 109 में पर्याप्त अन्तर है / जिसकी व्याख्या के लिए अलग से विमर्श करने की आवश्यकता है। संक्षेप में जैन दृष्टि के अनुसार परमाणु चेतना का प्रतिपक्षी है, जबकि डेमोक्रेट्स के अनुसार आत्मा भी सूक्ष्म परमाणुओं का विकास मात्र है / वैशेषिकों ने चार प्रकार के परमाणु स्वीकार किये हैं-पृथ्वी, पानी अग्नि एवं वायु / ये चार प्रकार के परमाणु आपस में सर्वथा भिन्न हैं इनके द्वारा स्थूल कार्यों की उत्पत्ति होती है। __जैन दृष्टि के अनुसार पुद्गल का सूक्ष्म अविभाज्य अंश परमाणु कहलाता है।' वैशेषिक की तरह इसके परमाणु पृथक् नहीं हैं / वे एक ही प्रकार के होते हैं / परमाणओं की स्निग्धता एवं रुक्षता ही पदार्थों की भिन्नता में कारण है / पत्थर' सोना, चांदी, शीशा इत्यादि ये सारे ही पदार्थ एक ही प्रकार के परमाणुओं से निर्मित हैं / कोई भी परमाणु किसी भी रूप में परिणत हो सकता है। यद्यपि आधुनिक विज्ञान पहले इस तथ्य को स्वीकार नहीं करता था वह 92 प्रकार के मौलिक परमाणुओं के अस्तित्व को स्वीकार करता था परन्तु अणु की रचना के सिद्धान्त ने सिद्ध कर दिया है कि सारे परमाणु एक ही प्रकार के होते हैं। इनमें अन्तर सिर्फ इन परमाणुओं में अन्तर्निहित घनाणु Proton और ऋणाणु electron की संख्या से है। जैन शब्दावलि में इनमें अन्तर स्निग्धता एवं रुक्षता के कारण है। वैज्ञानिकों ने अपनी प्रयोगशाला में प्रयोग करके परमाणु की एकरूपता के तथ्य को सिद्ध करके दिखा दिया है। - परमाणुवाद के सन्दर्भ में जैन दर्शन की मौलिक देन परमाणुओं के सम्बन्ध की प्रक्रिया है। परमाणुओं का आपस में सम्बन्ध क्यों होता है ? और कैसे होता है? इसका विवेचन जैन दार्शनिकों ने ही किया है अन्यत्र देखने में नहीं आया। पन्नवणा सूत्र में परमाणुओं के सम्बन्ध की प्रक्रिया को बताते हुए कहा गया- . निद्धस्य निद्धेण दुआहियेण, लुक्खस्स लुक्खेण दुआहियेण. निद्धस्स लुक्छेण स्वेइ बंधो, जहनवावज्जो विसमो समो वा / / अस्तिकाय अस्तिकाय शब्द भी जैन का तत्त्व मीमांसान्तर्गत मौलिक शब्द है। जगत् की व्याख्या में पञ्चास्तिकाय का वर्णन प्राचीन है जबकि द्रव्य शब्द का प्रयोग अर्वाचीन है। अस्तिकाय शब्द जितना सार्थक है उतना द्रव्य नहीं है / अस्ति का अर्थ है—अस्तित्व एवं काय का अर्थ है उत्पत्ति-विनाश / अस्तित्व एवं काय का अर्थ है उत्पत्ति-विनाश एवं ध्रुवतां / अस्तिकाय शब्द जैन के अभिप्राय को व्यक्त करने में समर्थ है जबकि द्रव्य नहीं कर सकता। प्रदेश प्रचय को अस्तिकाय कहा जाता है। काल के प्रदेशों का प्रचय नहीं हो सकता। काल के तिर्यक सामान्य नहीं हैं अतः वह अस्तिकाय भी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 / आर्हती-दृष्टि नहीं है / तिर्यक् सामान्य अर्थात् प्रदेशों का प्रचय धर्मादि चार अजीव पदार्थ एवं जीव के ही हो सकता है / अतः इन पाँचों को अस्तिकाय कहा जाता है। षड्जीवनिकाय __षड्जीवनिकाय की व्यवस्था जैन का दार्शनिक जगत् में मौलिक अवदान है। इस प्रकार जीवों की व्यवस्था अन्य किसी भी दर्शन ने नहीं की है। आचार्य सिद्धसेन 'षड्जीवनिकाय' के सिद्धान्त से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने कहा-हे ! भगवन् ! षड्जीवनिकाय की प्ररूपणा ही आपके सर्वज्ञ होने में प्रबल प्रमाण है / तत्त्ववाद के क्षेत्र में जैन की यह एक अद्वितीय देन है। वर्गणा समान जातीय पुद्गल समूह को वर्गणा कहा जाता है / यद्यपि वर्गणाएं अनन्त हैं किन्तु स्थूल रूप से जीव के प्रयोग में आने वाली आठ वर्गणाओं का उल्लेख है-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण, श्वासोच्छवास, भाषा एवं मन। प्रथम पाँच वर्गणाओं से पांच शरीरों का निर्माण होता है। शेष तीन से श्वासोच्छवास, मन एवं वाणी की क्रियाएँ होती हैं। ये वर्गणा सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। जब तक इनका व्यवस्थित संगठन नहीं बनता तब तक वे स्वानुकूल कार्य करने के योग्य तो रहती हैं किन्तु कर नहीं सकती। इनका संगठन करने वाला प्राणी है। वह जब इनको संगठित करता है तब वे अपना कार्य कर लेती हैं / वर्गणा की स्वीकृति जैन दर्शन की अपनी मौलिक सूझ है / इन वर्गणाओं के परमाणु एक-दूसरी वर्गणा में संक्रमण कर सकते हैं अतएव वैशेषिक के द्वारा स्वीकृत चार प्रकार के परमाणुओं से इनका स्वतः ही भेद हो जाता है क्योंकि वैशेषिकों का मानना है कि पृथ्वी के परमाणु पृथ्वी के ही रहेंगे। वे अग्नि, वायु, जल नहीं बन सकते वैसे ही अन्य परमाणु भी बदल नहीं सकते। लोका-लोकाकाश की अवधारणा प्रायः सम्पूर्ण भारतीय दर्शन ने आकाश तत्त्व को तो स्वीकार किया है / जैन ने भी इसे स्वीकार किया है / किन्तु आकाश के द्विधा विभाग लोकाकाश एवं अलोकाकाश की अवधारणा मौलिक है / अन्य किसी भी दार्शनिक ने ऐसी अवधारणा प्रस्तुत नहीं की है। लोकाकाश एवं अलोकाकाश की परिकल्पना जैन दार्शनिकों की तत्त्ववाद के क्षेत्र में एक विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण देन है / जिसकी तुलना आधुनिक आइन्स्टीन एवं डी सीटर के विश्व आकाश सम्बन्धी सिद्धान्तों से की जा सकती है। इस प्रकार सम्पूर्ण दार्शनिक जगत् जैन दर्शन के मौलिक अवदान से उपकृत है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिकनय वस्तु अनन्त धर्मात्मक है / उसका विवेचन अनेक दृष्टिकोणों से किया जा सकता है। वस्तु विवेचन के जितने प्रकार हैं उतने ही नय हो सकते हैं—'जावइया वयणपहा तावइया चेव होंति णयवाया।' नय अनेक हैं परन्तु उन सबका समावेश संक्षेप में द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक इन दो नयों में हो जाता है / वस्तु का स्वरूप उभयात्मक है। आचार्य हेमचन्द्र ने कहा—'द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु' वस्तु द्रव्यात्मक एवं पर्यायात्मक है / अतः उसकी ज्ञप्ति के आधारभूत नय भी द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक भेद से दो प्रकार के हैं। द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक की परिभाषा सामान्य या अभेदमूलक समस्त दृष्टियों का समाहार द्रव्यार्थिक नय में तथा विशेष या भेदमूलक समस्त दृष्टियों का समावेश पर्यायार्थिक नय में हो जाता है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इन दो दृष्टियों का समर्थन करते हुए कहा है कि भगवान् महावीर के प्रवचन में मूलतः दो ही दृष्टियां हैं-द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक, शेष सभी दृष्टिकोण इन्हीं दो नयों के विकल्प हैं तित्थयरवयणसंगह-विसेसपत्यारमूलवागरणी। दवढिओ य फज्जवणओ य सेसा वियप्पा सिं॥ द्रव्यार्थिक प्रधानतया अभेदग्राही द्रव्यार्थिकः।। पर्यायार्थिक-प्रधानतया भेदग्राही पर्यायार्थिकः // वस्तु के द्रव्यात्मक स्वरूपको ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिक नय है तथा पर्यायात्मक स्वरूप का ग्राहक पर्यायार्थिक नय है / द्रव्यार्थिक नय अर्थात् अभेदगामी दृष्टि और पर्यायार्थिक नय अर्थात् भेदगामी दृष्टि / नय के भेद अनेकान्त का स्पष्टीकरण नयों के निरूपण से ही हो सकता है। ये दोनों नय ही समग्र विचार अथवा विचारजनित समग्रशास्त्र वाक्य के आधारभूत है। इन दो नयों . के निरूपण और इनके समन्वय में ही अनेकान्तवाद का पर्यवसान होता है। सन्मति Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 / आर्हती-दृष्टि तर्क के अनुसार संग्रह एवं व्यवहार ये दो नय द्रव्यार्थिक एवं ऋजुसूत्र पर्यायार्थिक है। शब्द समभिरूढ़ एवं एवंभूत ऋजुसूत्र की ही शाखा-प्रशाखा है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने संग्रह आदि छह नयों को ही स्वीकार किया है। ये नैगम नय को स्वीकार नहीं करते यद्यपि भगवती आदि आगम साहित्य में नैगम आदि सप्त नयों का उल्लेख है। सिद्धसेन दिवाकर का यह मन्तव्य है कि नैगम नय का कोई स्वतन्त्र विषय है ही नहीं अतः उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। 'सव्वणयसमूहम्मि वि णत्थि णओ उभयवायपण्णओ।' नय का विषय वस्तु सामान्य विशेषात्मक है / द्रव्यार्थिक सामान्यग्राही हैं उसकी दृष्टि में सभी वस्तुएं सर्वदा के लिए उत्पत्ति एवं विनाश से रहित है ‘दव्वट्ठियस्स सव्वं सया आगुप्पन्नमविणटुं।' पर्यायास्तिक नय की वक्तव्य वस्तु द्रव्यास्तिक की दृष्टि में अवस्तु ही है। 'तह पज्जववत्थु अवत्थुमेव दव्वट्ठिनयस्स' क्योंकि द्रव्यार्थिक नय वस्तु के सामान्य रूप का ही ग्रहण करता है / इसके विपरीत पर्यायार्थिक नय के अनुसार पदार्थ नियम से उत्पन्न एवं नष्ट ही होते हैं—'उपजंति वियंति य भावा णियमेण पज्जवणयस्स' इसके अनुसार ध्रुवता का अस्तित्व ही नहीं है / सन्मति में कहा गया—'दव्वट्ठियवत्तव्वं अवत्थु णियमेण पज्जवणयस्स' द्रव्यास्तिक का वक्तव्य पर्यायास्तिक की दृष्टि में नियम से अवस्तु है। नय की मिथ्यात्ववादिता वस्तु का स्वरूप द्रव्यपर्यायात्मक है। पर्याय से रहित द्रव्य एवं द्रव्य से रहित पर्याय का अस्तित्व नहीं है / उत्पाद-व्यय एवं धौव्य संयुक्त रूप से द्रव्य का लक्षण दव्वं पज्जवविउयं दव्वविउता य फज्जवा णत्थि। उप्पाय-ट्ठिइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं / ऐसी स्थिति में दोनों ही नय पृथक् रूप से वस्तु की व्याख्या करने में असमर्थ हैं दोनों नयों की विषय-वस्तु सम्मिलित होकर ही वस्तु स्वरूप की व्याख्या करने में समर्थ है / निरपेक्ष दोनों नय मिथ्यादृष्टि है—'तम्हा मिच्छद्दिट्ठी पत्तेयं दो विमूलणया।' Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिकनय | 113' न्य के मिथ्या एवं सम्यक्त्व की कसौटी। दोनों नय अलग-अलग मिथ्यादृष्टि इसलिए है कि दोनों में से किसी के भी एक नय का विषय सत् का लक्षण नहीं बनता। सत् का लक्षण तो सामान्य एवं विशेष दोनों संयुक्त रूप से होते हैं अतएव यदि कोई एक नय अलग होकर वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप के प्रतिपादन का दावा करें तो वह मिथ्यादृष्टि है / जब ये दोनों नय एक दूसरे से निरपेक्ष होकर केवल स्वविषय को ही सद्रूप से समझने का आग्रह करते हैं, तब अपने-अपने ग्राह्य एक-एक अंश में सम्पूर्णता मान लेते हैं तब ये मिथ्यारूप है परन्तु जब ये दोनों नय परस्पर सापेक्ष रूप से प्रवृत्त होते हैं अर्थात् दूसरे प्रतिपक्षी नय का निरसन किये बिना उसके विषय में मात्र तटस्थ रहकर जब अपने वक्तव्य का प्रतिपादन करते हैं तब वे सम्यक् कहे जाते हैं तम्हा सव्वे वि.णया मिच्छादिद्वी सपक्खपडिबद्धा / ..अण्णोण्णणिस्सिया उण हवंति सम्मत्तसम्भावा / / निरपेक्षता से अव्यवस्था - किसी भी एक नय के पक्ष में संसार, सुख-दुःख एवं मोक्ष घटित ही नहीं हो सकते / द्रव्यास्तिक एवं पर्यायास्तिक दोनों नय के निरपेक्ष विषय में संसार बंधमोक्ष आदि घटित नहीं हो सकते क्योंकि द्रव्यास्तिक शाश्वत या नित्यवादी है तथा पर्यायास्तिक उच्छेद या नाशवादी है। सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है णय दव्वद्रियपक्खे संसारो णेव पज्जवणयस्स। .. सासयवियत्तिवायी जम्हा उच्छेअवाईया॥ आचार्य हेमचन्द्र ने भी एकान्त में इन दोषों की उद्भावना की है-नैकान्तवादेसुखदुःखभोगौ न पुण्यपापे न च बंधमोक्षौ' उदाहरणार्थ यदि आत्म तत्त्व को एकान्त नित्य अथवा एकान्त क्षणिक माने तो उसमें संसार दुःख-सुख आदि कुछ भी घटित नहीं हो सकता। अतः दोनों नय सापेक्ष रूप से ही सत्य के प्रतिपादक हो सकते हैं। रत्नों का हारपना जैसे सत्र में पिरोये जाने पर विशिष्ट प्रकार की योजना पर अवलम्बित है वैसे ही नयवाद की यथार्थता उनकी परस्पर अपेक्षा पर अवलम्बित है। नय की मर्यादा प्रत्येक नय की मर्यादा अपने-अपने विषय का प्रतिपादन करने तक सीमित है . जब तक वे अपनी मर्यादा में रहते हैं तब तक यथार्थ है एवं अपनी मर्यादा का अतिक्रमण Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 / आर्हती-दृष्टि : करते ही अयथार्थ बन जाते हैं। सब, सब प्रकार से सर्वदा जो भेद रहित हो वह द्रव्यास्तिक का वक्तव्य है और विभाग या भेद का प्रारम्भ होते ही वह पर्यायास्तिक के वक्तव्य का मार्ग बन जाता है दवट्ठियक्त्तव्वं सव्वं सब्वेण णिच्चमवियप्पं / आरद्धो य विभागो पज्जववत्तव्वभग्गो य॥ जगत् भेदाभेद उभयरूप है। अभेद तक द्रव्यास्तिक की मर्यादा है भेद पर्यायास्तिक का विषय है। सभी नय अपने-अपने वक्तव्य में सत्य हैं जब वे दूसरे का निराकरण करते हैं तब मिथ्या हो जाते हैं अतः अनेकान्त शास्त्र का ज्ञाता उन नयों का 'ये सच्चे हैं और ये झूठे हैं' ऐसा विभाग नहीं करता णिययवयणिज्जसच्चा सव्वनया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिदुसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा॥. . नय देशना की फलश्रुति द्रव्यास्तिक नय स्थिर तत्त्व को स्वीकार करता है। उसके अनुसार आत्मा कर्म का बंध करता है तथा उसका फल भी भोगता है। 'दव्ववद्वियस्स आया बंधइ कम्मं फलं च वेएड्।' द्रव्यास्तिक नय की दृष्टि से जो करता है वही निश्चित रूप से फल भोगता है। 'दव्वट्ठियस्स जो चेव कुणइ सो चेव वेयए णियमा।' . इसके विपरीत पर्यायार्थिक नय के अनुसार मात्र उत्पत्ति होती है न तो कोई बंध करता है और न कोई फल भोगता है 'बीयस्स भावमेत्तं ण कुणइ ण य कोइ वेएइ।' पर्यायास्तिक तो यहाँ तक कहता है कि अन्य करता है तथा उसका परिभोग अन्य ही करता है 'अण्णो करेइ अण्णो परिभुजंइपज्जवणयस्स / ' जैन दृष्टि के अनुसार दोनों नय की सापेक्ष देशना ही सम्यक् है अतः द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक दोनों नय सम्मिलित रूप से ही वस्तु व्याख्या कर सकते हैं / आचार्य Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिकनय / 115 सिद्धसेन ने कहा है कि दोनों नय की संयुक्त वक्तव्यता स्वसमय अर्थात् जैन दृष्टि है तथा निरपेक्षता से कथन तीर्थकरों की आसातना है। जे वयणिज्जवियप्पा संजुज्जन्तेसु होंति एएसु। सा ससमयपण्णवणा तित्थयरासायणा अण्णा / उपसंहार नय सिद्धान्त की समुचित अवगति एवं व्यवस्था के द्वारा तत्त्व मीमांसीय आचारशास्त्रीय, सामाजिक, राजनैतिक आदि सभी प्रकार की समस्याओं का सम्यक् समाधान प्राप्त किया जा सकता है / विवाद वहां उपस्थित होता है जब यह कहा जाये 'I am right you are wrong' किन्तु जब परस्पर एक-दूसरे की अपेक्षा दृष्टि को समझ लिया जाता है तब विरोध या विवाद स्वतः समाहित हो जाता है अतः नयवाद का उपयोग मात्र सैद्धान्तिक क्षेत्र में ही नहीं है किन्तु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसकी अत्यन्त उपयोगिता है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनपर्याय और अर्थपर्याय जैन दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण प्रमेय जगत् द्रव्यपर्यायात्मक है / प्रमाण का विषय उभयात्मक वस्तु है / आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण-मीमांसा में प्रमाण के विषय को प्रस्तुत करते हुए कहा 'द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु प्रमाणस्य विषयः।' प्रत्येक पदार्थ भेदाभेदरूप है / अभेद द्रव्यार्थिक नय का तथा भेद पर्यायार्थिक नय का विषय है / द्रव्य वस्तु के धौव्यात्मक स्वरूप की अवगति देता है, तथा पर्याय वस्तु के उत्पाद-व्ययात्मक स्वरूप को प्रस्तुत करता है / भेद के बिना व्यवहार का संचालन नहीं हो सकता / व्यवहार जगत् में वस्तु का भेदात्मक स्वरूप अधिक स्फूट होता है / वस्तु में भेद संक्षेप से दो प्रकार का होता है-व्यञ्जननियत और अर्थनियत। सन्मतितर्कप्रकरण में इस तथ्य को अभिव्यक्त करते हुए कहा गया ___ 'जो उण समासओ च्चिय वंजणणिअओ य अत्थणिअओ य।' व्यञ्जननियत विभाग शब्द सापेक्ष होता है तथा अर्थनियत विभाग शब्द निरपेक्ष होता है। अर्थनियंत विभाग शब्द का वाच्य नहीं बन सकता। ___ वस्तु के शब्द नियत व्यवहार को व्यञ्जन पर्याय एवं अर्थनियत व्यवहार को अर्थपर्याय कहा जाता है। जैन-सिद्धान्त-दीपिका में व्यञ्जन पर्याय को परिभाषित करते हुए कहा गया 'स्थूलः कालान्तरस्थायी शब्दानां संकेतविषयो व्यञ्जनपर्यायः / ' वस्तु का स्थूल एवं कालान्तर स्थायी जो भेद शब्द का वाच्य बन सकता है, वह व्यञ्जन पर्याय है / वस्तु के सामान्य स्वरूप पर कल्पित अनन्त भेदों की परम्परा में जितना सदृश परिणाम प्रवाह किसी भी एक शब्द का वाच्य बनकर व्यवहार्य होता है, उतना वह वस्तु का सदृश परिणाम प्रवाह व्यञ्जन पर्याय कहलाता है और वस्तु का जो परिणाम शब्द का विषय नहीं बनता, अनभिलाप्य रहता है, वह अर्थपर्याय है। जैन-सिद्धान्त-दीपिका में अर्थ-पर्याय को परिभाषित करते हुए कहा गया 'सूक्ष्मो वर्तमानवी अर्थपरिणाम: अर्थपर्यायः।' . Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनपर्याय और अर्थपर्याय / 117 प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण परिणमन हो रहा है। वस्तु प्रतिक्षण नवीन-नवीन अवस्थाओं को धारण कर रही है, वह परिवर्तन इतना सूक्ष्म होता है कि उसको शब्द अपना विषय नहीं बना सकता / वही वर्तमानवी वस्तु का परिवर्तन अर्थ पर्याय कहलाता है। स्थूल उदाहरण के द्वारा व्यञ्जन एवं अर्थपर्याय को समझा जा सकता है / जैसे चेतन पदार्थ का 'जीवत्व' यह सामान्य स्वरूप है / उसकी काल, कर्म आदि उपाधिकृत संसारित्व, मनुष्यत्व, पुरुषत्व आदि अनन्त भेदवाली छोटी-बड़ी अनेक परम्पराएं हैं। उनमें पुरुष, पुरुष जैसी समान प्रतीति का विषय और एक पुरुष शब्द का प्रतिपाद्य जो सदृश पर्याय प्रवाह है, वह व्यञ्जनपर्याय है और उस पुरुषरूप सदृश प्रवाह में जो सूक्ष्मतम भेद हैं, वे अर्थपर्याय हैं। पर्याय का भिन्नाभिन्नत्व __सन्मति तर्क-प्रकरण के अनुसार अर्थगत भेद अभिन्न हैं एवं व्यञ्जननिश्रित भेद भिन्न एवं अभिन्न उभयरूप हैं 'अत्यगओ य अभिण्णो भइयव्वो वंजणवियप्पो।' - अर्थात् व्यञ्जन पर्याय को भिन्नाभिन्न कहने का तात्पर्य यह है कि पुरुषत्व पर्याय शब्दवाच्य सदश प्रवाह की दृष्टि से यद्यपि एक है फिर भी उसमें बाल्य, यौवन आदि अनेक भेद भासित होने से वह भेद्य भी है.। इसी प्रकार बाल-पर्याय शब्द वाच्य सदृश प्रवाह के रूप में एक होने से अभिन्न होने पर भी उसमें तत्कालजन्म, स्तनघयत्व आदि दूसरे भेदों के कारण भेद्य होने से वह भिन्न भी है। अर्थ-पर्याय को अभिन्न कहने का तात्पर्य यह है कि भेदों की परम्परा में जो भेद अन्तिम होने के कारण अभेद्य होता है। वह अन्तिम भेद यद्यपि स्वयं तो दूसरे का अंश है तथा अन्य भेदों से भिन्न है किन्तु उसमें अन्य कोई भेद करने वाला अंश नहीं होता अतः वह अभिन्न कहलाता है। व्यञ्जन पर्याय पुरुष रूप में जन्म से लेकर मरणपर्यन्त तक पुरुष शब्द का वाच्य एवं सदृश प्रतीति का जो विषय बनता है। उस जीव का पुरुषरूप सदृश प्रवाह व्यञ्जन पर्याय है। व्यञ्जन पर्याय एक प्रकार का अल्पकालीन सामान्य है। द्रव्यरूप सामान्य त्रिकालवर्ती होता है / व्यञ्जन पर्याय को स्थूल व्यवहार में कुछ काल स्थायी सामान्य कहा जा सकता है। पुरुषरूप व्यञ्जन पर्याय में बाल्य, यौवन, वृद्धत्व आदि अनेक प्रकार के जो स्थूल पर्याय हैं वे सब पुरुषरूप व्यञ्जन पर्याय के अवान्तर पर्याय हैं। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 / आर्हती-दृष्टि सन्मति तर्क में कहा है पुरिसम्मि पुरिससद्दो जम्माई मरणकालपज्जन्तो। तस्स उबालाईया पज्जवजोया बहुवियप्पा / पुरुषरूप व्यञ्जन पर्याय को एकान्त रूप से अभिन्न नहीं माना जा सकता क्योंकि उसके बाल्य, यौवन आदि अवान्तर भेद होते हैं, अर्थात् पुरुषत्व इन अवान्तर पर्यायों का समुदाय है। इन अवान्तर पर्यायों के अभाव में पुरुषरूप व्यञ्जन पर्याय घटित नहीं हो सकती। सन्मति तर्क-प्रकरण में पुरुषत्व को व्यञ्जन पर्याय एवं उसके बाल्य, यौवन आदि भेदों को उस पुरुषरूप व्यञ्जन पर्याय के अर्थपर्याय भी कहा है 'वंजणपज्जायस्स उ 'पुरिसो' पुरिसो ति णिच्चमवियप्पो। बालाइ वियपं पुण पासई से अत्यपज्जाओ। यह अनुभवगम्य सत्य है कि एक ही वस्तु में निर्विकल्प अर्थात् अभिन्न और सविकल्प अर्थात् भिन्न बुद्धि होती है / जब 'पुरुष' इस प्रकार की निर्विकल्प बुद्धि उसके बारे में पैदा होती है, तब उसका विषय पुरुष पर्याय रूप एक अभिन्न व्यञ्जन पर्याय है और उसी पुरुष में पुरुष प्रतीति के समय जो बाल आदि अनेक विकल्प/भेद दिखाई देते हैं वे सब पुरुषरूप व्यञ्जनपर्याय के अर्थपर्याय हैं। पर्याय में सप्तभंगी की योजना . ___ अर्थ एवं व्यञ्जन पर्याय में सप्तभंगी की योजना भी ‘सन्मति तर्क' में की गयी है / अर्थ-पर्याय में सप्तभंगी के सातों विकल्प घटित हो सकते हैं किन्तु व्यञ्जन पर्याय में प्रथम दो अथवा अधिक-से-अधिक अस्ति-नास्ति क्रमवाला भंग और घटित हो सकता है। उसमें सातों भंग घटित नहीं हो सकते क्योंकि व्यञ्जन पर्याय शब्द सापेक्ष है / वक्तव्य एवं अवक्तव्य युक्त अस्ति-नास्ति में शब्द निरपेक्षता है / कहा है कि एवं सत्तवियप्पो वयणपहो होइ अत्थपज्जाए। वंजणपज्जाए उण सवियप्पो णिब्वियप्पो य / / . व्यञ्जन पर्याय को व्यक्त एवं अर्थपर्याय को अव्यक्त पर्याय भी कहा जाता है। स्वभाव पर्याय एवं विभाव पर्याय के अभिधान से क्रमशः अर्थपर्याय एवं व्यञ्जनपर्याय को अभिहित किया जाता है। सन्मति तर्क प्रकरण में व्यञ्जन एवं अर्थपर्याय से सम्बन्धित ऊहापोह विस्तारपूर्वक हुआ है, जो गम्भीर एवं मननीय है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशार नयचक्र में नय का विश्लेषण वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। उसकी अनन्तधर्मात्कता ज्ञान का विषय तो बन सकती है किन्तु युगपत् वचन का विषय नहीं बन सकती। ज्ञान शक्ति असीम है। शब्द शक्ति ससीम है / इस शक्ति-भेद के कारण वस्तु की व्याख्या विभिन्न प्रकार से होती है। वस्तु के इन विभिन्न धर्मों के व्यञ्जकों का नाम ही नय है। जैन परम्परा के अनुसार नयों की कोई निश्चित संख्या नहीं है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति तर्क-प्रकरण में कहा है जावइया वयणपहा तावइया चेव होंति नयवाया। जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया।। स. 3/47 . जितने वचन के प्रकार हैं उतने ही नयवाद हैं, फिर भी नयों की इस विस्तृत संख्या का संक्षेप दो, पांच और सात नयों के रूप में प्राप्त होता है। ___ जैन आगमों के गम्भीर अध्ययन से ज्ञात होता है कि आगम की व्याख्या पद्धति नयात्मक है, प्रमाणात्मक नहीं है / नय पद्धति प्राचीन है। प्रमाण स्वीकृति की परम्परा अर्वाचीन है। सम्भव ऐसा लगता है कि आर्यरक्षित (वि. 52, जन्म) से ही प्रमाण का स्वीकरण एवं विवेचन जैन दार्शनिक युग में हुआ है / नयों की संख्या, स्वरूप आदि के सन्दर्भ में भी समय-समय पर अनेक प्रकार का विचार-विमर्श जैनाचार्यों ने किया है। इस दृष्टि से भगवती, तत्त्वार्थसूत्र, सन्मति तर्क-प्रकरण आदि ग्रन्थ द्रष्टव्य है / प्रस्तुत निबन्ध का विवेच्य विषय आचार्य मल्लवादी के द्वादशार नयचक्र से सम्बन्धित है अतः इसी सन्दर्भ में विचार-विमर्श प्रासंगिक है। द्वादशार नयचक्र ग्रन्थकार की ग्रन्थ के नाम निर्धारण की योजना अद्वितीय एवं अपूर्व है। चक्र के माध्यम से सम्पूर्ण विषय-वस्तु को व्याख्यायित करने का स्तुत्य प्रयास आचार्य मल्लवादी की उत्कृष्ट मेधा का द्योतक है / तत्कालीन सम्पूर्ण दर्शनों का समाहार तथा अनेकान्त की वरीयता का द्योतन भी चक्र के माध्यम से स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो . जाता है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 / आर्हती-दृष्टि आचार्य मल्लवादी उत्कृष्ट कोटि के जैन दार्शनिक थे / हरिभद्र ने उनका वादिमुख्य के रूप में स्मरण किया है 'उक्तं च वादिमुख्येन मल्लवादिना' कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने सिद्धहेमशब्दानुशासन की वृहदवृत्ति में उत्कृष्टेऽनूपेन सूत्र की व्याख्या में अनुमल्लवादिनं तार्किकाः' कहकर एक महान् तार्किक के रूप में उनका स्मरण किया है। आचार्य मल्लवादी दिङ्नाग के समकालीन है। उनका समय विद्वानों ने ई. 345 अर्थात् विक्रम संवत् स. 402 से 482 तक का स्वीकार किया है। 'नय विचार विकास के क्रम में मल्लवादी का अभूतपूर्व योगदान है / नयचक्र में नयों का जो विवेचन प्राप्त होता है वैसा अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है। आचार्य मल्लवादी नयों की इस परम्परा को पूर्वो की परम्परा तक ले जाते हैं। उन्होंने स्वयं अपने ग्रन्थ का सम्बन्ध पूर्व के साथ जोड़ा है। इस सन्दर्भ में निम्न गाथा महत्त्वपूर्ण 'विधिनियमभङ्गावृत्तिव्यतिरिक्तत्वादनर्थकवचोवत्। जैनादन्यच्छासनमनृतं . भवतीति वैधर्म्यम्। ' आचार्य मल्लवादी ने इस गाथा का अवलम्बन लेंकर सम्पूर्ण द्वादशार नयचक्र की रचना की है तथा इस गाथा को पूर्व से उद्धृत मानते हैं। ऐसा उल्लेख स्वयं उनके ही ग्रन्थ में प्राप्त है—पूर्वमहोदधि समुत्पतितनयप्राभृत तरङ्गागम प्रम्रष्टश्लिष्टकणिकमात्र नयचक्रक्राख्यं संक्षिप्तार्थ गाथा सूत्रम्'. इस कथन से यह स्पष्ट है कि यह गाथा पूर्व-सम्बन्धी नयप्राभृत की एक प्राचीन गाथा है / इस गाथा से सम्बन्धित किंवदन्ती भी प्रचलित है / शासनदेवी से आचार्य मल्लवादी को वरदान प्राप्त हुआ था कि इस एक गाथा के आधार पर तुम नये नयवक्र की रचना कर सकोगे। ऐसा उल्लेख भद्रेश्वरसूरिकृत कहावली, आम्रदेवसूरिकृत आख्यान मणिकोश टीका प्रभाचन्द्र सूरिकृत प्रभावक चरित्र आदि अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होता है। विधिनियमभङ्गा इस गाथा के आधार पर नयों का सम्बन्ध पूर्व-परम्परा से जुड़ जाता है / पूर्व-परम्परा सबसे प्राचीन है, अतः विधिनियम एवं उभय इस प्रकार का नयों का वर्गीकरण द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक और नैगम आदि से भी प्राचीन हो जाता है किन्त ग्रन्थकार ने स्वयं इन बारह नयों का समाहार दो एवं सात नयों में किया है। इससे अनुमान होता है कि उपर्युक्त गाथा भले ही पूर्वो से सम्बन्धित हो किन्तु आगमकाल में नयों की व्यवस्था का सर्वमान्य परिवर्तन हो चुका था अतः आचार्य मल्लवादी भी Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशार नयचक्र में नय का विश्लेषण / 121 12 नयों का समाहार प्रचलित नयों में करते हैं। विधि आदि नयों के द्वारा आचार्य मल्लवादी ने चिन्तन विकास का एक अभिनव प्रारूप प्रस्तुत किया है। उन्होंने इन नयों के माध्यम से तत्कालीन सम्पूर्ण दार्शनिक विचारों को एक स्थान पर गुम्फित कर दिया है / नय निरूपण के द्वारा एकान्तवाद का निरसन तथा अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा नयचक्र का मुख्य विषय है। नयचक्र में विधि आदि नय सबसे पहले परपक्ष का निरसन करके स्वपक्ष की स्थापना में प्रवृत होते हैं। पर पक्ष का जो निरसनात्मक अंश है वही द्वादश अरों का परस्पर अन्तर है। रथ के चक्र में नानावयवयों से नेमि बनती है, वैसे ही यहां पर चार-चार अरों से नेमि बनती है। द्वादश अरवाला यह नयचक्र त्रिमार्गात्मक है। मार्ग नेमि पर्यायवाची शब्द है। मार्गोनेमिरित्यनर्थान्तरम / प्रस्तुत नयचक्र में तीन अंश में विभक्त नेमि की कल्पना की गई है। प्रत्येक अंश को मार्ग कहा गया है। मार्ग के तीन भेद करने का कारण यह है कि प्रथम नेमि के चार अरविधिभंग द्वितीय नेमि के चार उभय भंग एवं तृतीय नेमि के चार नियम भंग होते हैं। जैसे अर नेमि से असम्बद्ध हो जाने पर अपना-अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं ठीक वैसे ही विधि आदि 12 अर स्याद्वाद रूपी. नमि से असम्बद्ध होने पर अपने अस्तित्व को ही समाप्त कर देते हैं तथा उससे संयुक्त होकर सम्पूर्ण कार्यों के साधक होते हैं। नयचक्र में वस्तुतः जैनेतर मतों को ही नय के रूप में वर्णित किया गया है। उत्तरपक्ष के द्वारा पूर्वपक्ष का निराकरण ही नहीं किन्तु पूर्वपक्ष में जो गुण हैं उनके स्वीकार की ओर भी निर्देश दिया गया है। इस प्रकार उत्तरोत्तर जैनेतर मतों को ही नय मानकर समग्र ग्रन्थ की रचना हुई है। जैन दर्शन की सर्वनयात्मकता को सिद्ध किया गया है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति तर्क प्रकरण में कहा है भई मिच्छादसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स। जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स / / नयचक्र में सारे ही नय पूर्व-पूर्व नय मत को दूषित करके अपने-अपने स्वमत की प्रतिष्ठा में क्रमशः प्रवृत होते हैं। नयचक्र में इसी रूप से विषयवस्तु का प्रारम्भ हुआ है। मल्लवादी ने विधि आदि 12 नयों की कल्पना की है अतएव नयचक्र का दूसरा नाम द्वादशार नयचक्र भी है। वे 12 नय निम्न हैं 1. विधि Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 / आर्हती-दृष्टि 2. विधि-विधि (विधिविधिः) 3. विध्युभयम् (विधेर्विधिश्च नियमश्च) 4. विधिनियमः (विधेनियमः) 5. उभयम् (विधिश्च नियमश्च) 6. उभयविधिः (विधिनियमयोविधिः) 7. उभयोभयम् (विधि नियमयोविधिनियमौ) 8. उभयनियमः (विधिनियमयोर्नियमः) 9. नियमः / 10. नियमविधिः (नियमस्य विधिः) 11. नियमोभयम् (नियमस्य विधिनियमौ) 12. नियम-नियमः (नियमस्य नियमः) नयचक्र नय-विषयक ग्रन्थ होने पर भी उसमें नैगम आदि नयों का उल्लेख नहीं है अपितु विधि आदि 12 नयों का वर्णन है / आचार्य मल्लवादी ने बारह में से प्रथम 6 को द्रव्यार्थिक तथा शेष 6 को पर्यायार्थिक स्वीकार किया है। नैगम आदि सात नयों में भी इनका समाहार आचार्य के द्वारा किया गया है / प्रथम विधिनय का व्यवहार में 2-4 का संग्रह 5-6 का नैगम ७वे का ऋजुसूत्र 8-9 का शब्दनय १०वें का समभिरूढ तथा 11-12 का एवंभूत नय में समावेश होता है। विधि के एकाधिक अर्थ नयचक्र में उपलब्ध होते हैं,। 'विधिसाचारः' आचार को विधि कहा गया है / अनपेक्षितव्यावृति भेदार्थोद्रव्यार्थो विधिः” जिसमें भेद की कल्पना ही नहीं होती वह द्रव्यार्थ विधि है। सामान्य-द्रव्य-कारणं विधिः ये विधि के ही अर्थ हैं। नियम विशेष, पर्याय एवं कार्य को कहा गया है। पर्यायार्थतस्तु नियमः। व्यवहार का संचालन विधि से होता है, उसमें फिर नियम उपस्थित हो जाता है / नयचक्र में पूर्व नय अपने मत की स्थापना करता है / तत्काल उत्तरवर्ती नय अपने पूर्ववर्ती का निरास करके अपनी प्रतिष्ठा करता है। यह चक्र अन्त तक चलता रहता है। 1. प्रथम विधिनय वेदवादी मीमांसकों के मत का उत्थान करता है / व्यवहार का संचालन विधि से होता है / इस नय के अनुसार जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए लोक प्रचलित वस्तु का स्वीकरण उचित है। सामान्य, विशेष कारण से कार्य सत् कारण में कार्य असत् आदि अलौकिक शास्त्रों के मतों का निरास करके क्रिया का विधान करनेवाले शास्त्रों की ही अर्थवत्ता को स्वीकार करता है। सामान्य विशेष आदि लोक तत्त्वों को प्रथमतः तो जानना ही अशक्य है तथा जान लेने पर भी उनसे कोई Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशार नयचक्र में नय का विश्लेषण / 123 प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती। अतः इन सबका ज्ञान निरर्थक है। यह नय अज्ञानवाद का उत्थान करता है। किसी पुरुष विशेष के लिए अतीन्द्रिय तत्त्वों को प्रथमतः तो जानना ही अशक्य है तथा जान लेने पर भी उनसे कोई प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती। अतः इन सबका ज्ञान निरर्थक है / यह नय अज्ञानवाद का उत्थान करता है / कोई पुरुष विशेष अतीन्द्रिय तत्त्वों का ज्ञाता नहीं हो सकता है अतः वेद वाक्यों से ही ज्ञान किया जा सकता है / विधि वाक्यों को ही यह प्रमाण रूप मानता है / आचार्य मल्लवादी ने इस नय का उत्स जिन-प्रवचन में भगवती सूत्र के आया भन्ते ! णाणे अण्णाणे पाठ को स्वीकार किया है। मल्लवादी का मानना है कि आगम में प्राप्त दार्शनिक बीजों का प्रस्फुटन एवं अनुकरण ही अन्य दर्शनों का अस्तित्व है। 2. विधिनय के अभ्युपगम के दोष को उपदर्शित करता हुआ दूसरा विधि विधिनय समुत्थित होता है। इसका मानना है कि यदि लोक तत्त्व सर्वथा अज्ञेय ही है तो सामान्य विशेष आदि एकान्तवादों का निराकरण किस आधार पर किया गया क्योंकि जाने बिना निरास होता नहीं तथा जान लेने से निराकरण करने पर स्ववचन विरोध पैदा होता है। अग्निहोत्रं जुहूयात् स्वर्गकामः' इत्यादि वाक्य अज्ञानवाद के कारण विधि वाक्य के रूप में भी सिद्ध नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार पूर्व अर में प्रतिपादित अज्ञानवाद और क्रियोपदेश का निराकरण करके पुरुषार्थाद्वैतवाद की स्थापना की गयी है। फिर क्रमशः एक दूसरे का निरास करते हुए, काल, स्वभाव, नियति आदि सारे ही अद्वैतवादों का अन्तर्भाव इस नय में हो जाता है। - 3. विध्युभय अर में अद्वैतवाद को निरास करके प्रथमतः तो सांख्य के प्रकृति पुरुषरूप द्वैत की स्थापना की है। इसी अर में सांख्य के प्रधान कारणत्व में दोष का उद्भावन होने से उसका निरास हो जाता है। तब इसी अर में ईश्वर अधिष्ठित द्वैतवाद की स्थापना की गयी है। तथा इस नय का सम्बन्ध आचार्य ने ठाणं एवं पण्णवणा के वाक्यों से जोड़ा है / 'लोएति पवुच्चति', 'जीवा चेव अजीवा चेव जीव पण्णवणा अजीव पण्णवणा।' ___4. चतुर्थ विधि नियम अर में ईश्वरवाद का निरास करके कर्मवाद की स्थापना की गई है। कर्म पुरुषकृत है। कर्म के कारण पुरुष की नाना अवस्थाएं होती हैं अतः वे परस्पर सापेक्ष हैं। दोनों में ऐक्य है। इस तर्क के आधार पर 'सर्वं सर्वात्मकं' सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है तथा उसके समर्थन में 'जे एगं णामे से बहुनामे' इस आचारांग सूत्र के वाक्य को उद्धृत किया है। 5. पंचम (उभयम्) अर में चतुर्थ अर में प्रतिपादित 'सर्वं द्रव्यमात्रम्' अभ्युपगम . का निराकरण करके मात्र द्रव्य ही भाव रूप नहीं है अपितु क्रिया भी भाव रूप है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 / आर्हती-दृष्टि इस नय का तात्पर्य यह है कि द्रव्य और क्रिया का तादात्म्य नहीं है। 'द्रव्यं भवति क्रियापि भवति' इस अर में वैयाकरण सिद्धान्त को ध्यान में रखकर निरूपण किया गया है / यह नैगम नय के अन्तर्गत द्रव्यार्थिक नय है। 6. षष्ठ उभयविधि अर में द्रव्य एवं क्रिया के अभेद का निरास करके वैशेषिक मत के अनुसार द्रव्य एवं क्रिया के भेद को सिद्ध किया गया है। 7. सप्तम अर में वैशेषिक सम्मत सत्ता, समवाय सम्बन्ध आदि का निरास करके ऋजुसूत्र नय का आश्रय लेकर बौद्धों के अपोहवाद की स्थापना की गयी है। 8. अष्टम अर में अपोहवाद का खण्डन करेक वैयाकरणकार भर्तृहरि के मत का समर्थन किया गया है तथा तत्पश्चात् शब्दाद्वैत के विरुद्ध ज्ञान पक्ष को स्थापित किया है। प्रवृत्ति निवृत्ति ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है / शब्द तो ज्ञान का उपजीवी है अतः ज्ञान ही प्रधान है / ज्ञान निर्विषयक नहीं होता अतः ज्ञान के विरुद्ध स्थापना निक्षेप का उत्थान है। 9. नवम अर में प्रतिपादित किया गया है कि वस्तु को न तो सामान्यैकान्त कहा जा सकता है न विशेषैकान्त वह अवक्तव्य है। यह नय शब्द नय के अन्तर्गत है। 10. दशम अर में अवक्तव्यवाद का निरास करके समभिरूढ़ नय का आश्रय लेकर बौद्ध दृष्टि के अनुसार द्रव्योत्पत्ति गुणरूप है अन्य कुंछ नहीं / मिलिन्द प्रश्न में कहा गया है रथ कुछ नहीं रथांगों का समूह मात्र है। 11. एकादशम अर में सम्पूर्ण पदार्थों की क्षणिकता को सिद्ध किया गया है। 12. बारहवें अर में शून्यवाद की स्थापना की गयी है। प्रथम विधिनय मीमांसक दर्शन का समर्थन करता है उसका निरास करते हुए दूसरा नय पुरुषाद्वैत का समर्थन करता है तथा फिर क्रमशः एक-दूसरे का निरास करते हए काल, स्वभाव, नियति आदि सारे अद्वैतों की समीक्षा करता है। तीसरा अद्वैत का निराकरण करके द्वैतवाद की स्थापना करता है। चौथा ईश्वर अधिष्ठित द्वैतवाद का निराकरण करके कर्मवाद की स्थापना द्वारा सर्वात्मकता का कथन करता है। पांचवां कहता है द्रव्य की तरह क्रिया भी भाव रूप है। उनमें तादात्म्य है। वैयाकरण मत का समर्थन षष्ठ वैशेषिक मत के अनुसार द्रव्य क्रिया के भेद को प्रस्तुत करता है। सातवें में अपोहवाद का समर्थन है / आठवें में शब्द, ज्ञान, स्थापना, निक्षेप आदि का विवेचन है। नौवें ने वस्तु को अवक्तव्य माना है / दशवें ने द्रव्योत्पत्ति को गुण रूप माना है / ग्यारहवें ने सम्पूर्ण पदार्थों की क्षणिकता एवं बारहवें ने शून्यता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशार नयचक्र में नय का विश्लेषण / 125 . आचार्य मल्लवादी ने कहा कि वादों का यह चक्र चलता ही रहता है। अतः अनेकान्त का अवलम्बन आवश्यक है। अनेकान्त का आश्रय लेकर ही वस्तु तत्त्व का सम्यग् व्याख्यान किया जा सकता है। अनेकान्त चिन्तन की प्रक्रिया को अवरुद्ध नहीं करता किन्तु उसे एक खुला वातायन प्रदान करता है / अनेकान्त के सन्दर्भ में आचार्य मल्लवादी ने चिन्तन-प्रक्रिया का एक नवीन प्रारूप प्रस्तुत किया है। अनेकान्त के आलोक में ही दार्शनिक समस्याओं का समुचित समाधान हो सकता है / अनेक दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में इस सच्चाई को अनुभूत किया जा सकता है / अद्वैत वेदान्त ब्रह्म तत्त्व के प्रतिपादन के बाद जगत की व्याख्या करता है तो मायावाद के रूप में अनेकान्त का ही आश्रय लेता है। सांख्य दर्शन में यह स्वीकृत किया गया है कि प्रकृति पुरुष के सदृश भी हैं और विसदृश भी है स्पष्ट रूप से यह अनेकान्त का उदाहरण है। बौद्ध दर्शन भी कहता है कि पर्याय न तो शाश्वत है न उसका सर्वथा उच्छेद है। प्रतीत्यसमुत्पाद के रूप में अनेकान्त की स्वीकृति है / अतः यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाता है / वस्तु व्यवस्था में अनेकान्त सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण योगदान है। द्वादशार नयचक्र के माध्यम से आचार्य मल्लवादी ने इसी सत्य को उजागर करने का प्रयलं किया है। नयचक्र मूलरूप में प्राप्त नहीं है किन्तु सिंहसूरिगणिकृत न्यायागमानुसारिणी टीका के रूप में ही उपलब्ध है। यह ग्रन्थ तत्कालीन सम्पूर्ण दर्शनों के स्वरूप ज्ञान के लिए अत्यन्त उपयोगी है। सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, अद्वैत, बौद्ध, भर्तृहरि, षडंगयोग, पाणिनीय, यास्क आदि के पाठ नयचक्र में उद्धृत हैं / भागुरि, सौनाग, चरकसंहिता के पाठ भी इसमें उद्धृत है। अतः यह ग्रन्थ दर्शन अध्येताओं एवं इतिहासवेताओं की नई अवधारणा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है / अपेक्षा है इस ग्रन्थ के नये-नये तथ्य विद्वज्जन जनता के समक्ष प्रस्तुत करें। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपवाद व्यवहार जगत् में भाषा की अनिवार्यता है। भाषा के अभाव में व्यवहार का संवहन दुष्कर है किन्तु भाषा की अपनी कुछ सीमाएं हैं, विवशताएं हैं / फलस्वरूप वक्ता अपने अभिलषित को अभिव्यञ्जित करने में असमर्थता का अनुभव करता है। भाषा एवं वक्ता की इन समस्याओं का समाधान जैन परम्परा में निक्षेप-व्यवस्था के द्वारा करने का प्रयत्न किया गया है। वस्तु स्वरूपतः अनन्त धर्मात्मक है। उस अनन्त धर्मात्मक वस्तु का अवबोध प्रमाण एवं नय के द्वारा प्राप्त होता है / प्रमेय-बोध प्रमाण एवं नय दोनों के द्वारा ही होता है / प्रमाण एवं नय के विषयभूत जीव आदि पदार्थों का नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव इन चार निक्षेपों से न्यास किया जाता है / तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया- . 'नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्यासः' वस्तु के सम्यक् सम्बोध में प्रमाण, नय एवं निक्षेप का महत्त्वपूर्ण स्थान है / इनके बिना सम्यक् प्रमेय व्यवस्था हो ही नहीं सकती। निक्षेप की आवश्यकता व्यवहार जगत् में भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान है / जहां परस्पर एक-दूसरे से संवाद स्थापित करना होता है वहाँ शब्द अत्यन्त अपेक्षित है और एक ही शब्द एकाधिक वस्तु एवं उनकी अवस्थाओं के ज्ञापक होने से उनके प्रयोग में भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है, वस्तु का यथार्थ बोध दुरुह हो जाता है / निक्षेप के द्वारा भाषा-प्रयोग की उस दुरूहता का सरलीकरणं हो जाता है / निक्षेप भाषा प्रयोग की निर्दोष प्रणाली है / निक्षेप के रूप में जैन परम्परा का भाषा जगत् को महत्त्वपूर्ण अवदान है। . निक्षेप की परिभाषा निक्षेप जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है / निक्षेप का पर्यायवाची शब्द न्यास है जिसका प्रयोग तत्त्वार्थसूत्र में हुआ है / न्यासो निक्षेपः / निक्षेप की जैन ग्रन्थों में अनेक परिभाषाएं उपलब्ध हैं / वृहद् नयचक्र में निक्षेप को परिभाषित करते हुए कहा गया जुत्ती सुजुत्तमग्गे जं चउभयेण होइ खलु ठवणं। . वजे सदि णामादिसु तं णिक्खेवं हवे समये // . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपवाद / 127 युक्तिपूर्वक प्रयोजन युक्त नाम आदि चार भेद से वस्तु को स्थापित करना निक्षेप है। धवला में निक्षेप को परिभाषित करते हुए कहा-'संशयविपर्यये अनध्यवसाये वा स्थितस्तेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः' संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय में स्थित वस्तु को उनसे हटाकर निश्चय में स्थापित करना निक्षेप है अर्थात् निक्षेप वस्तु को निश्चयात्मकता एवं निर्णायकता के साथ प्रस्तुत करता है / जैन सिद्धान्त दीपिका में भी यही भाव अभिव्यञ्जित है-'शब्देषु विशेषणबलेन प्रतिनियतार्थप्रतिपादनशक्तेनिक्षेपणं निक्षेपः' शब्दों में विशेषण के द्वारा प्रतिनियत अर्थ का प्रतिपादन करने की शक्ति निहित करने को निक्षेप कहा जाता है। निक्षेप पदार्थ और शब्द प्रयोग की संगति का सूत्रधार है / निक्षेप भाव और भाषा, वाच्य और वाचक की सम्बन्ध पद्धति है। संक्षेप में, शब्द और अर्थ की प्रासंगिक सम्बन्ध संयोजना को निक्षेप कहा जा सकता है। निक्षेप के द्वारा पदार्थ की स्थिति के अनुरूप शब्द संयोजना का निर्देश प्राप्त होता है / निक्षेप सविशेषण सुसम्बद्ध भाषा का प्रयोग है। निक्षेप का लाभ प्रत्येक शब्द में असंख्य अर्थों को द्योतित करने की शक्ति होती है. एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। वह अनेक वाच्यों का वाचक बन सकता है, ऐसी स्थिति में वस्तु के अवबोध में भ्रम हो सकता है। निक्षेप के द्वारा अप्रस्तुत अर्थ को दूर कर प्रस्तुत अर्थ का बोध कराया जाता है / अप्रस्तुत कां अपाकरण एवं प्रस्तुत का प्रकटीकरण ही निक्षेप का फल है / लघीयस्त्रयी में यही भाव अभिव्यजित हुए हैं 'अप्रस्तुतार्थापाकरणात् प्रस्तुतार्थव्याकरणाच्च निक्षेपः फलवान्।' निक्षेप के भेद पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है अतः विस्तार में जायें तो कहना होगा कि वस्तुविन्यास के जितने प्रकार हैं उतने ही निक्षेप के भेद है किन्तु संक्षेप में चार निक्षेपों का निर्देश प्राप्त होता है। अनुयोगद्वार में भी कहा गया है 'जत्य यजं जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं। जत्व वि य न जाणेज्जा चउक्कगं निक्खिवे तत्व। जहाँ जितने निक्षेप ज्ञात हों वहां उन सभी का उपयोग किया जाये और जहां अधिक निक्षेप ज्ञात न हों वहां कम से कम नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव इन चार निक्षेपों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। पदार्थ का कोई न कोई नाम तथा आकार होता है तथा उसके भूत, भावी एवं Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 / आईती-दृष्टि वर्तमान पर्याय होते हैं अतः निक्षेप चतुष्टयी स्वत: फलित हो जाती है / पदार्थ के नाम के आधार पर नाम निक्षेप, आकार के आधार पर स्थापना, भूत, भावी पर्याय के आधार पर द्रव्य एवं वर्तमान पर्याय के आधार पर भाव निक्षेप का निर्धारण होता है। निक्षेप काल्पनिक नहीं है अपितु वस्तु के स्वरूप पर आधारित यथार्थ हैं। नाम आदि चारों निक्षेपों का संक्षिप्त विवेचन यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। . 1. नाम-निक्षेप वस्तु का इच्छानुसार अभिधान किया जाता है, वह नाम निक्षेप है। नाम मूल अर्थ से सापेक्ष या निरपेक्ष दोनों प्रकार का हो सकता है, किन्त जो नामकरण संकेतमात्र से होता है, जिसमें जाति, गुण, द्रव्य, क्रिया, लक्षण आदि निमित्तों की अपेक्षा नहीं होती है, वह नाम निक्षेप है। एक अनक्षर व्यक्ति का नाम अध्यापक रख दिया। एक गरीब का नाम लक्ष्मीपति रख दिया। अध्यापक और लक्ष्मीपति का जो अर्थ होना चाहिए वह उनमें नहीं मिलता इसलिए ये नाम निक्षिप्त कहलाते हैं। नाम निक्षेप में शब्द के अर्थ की अपेक्षा नहीं रहती है। जैन सिद्धान्त दीपिका में नाम निक्षेप को परिभाषित करते हुए कहा गया—'तदर्थनिरपेक्षं संज्ञाकर्म नाम' मूल शब्द के अर्थ की अपेक्षा न रखनेवाले संज्ञाकरण को नाम निक्षेप कहा जाता है। जैसे'अनक्षरस्य उपाध्याय इति नाम'। - 2. स्थापना-निक्षेप–पदार्थ का आकाराश्रित व्यवहार स्थापना निक्षेप है / मूल अर्थ से शून्य वस्तु को उसी अभिप्राय से स्थापित करने को स्थापना निक्षेप कहा जाता है- 'तर्थशून्यस्य तदभिप्रायेण प्रतिष्ठापनं स्थापना' अर्थात् जो अर्थ तद्प नहीं है उसको तद्प मान लेना स्थापना निक्षेप है। जैसे 'उपाध्यायप्रतिकृतिः स्थापनोपाध्यायः'। स्थापना सद्भाव एवं असद्भाव के भेद से दो प्रकार की होती है अतः स्थापना निक्षेप भी दो प्रकार का हो जाता है (1) सद्भाव स्थापना—एक व्यक्ति अपने गुरु के चित्र को गुरु मानता है। यह सद्भाव स्थापना है—'मुख्याकारसमाना सद्भावस्थापना'। (2) असद्भाव स्थापना—एक व्यक्ति ने शंख आदि में अपने गुरु का आरोप कर लिया, यह असद्भाव स्थापना है—'तदाकारशून्या चासद्भाव-स्थापना'। नाम और स्थापना दोनों वास्तविक अर्थ से शून्य होते हैं। नाम और स्थापना में अन्तर यह है कि जिसकी स्थापना होती है उसका नाम अवश्य होता है किन्तु नाम निक्षिप्त की स्थापना होना आवश्यक नहीं है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपवाद / 129 3. द्रव्यनिक्षेप–पदार्थ का भूत एवं भावी पर्यायाश्रित व्यवहार तथा अनुपयोग अवस्थागत व्यवहार द्रव्य निक्षेप है-'भूतभाविकारणस्य अनुपयोगो वा द्रव्यम्' अतीत-अवस्था, भविष्यत्-अवस्था एवं अनुपयोग दशा-ये तीनों विवक्षित क्रिया में परिणत नहीं होते हैं, इसलिए इन्हें द्रव्य निक्षेप कहा जाता है। ___ जो व्यक्ति पहले उपाध्याय रह चुका है अथवा भविष्य में उपाध्याय बननेवाला है, वह द्रव्य उपाध्याय है / अनुपयोग दशा में की जानेवाली क्रिया भी द्रव्यक्रिया है। द्रव्य शब्द का प्रयोग अप्रधान अर्थ में भी होता है, जैसे-आचार गुण शून्य होने से अंगारमर्दक को द्रव्याचार्य कहा जाता है। ___ अनुयोगद्वार में द्रव्य निक्षेप के दो प्रकार बताए गये हैं-आगमतः एवं नो आगमतः। (1) आगमतः द्रव्य निक्षेप–'जीवादिपदार्थज्ञोऽपि तत्राऽनुपयुक्तः' ।कोई व्यक्ति जीव विषयक अथवा अन्य किसी वस्तु का ज्ञाता है किन्तु वर्तमान में उस उपयोग से रहित है उसे आगमत: द्रव्य निक्षेप कहा जाता है। .. (2) नोआगमतः द्रव्यनिक्षेप-आगम द्रव्य की आत्मा का उसके शरीर में आरोप करके उस जीव के शरीर को ही जाता कहना नोआगमतः द्रव्यनिक्षेप है। आगमद्रव्यनिक्षेप में उपयोग रूप ज्ञान नहीं होता किन्तु लब्धि रूप में ज्ञान का अस्तित्व रहता है किन्तु नो आगमतः में लब्धि एवं उपयोग उभय रूप से ही ज्ञान का अभाव रहता है। नोआगमतः द्रव्यनिक्षेप मुख्य रूप से तीन प्रकार का है—(१) ज्ञशरीर, (2) भव्यशरीर एवं (3) तद्व्यतिरिक्त / इनके भेद-प्रभेद अनेक हैं। . (1) ज्ञशरीर-जिस शरीर में रहकर आत्मा जानता देखता था वह ज्ञशरीर है। जैसे—आवश्यक सूत्र के ज्ञाता की मृत्यु हो जाने के बाद भी पड़े हुए शरीर को देखकर कहना यह आवश्यक सूत्र का ज्ञाता है। (2) भव्यशरीर-जिस शरीर में रहकर आत्मा भविष्य में ज्ञान करनेवाली होगी वह भव्य शरीर है। जैसे-जन्मजात बच्चे को कहना यह आवश्यक सूत्र का ज्ञाता (3) तद्व्यतिरिक्त-वस्तु की उपकारक सामग्री में वस्तुवाची शब्द का व्यवहार किया जाता है, यह तद्व्यतिरिक्त है / जैसे-अध्यापन के समय होनेवाली हस्त संकेत आदि क्रिया को अध्यापक कहना / लौकिक, प्रावचनिक एवं लोकोत्तर के भेद से यह तीन प्रकार का है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 / आईती-दृष्टि ___4. भावनिक्षेप–पदार्थ का वर्तमान पर्यायाश्रित व्यवहार भाव निक्षेप है। 'विवक्षितक्रिया परिणतो भाव:' विवक्षित क्रिया में परिणत वस्तु को भाव निक्षेप कहा जाता है / जैसे- स्वर्ग के देवों को देव कहना। भावनिक्षेप भी आगमतः नोआगमतः के भेद से दो प्रकार का है। (1) आगमत:-उपाध्याय के अर्थ को जाननेवाला तथा उस अनुभव में परिणत व्यक्ति को आगमतः भाव उपाध्याय कहा जाता है। (2) नोआगमतः-उपाध्याय के अर्थ को जाननेवाले तथा अध्यापन-क्रिया में प्रवृत्त व्यक्ति को नोआगमतः भाव उपाध्याय कहा जाता है। चारों ही निक्षेपों को संक्षेप में व्याख्यायित करते हुए कहा है. नाम जिणा जिननामा ठवणजिणा हुंति पडिमाओ। दव्वजिणा जिन जीव भावजिणा समवसरणत्या॥ नय और निक्षेप का सम्बन्ध–नय और निक्षेप का विषय-विषयी सम्बन्ध है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इनके सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए कहा है कि नामं ठवणा दविए त्ति एस दव्वट्ठियस्स निक्खेवो। भावो उ पज्जवट्ठिअस्स एस परमत्थो॥ नाम स्थापना एवं द्रव्य का सम्बन्ध तीन काल से है अतः इसका सम्बन्ध द्रव्यार्थिक नय से है तथा भाव-निक्षेप मात्र वर्तमान से सम्बन्धित है। अतः यह पर्यायार्थिक नय का विषय है। निक्षेप का आधार-निक्षेप का आधार प्रधान-अप्रधान, कल्पित और अकल्पित दृष्टि बिन्दु है। भाव अकल्पित दृष्टि है, इसलिए प्रधान होता है। शेष तीन निक्षेप कल्पित हैं / अतः वे अप्रधान हैं / नाम में, पहचान, स्थापना में आकार की भावना होती है। गुण की वृत्ति नहीं होती। द्रव्य मूल वस्तु की पूर्वोत्तर दशा या उससे सम्बन्ध रखनेवाली अन्य वस्तु होती है अतः इसमें मौलिकता नहीं होती। भाव मौलिक है। निक्षेप पद्धति जैन आगम एवं व्याख्या ग्रन्थों की मुख्य पद्धति रही है। अनुयोग परम्परा में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है / सम्पूर्ण व्यवहार का कारण निक्षेप पद्धति है। निक्षेप के अभाव में अर्थ का अनर्थ हो जाता है / संक्षेप में, निक्षेप पद्धति भाषा प्रयोग की वह विधा है जिसके द्वारा हम वस्तु का अभ्रान्त ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य व्याख्या का द्वार : अनेकान्त संसार की संरचना के मूल में तत्त्व का द्वैत है। आगम साहित्य में स्थान-स्थान पर इस दैतवादी मान्यता का उल्लेख है। स्थानांग सूत्र में बतलाया गया है कि लोक में जो कुछ है वह सब दो पदों में अवतरित है। वे पदार्थ परस्पर विरोधी होते हैं। विरोध अस्तित्व का सार्वभौम नियम है / विरोध के बिना अस्तित्व ही नहीं होता है। संसार में ऐसी कोई भी अस्तित्ववान् वस्तु नहीं है जिसमें विरोधी युगल एकसाथ न रहते हों। वस्तु/द्रव्य में अनन्त धर्म होते हैं यह कोई महत्त्वपूर्ण स्वीकृति नहीं है किन्तु एक ही वस्तु में एक ही काल में अनन्त विरोधी धर्म युगपत् रहते हैं यह जैन दर्शन/अनेकान्त दर्शन का महत्त्वपूर्ण अभ्युपगम है। अनेकान्त सिद्धान्त के उत्थान का आधार ही द्वैतवादी अवधारणा/विरोधी युगलों के सहावस्थान की स्वीकृति है। यदि वस्तु में विरोधी धर्म नहीं होते तो अनेकान्त स्वीकृति का कोई विशिष्ट मूल्य ही नहीं होता। अनेकान्त को परिभाषित करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं- “एक ही वस्तु सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य स्वभाववाली है / ऐसी एक ही वस्तु के वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरोधी शक्ति युक्त धर्मों को प्रकाशित करनेवाला अनेकान्त है।" आचार्य अकलंक एकान्त के प्रतिक्षेप कथन के द्वारा अनेकान्त को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि वस्तु सत् ही है. असत् ही है, इस प्रकार के एकान्तवाद को निरसित करनेवाला अनेकान्त है। - वस्तु अनेक धर्मों का समुदाय मात्र नहीं है किन्तु परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाला अनेक धर्मों का आधार है। द्रव्य अनन्त धर्मों की समष्टि है / वे धर्म परस्पर विरोध है इसलिए द्रव्य का द्रव्यत्व बना हुआ है / यदि सब धर्म अविरोधी होते तो द्रव्य का द्रव्यत्व समाप्त हो जाता। विरोधी धर्मों का युगपत् सहावस्थान होना द्रव्य का स्वभाव है। द्रव्य में शाश्वत और अशाश्वत, एक और अनेक, सामान्य और विशेष, वाच्य और अवाच्य आदि विरोधी युगल विद्यमान हैं। उन सबमें सह-अस्तित्व है / विरोधी और उनका सह-अस्तित्व विश्व व्यवस्था का अटल नियम है / जैन दर्शन का यह व्यापक अभ्युपगम है कि 'यत्-सत्-तत्-सप्रतिपक्षम्' सत् प्रतिपक्ष युक्त होता है और पक्ष Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 / माईती-दृष्टि प्रतिपक्ष में सह-अस्तित्व होता है। यह दार्शनिक सत्य अब वैज्ञानिक सत्य भी बन रहा है / वैज्ञानिक जगत् का प्रतिकण एवं प्रति पदार्थ का सिद्धान्त अनेकान्त के आलोक में एक नये तथ्य को उद्घाटित कर सकता है / वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि प्रति कण, कण का प्रतिद्वन्द्वी होते हुए भी उसका पूरक है। वे दोनों साथ-साथ रहते हैं। परस्पर एक-दूसरे का सहयोग करते और इनमें क्रिया-प्रतिक्रिया का व्यवहार भी चलता है। ___ अस्तित्व विरोधी युगलों का समवाय है / अनेकान्त ने इस सत्य का दर्शन किया है। विरोधी युगलों के सह-अस्तित्व की स्वीकृति के साथ ही उनके मध्य में रहे समन्वय सूत्रों का अन्वेषक भी अनेकान्त है। अनेकान्त के समन्वयात्मक स्वरूप को देखकर कुछ चिन्तकों ने कहा-अनेकान्त सापेक्ष दर्शन है / वह मात्र सापेक्ष सत्य की चर्चा करता है / जैन दर्शन में निरपेक्ष सत्य की स्वीकृति नहीं है / निरपेक्ष के बिना सापेक्ष कैसे होगा? आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रश्न को समाधान देते हए कहा-जैन दर्शन निरपेक्ष सत्य को भी स्वीकार करता है। निरपेक्ष के बिना सापेक्ष कैसे होगा? यह प्रश्न भी इसलिए उपस्थित हुआ कि अनेकान्त के स्वभाव को हृदयंगम नहीं किया गया। अनेकान्त का भी अनेकान्त है। आचार्य समन्तभद्र ने इस तथ्य को अभिव्यक्ति देते हए कहा-प्रमाण और नय की अपेक्षा अनेकान्त में भी अनेकान्त है। प्रत्येक नय एकान्त है। प्रत्येक नय का मत एक-दूसरे से भिन्न है। द्रव्यार्थिक नय वस्तु के ध्रौव्यांश का ग्राहक होता है / इस नय के अनुसार द्रव्य न उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है, वह मात्र ध्रुव है। पर्यायार्थिक नय के अनुसार भाव उत्पन्न एवं विशरणशील है, ध्रुवता नाम का कोई तत्त्व नहीं है। दोनों नय का मन्तव्य पृथक् है। अनेकान्त का अर्थ है-अभिन्नता को स्वीकार और भिन्नता में सह-अस्तित्व की सम्भावना का अन्वेषण करना / एक विशिष्ट प्रकार की अपेक्षा से ध्रुवता और अनित्यता दोनों सत्य है / द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक दोनों नयों की वक्तव्यता यथार्थ हैं, अतः वे परस्पर सापेक्ष होकर यथार्थ है परस्पर निरपेक्ष होकर असत्य हो जाते हैं। अस्तित्व द्रव्य पर्यायात्मक है / द्रव्य की प्रधानता में द्रव्यार्थिक का मन्तव्य ठीक है। पर्याय की प्रधानता में पर्यायार्थिक का अभ्युपगम स्वीकरणीय है / जैन न्याय के अनुसार द्रव्य और पर्याय दोनों पारमार्थिक सत्य है। अन्य एकान्तवादी दर्शन जहाँ द्रव्य एवं पर्याय में किसी एक को सत्य मानने का आग्रह रखते हैं। उस अवस्था में अनेकान्त सत्य की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहता है कि सत्य उभयात्मक, द्रव्य पर्यायात्मक है। जब हमारा ज्ञान संश्लेषणात्मक होता है, तब द्रव्य दृष्टिगोचर होता Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य व्याख्या का द्वार : अनेकान्त / 133 है, पर्याय गौण हो जाता है / जब ज्ञान विश्लेषणात्मक होता है, तब पर्याय प्रमुख एवं द्रव्य पर्दे के पीछे चला जाता है / आचार्य हेमचन्द्र ने इस तथ्य को अन्ययोगव्यवछेदिका में प्रस्तुत किया है।" ___ वस्तु का द्रव्यपर्यायात्मक स्वरूप ही अनेकान्त के उद्भव का मूल स्रोत है / यदि वस्तु विरोधी युगलों की समन्विति नहीं होती तो अनेकान्त की भी कोई अपेक्षा नहीं होती, चूँकि वस्तु वैसी है अतः अनेकान्त की अनिवार्य अपेक्षा है / अनेकान्त के उद्भव का मूल स्रोत वस्तु की विरोधी अनन्त धर्मात्मकता ही है। वस्तु व्यवस्था के क्षेत्र में अनेकान्त का उद्भव हुआ और फिर उसका सभी क्षेत्रों में व्यापक प्रयोग होने लगा। आज अनेकान्त दर्शन जैनदर्शन से अभिन्न बन चुका है। भगवान् महावीर के दर्शन साहित्य में अनेकान्त का जैसा विशद वर्णन हुआ है वैसा अन्यत्र उपलब्ध नहीं किन्तु जब अनेकान्त के विकास-क्रम की ओर दृष्टि जाती है तो स्पष्ट होता है कि अनेकान्त दृष्टि का मूल भगवान महावीर से भी पूर्ववर्ती है। नालन्दा के प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षित अनेकान्त की परीक्षा करते समय तत्त्व-संग्रह में कहते हैं कि विप्र मीमांसक, निर्ग्रन्थ जैन एवं सांख्य इन तीनों का अनेकान्तवाद समान रूप से निराकृत हो जाता है। इस कथन से स्पष्ट है कि सातवीं-आठवीं शताब्दी तक के बौद्ध विद्वान अनेकान्त को मात्र जैन का ही नहीं मानते थे, अन्य दर्शन भी अनेकान्तवादी थे। मीमांसक दर्शन के श्लोकवार्तिक आदि ग्रन्थों में, सांख्य, योग दर्शन के परिणामवाद स्थापक ग्रन्थों में, अनेकान्त मूलक विचारणा उपलब्ध है। किन्तु यह तथ्य तो असंदिग्ध रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि अनेकान्त दृष्टि का जितना सुस्पष्ट विकास जैन ग्रन्थों में प्राप्त है, उतना अन्यत्र कहीं नहीं है। यही कारण है कि आज अनेकान्त एवं स्याद्वाद को मात्र जैन दर्शन का सिद्धान्त माना जाता है। . ____ जैन आगमों के अनुशीलन से अनेकान्त विचार विकास का क्रम स्पष्ट परिलक्षित होता है / दार्शनिक जगत् में तत्त्व व्यवस्था के क्षेत्र में अनेकान्तवाद भगवान् महावीर की महत्त्वपूर्ण देन है। ईसा के बाद होनेवाले जैन दार्शनिकों ने जैन तत्त्व विचार को अनेकान्तवाद के नाम से प्रतिपादित किया और भगवान् महावीर को उस वाद का उपदेष्टा बताया। भगवान् महावीर से लेकर अद्य प्रभृति जैन दार्शनिकों ने अनेकान्त दृष्टि का विकास किया है। भगवान् महावीर के दस स्वप्नों में एक चित्र-विचित्र पुस्कोकिल के स्वप्न का भी उल्लेख है। इससे यह सम्भावना की जा सकती है कि सूत्रकार ने चित्र-विचित्र विशेषण का प्रयोग अनेकान्त को ध्वनित करने के लिए Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 134 / आर्हती-दृष्टि साभिप्राय किया है। ऐसा पंडित दलसुख भाई मालवणिया का अभिमत है।" जैन आगमों में अनेकान्त शब्द का प्रयोग तो उपलब्ध नहीं है किन्तु अनेकान्त के सम्पोषक तथ्यों से वे ग्रन्थ मरे हैं। अनेकान्त का प्राचीन रूप विभज्यवाद माना जाता है। विभज्यवाद शब्द का प्रयोग सूत्रकृतांग में हुआ है 'विभज्जवायं च वियागरेज्जा'। विभागपूर्वक प्रश्न को समाहित करने की तो महावीर की मौलिक शैली रही है। आचारांग से लेकर उत्तरवर्ती ग्रन्थों में इस शैली के अनेकों उदाहरण प्राप्त हैं। जो एक को जानता है वह सबको जानता है / जो सबको जानता है। वह एक को जानता है। जो आश्रव है वे ही परिश्रव है।" दर्शन युग में बहुलता से प्रयुक्त अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि अनेकान्त के नियमों का मूल स्रोत आगम साहित्य ही है। भगवती सूत्र की गौतम महावीर प्रश्नोत्तरी इसका स्पष्ट प्रमाण है / दर्शन युग में अनेकान्त के नियमों का उपयोग विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों में समन्वय स्थापित करने के लिए हुआ, वहीं आगम युग में उनका उपयोग द्रव्य मीमांसा के परिप्रेक्ष्य में होता था। तत्व जिज्ञासा उपस्थित करते हुए गौतम पूछते हैं, भंते ! अस्थिर परिवर्तित होता है, स्थिर परिवर्तित नहीं होता / अस्थिर भग्न होता है स्थिर भन्न नहीं होता, क्या यह सच है? हाँ, गौतम ! यहऐसे ही है। जीव शाश्वत है या अशाश्वत? गौतम के इस प्रश्न को समाहित करते हुए महावीर कहते हैं- जीव स्यात् शाश्वत एवं स्यात् अशाश्वत है। द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत एवं भाव की अपेक्षा अशाश्वत है। इसी दृष्टि से जीव ही नहीं किन्तु सभी द्रव्य अपेक्षा भेद से शाश्वत अशाश्वत दोनों है / इस प्रकार के उदाहरणों से आपूरित आगम साहित्य में अनेकान्त और स्याद्वाद का विशद विवेचन उपलब्ध है। आगम ग्रन्थों में उपलब्ध अनेकान्त विचार के विकास में उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने अपनी प्रतिभा का सांगोपांग उपयोग किया है। सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, हरिभद्र, अकलंक, यशोविजयजी आदि आचार्यों के नाम अनेकान्त विकास में स्मरणीय हैं। आचार्य सिद्धसेन ने सन्मति तर्क-प्रकरण में विभिन्न नयों के आधार पर अन्य दर्शन की मान्यताओं में समन्वय करने का महत्त्वपूर्ण उपक्रम किया है। "सन्मति तर्क में ही सबसे पहले अनेकान्त शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है। इसके बाद तो यह शब्द सर्वग्राह्य बन गया। आप्त मीमांसा में नित्यानित्य, सामान्य विशेष आदि विरोधी वादों * में सप्तभंगी की योजना कर समन्वय स्थापित किया है। इस प्रकार हम क्रमशः अनेकान्त के विकास क्रम को देख सकते हैं। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य व्याख्या का द्वार : अनेकान्त / 135 .. अनेकान्त आगम युग से दर्शन युग में एवं दर्शन युग से वर्तमान युग तक अपनी निरन्तर विकास यात्रा करता आ रहा है। अलग-अलग युग के अलग प्रश्न और समाधान होते हैं। आज व्यवहार जगत् में अनेकान्त के प्रयोग के द्वारा ही व्यवहार जगत् की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है / जीवन में अनेक विरोधी प्रश्न आते हैं। उनका समाधान अनेकान्त में ही खोजा जा सकता है। यदि हम अनेकान्त दृष्टि के द्वारा विरोधी धर्मों को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं तो उसका समाधान उपलब्ध हो जाता है। यदि हम सत्य को सत्य दृष्टि से देखने का प्रयल नहीं करते, दो विरोधी सत्यों को दो भिन्न दृष्टिकोण से नहीं देखते हैं, तो वहां संघर्ष होना अनिवार्य है। संघर्ष को समाप्त करने का महत्त्वपूर्ण उपाय यही है कि हम जानलें कि विश्व-व्यवस्था के मूल में विरोधी युगल निरन्तर सक्रिय हैं एवं उन विरोधी युगलों का सहावस्थान है। वे साथ में ही रहते हैं। जब अनेकान्त की दृष्टि उपलब्ध हो जाती है तो सत्य का द्वार स्वतः उद्घाटित हो जाता है। ___ अनेकान्त सहिष्णुता का दर्शन है। राजनीति का क्षेत्र हो या समाजनीति का, धर्मनीति का हो या शिक्षानीति का, सफलता के लिए अनेकान्त दर्शन को व्यवहार्य बनाना आवश्यक है। जब तक सह-अस्तित्व, सहिष्णुता, सामञ्जस्य आदि मूल्यों को व्यावहारिक नहीं बनाया जाएगा तब तक समाधान उपलब्ध नहीं होगा। ये सारे मूल्य अनेकान्त के ही परिकर हैं / मनुष्य अनेकान्त को समझे और इसके अनुरूप आचरण करे तो युगीन समस्याओं का समाधान पा सकता है। आज अपेक्षा है अनेकान्त कोरा दर्शन न रहे वह जीवन बने / महावीर ने जीवन जीकर ही दर्शन दिया था। आज दर्शन और जीवन को अलग कर दिया गया है जिससे समस्याएँ पैदा हो रही हैं। शान्तसहवास के लिए आवश्यक है दर्शन और जीवन को पुनः जोड़ा जाए। अनेकान्त सत्य व्याख्या के द्वार के साथ ही जीवन सत्यों को जीने का भी द्वार बन जाए। सन्दर्भ 1. जदत्थि णं लोगेतं सव्वं दुपओआरं, तं जहा जीवच्चेव अजीवच्चेव ठाणं 2/1 2. यदेव तत् तदेव अतत्, यदेवैकं तदेवानेकम्, यदेवसत् तदेवासत्, यदेव . नित्यं तदेवानित्यम्, इत्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वय प्रकाशनमनेकान्तः समयसार ।आत्मख्याति 10/247 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ 136 / आर्हती-दृष्टि 3. सदसन्नित्यानित्यादिसर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः। अष्ट श. अष्ट सहस्री, पृ. 286 / 4. स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूप.... 'अन्ययोगव्यवच्छेदिका', श्लो. 25 / जैन दर्शन और अनेकान्त, पृ. 8 / 6. अनेकान्तेऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः। अनेकान्तः प्रमाणस्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात् // स्वयंभू स्तोत्र 103 / 7. उप्पजंति वियंति य भावा नियमेण पज्जवनयस्स। . दव्वट्ठियस्स सव्वं अणुप्पन्नमविणटुं॥ सन्मति-प्रकरण, 1/4 / 8. निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत ।आप्तमीमांसा, श्लो. 108 / 9. . यत् सत् तत् द्रव्यं पर्यायश्च / न्याय कर्णिका 5/8 / 10. अपर्ययं वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच्चविविच्यमानम्। . अन्ययोगव्यवच्छेदिका, श्लो. 23 / 11. तत्त्व-संग्रह। 12. अवस्थितस्य द्रव्यस्य...... - पातञ्जल योग 3/13 / 13. भगवती 16/6 / , 14. आगम युग का जैन दर्शन, पृ. 53 / 15. सूत्रकृतांग 1/14/22 / / 16. जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ जे आसवा ते परिस्सवा। आचारांग 3/74, 4/12 / 17. से नूणं भंते / अथिरे प्रलोट्टई, नो थिरे पलोट्टइ? अथिरे भज्जइ, नो थिरे भज्जइ? हंता गोयमा। भगवती सूत्र 1/440 / 18. जीवाणं भंते / कि सासया? असासया? गोयमा। जीवा सिय सासया, सिय असासया। से केणखूण गोयमा। दव्वट्ठयाए सासया, भावट्ठयाए असासया। भग 7/58/59 / 19. सन्मति तर्क प्रकरण 3/48-52 / 20. जेण विणा लोगस्स.सन्मति 3/68 / 21. आप्तमीमांसा, गाथा, 23 / Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का तात्त्विक एवं तार्किक आधार यह जगत् जैसा दृष्टिगोचर हो रहा है वैसा ही है अथवा तद्भिन्न है ? इस प्रश्न के समाधान में विभिन्न दार्शनिक धाराओं का उद्भव हुआ। उन धाराओं को हम मुख्यतः दो भागों में विभाजित कर सकते हैं—प्रत्ययवाद एवं वस्तुवाद (Idealism and Realism) / ये दोनों शब्द आधुनिक दर्शनशास्त्र में प्रयुक्त होते हैं। प्राचीन भारतीय दर्शन साहित्य में ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ है। यदि इन शब्दों के प्राचीन दर्शन साहित्य में सदृश अर्थव्यञ्जक शब्द ढूंढना चाहें तो वस्तुवाद के लिए बाह्यार्थवाद एवं प्रत्ययवाद के लिए ब्रह्माद्वैत, विज्ञानाद्वैत, शून्याद्वैत एवं शब्दाद्वैत का समन्वित प्रयोग कर सकते हैं / सम्पूर्ण अद्वैतवादी अवधारणा का प्रतिनिधित्व करनेवाला प्रत्ययवाद शब्द है, ऐसा कहा जा सकता है। वस्तुवाद (Realism) . वस्तुवाद के अनुसार, सत् को बाहा, आभ्यन्तर, पारमार्थिक, व्यावहारिक, परिकल्पित, परिनिष्पन्न आदि भेदों में विभक्त नहीं किया जा सकता। सत्य, सत्य ही है, उसमें विभाग नहीं होता। प्रमाण में अवभासित होनेवाले सारे तत्त्व वास्तविक हैं तथा उन तथ्यों को वाणी के द्वारा प्रकट भी किया जा सकता है / इन्द्रिय, मन एवं अतीन्द्रियज्ञान, इन सब साधनों से ज्ञात होनेवाला प्रमेय वास्तविक है / इन साधनों से प्राप्त ज्ञान में स्पष्टता-अस्पष्टता न्यूनाधिकता हो सकती है किन्तु इनमें से किसी एक प्रकार के ज्ञान द्वारा दूसरे प्रकार के ज्ञान का अपलाप नहीं किया जा सकता। प्रत्ययवाद (Idealism) प्रत्ययवादी अवधारणा के अनुसार जो दृश्य जगत् है, वह वास्तविक नहीं हैं। पारमार्थिक सत्य इन्द्रियग्राह्य नहीं है तथा उसको वाणी के द्वारा अभिव्यक्त भी नहीं किया जा सकता' / अतीन्द्रिय चेतना के द्वारा गृहीत सूक्ष्म तत्त्व ही वास्तविक है। स्थूल जगत् की पारमार्थिक सत्ता नहीं है। भारतीय दर्शनों का विभाजन सम्पूर्ण भारतीय दर्शनों को प्रत्ययवाद एवं वस्तुवाद इन दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। जो निम्नलिखित चार्ट से स्पष्ट है Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 / आर्हती-दृष्टि भारतीय दर्शन वस्तुबाद प्रत्ययवाद जैन | पूर्वमीमांसक चार्वाक सांख्य योग ब्रह्मद्वैत बौद्ध शब्दाद्वैत (शांकर वेदान्त) ... विज्ञानाद्वैत शून्याद्वैत वेदान्त बौद्ध मध्व निम्बार्क रामानुज सौत्रान्तिक वैभाषिक प्रत्ययवादी (1) ब्रह्माद्वैत-ब्रह्माद्वैतवाद के अनुसार सम्पूर्ण विश्व ब्रह्ममय है' / यहां नानात्व नहीं है / ब्रह्म की ही वास्तविक सत्ता है / जगत् की सत्ता घ्यावहारिक है / 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' / स्वप्न मृगमरीचिका ये प्रातिभासिक सत् है। पारमार्थिक, व्यावहारिक एवं प्रातिभासिक के भेद से सत् वेदान्त में त्रिधा विभक्त हो जाता है / नित्यता ही सत्य है / परिवर्तन काल्पनिक/मिथ्या है। (2) विज्ञानाद्वैतवाद(बौद्ध) -विज्ञानाद्वैत के अनुसार दृश्य जगत् की वास्तविक सत्ता नहीं है। सम्पूर्ण विश्व विज्ञानमय है। विज्ञान ही बाह्य पदार्थ के आकार में अवभासित हो रहा हैं / वास्तव में विज्ञान एक रूप ही है। बुद्धि का न तो कोई ग्राह्य है और न कोई ग्राहक है / ग्राह्य-ग्राहक भाव से रहित बुद्धि स्वयं ही प्रकाशित होती (3) शून्याद्वैतवाद–इसका अपर नाम माध्यमिक भी है / इस दर्शन की अवधारणा के अनुसार शून्य ही परमार्थ सत् है / यहाँ शून्य का अर्थ अभाव नहीं है। किन्तु शून्य का अर्थ है तत्त्व की अवाच्यता / शून्य (तत्त्व), सत्, असत्, उभय एवं अनुभय रूप नहीं है। वह चतुष्कोटि विनिर्मुक्त हैं। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तका तात्विक एवं तार्किक आधार / 139 बौद्ध दर्शन में भी संवृत्ति सत् एवं परमार्थ सत् के भेद से सत् को द्विधा विभक्त स्वीकार किया है / भगवान् बुद्ध ने इन दो सत्यों का आश्रय लेकर ही धर्म की देशना प्रदान की थी। परिकल्पित, परतन्त्र एवं परिनिष्पत्र के रूप में सत् तीन प्रकार का बौद्ध दर्शन में प्रज्ञप्त है / इन तीनों में परिनिष्पन्न ही मास्मार्थिक/वास्तविक सत् है / अवशिष्ट दो सत् तो मात्र व्यवहार के संचालन के लिए स्वीकृत है। माध्यमिक संवृत्ति सत् एवं परमार्थ सत् को स्वीकार करते हैं। योगाचार/विज्ञानवादी सत् को परिकल्पित, परतन्त्र एवं परिनिष्पन्न कहते हैं। बौद्ध दर्शन की दो विचारधाराएं-विज्ञानवाद एवं शून्याद्वैतवाद प्रत्ययवादी हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ये दार्शनिक स्थूल जगत् की सत्ता को संवृत्ति/परिकल्पित या परतन्त्र कहकर वास्तविक की कोटि में उसे परिगणित नहीं करते हैं / अपितु इस जगत् से भिन्न शून्य अथवा विज्ञान ही इनके विचार में पारमार्थिक सत् है। यही प्रत्ययवाद की अवधारणा का मूल आधार है / सम्पूर्ण प्रत्ययवादी विचारधारा में भले ही वह वेदान्त आधारित है अथवा बौद्ध दर्शन सम्मत उसमें तत्त्व का अद्वैत है, तत्त्व का अद्वैत ही प्रत्ययवाद का आधार है। वस्तुवादी विचारक (1) चार्वाक्-चार्वाक् दर्शन पांच या चार भूतों की ही वास्तविक सत्ता स्वीकार करता है / चेतना चार भूतों के विशिष्ट प्रकार के सम्मिश्रण से उत्पन्न होती है / इन्द्रिय ज्ञान ही वास्तविक है / इन्द्रिय प्रत्यक्ष से प्राप्त प्रमेय को ही यह वास्तविक मानता है। भारतीय दर्शन में यही एक ऐसा दर्शन है जो सूक्ष्म, इन्द्रिय ज्ञान से परे के तत्त्वों को स्वीकार नहीं करता। (2) वैभाषिक (बौद्ध)-इनके अनुसार बाह्य पदार्थ की वास्तविक सत्ता है। ये बाह्य तथा आभ्यन्तर समस्त धर्मों के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। वैभाषिक के अनुसार बाह्य जगत् हमारे प्रत्यक्ष का विषय बन सकता है। (3) सौत्रान्तिक बौद्धों की यह विचारधारा भी बाह्य अर्थ की वास्तविक सत्ता स्वीकार करती है। इनके अनुसार पदार्थ का ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं होता। वह अनुमान गम्य है। सांख्ययोग यह दर्शन भी वस्तुवादी है। इसके अनुसार प्रकृति और पुरुष ये दो मूल तत्त्व हैं। प्रकृति त्रिगुणात्मिका है। प्रकृति सम्पूर्ण बाह्य जगत् का मूल कारण है। प्रकृति से Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 / आर्हती-दृष्टि महत् आदि 23 तत्त्वों की उत्पत्ति होती है। पुरुष सहित यह दर्शन 25 तत्त्वों को स्वीकार करता है। सांख्य का पुरुष, अमूर्त, चेतन एवं निष्क्रिय है / विश्व के निर्माण, संचालन में इसकी कोई सम्भागिता नहीं है। ___न्याय-वैशेषिक न्यायदर्शन प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह तत्त्वों को स्वीकार करता है तथा इन तत्त्वों के ज्ञान से ही मुक्ति होती है" / वैशेषिक द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष एवं समवाय-ये छह: पदार्थ मानता है / बाह्य जगत् की वास्तविक सत्ता है। बाह्य जगत् के उपादान कारण परमाणु है / ईश्वर जगत् का निर्माता है / जगत् संरचना का निमित्त कारण है। पूर्वमीमांसा-कुमारिल भट्ट एवं प्रभाकर की ये दो पूर्वमीमांसीय परम्पराएँ हैं। दोनों ही वस्तुवादी हैं। प्रभाकर द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, परतन्त्रता, शक्ति, सादृश्य और संख्या नाम वाले 8 पदार्थ स्वीकार करते हैं। भाट्ट परम्परा में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और अभाव ये पाँच पदार्थ स्वीकृत हैं। : जैन जैन दर्शन के अनुसार जीव और अजीव ये दो मूल तत्त्व हैं। इनके विस्तार से तत्त्वों की संख्या नौ हो जाती है / उपर्युक्त वर्णित सारे दर्शन वस्तुवादी हैं / ये बाह्य पदार्थ की वास्तविक सत्ता स्वीकार करते हैं। प्रत्ययवादी अन्रंग जगत् को स्वीकार कर बाह्य का निषेध कर देता है। जैन दर्शन की प्रकृति अनेकान्तवादी है। अनेकान्त अपनी प्रकृति के अनुसार बाह्य एवं अन्तर जगत् को स्वीकृति प्रदान करता है। 'जैन दर्शन प्रकृति से अनेकान्तवादी होते हुए भी एकान्ततः वस्तुवादी है। ऐसा पण्डित सुखलाल जी का मन्तव्य है। किन्तु जैन दर्शन की अनेकान्तवादी प्रकृति होने के कारण प्रत्ययवादी एवं वस्तुवादी इन दोनों धाराओं में समन्वय करने में उसे कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। आगमकाल से लेकर अद्यप्रभृति जैन विचारकों के विचारों से भी हमारे इस मंतव्य की पुष्टि हो रही है। . आचारांग जो ऐतिहासिक एवं कालक्रम से भी सबसे प्राचीन आगम है, उस आगम के अनेक स्थलों पर प्रत्ययवाद की अनुगूंज स्पष्ट सुनाई पड़ रही है। परमात्म स्वरूप के विश्लेषण में आचारांग घोषणा कर रहा है कि परमात्मा शब्द का विषय नहीं बन सकता। सारे स्वर वहाँ से लौट आते हैं। परमात्मा न तर्कगम्य है न ही बुद्धि ग्राह्य है / उसका बोध करने के लिए कोई उपमा नहीं है / पुरुष ! जिसको तू मारना चाहता है, वह तू ही है / तुम्हारे से भिन्न दूसरा कोई नहीं है। ‘एगे आया“ ठाणं सूत्र का यह वक्तव्य भी हमारा ध्यान ब्रह्माद्वैतवाद की तरफ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का तात्त्विक एवं तार्किक आधार / 141 आकर्षित करता है। जैन की विचार सरणी नयात्मक है अतः संग्रह नय की दृष्टि से आत्मा के एकत्व की स्वीकृति है। जैन दृष्टि के अनुसार उपयोग सब आत्माओं का सदृश लक्षण है अतः उपयोग की दृष्टि से आत्मा एक है। निश्चय नय के पुरस्कर्ता आचार्य कुन्दकुन्द ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि केवल ज्ञानी सब कुछ जानता है, यह व्यवहार नय की वक्तव्यता है / निश्चय नय से तो केवलज्ञानी केवल अपनी आत्मा को ही जानते हैं। समयसार की आत्मख्याति टीका के रचनाकार ने तो यहां तक कह दिया है कि आत्मा का अनुभव हो जाने पर द्वैत दृष्टिपथ में ही नहीं आता है / भगवान् महावीर के उत्तरकाल में भी आत्मतत्त्व का एकत्व एवं नानात्व प्रतिपादित होता रहा है। आचार्य अकलंक ने नाना ज्ञान स्वभाव की दृष्टि से आत्मा की अनेकता और चैतन्य के एक स्वभाव की दृष्टि से उसकी एकता का प्रतिपादन किया है। ठाणं सूत्र केभाष्य में अपने मंतव्य को प्रस्तुत करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा-'जैन दर्शन अनेकान्तवादी है, इसलिए वह केवल द्वैतवादी नहीं है, वह अद्वैतवादी भी है। उसकी दृष्टि में केवल द्वैत और केवल अद्वैतवाद की संगति नहीं है। इन दोनों की सापेक्ष संगति है२ / ' जैन संग्रह नय की पद्धति से संश्लेषण करते-करते 'विश्वमेकं सतो विशेषात्' की स्थिति पर पहुंच जाता है तथा पर्यायार्थिक नय से विश्लेषण करते-करते अन्तिम भेद तक पहुंच जाता है / जैन दर्शन के अनुसार द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक दोनों ही नय सत्य है / नयों की सापेक्ष विचारधारा से ही. जैन दर्शन में वस्तु की व्यवस्था की गयी है। संग्रह नय की दृष्टि से जैन का प्रत्ययवादी होना असंगत नहीं है किन्तु उसका यह कथन निरपेक्ष नहीं है। इन दोनों विरोधी विचारधाराओं का सापेक्ष अस्तित्व उसे मान्य है अतः जैन को निर्विवाद रूप से प्रत्ययवादी + वस्तुवादी माना जा सकता है। . भारतीय दर्शनों की प्रमुख विचारधाराओं का समावेश प्रत्ययवाद एवं वस्तुवाद में हो जाता है। वैसे ही कुछ अन्य चिन्तकों ने उसे नित्य-अनित्य, भेद-अभेद आदि विभागों में समाहित किया है। मूर्धन्य जैन विद्वान् पण्डित सुखलाल जी ने नित्य एवं अनित्य इन दो अवधारणाओं को पांच भागों में विभक्त करके इनमें सभी प्रमुख भारतीय दर्शनों को समाविष्ट किया है। उनके मतानुसार ये पाँच विभाग निम्नलिखित है" (All) Philosophical systems can broadly be divided into five classes, viz. (1). Doctrine of absolute permanence [Kevel nityatvavad), (2) Doctrine of absolute change (Keval antiyatvavada), Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 // अनि दृष्टि (3) Doctrine of changing permanent [Pasitansi minyatva vadal, (4) Doctrine of the changing and the permanent [nitya-nitya ubyavada) and (5) Doctrine of permanence coupled with change {nitya-nitya tmakavada]. . पं सुखलाल जी के अनुसार ब्रह्मवादी वेदान्त प्रथम विभाग में बौद्ध द्वितीय सांख्य तृतीय न्याय वैशेषिक चतुर्थ एवं जैन पाँचवें विभाग के अन्तर्गत आते हैं। भारतीय दर्शनों का ऐसा ही विभाग Jain Theories of Reality and Knowledge में Dr. YJ. Padmarajaih ने किया है। उन्होंने नित्य-अनित्य के स्थान पर अभेद एवं भेद शब्द का प्रयोग किया है In surveying the field of Indian Philosophy from the point of view of the problem of the nature of reality, We may adopt, as our guiding principal the following five-fold, classification which includes, within its scope, the different schools of philosophical thought in term of their adherence to 'identity' alone, or to 'difference' alone, or to both in unequal or equal proportion. डॉ. रज्जैया ने सुखलाल जी के विभाग को ही स्वीकृत किया है / इन्होंने भर्तृप्रपञ्च, भास्कर, यादव, रामानुज और निम्बार्क दर्शन का समाहार तृतीय विभाग में तथा मध्य के द्वैतवाद को चतुर्थ विभाग में रखा है। इन दोनों विद्वानों ने पूर्व मीमांसा दर्शन का स्पष्ट रूप से किसी विभाग में समावेश नहीं किया है। पूर्व मीमांसा के प्रमेय विवेचन का अध्ययन करने से प्रतीत होता है उसकी प्रमेय मीमांसा जैन वस्तुवाद के सदृश है। पूर्व मीमांसक भी वस्तु को उत्पाद व्यय एवं धोव्य युक्त त्रयात्मक स्वीकार करता है। वस्तु की त्रयात्मकता की सिद्धि में वह वर्धमान, रुचक एवं स्वर्ण का उदाहरण भी प्रस्तुत करता है / जैन दार्शनिकों ने भी वस्तु की त्रयात्मकता की सिद्धि में शब्दभेद मात्र से यही उदाहरण प्रस्तुत किया है जो श्लोकवार्तिक के सन्दर्भ में विमर्शनीय है। श्लोकवार्तिक में वस्तु को अनेकान्तात्मक कहा है / जैन चिन्तक भी वस्तु को अनेकान्तात्मक कहते हैं। उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर पूर्व मीमांसा को पांचवें विभाग में समाहित किया जा सकता है। यद्यपि पं. सुखलाल जी का मंतव्य है कि पूर्व मीमांसा का Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवात का तात्विक एवं तार्षिक आर / 143 उत्पाद-स्थिति-भंमवाद चेतन का स्पर्श करता हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। इस अवधारणा को यदि स्वीकार किया जाये तो इस दर्शन का अन्तर्भाव सांख्य वाले तीसरे विधाम में होता है / किन्तु उपलब्ध तथ्यों में पूर्व मीमांसा के अनुसार चेतन में परिणाम नहीं होता है, ऐसा उल्लेख प्राप्त नहीं होता अपितु श्लोकवार्तिक में स्वर्ण की अवस्थाओं में भेद की तरह पुरुष की अवस्थाओं में भिन्नता का उल्लेख किया गया है। -मीमांसा श्लोककार्तिक की व्याख्या में दुर्गाधर झा ने लिखा है, 'अनित्यता दो प्रकार की होती है—) विकार स्वरूप एवं (2) स्वरूपोच्छेद स्वरूप / आत्मा में इनमें से प्रथम प्रकार की अनित्यता को स्वीकार करते हैं क्योंकि (आत्मा) पूर्व की अपनी उदासीलावस्था को छोड़कर ही कर्तृत्वावस्था और भोक्तृत्वास्था को प्राप्त होत है। किन्तु उस समय भी उसके स्वरूप का उच्छेद नहीं होता, क्योंकि प्रत्यभिज्ञानी रहती है। अतः आत्मा को विकारी रूप अनित्य तो मानते हैं, किन्तु विनाशी स्वरूप अनित्य नहीं मानते।' 'आत्मा न अपनी अवस्थाओं से सर्वथा भित्र ही है, न सर्वथा अभिन्न ही। कथञ्चिद् भिन्न भी है, कवञ्चिद् अभिन्न भी। जैसे कुण्डल स्वर्ण से न सर्वथा मित्र होता है न / सर्वथा अभिन्न ही। इससे ज्ञात होता है कि चेतन में परिणमन हो रहा है अतः इस दर्शन का समावेश पंचम विभाग में करना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सभी भारतीय पाश्चात्य दर्शनों का वर्गीकरण नित्य-अनित्य, अभेद-भेद आदि की तरह ही वस्तु के अन्य धर्म सामान्य-विशेष, एक अनेक, द्रव्य-पर्याय आदि के आधार पर भी किया जा सकता है। जैनदर्शन में वस्तु का स्वरूप ___ अद्वैत वेदान्त ने द्रव्य को पारमार्थिक सत्य मानकर पर्याय को काल्पनिक कहकर उसके अस्तित्व को ही नकार दिया। बौद्धों ने पर्याय को पारमार्थिक सत्य मानकर द्रव्य को काल्पनिक मान लिया / जैन न्याय के अनुसार द्रव्य और पर्याय दोनों पारमार्थिक सत्य हैं। हमारा ज्ञान जब संश्लेषणात्मक होता है तब द्रव्य उपस्थित रहता है और पर्याय गौण हो जाता है और जब ज्ञान विश्लेषणात्मक होता है तब पर्याय प्रधान एवं द्रव्य गौण हो जाता है" / जैन दर्शन के अनुसार वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है। वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। सामान्य एवं विशेष का परस्पर अविनाभाव है। ये एक-दूसरे के बिना रह नहीं सकते अर्थात् एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व हो ही नहीं सकता। विशेष से रहित सामान्य एवं सामान्य से रहित विशेष शशविषाण Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 / आर्हती-दृष्टि की तरह अयथार्थ है" / सामान्य विशेष का सह-अस्तित्व है / ये एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते / इसका तात्पर्य यह हुआ कि पर्याय रहित द्रव्य एवं द्रव्य रहित पर्याय सत्य नहीं है। अनेकान्त का तात्त्विक आधार वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं, यह महत्त्वपूर्ण स्वीकृति नहीं है। किन्तु जैन दर्शन का यह महत्त्वपूर्ण अभ्युपगम है कि एक ही वस्तु में एक ही काल में अनन्त विरोधी धर्म युगपत् रहते हैं / अनेकान्त सिद्धान्त के उत्थान का आधार एक ही वस्तु में युगपत् विरोधी धर्मों के सहावस्थान की स्वीकृति है। वस्तु का द्रव्यपर्यायात्मक स्वरूप ही अनेकान्त के उद्भव का मूल स्रोत है / यदि वस्तु विरोधी धर्मों की समन्विति नहीं होती तो अनेकान्त की भी कोई अपेक्षा नहीं होती चूंकि वस्तु वैसी है अतः अनेकान्त की अनिवार्य अपेक्षा है। अनेकान्त के उद्भव का मूल स्रोत वस्तु की विरोधी अनन्त धर्मात्मकता ही है। सत् की परिभाषा . भगवती सूत्र में भगवान् महावीर ने कहा जो उत्पन्न, नष्ट एवं स्थिर रहता है वही तत्त्व है"। आचार्य उमास्वाति के शब्दों में भी यह ही सत्य अनुगूजित है। उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्" / सत् अनेक धर्मों का समुदायमात्र नहीं है किन्तु परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले अनेक धर्मों का आधार है। अनेकान्त उस वस्तु की व्याख्या करता है। . आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार एक ही वस्तु सत्, असत्, एक, अनेक, नित्य, अनित्य स्वभाववाली है, ऐसी एक ही वस्तु के वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरोधी शक्तियुक्त धर्मों को प्रकाशित करनेवाला अनेकान्त है" / वस्तु सत् ही है, असत् ही है। इस प्रकार के एकान्तवाद को निरसित करनेवाला अनेकान्त है / ऐसा आचार्य अकलंक का मंतव्य है। वस्तु का लक्षण अर्थ क्रिया कारित्व एकान्त द्रव्यवाद, एकान्त पर्यायवाद एवं निरपेक्ष द्रव्य एवं पर्यायवाद के आधार पर वस्तु की व्यवस्था नहीं हो सकती क्योंकि एकान्त एवं निरपेक्ष द्रव्य या पर्याय में अर्थक्रिया ही नहीं हो सकती और वस्तु का लक्षण अर्थक्रिया है" / जब क्रम या अक्रम से वस्तु में अर्थक्रिया घटित ही नहीं हो सकती" तब उस वस्तु का अस्तित्व ही नहीं हो सकता। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का तात्त्विक एवं तार्किक आधार | 145 जैनदर्शन के अनुसार वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है। इस प्रसंग में अन्य दार्शनिकों का आक्षेप है कि जो दोष एकान्त नित्यपक्ष अथवा क्षणिक पक्ष में उपस्थित होते हैं वे ही दोष द्विगुणित होकर जैन वस्तुवाद पर क्यों नहीं आते ? जैन इस तर्क का समाधान करते हुये कहता है यदि जैन मान्य वस्तु का स्वरूप कोरा उभयरूप होता तो इन दोषों का अवकाश वहां हो सकता था किन्तु जैन की वस्तु न द्रव्य रूप है न पर्यायरूप एवं नहीं उभयरूप है वह तो नित्य-नित्यात्मक स्वरूप जात्यन्तर है / एक नई प्रकार की वस्तु की स्वीकृति जैन में है / अतः जैन वस्तुवाद पर किसी प्रकार का दोष उपस्थित नहीं हो सकता। ____धवलाकार ने तो अनेकान्त को ही जात्यन्तर कहा है" / वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। इसका तात्पर्य मात्र इतना ही नहीं है कि वस्तु में सामान्य एवं विशेष नामक विरोधी धर्म एक साथ रहते हैं। अपितु इस कथन का ऐदम्पर्यार्थ यह है कि ये विरोधी धर्म एकरसीभूत अर्थात् एकात्मक रूप में रहते हैं। एक नई ही वस्तु जात्यन्तर के रूप में जैन को मान्य है। Neither the pure identity view nor the pure difference view nor even the composite view of identity and difference but only an integral view of identity in difference offers an adequate definition of reality. Jaina regards every real as not merely an indissoluble union of identity in difference but also this is the matter of immediate concern as something sui generis." (Jatyantara) . जैनदर्शन में द्रव्य पर्यायात्मक एक नई जात्यन्तर वस्तु स्वीकृत है अतः उस पर एकान्त नित्य एवं अनित्य एवं निरपेक्ष नित्य, अनित्य पर लगनेवाले दोषों की उद्भावना ही नहीं हो सकती। जैनाचार्यों ने अपने तर्क की पुष्टि में गुड़ और सोंठ का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है / जैसे-गुड़ एवं सोंठ क्रमशः कफ एवं पित्त के कारण होते हैं किन्तु उन दोनों के सम्मिश्रण से बनी हुई वस्तु उन दोषों की शामक हो जाती है। ____ जैनदर्शन के अनुसार पदार्थ में वस्तुगत भेद नहीं है / उसमें मात्र ज्ञानगत भेद है। अनुगत आकार वाली बुद्धि सामान्य एवं व्यावृत्त आकारवाली बुद्धि विशेष का बोध कराती है / बुद्धि से ही वस्तु की द्वयात्मकता सिद्ध होती है / सामान्य विशेषात्म स्वरूपवाला प्रमेय तो एक ही है / वस्तु में कोई विभाग नहीं होता / वह अभिन्न है। ज्ञान से वह द्विधा विभक्त है तथा नय से उसका कथन होता है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 / आर्हती-दृष्टि जैनदर्शन के अनुसार प्रमेय का स्वरूप ही द्वन्द्वात्मक है किन्तु उसको विभक्त नहीं किया जा सकता। वस्तु में रहनेवाले विरोधी धर्म युगपत्, एकदा एवं एकात्म होकर ही वस्तु के अस्तित्व को बनाये रखते हैं। मीमांसा दर्शन में वस्तु को उत्पाद भंग स्थिति लक्षण त्रयात्मक स्वीकार किया है। उनके अनुसार वस्तु अनेकान्तात्मक है जिसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। ___आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों में Hegal द्वारा मान्य वस्तु की अवधारणा जैन वस्तुवाद के बहुत समीप प्रतीत होती है "Substantiality and relativity are" says Caird, describing Hegel's Philosophy, "thus seen to be not two ideas, but one, and the truth is to be found not in either separately but in their union; which means that nothing can be said to be substantial in the sense of having existence independent of relation, but only in the sense of including its relativity in its own being." "Neither Being alone nor 'Non-Being' alone, but 'Determinate Being', the union of the two constitutes reality." हीगल के अनुसार अस्तित्व एवं नास्तित्व दोनों साथ मिलकर ही वस्तु के स्वरूप का निर्माण करते हैं। अनेकान्त का तार्किक आधार . अविनाभाव हेतु जैनदर्शन के अनुसार वस्तु के स्वरूप में विरोधी धर्मों की सहअवस्थिति है, यह स्पष्ट हो चुका है / वैचारिक जगत् की यह सामान्य अवधारणा है कि दो विरोधी धर्म एकत्र नहीं रह सकते। अस्तित्व-नास्तित्व परस्पर विरोधी है। अतः उनका सहावस्थान सम्भव नहीं है। इसके विपरीत जैन दर्शन के अनुसार विरोधी धर्मों के सहावस्थान से ही वस्तु का वस्तुत्व बना हुआ है। द्रव्य का द्रव्यत्व बनाये रखने के लिए विरोधी धर्मों का सहभाव होना अत्यन्त अपेक्षित है। अस्ति नास्ति का परस्पर अविनाभाव है। ये एक-दूसरे के अभाव में नहीं रह सकते / आचार्य समन्तभद्र ने इनके अविनाभाव का निरूपण करते हुए कहा है कि एक ही वस्तु के विशेषण होने से अस्तित्व, नास्तित्व का एवं नास्तित्व अस्तित्व का अविनाभावी है। जैसे साधर्म्य एवं - अविनाभाव होता है वैसा ही परस्पर इनमें है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का तात्त्विक एवं तार्किक आधार / 147 विवक्षा हेतु . प्रधानता एवं गौणता से एक ही वस्तु में विरोधी धर्मों की सहावस्थिति युक्तिसंगत हैं / वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। उसके प्रत्येक धर्म का अर्थ भिन्न है ।वस्तु के धर्मों में स्वत:प्रधानता एवं गौणता नहीं होती किन्तु वक्ता की विवक्षा से वे धर्म प्रधान या गौण बन जाते हैं / वस्तु का प्रत्येक धर्म अन्य धर्मों को गौण करके सम्पूर्ण सत्ता को . प्रतिपादित कर सकता है। जिस धर्म की विवक्षा होती है वह प्रधान एवं शेष धर्म उसके अंग बन जाते हैं। स्वचतुष्ट्य परचतुष्ट्य . . अस्तित्व विधि है और नास्तित्व प्रतिषेध है / अस्तित्व का हेतु वस्तु का स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव है एवं नास्तित्व का हेतु परद्रव्य क्षेत्र आदि है। घटपदार्थ स्व द्रव्य क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा अस्तिरूप एवं परद्रव्यक्षेत्र आदि की अपेक्षा नास्ति रूप है / यदि ऐसा स्वीकार न किया जाये तो वस्तु की व्यवस्था ही नहीं हो सकती। वस्तु स्वरूपशून्य नहीं है इसलिए विधि की प्रधानता से उसका प्रतिपादन किया जाता है और वह सर्वात्मक नहीं है इसलिए निषेध की प्रधानता से उसका प्रतिपादन किया जाता है / स्वद्रव्य की अपेक्षा घट का अस्तित्व है / यह विधि है / पर द्रव्य की अपेक्षा घट का नास्तित्व है / यह निषेध है। इसका अर्थ ऐसा अभिव्यञ्जित होता है कि निषेध दूसरे के निमित्त से होनेवाला पर्याय है किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है / निषेध की शक्ति द्रव्य में निहित है। द्रव्य यदि अस्तित्व धर्मा हो और नास्तित्व धर्मा न हो तो वह अपने द्रव्यत्व को बनाए नहीं रख सकता। निषेध पर की अपेक्षा से व्यवहृत होता है. इसलिए उसे आपेक्षिक या पर-निमित्तक पर्याय कहते हैं / घट सापेक्ष है अतः उसका अस्तित्व एवं नास्तित्व युगपत् हैं"। विरोध का समाहार ___ अस्तित्वं-नास्तित्व विरोधी होते हुए भी एक ही वस्तु में अविनाभाव से युगपत् रहते हैं / एकान्त अस्तिवादी एवं एकान्त नास्तिवादी दर्शनों का मन्तव्य है कि ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते / यद्यपि अनुभवगोचर वस्तु का स्वरूप उन्हें भी उभयात्मक ही प्रतीत होता है किन्तु वे वस्तु की व्यवस्था a priori logic (अनुभव निरपेक्ष तर्क) से करते हैं। अनुभव निरपेक्ष तर्क का मन्तव्य है कि जहां अस्तित्व है वहां नास्तित्व एवं जहां नास्तित्व रहता है वहां अस्तित्व नहीं रह सकता / पदार्थ में अनुभव के द्वारा . दोनों की एक साथ प्रतीति होने पर भी वे एक को मिथ्या कहकर अस्वीकार कर देते / हैं / वेदान्त अस्तित्व को एवं बौद्ध नास्तित्व को यथार्थ स्वीकार करते हैं। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 / आर्हती-दृष्टि अनेकान्त सिद्धान्त की जैनेतर ग्रन्थों में विरोधी धर्मों के सहावस्थान के कारण ही समीक्षा हुई है। अनेकान्त की समीक्षा बादरायणकृत ब्रह्मसूत्र में 'नैकस्मिन्नसम्भवात् कहकर की गयी है अर्थात् एक ही वस्तु में विरोधी धर्मों का सहावस्थान सम्भव नहीं है / अतः अनेकान्त सिद्धान्त दोषमुक्त नहीं है / ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार ने भी एक ही धर्मी में युगपत् विरोधी धर्मों के अवस्थान को असम्भव बताया है / बौद्ध विद्वान् कमलशील ने भी इसी तर्क के आधार पर एकत्र विरोधी धर्मों के अवस्थान को अस्वीकार किया है। और इसी कारण उनको अनेकान्त सिद्धान्त संगत प्रतीत नहीं हो रहा है। ये दोनों ही विद्वान् a priori logic के समर्थक हैं। - जैन तार्किकों का मन्तव्य है कि वस्तु स्वरूप का निर्णय अनुभव निरपेक्ष तर्क से नहीं हो सकता। उसका निर्णय अनुभव के द्वारा ही हो सकता है। अनुभव में वस्तु का स्वरूप उभयात्मक प्रतिभासित होता है। हमें तर्क के आधार पर वस्तु के स्वरूप का अपलाप नहीं करना चाहिए किन्तु अनुभव से प्राप्त तथ्यों को तर्क के द्वारा व्यवस्थित करना ही औचित्यपूर्ण है। जैन तार्किकों का यह भी मंतव्य है कि वस्तु को अभेदमात्र अथवा भेदमात्र माननेवालों को भी प्रतीति (अनुभव) को तो अवश्य स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वस्तु की व्यवस्था प्रतीति के द्वारा ही होती है / नील पीत आदि पदार्थों की व्यवस्था संवेदन के द्वारा ही होती है अतः विरोध में भी संवेदन ही प्रमाण है / अर्थात् अनुभव के द्वारा अस्ति-नास्ति विरोधी धर्म एक ही वस्तु में रहते हैं / यह यथार्थ है / घट, मुकुट एवं स्वर्ण में भेद को अवभासित करनेवाला ज्ञान स्पष्ट रूप से हो रहा है। वस्तु की व्यवस्था संवेदनाधीन ही है / इसमें विरोध की गंध का भी अवकाश नहीं है। मीमांसा दर्शन में भी वस्तु व्यवस्था में अनुभव को ही प्रमाण माना है। शबर भाष्य में स्पष्टरूप से कहा गया है जब तर्क एवं पदार्थ के अनुभव में किसी एक का त्याग करना हो तो तर्क का ही त्याग करना चाहिए किन्तु जो प्रत्यक्ष से वस्तु दृष्टिगोचर हो रही है उसका अपह्नव करना संगत नहीं है। प्रत्ययवादी दार्शनिकों का यह अभ्युपगम विचारणीय है कि भेद और अभेद परस्पर एक-दूसरे का परिहार करके ही वस्तु में रहते हैं अतः इन दोनों में कोई एक ही वस्तु में रह सकता है / अस्तित्व-नास्तित्व एक साथ वस्तु में रहते हुए स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं / अतः प्रत्ययवादी दार्शनिकों का अभ्युपगम यथार्थ से परे है / यदि यह कहा जाये कि उनमें परस्पर विरोध है अतः वे साथ में नहीं रहते यह कथन भी तर्कपूर्ण नहीं है क्योंकि विरोध अभाव के द्वारा साध्य होता है" / अनुपलब्धि हेतु से घोड़े के सिर Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का तात्त्विक एवं तार्किक आधार | 149 पर सींग नहीं है यह माना जा सकता है किन्तु जो उपलब्ध हो रहा है उसका अभाव कैसे माना जा सकता है? पदार्थ में अस्तित्व एवं नास्तित्व का सह-उपलम्भ हो रहा है। तब उनका निषेध नहीं किया जा सकता। वस्तु के स्वरूप में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। - वस्तु सामान्य-विशेषात्मक होती है / इस प्रकार का वस्तु का मिश्रित स्वरूप जैन के अतिरिक्त नैयायिक, सांख्य एवं मीमांसक ने भी स्वीकार किया है। किन्तु इस तात्त्विक सिद्धान्त के तार्किक पक्ष का विस्तार केवल जैनों ने ही किया है जिसके परिणामस्वरूप विचार के नियमों के मूल्यांकन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। ___ जैन तार्किकों ने दृढ़ता के साथ अपने मंतव्य को प्रस्तुत करते हुए कहा-वस्तु के स्वभाव का निर्णय केवल मात्र अनुभव से ही हो सकता है। अनुभव निरपेक्ष तर्क वस्तु स्वरूप के निर्णय का साधन नहीं हो सकती। यद्यपि जैन के अनुभव का क्षेत्र विस्तृत है वह तर्क, स्मृति आदि को भी अनुभव में ही समाहित करता है। - डॉ. सतकोड़ी मुखर्जी ने परम्परागत प्रस्थानों में स्वीकृत विचार के नियमों को जैन वस्तुवाद के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है, जो निश्चित रूप से मननीय है / परम्परागत.. . प्रस्थानों में विचार के तीन नियम प्रचलित हैं- (1) Law of Identity. A is A (तादात्मय का नियम जो है सो है) ... (2).Law of Contradicition. (विरोध का नियम / ) . Acannot both be and not be. (कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जो हो भी और नहीं भी हो।) ... (3) Law of excluded middle. (मध्य व्यावर्तक नियम / ) A must bex or not X. (प्रत्येक पदार्थ या है या नहीं है।) विरोध के नियम का वक्तव्य निषेधात्मक होता है, वह यह बताने में असमर्थ है कि वस्तु क्या है ? जबकि मध्य व्यावर्तक वस्तु कैसी है ? यह बताता है। . . विचार के ये नियम सत्य हैं किन्तु जब तक इनके साथ आवश्यक शर्ते न जोड़ी बायें तब तक ये वास्तविक तथ्यों का विशुद्ध रूप से प्रतिपादन करने में असमर्थ हैं। बैन इन नियमों की अनुभव निरपेक्षता पर विश्वास नहीं करता। अनुभव निरपेक्ष तर्क पर आधारित विचार के नियम तथ्यों का ज्ञान कराने में भ्रामक होते हैं। अनुभवगम्य मथ्यों के परीक्षण से पदार्थ का स्वरूप परिवर्तनशील प्रतीत होता है तथा जैन का यह गंतव्य है कि विचार के इन नियमों को वस्तु के परिवर्तन एवं उसके अन्य पक्षों से . सामञ्जस्य रखना चाहिए। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 / आर्हती-दृष्टि .. A priori logic' पर आधारित 'अ अ है' तादात्म्य का यह नियम वस्तु स्वरूप का निर्णय नहीं कर सकता / अपितु इसका वक्तव्य वस्तु स्वरूप को अन्यथा रूप में प्रस्तुत करता है। In its bare form Ais A, the law does not possess any significance and is apparently nothing more than tautology. If, however, it is taken to express the mere identity of the subject and the predicate, it goes only half way towards the acquisition of meaning, because it leaves out the difference without which the identity is unmeanings. __ अ, अ है / तादात्म्य का यह नियम प्रतीकवाद के दोष से दूषित है ज्योंही हम प्रतीक के स्थान पर किसी वास्तविक पदार्थ को स्थापित करते हैं तब यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। लेखनी लेखनी है' यह तादात्म्य का नियम है किन्तु हम देखते हैं कि लेखनी में प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है / जब यह कारखाने से बनकर आयी थी, तब नई थी, अब पुरानी हो गयी है। नई-पुरानी लेखनी नितान्त एक नहीं हो सकती। लेखनी बनने से पूर्व एवं लेखनी के टूट जाने के बाद, यह लेखनी नहीं रहेगी। अतः '. तादात्म्य का नियम सशर्त ही सत्य हो सकता है। . . In the language of Jaina Philosopher, the above form can be expressed as 'In one particular aspect A is a. The law of identity thus becomes significant if interpreted in the light of syadavada." (स्याद्वाद) लेखनी अपने स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा लेखनी ही है। स्वचतुष्ट्य के नियम के साथ ही तादात्म्य का नियम वस्तु स्वरूप की व्याख्या के क्षेत्र में यथार्थ हो सकता है। विरोध एवं मध्य व्यावर्तक नियम के सन्दर्भ में भी यही शर्त लागू होती है। विरोध के नियम के अनुसार एक वस्तु है और नहीं, दोनों नहीं हो सकती। किन्तु विश्लेषण करने पर ज्ञात हो जाता है कि अपेक्षा भेद से विरोधी धर्म भी एक साथ घटित होते हैं। अस्तित्व, नास्तित्व, अपेक्षाभेद से एक ही धर्मी में रहते हैं। लेखनी लेखनीत्वेनं अस्तिरूप है किन्तु अलेखनीत्वेन अस्ति रूप नहीं है अतः विरोध के नियम की प्रामाणिकता भी सशर्त है अर्थात् लेखनी अपने स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव की अपेक्षा है और नहीं दोनों नहीं हो सकती यह सत्य है किन्तु पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का तात्त्विक एवं तार्किक आधार / 151 की अपेक्षा तो नास्ति रूप ही है। यही शर्त मध्य व्यावर्तक नियम के सन्दर्भ में है। ___ अनुभव निरपेक्ष तर्क के आधार पर विचार के नियमों की व्याख्या करनेवालों को भी मध्य व्यावर्तक नियम के सन्दर्भ में अनुभव का उपयोग करना ही होगा। 'घोड़ा या तो लाल है या लाल नहीं है' इसकी प्रामाणिकता निःसन्देह अनुभव से ही जानी जा सकती है। .. अस्तित्व एवं नास्तित्व दोनों एक साथ नहीं रह सकते यह वैचारिक स्तर पर माना जा सकता है किन्तु वस्तु जगत् में मात्र अस्तित्वयुक्त अथवा मात्र नास्तित्वयुक्त कोई भी वस्तु नहीं है / वस्तु में अस्तित्व एवं नास्तित्व युगपत् है / जैन के अनुसार विचार के नियम तब ही सत्य एवं प्रामाणिक हो सकते हैं, यदि वे वस्तु के नियम हों। यदि वे मात्र तर्क के नियम हैं तो वस्तुबोध में उनकी प्रामाणिकता नहीं हो सकती। - यदि निरपेक्ष तर्क से वस्तु का स्वरूप जाना जाता तो वेदान्त और बौद्ध जो निखालिस तर्क के आधार पर चलते हैं, उनके वस्तु के सन्दर्भ में एक जैसे विचार होने चाहिए थे किन्तु उन दोनों के वस्तु के सम्बन्ध में परस्पर सर्वथा विरोधी विचार अन्य दर्शनों में एकत्र विरोध की स्वीकृति _ अन्य एकान्तवादी दर्शनों में अनेक स्थलों पर एकत्र विरोधी धर्मों का स्वीकार हुआ है। ऋग्वेद का नासदीय सूत्र इसका प्रमाण है / उस समय न असत् था न सत् था। इसकी व्याख्या में भाष्यकार सायण यह कहते हुए भी कि सत्, असत् परस्पर विरोधी हैं फिर भी उनका एकत्र सहावस्थान स्वीकार करते हैं / उपनिषदों में अनेक स्थलों पर ब्रह्म में विरोधी धर्मों को स्वीकार किया है। कठोपनिषद् में कहा गया है-'बैठा हुआ दूर चला जाता है, सोया हुआ सर्वत्र पहुँच जाता है / कठोपनिषद् के इसी मन्त्र की व्याख्या में स्वयं शंकराचार्य ने ज्ञात या अज्ञात रूप से एकत्र विरोधी.धर्मों को स्वीकार किया है। - ईशावास्योपनिषद् में ब्रह्मस्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है, वह आत्म तत्त्व चलता भी है और नहीं भी चलता / वह दूर भी है और समीप भी है" / आत्मतत्त्व में आगत इन विरोधी धर्मों को स्वयं शंकराचार्य ने अपेक्षा भेद से ही समाहित किया है। वह ब्रह्म अज्ञानियों को सैंकड़ों करोड़ वर्षों में भी अप्राप्य है / अतः वह दूर है और वही विद्वानों की अपेक्षा अत्यन्त समीप हैं / तदेजति इस मन्त्र की व्याख्या में ईश के भाष्यकार उव्वट भी अपेक्षा का ही. प्रयोग करते हैं / वह आत्मा सर्वप्राणियों में अवस्थित है अतः क्रियाशील है तथा वही Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 / आर्हती-दृष्टि स्थावर रूप में अवस्थित है अतः गतिशील नहीं है / वह आदित्य, नक्षत्र आदि रूप में अवस्थित है अतः दूर है। वही पृथ्वी आदि में अवस्थित इस अपेक्षा से निकट भी ___ इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि वस्तु में विरोधी धर्म रहते हैं एवं अपेक्षा भेद से ही उनका समाधान प्राप्त होता है। बौद्ध दर्शन में अनेक स्थान पर अनेकान्तवादी विचारधारा का उल्लेख हुआ है। भगवान् बुद्ध स्वयं कहते हैं कि मैं विभाज्यवादी हूँ / गृहस्थ, आराधक-विराधक दोनों होता है। आराधक-विराधक दोनों विरोधी धर्म हैं, उनको अपेक्षा भेद से समाहित करते हुए भगवान् बुद्ध कहते हैं—गृहस्थ यदि मिच्छाप्रतिपन्न है तो विराधक है, सम्यक् प्रतिपन्न है तो आराधक हैं / उदान में अन्धों एवं हाथी का दृष्टान्त दिया गया है और कहा गया.ये एकांशदर्शी है / अतः इनका मन्तव्य यथार्थ नहीं है। .. ___ सांख्य भी एक वस्तु में विरोधी धर्म को स्वीकार करता है। उसकी प्रकृति त्रिगुणात्मिका है। तीनों ही गुण परस्पर विरोधी हैं वे प्रकृति में रहते हैं / सांख्य का परिणाम सिद्धान्त तो अनेकान्त का ही उपजीवी है। स्थिर द्रव्य के पूर्वधर्म के निवृत होने पर उत्तर धर्म का उत्पाद होना ही परिणाम है। - न्याय-वैशेषिक दर्शन में भी अनेकान्त के समर्थक बिचार उपलब्ध है। वैशेषिक दार्शनिकों ने एक ही पृथ्वी को नित्य-अनित्य रूप स्वीकार किया है। आकाश में संयोग एवं विभाग को स्वीकार कर उसे अनित्य भी मान लिया है। बौद्ध विद्वान् नागार्जुन के प्रश्न को समाहित करते समय उन्होंने एक ही वस्तु को प्रमाण एवं प्रमेय दोनों स्वीकार किया है और अपने मंतव्य को तुला के उदाहरण से पुष्ट किया है / आत्मा ज्ञान का विषय बनती है अतः प्रमेय भी है तथा जानने की क्रिया आत्मा में होती है अतः प्रमाता है / आत्मा की ज्ञानात्मक प्रवृत्ति प्रमाण है और आत्मा ही प्रमिति बन जाती है। मीमांसक दर्शन तो स्पष्ट रूप से एक ही वस्तु को सामान्य विशेषात्मक, उत्पाद-व्यय एवं धोव्य रूप में स्वीकार करता ही है। __उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सभी भारतीय दर्शनों में अनेकान्त दर्शन के कमोबेश रूप में स्फुलिंग उपलब्ध है। जैन वस्तुवाद की अनेकान्तात्मक स्वीकृति ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नये-नये . अन्वेषणों की आधारभूमि एवं उनकी सत्यता की साक्षी बनती है / जैसा कि वी. सी... महलनोबिस ने लिखा है Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का तात्त्विक एवं तार्किक आधार / 153 I should draw attention to the realist and pluralist views of Jaina philosophy and the continuing emphasis on the multiform and infinitely deversified aspect of reality which amounts to the acceptance of an 'open' view of the universe with scope for unending change and discovery:" . अनेकान्त वस्तु के स्वरूप का निर्माण नहीं करता। वस्तु का स्वरूप स्वभाव से है / वह ऐसा क्यों है ? इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती / ‘स्वभावे तार्किका भग्ना:' वस्तु का जैसा स्वरूप है, उसकी व्याख्या करना अनेकान्त का कार्य है। ___ वस्तु अनेकान्तात्मक है। उसमें अस्तित्व-नास्तित्व आदि धर्मों का सहावस्थान है। किसी भी प्रमाण के द्वारा उनकी सहावस्थिति का अपलाप नहीं किया जा सकता। उभयात्मक वस्तु हमारी प्रतीति का विषय बनती है / अतः यह प्रमाणसिद्ध है कि वस्तु विरोधी धर्मों से युक्त है। आचार्य धर्मकीर्ति के शब्दों को मैं इस रूप में प्रयोग करना चाहूंगी-'यदीदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम्' ।यदि विरोध स्वयं द्रव्यों को रुचिकर है तो वहाँ हम चिन्ता करनेवाले कौन होते हैं। हमारी चिन्ता यह हो सकती है कि हम विरोधी धर्मों में परस्पर समन्वय के सूत्रों का अन्वेषण करें / अनेकान्त वस्तु के विरोधी धर्मों में समन्वय के सूत्रों को खोजनेवाला महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। दार्शनिक एवं व्यावहारिक जगत् की समस्याओं का समाधायक है। जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वहा ण णिव्वडई। तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेगंतवायस्स॥ . . प्रतिपाद्य के निष्कर्ष१. समग्र भारतीय चिन्तन प्रत्ययवाद एवं वस्तुवाद इन दो धाराओं में समाविष्ट हो जाते हैं। 2. जैन दर्शन का नय-सिद्धान्त वस्तुवाद एवं प्रत्ययवाद दोनों का समन्वय करता है। 3. पूर्व मीमांसा सम्मत वस्तु त्रयात्मक है अतः उसकी जैन वस्तुवाद से सदृशता . . 4. वस्तु में विरोधी धर्मों का सहावस्थान ही अनेकान्त.का तात्त्विक आधार 5. जैन सम्मत वस्तु की नित्यानित्यात्मकता जात्यन्तर है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 / आहती-दृष्टि .. 6. * एकान्त एवं निरपेक्ष सामान्य-विशेष में आनेवाले दोष जात्यन्तर वस्तु में नहीं आ सकते। 7. वस्तु की व्यवस्था संवेदन से ही हो सकती है। 8. विचार के नियम अनुभव सापेक्ष होकर ही सत्य की व्याख्या कर सकते 9. सभी दर्शनों ने किसी न किसी रूप में एकत्र विरोधी धर्मों को स्वीकार किया है। . 10. सभी दार्शनिकों को विरोधी धर्मों की व्यवस्था सापेक्षता के आधार पर ही करनी पड़ती है। 11. अनेकान्त, विरोधी धर्मों में समन्वय के सूत्रों का अन्वेषण करता है। सन्दर्भ : 1. षण्णामपिपदार्थनामस्तित्वाभिधेयत्वज्ञेयत्वानि / प्रशस्तपादभाष्य पृ. 41 / / 2. 'यतो वाचा निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह / '. . . .तैतिरीयोपनिषद् 2/4 3. 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म'। छान्दोग्योपनिषद् 14/1 / 4. 'नेह नानास्ति किंचन'। - काठकोपनिषद्, 2/1/11 / 5. चित्तमात्रं न दृश्योऽस्ति, द्विधा चित्तं हि दृश्यते। लंकावतार सूत्र 3/65 / 6. नान्योऽनुभाव्यस्तेनास्ति, तस्य नानुभवोऽपरः। तस्यापि तुल्यचोद्यत्वात् स्वयं सैव प्रकाशते // प्रमाणवार्तिक 3/2/327 / 7. न सन् नासन् न सदसन चाप्यनुभयात्मकम्। चतुष्कोटिनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिकाः विदुः॥ . माध्यमिक कारिका 1/7 / 8. द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना। लोकसंवृतिसत्यं च सत्यं च परमार्थतः // मध्यमकवृत्ति 24/8 / कल्पितः परतन्त्रश्च, परिनिष्पन्न एव च। अर्थादभूतकल्पाच्च, द्वयाभावाच्च कथ्यते // . बौद्ध दर्शन मीमांसा, पृ. 222 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का तात्त्विक एवं तार्किक आधार | 155 10. पृथ्वी जलं तथा तेजो वायुर्भूत चतुष्टयम्। . चैतन्यभूमिरेतेषां मानं त्वक्षजमेव हि // . . षड्दर्शन समुच्चय, श्लोक 83 / 11. . तत्र ते सर्वास्तिवादिनो बाह्यमन्तरं च वस्तु अभ्युपगच्छति भूतं च भौतिकं च चित्तं च चैतं च। .. शांकरभाष्य 2/2/17 / 12. नीलपीतादिभिश्चित्रैर्बुद्ध्याकारैरिहान्तरैः। सौत्रान्तिकमते नित्यं बाह्यार्थस्त्वनुमीयते // सर्वसिद्धान्त संग्रह, पृ. 13 / 13. मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्यः प्रकृतिविकृतयः सप्त। षोडषकश्च विकारो न प्रकृतिः न विकृतिः पुरुषः // सांख्यकारिका, का. 3 / 14. 'प्रमाणप्रमेय संशयप्रयोजन तत्त्वज्ञानाद् निश्रेयसाधिगमः' / न्यायदर्शन 1/1 / 15. प्रमाणमीमांसा, प्रस्तावना, पृ. 2 / 16. (क) सव्वे सरा णियटृति। आयारो 5/123 / . (ख) तक्का जत्थ ण विज्जइ।.. . वही 5/124 / .. (ग) मई तत्थ न ग्राहिया। .. वही 5/125 / .. (घ) उवमा ण विज्जई। वही 5/137 / 17. तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मनसि। वही 5/101 / 18. स्थानांग 1/1 / / 19. जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणयेण केवली भगवं / केवलणाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अप्पाणं // नियमसार गाथा, 159 20. उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं, क्वचिदपि न विद्यो याति निक्षेपचक्रम् / किमपरमभिध्मो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मिन्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव // समयसार, आत्मख्याति, पृ. 75, कारिका-९ / 21. नानाज्ञानस्वभावत्वात् एकोऽनेकोऽपि नैव सः। . चेतनैकस्वभावत्त्वात् एकानेकात्मको भवेत् // स्व. संबोधन, श्लोक 6 / 22. ठाणं सूत्र, पृ. . 23. णिययवयणिज्ज सच्चा सव्वनया परवियालणे मोहा। ... ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा॥ सन्मतितर्क प्रकरण 1/28 / Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 / आर्हती-दृष्टि 24. Advanced Studies in Indian logic and Metaphysics, P. 110 25. Jain, Theories of Reality and knowledge P. 25 26.. वर्धमानकभते च रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः / / हेमार्थिनस्तु माध्यस्थं तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम्। . नोत्पादस्थितिभङ्गानामभावे स्यान्मतित्रयम् // . श्लोकवार्तिक, वनवाद, श्लोक 21-22 27. घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। . शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् // . . आप्तमीमांसा, श्लोक 59 / 28. 'इहानैकान्तिकं वस्त्वित्येवं ज्ञानं सुनिश्चितम्'। . श्लोकवार्तिक, वनवाद, श्लोक 80 / 29. 'अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम्'। .: : न्यायावतार, कारिका 29 / 30. सन्मतितर्क प्रकरण, प्रस्तावना,. .. पृ. 87, हिन्दी संस्करण / 31.. तस्मादुभयहानेन व्यावृत्त्यनुगमात्मकः। . पुरुषोऽभ्युपगन्तव्यः कुण्डलादिषु स्वर्णवत् // श्लोकवार्तिक, आत्मवाद, श्लोक 28 / 32. मीमांसा श्लोक वार्तिक, पृ. 844-45 / . 33. अपर्ययं वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच्च विविच्यमानम्। आदेशभेदोदितसप्तभङ्गमदीदृशत्वं बुधरूपवैद्यम् // . अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, श्लोक 23 / 34. निर्विशेषं न सामान्यं भवेच्छशविषाणवत्। सामान्यरहितत्वाच्च विशेषास्तद्वदेव हि // .. . श्लोकवार्तिक, वनवाद 10 / 35. द्रव्यं पयार्यवियुतं पर्याया द्रव्यवर्जिताः। क्व कदा केन किंरूपां दृष्टा माननेन केन वा॥ उद्धृत स्याद्वादमंजरी, कारिका 5 36. उप्पनेइ वा विगमे इ वा धुवे इ वा / भगवई / 37. तत्वार्थ सूत्र 5/30 / . Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का तात्त्विक एवं तार्किक आधार / 157 38. 'यदेव तत् तदेवातत् यदेवैकं तदेवानेकम् यदेव सत् तदेवासत् यदेव नित्यं ____तदेवानित्यम्... विरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः' / समयसार, आत्मख्याति 10/247 / 39. सदसन्नित्यानित्यादिसर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः / - जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश, अष्टशती (पृ. 286) 40. 'तल्लक्षणत्वाद्वस्तुनः'। प्रमाण-मीमांसा 1/1/32 / 41. अर्थ क्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः। - क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा च लक्षणतया मता // लघीयस्त्रयी 2/1 42. 'प्रत्येकं यो भवेद् दोषो द्वयोर्भावे कथं न स' / प्रमाण-मीमांसा, पृ. 29 / 43. 'न द्रव्यरूपं न पर्यायरूपं नोभयरूपं वस्तुं, येन तत्तत्पक्षभावी दोषः स्यात्, किन्तु स्थित्युत्पादव्ययात्मकं शबलं जात्यन्तरमेव वस्तु'। . प्रमाण-मीमांसा, पृ. 29 / 44. को अणेयंतो णाम? जच्चतरत्तं। धवला 15/25/1 / 45. Jaina Theories of Reality and Knowledge, p. 194. 46. गुडश्चेत् कफहेतुः स्यात् नागरं पित्तकारणम्। * तन्मूलमन्यदेवेदं गुडनागरसंज्ञितम् // .. ' न्यायावतार वार्तिव वृत्ति, पृ. 88 / .. 47. अनुगतव्यावृत्ताकारा बुद्धिर्द्वयात्मकं वस्तु व्यवस्थापयति / न्यायावतार वार्तिक वृत्ति, पृ. 87 / 48. 'एक एव सामान्यविशेषात्मार्थ: प्रमेय: ' - प्रमेय कमल मार्तण्ड पृ. 180 / 49. अभिन्नांशं मतं वस्तु तथोभयमयात्मकं / प्रतिपत्तेरूपायेन नयभेदेन कथ्यते // . तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी, (पृ. 180) 50. Jaina Theories of Reality and knowledge, p. 98. 51. अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येक धर्मिणि। विशेषणत्वात् साधर्म्यं यथाभेद विवक्षया / नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकर्मिणि / ... विशेषणत्वाद्वैधयं यथाऽभेद विवक्षया / . आप्त मीमांसा, श्लोक 17-18 / 52. 'अर्पितानर्पितसिद्धेः' तत्त्वार्थसूत्र 5/32 / . Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 / आर्हती-दृष्टि 53. धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्तधर्मणः। अङ्गित्वेऽन्यतमान्तस्य शेषान्तानां तदङ्गता // आप्तमीमांसा, श्लोक 22 / 54. सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादि चतुष्ट्यात् / असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते / वही, श्लोक 15 / 55. जैन न्याय का विकास पृ. 70 / .56: ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्यम् 2/2/33, पृ. 510 / . . . . . 57. न ह्येकस्मिन्धर्मिणि युगपत्सदसत्त्वादि विरुद्धधर्मसमावेशः संभवति, - शीतोष्णवत्। . ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य 2/2/33, 58. यदि वस्त्वेकमप्युत्पादिस्वभावेन त्रयात्मकं स्यात्, तदा युगपत्परस्पर विरोधिन उत्पाद-स्थिति-विनाशाः प्राप्नुवन्ति / न च विरोधिनामेकत्र युगपद् भावो युक्तः। . तत्त्वसंग्रह, श्लोक, 1779 (टीका), 59. कल्पयताप्यभेदमात्रं भेदमात्रं वा प्रतीतिरवश्याऽभ्युपगमनीयाः तन्निबन्धनत्वाद्वस्तुव्यवस्थायाः। प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. 4 / 60. यस्मादन्यत्रापि नीलपीतव्यवस्था संवेदननिबन्धनैव, तदिहापि विरोधेऽपि . संवेदनमेव प्रमाणमिति। न्यायावतार वार्तिक वृत्ति, पृ. 87 / . * 61. घटमौलिसुवर्णेषु बुद्धिर्भेदावभासिनी। संविनिष्ठा हि भावानां स्थितिः काऽत्र विरुद्धता // न्यायावतार वार्तिक वृत्ति, का. 35 / 62. तदवश्यकर्त्तव्येऽपह्नवे कामं विज्ञानमपरैयते नार्थाः / - मीमांसादर्शनम्, पृ. 85 / 63. विरोधो धनपलम्भसाध्यः। प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्र.४। 64. The Naiyayika and the Jaina and other realists of India are agreed on this question of complex nature of existents as well as the competency of direct experience with regard to this complex character. Although the complex nature of reals is emphasised by the Naiyayika and the Mimanisists also, the logical implications of this ontological doctrine were worked out by the Jaina alone; and the result has been a momentous revolution in the evaluation of the laws of thought. The Jaina Philosophy of non-absolutism, p. 6. in Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का तात्त्विक एवं तार्किक आधार / 159 65. Eassy on Anekant, Syadvad and saptbhangi. . - आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ, p. 88 / 66. Eassy on Anekant, Syadvada and Saptbhangi. आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ, p. 89 / 67. नासदासीनो सदासीत्तदानी...। . ऋग्वेदसंहित 10/129/1 / 68. यद्यपि सदसदात्मकं प्रत्येकं विलक्षणं भवति, तथापि भावाभावयोः सहाव स्थानमपि संभवति। ऋग्वेद संहिता, भाष्य 10/129/1 / 69. आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः। कस्तं मदादं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति // कठोपनिषद् 1/2/21 / 70. समदोऽमदश्च सहर्षोऽहर्षश्च विरुद्धधर्मवानतोऽशक्यत्वाज्ज्ञातुं / __ कठोपनिषद् शांकरभाष्य 1/2/21 / 71. तदेजति तन्नजति तद्दूरे तद्वन्तिके। * तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः॥ ईशावास्योपनिषद्, 5 / . 72. ईशावास्योपनिषद् शांकरभाष्य, मंत्र 5 / 73. तदेव सर्वप्राणिरूपेणावस्थितं सत् एजति, तन्नैजति स्थावररूपावस्थितं सत् / तदेव व दूरे आदित्यनक्षत्ररूपेणावस्थितं सत् तदेव चं अन्तिके : पृथिव्यादिरूपेणावस्थितम्। . ईश उव्वटकृतभाष्य, मंत्र 5 / 74. मज्झिम निकाय II, पृ. 469 / 75. Eassy of Anekanta By N.M. Tatia. उदान, पृ. 143-45, 76. त्रिगुणमविवेकि.. . सांख्यकारिका, का. 11 / 77. 'अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्तौ धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः'। ... पातञ्जलयोगदर्शन भाष्य 3/13, 78. 'सा च नित्या, अनित्या, आकाशे संयोगविभागौ' / उद्धृत स्याद्वादमंजरी कारिका, 5 / 79. 'प्रमेया च तुलाप्रामाण्यवत्'। न्यायदर्शन, 2/1/16 / 80. न्यायदर्शन 2/1/19 / / 81. - The Foundation of Statistics Dilectica, भाग-८। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था में अनेकान्त जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वहा ण निव्वडइ। तस्स भुवणेक्कगुरुणो, णमो अणेगंतवायस्स॥ .... अनेकान्तवाद को नमस्कार है, क्योंकि उसके बिना इस संसार का व्यवहार भी संचालित नहीं हो सकता / सत्य-प्राप्ति की बात तो दूर, अनेकान्त के अभाव में समाज, परिवार आदि के सम्बन्धों का निर्वाह भी सम्यक् रूप से नहीं हो सकता। अनेकान्त सबकी धुरी में है। इसलिए वह समूचे जगत् का एकमात्र गुरु और अनुशास्ता है। सारा सत्य और सारा व्यवहार उसके द्वारा संचालित हो रहा है। अनेकान्त त्राण है, शरण है, गति और प्रतिष्ठा है। __ जैन दर्शन का प्राण-तत्त्व अनेकान्त है / जैसे अनेकान्त का दार्शनिक स्वरूप एवं उपयोग है वैसे ही जीवन के व्यावहारिक पहलुओं से जुड़ी समस्याओं का समाधान भी हम अनेकान्त के आलोक में प्राप्त कर सकते हैं। भगवान महावीर का उद्घोष रहा-आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त का प्रकाश हो / अहिंसा अनेकान्त का ही व्यावहारिक पक्ष है / अनेकान्त अर्थात् वस्तु को, सत्य को अनेक पहलुओं से देखना एवं समझना। वीतरागता, सम्यक् दर्शन ये अनेकान्त के ही समानार्थी है। वीतरागता का अर्थ है-राग-द्वेष मुक्त-चेतना। जब तक राग-द्वेष रहेगा तब तक अनेकान्त व्यवहार्य ही नहीं हो सकता। जैसे-जैसे राग-द्वेष का अल्पीकरण होगा अनेकान्त की ज्योति प्रज्वलित होगी। सम्यक् दर्शन के अभाव में दृष्टिकोण का परिष्कार नहीं होगा। उसके परिष्कार के अभाव में इच्छित साध्य की तरफ चरणं गतिशील नहीं हो सकते। सत्य एक रूप है पर उसका प्रतिपादन अनेक रूप से हो रहा है / सतही दृष्टि से देखने पर वह प्रतिपादन परस्पर सर्वविरोधी प्रतीत होता है / किन्तु अनेकान्त के आलोक में देखने से समस्या समाहित होती है / सम्पूर्ण सत्य अनुभव का विषय तो.हो सकता है किन्तु भाषा द्वारा उसका प्रकटीकरण नहीं किया जा सकता। सम्पूर्ण ज्ञान वाणी का विषय नहीं हो सकता। वाणी के द्वारा तो सत्यांश का ही प्रतिपादन किया जा सकता है। अनेकान्त के अनुसार सभी विचारों में सत्यांश है, वे भ्रान्त नहीं हैं। सिद्धसेन Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था में अनेकान्त / 161 दिवाकर ने कहा - 'जावइया वयणपहा तावइया चेव होति णयवाया।' किन्तु इस सच्चाई को भी सामने रखना होगा कि विचार में सत्यांश अवश्य है किन्तु वही एकमात्र सत्य नहीं है / इस कसौटी पर चिन्तन को कसने पर विचार कभी संकीर्ण नहीं हो सकते / सम्भावनाओं का व्यापक द्वार खुला रहता है / द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं परिस्थिति आदि के अनुसार चिन्तन मुख्य, गौण भी होते रहे हैं / अनेकान्त स्वतः सिद्ध तत्त्व मीमांसा नहीं है। वह विचारतन्त्र का उपकरण है / दार्शनिक समस्याओं के निराकरण में अनेकान्त का प्रयोग बहुत हुआ है, किन्तु आज यह अपेक्षा महसूस की जा रही है कि क्या अनेकान्त जीवन दर्शन बन सकता है? क्या अनेकान्त के द्वारा समसामयिक समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है ? जो सिद्धान्त समसामयिक समस्याओं का समाधान नहीं दे सके उसकी प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। अनेकान्त आज भी प्रासंगिक है। अपेक्षा मात्र इतनी है कि व्यक्ति इसके प्रयोक्ता बनें। राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक एवं वैयक्तिक आदि विभिन्न समस्याओं का समाधान अनेकान्त दृष्टि से प्राप्त हो सकता है। प्रस्तुत निबन्ध में समाज-व्यवस्था के सन्दर्भ में अनेकान्त की क्या भूमिका हो सकती है, उसका दिग्दर्शन प्राप्त हो सकेगा। _- समाज एवं समाज शास्त्र के क्षेत्र में अनेकान्त की भूमिका निर्धारण से पूर्व वर्तमान में प्रचलित समाज एवं समाज शास्त्र की अवधारणाओं पर विचार-विमर्श करणीय है। व्यक्ति पारिवारिक, धार्मिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय आदि अनेक सम्बन्धों से जुड़ा होता है। सामाजिक सम्बन्धों का यही जाल जब अनेक रीतियों और नियमों से एक व्यवस्था में परिवर्तित हो जाता है तब इसी व्यवस्था को हम समाज कहते हैं। मेकाइवर एवं पेज ने समाज को परिभाषित करते हुए कहा है-'समाज रीतियों, कार्य-विधियों, अधिकार व पारस्परिक सहायता, अनेक समूहों तथा उनके विभाजनों, मानव व्यवहार के नियन्त्रणों तथा स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था है। इस सदैव परिवर्तन होनेवाली तथा जटिल व्यवस्था को ही हम समाज कहते हैं / समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है और सदैव परिवर्तित होता रहता है।' मेकाइवर ने समाज को सामाजिक सम्बन्धों का जाल कहते हुए उन आधारों को भी स्पष्ट किया है। उन आधारों के द्वारा ये सम्बन्ध व्यवस्थित समाज संरचना का निर्माण करते हैं। गिन्सबर्ग का कथन है-'समाज ऐसे व्यक्तियों का संग्रह है जो कुछ व्यवहारों अथवा सम्बन्धों की विधियों द्वारा संगठित , है तथा उन व्यक्तियों से भिन्न है.जो इस प्रकार के सम्बन्धों द्वारा बंधे हुए नहीं हैं अथवा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 / आर्हती-दृष्टि जिनके व्यवहार उनसे भिन्न हैं। इस परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न समाजों को एक-दूसरे से पृथक् करने का आधार उनके सामाजिक सम्बन्धों की ही भिन्नता है तथा समाज मात्र व्यक्तियों का समूह नहीं है बल्कि उनके बीच पाये जानेवाले सम्बन्धों की व्यवस्था है। रेयूटर (Reuter) के अनुसार, समाज एक अमूर्त धारणा है जो एक समूह के सदस्यों के बीच पाये जानेवाले पारस्परिक सम्बन्धों की सम्पूर्णता का बोध कराती है। इन सभी परिभाषाओं के निष्कर्ष रूप में प्राप्त होता है कि समाज अमूर्त है / वह मात्र व्यक्तियों का समूह नहीं है बल्कि उनके पारस्परिक सम्बन्धों की एक व्यवस्था है। सामाजिक ढाँचे, सामाजिक प्रक्रियाओं, समूहों तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों के विज्ञान को समाज शास्त्र कहते हैं। समाज शास्त्र की विषय-वस्तु का क्षेत्र विस्तृत है। उसके अन्तर्गत जीवन से सम्बन्धित सब पहलुओं का समावेश हो जाता है। समाज व्यवस्था के कुछ प्रश्नों का समाधान इस निबन्ध में अनेकान्त दृष्टि से खोजने का विनम्र प्रयास किया गया है। व्यक्ति समाज का सम्बन्ध और अनेकान्त समाज और व्यक्ति का व्यष्टि और समष्टि का सम्बन्ध है। समाज समष्टि एवं व्यक्ति व्यष्टि है। समाज का एक घटक है—व्यक्ति / जैसा व्यक्ति होगा वैसा ही समाज होगा। समाजशास्त्रियों का मन्तव्य है कि व्यक्ति का वास्तविक अस्तित्व समाज में ही सम्भव है। इसीलिए अरस्तु ने मनुष्य को 'सामाजिक प्राणी' कहा है। 'Man is a rational animal'. समाज व्यक्ति की सुरक्षा एवं उसके व्यक्तित्व निर्माण का साधन बनता है अतः व्यक्ति अकेला नहीं रहता वह सामूहिक जीवन-यापन करता है / व्यक्ति और समाज ये दो वास्तविकताएँ हैं / व्यक्तिवादी दार्शनिकों के अनुसार मनुष्य समाज से बाहर का प्राणी है अथवा रह सकता है। इस मान्यता में यह विचार निहित है कि मनुष्य समाज में प्रवेश करने से पूर्व व्यक्ति विशेष है। वे अपनी सम्पत्ति, अधिकार, जीवन की सुरक्षा अथवा अन्य किसी इच्छित उद्देश्य की पर्ति के लिए सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करते हैं। समाजवादी दार्शनिकों का सिद्धान्त यह है कि व्यक्ति और समाज को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता / मानव विकास के इतिहास में व्यक्ति ने समाज के द्वारा ही प्रगति की है / अतः समाज ही मुख्य है / एक विचारधारा ने व्यक्ति को सर्वोपरि स्थान प्रदान किया है तो दूसरी ने समाज को। अनेकान्तवाद व्यक्ति एवं समाज के सम्बन्ध की सापेक्ष व्याख्या करता है। व्यक्ति में वैयक्तिकता और समाजिकता इन दोनों के मूल तत्त्व सन्निहित हैं। समाज में भी सामाजिकता एवं वैयक्तिता दोनों के Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. समाज-व्यवस्था में अनेकान्त / 163 तत्त्व सन्निहित हैं / क्षमताओं का होना व्यक्ति की वैयक्तितता है तथा उनका अभिव्यक्त होना व्यक्ति की सामाजिकता है। अतः व्यक्ति और समाज एक हैं और भिन्न भी हैं। व्यक्ति का आधार संवेदन एवं समाज का आधार विनिमय है। संवेदन का विनिमय नहीं हो सकता और विनिमय का सबको समान संवेदन नहीं हो सकता / व्यक्ति अथवा समाज में से एक को मुख्यता देने से समस्या पैदा होती है। 'व्यक्ति वास्तविक एवं समाज अवास्तविक है' / व्यक्तिवादी दार्शनिकों की इस स्वीकृति ने व्यक्ति को असीमित अर्थसंग्रह की स्वतन्त्रता देकर शोषण की समस्या को पैदा किया। 'समाज वास्तविक व्यक्ति अवास्तविक' समाजवादी दार्शनिकों की इस मान्यता ने व्यक्ति की वैचारिक स्वतन्त्रता को प्रतिबद्ध करके मानव के यन्त्रीकरण की समस्या को पैदा किया। अनेकान्त के आधार पर व्यक्ति एवं समाज की समान एवं सापेक्ष मूल्यवत्ता की स्वीकृति ही इन समस्याओं से मुक्ति प्रदान कर सकती है। अर्थतन्त्र में अनेकान्त समाज-व्यवस्था के आधारभूत तत्त्व दो हैं—काम और अर्थ / काम की सम्पूर्ति के लिए सामाजिक सम्बन्धों का विस्तार होता है / अर्थकामना पूर्ति का साधन बनता है। समाज-व्यवस्था में महामात्य कौटिल्य ने अर्थ को मुख्य माना है तथा आधुनिक समाज-व्यवस्था में भी अर्थ की प्रधानता है / सामाजिक समायोजन में अर्थ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वर्तमान में अर्थ व्यवस्था से सम्बन्धित विचारधारा, पूंजीवाद, समाजवाद वं साम्यवाद है। . (1) पूंजीवाद व्यक्तिगत सम्पत्ति की धारणा को महत्त्व देकर आर्थिक क्रियाओं को संगठित करता है / व्यक्तिगत सम्पत्ति का मन्त्र रेत को भी सोने में परिवर्तित कर देता है / इस धारणा को आधार मानते हुए पूंजीवाद आर्थिक स्वतन्त्रता, प्रतियोगिता और पूंजी-संचय को सदैव प्राथमिकता देता है / पूंजीवाद में Means of production (उत्पादन के साधन) पर व्यक्ति विशेष का अधिकार रहता है। (2) समाजवादी आर्थिक व्यवस्था शान्तिपूर्ण एवं संवैधानिक ढंग से व्यक्तिगत पूंजी को सार्वजनिक पूंजी में परिवर्तित करने का प्रयत्न करती है। जहां पूंजीवाद व्यक्तिगत, स्वामित्व नियन्त्रण और अधिकार की धारणा पर आधारित है, वही समाजवाद सार्वजनिक हित और सार्वजनिक धारणा को महत्त्व देता है। (3) साम्यवादी अर्थव्यवस्था को क्रान्तिकारी समाजवादी आर्थिक व्यवस्था भी कहा जा सकता है / साम्यवाद का सिद्धान्त है कि लक्ष्य-प्राप्ति के लिए प्रत्येक साधन उचित है। साम्यवाद का सिद्धान्त है कि उत्पादन के सभी साधनों पर राज्य का Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 / आर्हती-दृष्टि एकाधिकार होना चाहिए और समस्त आर्थिक सेवाएं सार्वजनिक अधिकार में हों। कोई भी व्यवस्था सर्वथा पूर्ण नहीं होती, न ही सर्वथा भ्रान्त / यही सिद्धान्त इन आर्थिक व्यवस्थाओं पर घटित होता है / साम्यवादी व्यवस्था में मात्र समाज पर ध्यान केन्द्रित किया गया। व्यक्ति को मात्र यन्त्र समझा गया। उसकी वैयक्तिक स्वतन्त्रता का हनन हुआ, इस व्यवस्था में वैयक्तिता का शोषण हुआ। साम्यवाद में व्यवस्था को तो बदला गया किन्तु व्यक्ति को सर्वथा उपेक्षित कर दिया गया। सम्पत्ति के सार्वजनिकीकरण की व्यवस्था भी कारगर न हो सकी। साम्यवादी शासकों के जीवन में भी घोर विलासिता देखी गई। रोमानिया के राष्ट्रपति का जीवन इसका स्वतः प्रमाण है / उसके पहनने की चप्पलों तक में हीरे जड़े हुए थे / अतः व्यक्ति की उपेक्षा करके मात्र व्यवस्था बदलने से समाज की स्वस्थ संरचना नहीं हो सकती। साम्यवादी व्यवस्था में कार्य की अभिप्रेरणा ही प्राप्त नहीं होती अतः व्यक्ति विकास नहीं कर सकता। पूंजीवादी व्यवस्था में भौतिक साधनों की वृद्धि को ही विकास का मानदण्ड माना गया। Have and Have not के आधार पर व्यक्ति विशेष का विभाजन हुआ। पूंजीवादी व्यवस्था में भौतिक विकास जितना हुआ उससे भी कहीं अधिक मानसिक अनुताप बढ़ा। पूंजीवाद की विकास की अवधारणा की समीचीन नहीं है / पूंजीवादी देशों में भौतिक सुख-सुविधा के साधनों की भरमार होने पर भी वहां के 80% व्यक्ति मानसिक अशान्ति का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पागलपन, नशीली वस्तुओं का सेवन बढ़ता जा रहा है.। ऐसी स्थिति व्यक्ति को स्व-निरीक्षण की प्रेरणा दे रही है। सत्य तो यह कि शान्ति सुख आन्तरिक होता है / बाह्य साधनों में उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। किन्तु हो रहा है इसके विपरीत / अनेकान्त दर्शन के अनुसार व्यक्ति और समाज को सापेक्ष मूल्य प्रदान किया जाए। उनकी प्रवृत्ति को समझा जाए / व्यवस्था भी बदले साथ में व्यक्ति का हृदय परिवर्तन भी हो / कोरा व्यक्ति बदले तब भी स्वस्थ समाज संरचना नहीं हो सकती। केवल सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन भी स्थायी स्वस्थ व्यवस्था नहीं दे सकते / कुछ लोगों की यह अवधारणा है कि व्यवस्था बदलने से ही सारा परिवर्तन घटित हो जाएगा, यह एकांगी अवधारणा है / व्यक्ति एवं समाज दोनों का सुधार साथ-साथ चलना चाहिए तभी स्वस्थ समाज-व्यवस्था हो सकती है। 'मनुष्य सामाजिक प्राणी है'-इस वास्तविकता के सन्दर्भ में अर्थशास्त्र का आवश्यकता बढ़ाओ का सिद्धान्त गलत नहीं है किन्तु मनुष्य केवल क्या सामाजिक ही है? क्या वह व्यक्ति नहीं है? क्या उसमें सुख-दुःख का संवेदन नहीं? आवश्यकताओं का असीमित दबाव क्या उसमें शारीरिक, मानसिक तनाव पैदा नहीं Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था में अनेकान्त / 165 करता है? इस मानवीय एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण से इच्छाओं को सीमित करना आवश्यक है। अर्थशास्त्रीय एवं अध्यात्म शास्त्रीय दृष्टिकोण को पृथक-पृथक सन्दर्भ में देखना होगा / आवश्यकता कम करो' यह प्रतिपादन मानसिक अशान्ति की समस्या को सामने रखकर किया गया है / 'आवश्यकताओं का विस्तार करो' यह प्रतिपादन मनुष्य की सुख-सुविधाओं को ध्यान में रखकर किया गया है। महावीर ने सामाजिक व्यक्ति के लिए अपरिग्रह का सिद्धान्त नहीं दिया। वह मुनि के लिए सम्भव है। सामाजिक मनुष्य इच्छा और आवश्यकताओं को समाप्त करके अपने जीवन को नहीं चला सकता और उनका विस्तार कर शान्तिपूर्ण जीवन नहीं जी सकता। अतः अनेकान्त जीवन-शैली का प्रथम सूत्र होगा—इच्छा परिमाण / इच्छा के आधार पर तीन प्रकार के वर्गीकरण बनते हैं-महेच्छा, अल्पेच्छा एवं अनिच्छा। पहला वर्ग उन लोगों का है जिनमें इच्छा का संयम नहीं होता। इस वर्ग वाले महेच्छु एवं महान् परिग्रह वाले होते हैं / दूसरा वर्ग जैन श्रावक अथवा अनेकान्त शैली वालों का है। जिनमें इच्छा का परिमाण होता है। वे अल्पेछु एवं अल्पपरिग्रही होते हैं। जहाँ अनिच्छा वहाँ अपरिग्रह होता है यह मुनि का वर्ग है / भगवान् महावीर ने मुनि के लिए अपरिग्रह के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया किन्तु समाज अपरिग्रह से नहीं चलता। अतः सामाजिक मनुष्य के लिए इच्छा परिमाण का व्रत दिया। स्वस्थ समाज संरचना का यह महत्त्वपूर्ण सूत्र है / व्यक्तिगत स्वामित्व का सीमाकरण आवश्यक है। व्यक्ति का जीवन अल्प इच्छा, अल्प संग्रह एवं अल्प भोग से युक्त होना चाहिए। समाज-व्यवस्था में इच्छा परिमाण एवं वैयक्तिक स्वामित्व की सीमा को चरितार्थ करने वाला एक अनूठा प्रयोग पश्चिम में श्री अर्नेष्ट बेडर ने 'स्कोट बेडर कम्पनी' को 'स्कोट बेडर कामनवेल्थ' में बदलकर प्रस्तुत किया। इसका विस्तृत विवरण शुमारखर ने 'Small is Beautiful में प्रस्तुत किया है। जिसका सारांश यही है कि अत्यधिक वैयक्तिक लाभ अर्जन करने की स्थिति में भी श्री अर्नेष्ट बेडर ने सभी श्रमिकों को कम्पनी का शेयरहोल्डर बनाकर अपने वैयक्तिक स्वामित्व का विसर्जन किया और त्याग द्वारा इच्छाओं एवं सञ्चय को सीमित करने का सफल प्रयोग प्रस्तुत किया। श्रावक की आचारसंहिता में आगत भोगोपभोग वेरमण व्रत भी स्वस्थ समाज का घटक तत्त्व है / जब इच्छा सीमित होती है और भोगोपभोग का भी परिसीमन होता है तब प्रमाणिकता, अर्थार्जन के साधनों में शुद्धि आदि अपने आप फलित होते हैं। ये दो व्रत अनेकान्त दृष्टि के फलित है। समाज एवं व्यक्ति Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 / आर्हती-दृष्टि के विकास के सूचक है। इच्छा परिमाण व्रत में आर्थिक विकास और उन्नत जीवन स्तर की सम्भावनाओं के द्वार बन्द नहीं होते हैं तथा विलासिता के आधार पर होनेवाली आर्थिक प्रगति के द्वार भी खुले नहीं रहते। इच्छा-परिमाण के निष्कर्ष संक्षेप में इस प्रकार हो सकते हैं (1) न गरीबी और न विलासिता का जीवन। (2) सन्तुलित समाज-व्यवस्था। (3) आवश्यकता की सन्तुष्टि के लिए धन का अर्जन किन्तु दूसरों को हानि पहंचाकर अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि न हो, इसका जागरूक प्रयत्न। (4) विसर्जन की क्षमता का विकास / दुःख-मुक्ति एवं मानसिक शान्ति के लिए इच्छाओं का अल्पीकरण बहुत आवश्यक है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है, 'कामे कमाहि कमियं खु दुक्खें' इच्छाओं का अतिक्रमण करो, दुःख अपने आप अतिक्रमित हो जाएगा। लाभ से लोभ घटता नहीं वह बढ़ता है। यह अनुभूत सत्य का प्रतिपादन है / इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं / लोभी सोने-चाँदी के ढेर से भी सन्तुष्ट नहीं हो सकता। अनेकान्त का समाज व्यवस्था में अर्थ हो होगा ‘सन्तुलन' / इच्छा को सर्वथा समाप्त भी न किया जाये तथा उसका अत्यधिक विस्तार भी न हो। दोनों का सन्तुलन अत्यन्त अपेक्षित है। सन्तुलित समाज-व्यवस्था अनेकान्त के द्वारा ही घटित हो सकती है भले फिर उसका नामकरण कुछ भी किया जाये। यन्त्रों की अवधारणा में अनेकान्त ___ आज प्राद्यौगिकी का बहुत विकास हुआ है। मनुष्य प्रस्तर युग से परमाणु युग में पहुँच गया है। विज्ञान के विकास ने आज मनुष्यों को सुख-सुविधाओं के अनेकों साधन प्रदान किये हैं। इस तथ्य को ओझल नहीं किया जा सकता। किन्तु विज्ञान का सदुपयोग बहुत कम हुआ है। उसका प्रयोग विध्वंसात्मक कार्यक्रमों में अधिक हो रहा है। यन्त्रों ने मानवजाति को राहत से ज्यादा तनाव की जिन्दगी प्रदान की है। गांधी ने तीन प्रकार के यन्त्रों का उल्लेख किया है। विध्वंसक, मारक एवं तारक। विध्वंसक-बम आदि इनका सर्वथा निर्माण बन्द होना आवश्यक है। मारक यन्त्र जो बेरोजगारी पैदा करते हैं, तारक यन्त्र सिलाई मशीन आदि। गांधीजी विज्ञान के विरोधी नहीं थे। उन्होंने विवेक देने की कोशिश की। उनका मानना था— यन्त्र Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था में अनेकान्त / 167 मनुष्य के लिए है, मनुष्य यन्त्र के लिए नहीं है। आज प्रौद्योगिकी के अत्यधिक विकास के कारण पर्यावरण प्रदूषण का खतरा भयावह संकट पैदा कर चुका है। ओजोन की छतरी में छेद हमारी सुरक्षा व्यवस्था में छेद है। अनावश्यक यन्त्रीकरण ने समस्या को पैदा किया है। आधुनिक वातावरण के प्रति जागरूक लेखकों ने भविष्य के संकट को सामने रखकर अगाह किया है। Toffler अपनी पुस्तक 'Future shock' में अति यान्त्रिक विकास और अति प्राद्यौगिकी के भयावह परिणामों से आगाह करते हुए निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं- भविष्य के भयंकर खतरों के निरोध के लिए हमें परम औद्योगिक समाज के नियोजन में मानवता के पक्ष को केन्द्र में रखना होगा। हमारे राजनैतिक ढाँचों में भी नियोजन का यह मानवीकरण प्रतिबिम्बित होना चाहिए'। सारांश यह है कि समूची अर्थव्यवस्था, राजनैतिक एवं समाजतन्त्र यदि केवल प्राद्योगिकी या एकांकी भौतिक उपलब्धियों के आधार पर खड़े किए जाएंगे तो सर्वविनाश के सिवाय और कोई चारा नहीं है। आज के समाजशास्त्रियों एवं अर्थशास्त्रियों ने कृत्रिम भूख को बढ़ाकर पूरे मानव समाज को संकट में डाल दिया है / आवश्यकताओं की पूर्ति को उचित माना जा सकता है किन्तु कृत्रिम क्षुधा की शान्ति होना असम्भव है। कहा गया है तन की तृष्णा तनिक है तीन पाव के सैर। मन की तृष्णा अमित है गिलै मेर का मेर।। ____ मानव ने अपनी तृष्णा शान्ति के लिए प्रकृति का अंधाधुंध दोहन किया है। आगे आनेवाली पीढ़ियों के अधिकार को छीन लिया है। पर्यावरण के सन्तुलन के सन्दर्भ में भगवान् महावीर द्वारा प्रदत्त अनर्थ-दण्ड विरति व्रत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। आवश्यक हिंसा को छोड़ा नहीं जा सकता है किन्तु अनावश्यक को रोका जा सकता है। प्रयोग परीक्षा के नाम पर लाखों मासूम जानवरों की हत्या प्रकृति के साथ क्रूर खिलवाड़ है। पर्यावरण की ऐसी समस्या को देखकर कुछ विचारक यह सुझाव देते हैं कि मानव को पुनः गुफा संस्कृति में चले जाना चाहिए। किन्तु यह दृष्टिकोण भी व्यवहार्य नहीं है / अनेकान्त का चिन्तन है कि यन्त्रों का भी नियन्त्रित विकास हो जिससे सन्तुलन बना रहे। 15 कर्मादान, 25 क्रियाएँ ये पर्यावरण सुरक्षा के सूत्र हैं। ___ जैन श्रावक की आचारसंहिता को गहराई से देखा जाये तो वह अनेकान्त जीवन-शैली की जीवनचर्या है। पर दुर्भाग्य से जैन लोग भी उसे समझ नहीं सके Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 / आर्हती-दृष्टि और अपना नहीं सके। चींटी की हिंसा, पानी की हिंसा तो उन्हें दिखाई दी किन्तु एक व्यक्ति के साथ भयंकर क्रूरता को हिंसा नहीं माना। झूठा तोल-माप न करना, मिलावट न करना, अशुद्ध साधनों से धनार्जन न करना उसके व्रत थे किन्तु उन सब को विस्मृत कर दिया। आज पुनः अपेक्षा है उस जीवन-शैली को व्यवहार्य बनाया जाये। श्रावक व्रतों पर आधारित समाज- व्यवस्था को स्वस्थ समाज की अभिधा. से अभिहित किया जा सकता है। राजनीति में अनेकान्त राजनीति समाज-व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण घटक है। उसकी अदूरदर्शिता के परिणाम समाज को लम्बे समय तक भुगतने पड़ते हैं। राजनीति में विचारधाराओं में पक्ष प्रतिपक्ष होता है / वस्तु का अस्तित्व विरोधी धर्मों के बिना होता ही नहीं है / एक ही वस्तु में विरोधी-युगलों का रहना यह प्राकृतिक नियम है। आज जो शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की बात कही जा रही है। वह अनेकान्त का ही सिद्धान्त है / जीवन की विभिन्न प्रणालियों में सह-अस्तित्व आवश्यक है / एक पूँजीवादी विचारधारा है, एक साम्यवादी है, एक एकतन्त्र की प्रणाली है, एक लोकतन्त्र की प्रणाली है। दोनों संसार में चल रही हैं और परस्पर विरोधी भी हैं / यदि इस भाषा में सोचा जाये कि दोनों में से एक रहेगा तो युद्ध के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रहेगा। किन्तु आज एक ही संसद में अनेक विरोधी विचार वाले बैठते हैं / उनका सहअस्तित्व है / यह अनेकान्त . की ही अवधारणा है। शिक्षा जगत् में अनेकान्त शिक्षा बिम्ब है, समाज उसका प्रतिबिम्ब है। समाज को बदलने का एक महत्त्वपूर्ण साधन बनती है-शिक्षा। शिक्षा के द्वारा विद्यार्थी में बीज वपन होता है। शिक्षा हितकारी, कार्यकारी होगी तो समाज भी बदलेगा। स्वामी विवेकानन्द एवं महात्मा गांधी ने भी शिक्षा का उद्देश्य चरित्र-निर्माण माना है। आज की शिक्षा अपने इस उद्देश्य की सम्पूर्ति में असहाय एवं अक्षम है / आज शिक्षा के द्वारा व्यक्ति का शारीरिक एवं बौद्धिक विकास तो बहुत किया जा रहा है किन्तु मानसिक एवं भावनात्मक विकास के पक्ष को सर्वथा उपेक्षित कर दिया गया है। शिक्षा मूल्य विहीन हो गई है। स्वयं मार्ग से अनजान व्यक्ति दूसरे का मार्ग-दर्शक नहीं बन सकता / आज शिक्षा की वैसी ही स्थिति बन रही है। अन्धा आंखवाले को रास्ता बता रहा है। आज की शिक्षा में मूल्य प्रशिक्षण का उपक्रम आवश्यक है / आज का जीवन मूल्यों से विपरीत दिशा में Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था में अनेकान्त / 169 जा रहा है। झूठ मत बोलो, झगड़ा मत करो, पढ़ाया जा रहा है किन्तु वातावरण में इससे विपरीत हो रहा है / जीवन-विज्ञान की शिक्षा पद्धति सर्वांगीण व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया है / आज की शिक्षा में शारीरिक, बौद्धिक विकास के सूत्रों को अनेकान्त नकारता नहीं है। किन्तु उसका दर्शन है इनके साथ मानसिक एवं भावनात्मक मूल्यों को भी जोड़ा जाये। वर्ण-व्यवस्था में अनेकान्त ___वर्ण-व्यवस्था भारतीय समाज की स्वीकृत सच्चाई है / आज इसका विकृत रूप हमारे सामने है। जन्मना जाति की व्यवस्था में ऊँच-नीच और छुआछूत की समस्या पैदा की / इस समस्या के द्वारा कितने अग्निकाण्ड हो चुके हैं। कितने निर्दोष बेगुनाह मौत की होली में जल चुके हैं। अनेकान्त के अनुसार, वर्ण-व्यवस्था गलत नहीं है। वर्ण-व्यवस्था तो समाज के श्रम का विभाजन है। आर्थिक क्षेत्र में जैसे-Division of labour होता है। श्रम-विभाजन की दृष्टि से यह व्यवस्था उचित है किन्तु जन्म के साथ जाति-व्यवस्था को जोड़कर भयंकर अनर्थ हुआ। अनेकान्त के अनुसार जन्म से नहीं कर्म से जाति-व्यवस्था हो / मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान् बनता है / उत्तराध्ययन का उद्घोष है-कम्मुणा बम्हणो जाति तात्त्विक नहीं है किन्तु वह व्यवहार की उपयोगिता है / जाति के आधार पर मनुष्य छोटा-बड़ा नहीं हो सकता / 'एगा माणुसी जाई'। मनुष्य जाति एक है। यह प्राचीन आर्ष वाणी है। समाज में सब प्रकार की आवश्यकता होती है। व्यक्ति के भोजन, मकान आदि की प्राप्ति के साध्य समान है किन्तु उसकी पूर्ति के साधन भिन्न-भिन्न हैं / वे ही वर्ण-व्यवस्था के सूत्रधार हैं / विनोबा जी ने कहा—'समाज का विकास हाथ की पांच अंगुलियों की तरह हो / अनेकान्त के आलोक में वर्ण-व्यवस्था की समस्या का समाधान खोजा जा सकता है। परिवार में अनेकान्त परिवार समाज की मुख्य इकाई है। इसके आधार पर ही समाज का निर्माण होता है। परिवार में व्यक्ति अनेक सम्बन्धों से बंधा हुआ है। उन आपसी सम्बन्धों में यदा-कदा खींचातान चलती रहती हैं / जीवन और वातावरण अशान्त बन जाता है। यद्यपि आज ऐसे आन्दोलन चल रहे जो परिवार की अवधारणा को ही ठीक नहीं मानते हैं / मार्क्स ने कहा-abolish the famaly परिवार व्यवस्था को समाप्त करो क्योंकि परिवार ही शोषण का दुर्ग है / पाश्चात्य देशों में नारी स्वातंत्र्य के आन्दोलन पारिवारिक अवधारणा पर कुठाराघात कर रहे हैं। हमें इस सन्दर्भ में भी अनेकान्त Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 / आर्हती-दृष्टि दृष्टि से विहंगम करना होगा। जिस परिवार को शोषण का दुर्ग कहा जा रहा है, व्यक्ति दायित्वबोध, लोकशिक्षण, धर्मशिक्षण कर्तव्याकर्तव्य का विवेक भी तो उसी के द्वारा सीख रहा है। परिवार में शान्त-सहवास सहिष्णुता के द्वारा ही आ सकता है ।मैं सब जीवों को सहन करता हूं, वे सब मुझे सहन करे / मेरी सबके प्रति मैत्री है। किसी के प्रति मेरा वैर नहीं है। यह पारस्परिक सहिष्णुता का सूत्र है / सहिष्णुता एवं मैत्री के बिना परिवार, समाज का व्यवस्थित संचालन नहीं हो सकता। परिवार एवं समाज में परस्परता आवश्यक है / डार्विन का उद्विकास का सिद्धान्त सत्य होने पर भी समाज का आदर्श नहीं हो सकता। समाज में वृद्ध-बालक का भी जीवन निर्वाह होता है वे fitest तो नहीं हैं / जीवन के लिए संघर्ष आवश्यक है इसमें सत्यांश हो सकता है किन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं है / समाज के सन्दर्भ में जैनाचार्यों द्वारा प्रदत्त सूत्र ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्' का सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है / पारस्परिक सहयोग से ही जीवन का संचालन होता है / संघर्ष आरोपित हैं सहयोग स्वाभाविक है / अनेकान्त दृष्टि से चिन्तन करने से अनेक समस्याएं समाहित हो जाती हैं। . ___व्यक्ति समाज का एक अंग है / वह सामाजिक जीवन जीता है। समाज के सन्दर्भ में उसके जीवन का विकास होता है। व्यक्ति और समाज को सर्वथा पृथक् एवं अपृथक् नहीं किया जा सकता / व्यक्ति की विशेषता उसको समाज से अलग करती है। व्यक्ति समाज में अभेद का सा है तन्त्र / समाज में तन्त्रों का एक समवाय है। अर्थतन्त्र, राज्यतन्त्र, व्यवसायतन्त्र शिक्षातन्त्र और धर्मतन्त्र सामाजिक जीवन को संचालित करते हैं। जीवन निर्वाह के लिए अर्थतन्त्र, राज्यतन्त्र एवं व्यवस्थातन्त्र कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में ये तन्त्र सन्तुलित नहीं है। अर्थतन्त्र के साथ विसर्जन या व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा नहीं जुड़ी हुई है इसलिए वह असन्तुलित है, राज्यतन्त्र केवल नियन्त्रण के आधार पर चल रहा है / उसके साथ हृदय परिवर्तन का प्रयोग जुड़ा हुआ नहीं है अतः वह असन्तुलित है / व्यवसायतन्त्र में प्रामाणिकता का प्रयोग नहीं है अतः असन्तुलित है। शिक्षातन्त्र एकांगी विकास की परिक्रमा कर रहा है। वह सर्वांगीण विकास की धुरी पर नहीं चल रह है अतः सन्तुलित है। धर्मतन्त्र में उपासना का स्थान मुख्य और चरित्र का स्थान गौण हो गया है इसलिए उसका सन्तुलन भी गड़बड़ाया हुआ है। अनेकान्त इन सब तन्त्रों में सन्तुलन की बात कर रहा है। जब ये तन्त्र सन्तुलित होंगे तो निश्चित ही अनेकान्त की समाज-व्यवस्था प्राणीमात्र के लिए कल्याणकारी होगी। अनेकान्त दृष्टि से समस्या का समाधान खोजने पर आग्रह-विग्रह का प्रसंग उपस्थित नहीं होता / अनेकान्त दृष्टिवाला व्यक्ति किसी एक मान्यता, सिद्धान्त, प्रथा में Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था में अनेकान्त / 171 आसक्त नहीं होता है / वह हिताहित पर विचार करता है / अनेकान्ती मान्यता, परम्पराओं को छोड़ता नहीं है किन्तु उन पर विचार कर हेय उपादेय का विवेक करता है। किसी एक के साथ हठधर्मिता नहीं रखता। अनेकान्त में कट्टरता एवं सकीर्णता को कोई स्थान नहीं है। उसका दृष्टिकोण व्यापक है। अनेकान्ती अपना हित साधेगा किन्तु दूसरों का अहित करके नहीं। यदि उसकी कार्य-शैली से दूसरों का अहित हो रहा है तो वह अपनी कार्यशैली पर पुनर्चिन्तन करके परिवर्तन करेगा। अपने चिन्तन के प्रति राग एवं दूसरों के चिन्तन के प्रति द्वेष रखनेवाला कभी अनेकान्ती नहीं हो सकता। राग-द्वेष से जितनी मुक्ति होगी उतना ही व्यक्ति का चिन्तन अनेकान्ती एवं सम्यक् बनेगा। समाज के सन्दर्भ में अनेकान्त का अर्थ होगा अपने चिन्तन को हितकारी बनाना। समाज एवं व्यक्ति को साथ-साथ सुधारना। 'मैं कहता हूं सत्य वही है तू कहता है वह सत्य नहीं है।' यह विचारधारा समाज को अवनति के गर्त में ले जाती है। समाज का विकास अनेकान्ती विचार से ही हो सकता है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त की सर्वव्यापकता अनेकान्त का सिद्धान्त किसी भी एक दर्शन विशेष का नहीं है / तथापि एकान्त . दृष्टि के पृष्ठपोषकों ने इसके विस्तृत दायरे को सीमित करने का प्रयत्न किया। इसको किसी एक दर्शन-विशेष का अभ्युपगम कहकर नकारने का प्रयत्न किया। किन्तु सच्चाई तो यह कि अनेकान्त के बिना किसी का भी कार्य सम्यक् रूप से चल नहीं सकता। सिद्धान्त रूप से अनेकान्त का निराकरण करनेवालों को भी अपने सिद्धान्त की व्याख्या के लिए अनेकान्त सोपान का हठात् आश्रय लेना पड़ा। इस प्रकार के स्पष्ट उदाहरण उनके ग्रन्थों में कई स्थलों पर उपलब्ध होते हैं। ___ बौद्ध दर्शन के प्रणेता भगवान् बुद्ध ने स्थान-स्थान पर अनेकान्त दृष्टि का आश्रय लेकर व्याकरण किया है। विनयपिटक महावग्म और अंगुत्तरनिकाय में भगवान् बुद्ध के साथ सिंह सेनापति के प्रश्नोत्तरों से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। भगवान बुद्ध को अनात्मवादी होने के कारण कुछ लोक अक्रियावादी कहते थे। अतएव सिंह सेनापति ने भगवान् बुद्ध से पूछा कि आपको अक्रियावादी कहते हैं, क्या यह सच है ? इसके उत्तर में भगवान् बुद्ध ने जो कुछ कहा उसके द्वारा उनकी अनेकान्तवादिता प्रकट होती है। उन्होंने कहा-यह सच है मैं अकुशल कर्मों के प्रति, संस्कार के प्रति अक्रिया का उपदेश देता हूं अतः अक्रियावादी हूं तथा कुशल संस्कार की क्रिया का उपदेश देता हूं अतः क्रियावादी हूं। भगवान् बुद्ध ने संयुक्तनिकाय में कहा—जीव और शरीर को एकान्त भिन्न माना जाये तो ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं है अतएव दोनों अन्तों को छोड़कर मैं मध्यम मार्ग का उपदेश देता हूं। ___ आत्मा का नैश्चयिक अस्तित्व स्वीकार करने पर इन्द्रिय और मन पर आत्मा का समारोप किया जाता हैं, इसे विधि पक्ष कहते हैं / एकान्तरूप से आत्मा के अस्तित्व की अस्वीकृति निषेध पक्ष है। बौद्ध दर्शन का कहना है हम न एकान्त विधि पक्ष को और न एकान्त निषेध पक्ष को स्वीकार करते हैं किन्तु हम मध्यम मार्ग को मानते हैं। यह मध्यममार्ग की स्वीकृति अनेकान्त की सूचना है। 'सर्वं अस्ति' यह एक अन्त है। 'सर्वं नास्ति' यह दूसरा अन्त है / भगवान् बुद्ध ने इन दोनों अन्तों को अस्वीकार करके मध्यम मार्ग का अवलम्बन लिया है। वे कहते हैं-'सव्वं अत्थीति खो ब्राह्मण अयं एको अन्तो सव्वं नत्थीति खो ब्राह्मण अयं Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त की सर्वव्यापकता / 173 दुतियो अन्तो। एते ते ब्राह्मणउभो अन्ते अनुपगम्म मज्झेन तथागतो धम्मं देसेतिअविज्म पच्चया संखारा' संयुत्तनिकाय, 1147 शून्यवादी एक ही संसार को अस्ति, नास्ति रूप कहते हैं। 'जगत् वैचित्र्यं व्यवहारतो अस्ति निश्चयतो नास्ति' इस प्रकार का कथन अनेकान्त विहिन दृष्टि नहीं कर सकती। ___ बौद्ध दार्शनिक एक ही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को प्रमाण एवं अप्रमाण दोनों मानते हैं। नीलादि अंश में 'यह नीला है' इस प्रकार अनुकूल विकल्प पैदा करने का कारण प्रमाण है तथा क्षणिकांश पक्ष में अक्षणिक विकल्प का दर्शन अप्रमाण है / बौद्ध दर्शन ने सविकल्पक ज्ञान को बाह्य नीलादि पदार्थ की अपेक्षा सविकल्पक एवं स्वरूप की अपेक्षा निर्विकल्पक स्वीकार करके स्वतःही अनेकान्त को स्वीकृति दे दी है / न्यायबिन्दु में धर्मकीर्ति ने कहा है कि–'दर्शनोतरकालभाविनः स्वाकारध्यवसायिन एकस्यैव विकल्पस्य बाह्यार्थे सविकल्पत्वमात्मस्वरूपे तु सर्वचित्त चैतानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम्' / नैयायिक वैशेषिक दर्शन ने भी अपने सिद्धान्त प्रतिपादन में अनेकान्त दृष्टि का अवलम्बन लिया है। यथा उनका मानना है, इन्द्रिय सन्निकर्ष से धूमज्ञान होता है , धूमज्ञान से अग्नि की ज्ञप्ति होती है। यहां इन्द्रिय सनिकर्ष प्रत्यक्ष प्रमाण है / धूमज्ञान उसका फल है और यही धूमज्ञान अग्निज्ञान की अपेक्षा अनुमान प्रमाण है / फलस्वरूप एक ही धूमज्ञान इन्द्रिय सन्निकर्ष रूप प्रत्यक्ष प्रमाण का फल एवं अनुमान प्रमाण दोनों है। एक ही ज्ञान फल भी है प्रमाण भी है / यह कथन अनेकान्त का संवाहक है। वैशेषिक नैयायिक दर्शन ने दो प्रकार का सामान्य स्वीकार किया है—महासामान्य, अपर सामान्य / अपर सामान्य का ही अपर नाम सामान्य विशेष है / वह द्रव्य, गुण और कर्म में रहता है। द्रव्यत्व सामान्य विशेष है। द्रव्यत्व नाम का सामान्य ही द्रव्यों में रहता है, इस अपेक्षा से सामान्य है तथा गुण और कर्म से अपनी व्यावृत्ति करवाता है अतः विशेष है यह अपेक्षा अनेकान्त के बिना असम्भव है। ___सांख्य दर्शन प्रकृति को त्रिगुणात्मक मानते हैं और ये तीनों गुण आपस में विरोधी हैं उनका एक ही प्रकृति में सहावस्थान अनेकान्त के बिना सम्भव नहीं है। एक ही प्रकृति संसारी प्राणियों के प्रति प्रवृत्तिधर्मा तथा मोक्षस्थ पुरुषों के लिए निवृत्तिधर्मा है यह अभ्युपगम भी अनेकान्त का द्योतक है। सांख्य प्रकृति और पुरुष को निश्चयत: भिन्न तथा व्यवहारत: अभिन्न मानते हैं यह कथन भी अनेकान्त की पुष्टि करता है। मीमांसकों ने तो प्रकारान्तर से उत्पाद, व्यय एवं धोव्य रूप त्रयात्मक वस्तु को Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 / आर्हती-दृष्टि स्वीकार करके अनेकान्त को ही स्वीकार किया है। वर्धमानकभङ्गे च रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिचाप्युत्तरार्थिनः / / हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं, तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम्।... नोत्पादस्थितिभङ्गानामभावे स्यान्मतित्रयम् / / पातञ्जल योग सूत्र ने वस्तु को नित्यानित्य स्वीकार किया है / उन्होंने धर्म, लक्षण एवं अवस्था रूप से तीन प्रकार के धर्मी परिणाम बताये हैं। सुवर्ण के उदाहरण से स्पष्ट उनका सिद्धान्त अनेकान्त का अनुयायी है। पाश्चात्य दर्शन ने भी अनेकान्त के सिद्धान्त का उपयोग किया है। उस तथ्य को उजागर करने के लिए पाश्चात्य दर्शन के तुलनात्मक अध्ययन की अपेक्षा है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभज्यवाद ज्ञानी मनुष्य सत्य के प्रति समर्पित होता है / वह ऐसा कोई वचन नहीं बोलता जिससे सत्य की प्रतिमा खण्डित हो। सत् द्रव्यपर्यायात्मक है। अनेक द्रव्य और अनन्त पर्याय का अस्तित्व है / उन सबको जानना प्रत्येक सत्यान्वेषी के लिए सम्भव नहीं है / सत्य का अन्वेषण करनेवाला जितने सत्य को जान जाता है उसे मध्यस्थता से स्वीकार करता है। सत्य व्याकरण में वह अनाग्रह का प्रयोग करता है। आग्रही व्यक्ति सत्यान्वेषण नहीं कर सकता। सूत्रकृताङ्ग सूत्र में भिक्षु को भाषा-प्रयोग का निर्देश देते हुए कहा गया कि वह विभज्यवाद के माध्यम से व्याख्या करे। विभज्यवाद के तात्पर्य-बोध के लिए जैन टीका ग्रन्थों के अतिरिक्त बौद्ध ग्रन्थ भी सहायक होंगे। मज्झिमनिकाय में शुभमाणवक के प्रश्न के उत्तर में भगवान् बुद्ध ने कहा हे माणवक ! मैं यहां विभज्यवादी हूं एकांशवादी नहीं हूं / माणवक ने प्रश्न करते हुए पूछा - 'मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ आराधक होता है, प्रवजित आराधक नहीं होता। इस विषय में आपका क्या चिन्तन है? भगवान् बुद्ध ने इस प्रश्न का समाधान हां या ना में नहीं दिया किन्तु उन्होंने विभागपूर्वक प्रश्न का समाधान प्रस्तुत किया / यदि गृहस्थ या त्यागी मिथ्यात्वी है तो वे आराधक नहीं हो सकते तथा यदि वे दोनों सम्यक् प्रतिपन्न है तो आराधक है / इसलिए कुछ कथन ऐसे होते हैं जिनका परा विश्लेषण किये बिना वे असत्य हैं या सत्य हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रस्तुत प्रसंग में बुद्ध ने आराधकता और अनाराधकता में जो कारण था, उसे बताकर दोनों को आराधक और अनाराधक बताया है। अर्थात् प्रश्न का उत्तर विभाग करके दिया है अतएव वे अपने को विभाज्यवादी कहते हैं। भगवान् बुद्ध सर्वत्र विभज्यवादी नहीं थे किन्तु जिन प्रश्नों का समाधान विभज्यवाद से ही सम्भव था। उन कुछ ही प्रश्नों का उत्तर देते समय वे विभज्यवाद का अवलम्बन लेते थे। भगवान् महावीर के विभज्यवाद का क्षेत्र व्यापक था। भगवान् बुद्ध का विभज्यवाद कुछ मर्यादित क्षेत्र में था। यही कारण है कि जैन दर्शन आगे जाकर अनेकान्तवाद में परिणत हो गया। भगवान् बुद्ध के विभज्यवाद की तरह भगवान् महावीर का विभज्यवाद भी भगवतीगत प्रश्नोत्तरों से स्पष्ट होता है। जयन्ती-भन्ते ! जीव का सोना अच्छा है या जागना? Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 / आर्हती-दृष्टि भगवान्–जयन्ती ! कुछ जीवों का सोना अच्छा है, कुछ का जागना अच्छा है जयन्ती—इसका क्या कारण है ? भगवान्—जो जीव अधार्मिक है उनका सोना अच्छा है क्योंकि जब तक वे सोये रहेंगे तब तक अनेक जीवों को पीड़ा नहीं देंगे। अपने को और दूसरों को अधार्मिक क्रिया में नहीं लगायेंगे। धार्मिक जीवों का जागना अच्छा है। क्योंकि वे अपने को एवं दूसरों को धार्मिक क्रिया में संलग्न करते हैं / इस प्रकार के अनेक प्रश्नोत्तर भगवती में उपलब्ध हैं जो विभज्यवाद पर आधारित हैं। __ चूर्णिकार ने विभज्यवाद के दो अर्थ किये हैं-भजनीयवाद और अनेकान्तवाद / प्रस्तुत प्रसंग में विभज्यवाद के दूसरे अर्थ अनेकान्त की व्याख्या करना समुचित होगा। जहां जैसा उपयुक्त हो वहां वैसी अपेक्षा का सहारा लेकर वैसा प्रतिपादन करे / अमक नित्य है या अनित्य है ? ऐसा प्रश्न करने पर द्रव्य की अपेक्षा नित्य है, पर्याय की अपेक्षा अनित्य है, इस प्रकार उसको सिद्ध करे। . शीलांकवृत्तिकार ने विभज्यवाद के तीन अर्थ किये हैं(१) पृथक्-पृथक् अर्थों का निरूपण करनेवाला वाद। (2) स्याद्वाद। (3) अर्थों का सम्यग् विभाजन करने वाला वाद-जैसे द्रव्य की अपेक्षा से नित्यवाद पर्याय की अपेक्षा से अनित्यवाद इत्यादि। बौद्ध साहित्य में भी विभज्यवाद, विभज्यवाक् आदि का उल्लेख अनेक स्थानों पर प्राप्त होता है / विभज्य के दो अर्थ हैं—(१) विश्लेषणपूर्वक कहना, (2) संक्षेप का विस्तार करना / विभज्यवाद का मूल आधार विभागपूर्वक उत्तर देना है। दो विरोधी बातों को एक सामान्य में स्वीकार करके उसी एक को विभक्त करके दो भागों में विरोधी धर्म का संगत बताना विभज्यवाद का फलितार्थ है / अनेकान्तवाद विभज्यवाद का ही विकसित रूप है तथा वह मौलिक भी है / अनेकान्त सबका मूल है / विभज्यवाद भी अनेकान्त की एक शाखा है जैसे नय निक्षेप, किन्तु इनका मूल अनेकान्त ही है। भगवान् महावीर विभज्यवाद के मूल में गये और उसके उत्स को खोजा, वह अनेकान्त __ आगमकालीन अनेकान्तवाद या विभज्यवाद को स्याद्वाद कहा जाए तो अनुचित नहीं है। विभज्यवाद अनेकान्तवाद का प्राचीन स्वरूप रहा है। विभज्यवाद में प्रश्न को विश्लेषणपूर्वक समाहित किया जाता है। किस दृष्टि या अपेक्षा से इसका क्या उत्तर दिया जा सकता है / इस प्रकार एक प्रश्न के सन्दर्भ में जितनी दृष्टियां उपस्थित Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभज्यवाद / 177 होती हैं उतने ही प्रकार से उसका समाधान किया जाता है। एक दृष्टि से ऐसा हो सकता है दसरी अपेक्षा से ऐसा नहीं हो सकता है। 'जावइया वयणपहा तावइया चेव होति णयवाया' यह सारा विश्लेषण विभज्यवाद के आधार पर ही सम्भव है। ___ भारतीय दर्शन का चिन्तन बहुत बार एक दिशा में प्रवाहित होता हुआ-सा प्रतीत होता है। विभज्यवाद की अवधारणा भी उस सम्मिलित चिन्तन की एक स्फुरणा है। विभज्यवाद का चिन्तन उस समय के दार्शनिक वातावरण में था जिसका आभास तत्कालीन साहित्य का अवलोकन करने से स्पष्ट हो गता है। पातञ्जल योगभाष्य में तीन प्रकार के प्रश्नों का उल्लेख है-एकान्तवचनीय, विभज्यवचनीय एवं अवचनीय / भाष्यकार ने इन प्रश्नों को व्याख्यायित करते हुए कहा कि 'सर्वो जातो मरिष्यति? ओम्।' इस प्रकार के प्रश्न एकान्तवचनीय हैं / अथ : सर्वो मृत्वा जनिष्यति इति? प्रत्युदितख्याति क्षीणतृष्ण कुशल जन्म नहीं लेंगे किन्तु अकुशल मर करके जन्म लेंगे। इस प्रकार के प्रश्न विभज्यवचनीय है। संसार शान्त है या अनन्त ? यह अवचनीय प्रश्न है / परन्तु इस प्रश्न को अवचनीय कहकर के पुनः विभज्यवचनीय कह देते हैं / भाष्य में ऐसा उल्लेख है कि कुशल का संसार शान्त है कशलेतर का संसार शान्त नहीं है। इस प्रकार अवचनीय कहकर व्याकरणीय कह दिया है / वाचस्पति मिश्र ने इस प्रश्न को समाहित एकान्ततः अवचनीय कहकर किया है जो कि उचित है। वाचस्पति मिश्र ने तत्त्ववैशारदी में ही एक प्रश्न समुपस्थित करके अवधनीय को समझाने का प्रयत्न किया है। यदि संसार आनन्त्य के कारण संसार के परिणाम की समाप्ति नहीं होगी तो महाप्रलय के समय सारी आत्माओं का सहसा समुच्छेद कैसे होगा तथा सष्टि की आदि में संसार कैसे उत्पन्न होगा? एक-एक करके सारी आत्माओं का मुक्ति-क्रम से सबका विमोक्ष होने से उच्छेद होगा तथा सबका संसार क्रम से प्रधान परिणाम-क्रम की समाप्ति हो जाने से प्रधान में अनित्यता का प्रश्न आयेगा। अपूर्व सत्त्व का प्रादुर्भाव तो होता नहीं है जिससे आनन्त्य तथा पुरुष का उत्पाद मानोगे तो वह आदि हो जायेगा / उसके अनादित्व का व्याघात होगा ऐसा होने से तो शास्त्रार्थ-भंग का प्रसंग होगा। पुरुष अनेक हैं प्रकृति एक है। एक पुरुष के मुक्त हो जाने से सारे ही पुरुषों के मोक्ष का प्रसंग होगा तथा यदि ऐसा कहें कि मुक्त की अपेक्षा तो प्रकृति अपरिणामी है संसारी की अपेक्षा परिणामी है तो एक ही प्रकृति में विरोध पैदा होगा अतः इस प्रकार के प्रश्न अवचनीय हैं। ये प्रश्न-उत्तर के योग्य नहीं हैं। भगवान् बुद्ध भी विभज्यवाद के प्रवक्ता थे। उन्होंने अनेक स्थानों पर विभज्यवाद Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 / आर्हती-दृष्टि ... का अवलम्बन लेकर तत्त्व को प्रतिपादित किया है / बुद्ध एकान्ततः विभज्यवादी नहीं थे, ऐसा बौद्ध ग्रन्थों में आगत उल्लेखों से आपाद् दृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है। बौद्ध साहित्य में चतुर्विध प्रश्नों का उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि बुद्ध प्रश्नों का उत्तर चार प्रकार से तर्कानुकूल देते थे। सम्प्रति 'मिलन्द प्रश्न' में आगत सन्दर्भ का उल्लेख करना उचित होगा। चार प्रकार के प्रश्न होते हैं... (1) एकांश व्याकरणीय यथा-'क्या रूप अनित्य होता है। इसका समाधान होगा 'हाँ' क्योंकि रूप अनित्य होता है / एकांश व्याकरणीय उसे कहा जाता है जिसका किसी एक निश्चित पक्ष में उत्तर दिया जा सके। (2) विभज्यव्याकरणीय; यथा—'अणिच्चपन रूपं क्या अनित्यता रूप होती है? यहां समाधान होगा अनित्यता रूप होती है तथा रूप के अतिरिक्त भी होती है क्योंकि अनित्यता वेदना संज्ञा आदि में भी है / जहां प्रश्न का उत्तर विभागपूर्वक दिया जाता है वह विभज्यवचनीय है। ___(3) प्रतिपृच्छा व्याकरणीय; यथा-किं नु खो चक्खुना सव्वं विजानाती? यहां प्रतिप्रश्न के साथ समाधान होगा। सर्व से आप कहना क्या चाहते हैं ? क्या चक्षु सारे रूप को जानती है ?क्या चक्षु सूक्ष्म या स्थूल सारे रूप को जानती है / तब उत्तर होगा . चक्षु सूक्ष्म रूप को नहीं जानती। वह केवल स्थूल रूप को जानती है। (4) स्थापनीय; यथा— 'सस्सतो लोको' यह स्थापनीय प्रश्न है। जिसका उत्तर नहीं होता क्योंकि स्थापनीय प्रश्न तो इस प्रकार का है कि क्या वन्ध्या का पुत्र काला होता है या गौरा? जब पुत्र ही नहीं है तो काले-गोरे का प्रश्न ही नहीं होता। अतः यह प्रश्न ही सम्यक् नहीं है / इसलिए बुद्ध ने 14 प्रकार के अव्याकृत प्रश्न कहे हैं। उनका उत्तर नहीं हो सकता। जो स्थापनीय प्रश्न है वह ही अव्याकृत प्रश्न है। अभिधर्म कोश में भी चार प्रकार के प्रश्नों का उल्लेख है। उनके नाम वे ही है, प्रयोजन भी वही हैं किन्तु उदाहरण में भिन्नता है, यथा (1) सारे सत्त्व मरेंगे? मरेंगे। (2) क्या सब जन्म लेंगे? संक्लेशयुक्त जीव जन्म लेंगे। क्लेश रहित जन्म नहीं लेंगे। यह विभज्यवचनीय है। (3) क्या मनुष्य विशिष्ट है या हीन? प्रतिप्रश्न के द्वारा उत्तर होता है किसकी अपेक्षा से? पशु से विशिष्ट है देवता से हीन है। (4) सत्त्व स्कन्ध से भिन्न है या अभिन्न ? यह स्थापनीय है क्योंकि सत्त्व (द्रव्य) का ही अभाव है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभज्यवाद / 179 जैनदर्शन स्पष्टत: विभज्यवादी है। उसका कोई भी कथन विभज्यवाद के बिना नहीं हो सकता है। सूत्रकृताङ्ग में इसका स्पष्ट उल्लेख है। 'भिक्खु विभज्यवायं वियागरेज्जा' जैसा कि योग दर्शन में चार प्रकार के प्रश्नों का उल्लेख प्राप्त होता है जैन दर्शन में ऐसा नहीं है। वहां सिर्फ विभज्यवाद का ही उल्लेख है ।जैनदर्शन एकांशवादी नहीं है तथा बुद्ध की तरह भगवान् महावीर के पास कोई अव्याकृत प्रश्न भी नहीं था। अतः स्थापनीय प्रश्न जैन के यहाँ हो ही नहीं सकता। प्रतिप्रश्न का समाहार विभज्यवचनीय में ही हो जाता है। अतः जैन के अनुसार सारे प्रश्न ही विभज्यवचनीय हैं / बिना विभाग के किसी प्रश्न को समाहित नहीं किया जा सकता तथा सत्य की प्राप्ति भी नहीं सकती। इस अवधारणा का समर्थन सूत्रकृताङ्ग से हो जाता है। वहां 'वियागरेज्जा' शब्द का जो प्रयोग हुआ है वह ध्यान देने योग्य है। वियागरेज्जा का अर्थ है व्याकरणीय अर्थात् सारे ही प्रश्न विभज्यव्याकरणीय हैं तथा दूसरा उल्लेख भी इसी में प्राप्त होता है। ‘णयासिसावाद वियागरेज्जा' चूर्णिकार वृत्तिकार इसका अर्थ करते हैं कि 'मुनि आशीर्वचन न कहें' किन्तु इसका पाठान्तर प्राप्त होता है। ‘ण यासियावाय' इसके आधार पर डॉ. ए. एन. उपाध्ये इसका अर्थ अस्याद्वाद अर्थात् मुनि स्याद्वाद रहित (वचनों को) न बोले ।डॉ. नथमल टांटिया भी / इस अर्थ का समर्थन करते हैं। - विभज्यवाद अनेकान्तवाद का पूर्वरूप है / अनेकान्तवाद उसका विस्तारमात्र है। विभज्यवाद का प्रयोग सूत्रकृताङ्ग के अतिरिक्त अन्य जैन ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं होता। जबकि बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलों पर इस शब्द का प्रयोग हुआ किन्तु इससे यह अनुमान नहीं करना चाहिए कि जैन दर्शन ने विभज्यवाद का अनुगमन नहीं किया / जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं कि जैन दर्शन पूर्णतः विभज्यवादी है। उसने विभज्यवाद का विस्तार अनेकान्तवाद, नयवाद, निक्षेपवाद के रूप में किया। वस्तुतः विभज्यवाद का मूल भी अनेकान्त है / नयवाद, निक्षेपवाद की सारी पद्धति. विभज्यवाद पर ही आधारित है। जितने भी सापेक्ष कथन हैं वह विभज्यवाद है। सिद्धसेन दिवाकर ने कहा अपेक्षा से युक्तकथन स्वसमय है / अपेक्षा निरपेक्ष परसमय है। अतएव विभज्यवचन जैन दर्शन है विभज्येतर परसमय है। वस्तु का स्वरूप विभज्यवाद के द्वारा ही निर्धारित हो सकता है / संश्लेषण की अपेक्षा वस्तु पर्यायरहित है। विश्लेषण की अपेक्षा द्रव्यरहित है यह हेमचन्द्राचार्य का कथन है / ' वर्तमान विज्ञान भी ज्ञान का आधार विभज्यवाद को मानता है। उसके अनुसार / सर्वथा कोई भी ज्ञान प्रामाणिक या अप्रामाणिक नहीं है। एक सीमित दायरे, एक Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 / आर्हती-दृष्टि विशिष्ट अपेक्षा से वस्तु का स्वरूप अन्य प्रकार का है। वही एक अन्य अपेक्षा से प्रथम से अन्य प्रकार का हो जाता है। विकास का आधारभूत तत्त्व विभज्यवाद है। हम देखते हैं कि एक ही वस्तु का ज्ञान मनुष्य जाति को एक प्रकार का हो रहा है, उसी वस्तु का ज्ञान पशु जगत् को पृथक् रूप से हो रहा है। उदाहरणार्थ- वस्तु का रंग / मनुष्य को वस्तु के विभिन्न रंग दिखाई देते हैं जबकि पशु में रंग-विवेक करने का ज्ञान ही नहीं होता है। इस स्थिति में किस ज्ञान को सत्य माने, किसको असत्य? दोनों ही अपने ज्ञान से अपना व्यवहार सिद्ध करते हैं। अतः दोनों ही अपनी अपेक्षा से सत्य है। किसी एक को सत्य या मिथ्या नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार की समस्याओं का समाधान विभज्यवाद के आधार पर ही दिया जा सकता है / अतएव विभज्यवादशून्य व्यवहार ही असम्भव है / इसलिए जैन दर्शन पूर्णतः विभज्यवादी है जो कि समीचीन है / सत्य का प्रकटन वाणी से ही सम्भव है / वाणी असीम को एक साथ प्रकट करने में असमर्थ है / अतः वह विभज्यवाद का सहारा लेकर अपनी अपूर्णता को पूर्ण करने में समर्थ हो जाती है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद जैन दर्शन की चिन्तन-शैली का नाम अनेकान्त एवं प्रतिपादन-शैली का नाम स्याद्वाद है / अनेकान्त परिकल्पित नहीं है अपितु यह वस्तु का यथार्थ स्वरूप है अर्थात् वह यथार्थ आधारित सिद्धान्त है। ज्ञेय अनन्त है। ज्ञान भी अनन्त है किन्तु वाणी अनन्त नहीं है। ज्ञान शक्ति असीम है किन्तु शब्द-शक्ति सीमा में आबद्ध है। अतः अनन्त ज्ञान एक क्षण में अनन्त ज्ञेय को जान सकता है किन्तु वाणी अनन्त ज्ञेय को अभिव्यक्त नहीं कर सकती। सम्पूर्ण सत्यों को युगपत् अभिव्यक्त करने का सामर्थ्य वाणी में नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में ही स्याद्वाद सिद्धान्त का उद्भव हुआ। स्याद्वाद या सापेक्षिक कथन पद्धति की आवश्यकता के मूलतः चार कारण हैं—(१) वस्तु तत्त्व की अनन्त धर्मात्मकता, (2) मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों की सीमितता / (3) मानवीय ज्ञान की अपूर्णता एवं सापेक्षता, (4) भाषा के अभिव्यक्ति सामर्थ्य की सीमितता एवं सापेक्षता / वस्तुतः उक्त तथ्य ही स्याद्वाद सिद्धान्त के उद्भव के प्रेरक हैं / स्याद्वाद का उद्गम अनेकान्त वस्तु है / तस्वरूप वस्तु के यथार्थ ग्रहण के लिए अनेकान्त दृष्टि है। स्याद्वाद उस दृष्टि को वाणी द्वारा व्यक्त करने की पद्धति है। स्याद्वाद स्वरूप एवं परिभाषा - स्याद्वाद शब्द स्यात् और वाद इन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ है। स्यात् शब्द के अर्थ के सन्दर्भ में जितनी भ्रान्ति दार्शनिकों की रही है उतनी अन्य किसी शब्द के सम्बन्ध में सम्भवतः नहीं रही है। विद्वानों द्वारा हिन्दी भाषा में स्यात् का अर्थ शायद, सम्भवतः, कदाचित् और अंग्रेजी भाषा में Probable, Maybe, Perhaps, Some how आदि किया है और इन्हीं अर्थों के आधार पर स्याद्वाद को संशयवाद, सम्भावनावाद या अनिश्चयवाद समझने की भूल की जाती रही है। शंकर से लेकर आधुनिक युग तक के विद्वान् इसके अर्थ-निरूपण में भ्रामक रहे हैं। जैन आचार्यों ने स्यात् शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में किया है। यदि स्याद्वाद के आलोचक विद्वानों ने स्याद्वाद सम्बन्धी किसी मूल ग्रन्थ का पारायण किया होता तो यह भ्रान्ति उन्हें सम्भवतः नहीं होती। स्यात् शब्द का अर्थ - स्याद्वाद में प्रयुक्त स्यात् शब्द तिङ्न्त पद नहीं है। तिङ्न्त प्रतिरूपक अव्यय Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 / आर्हती-दृष्टि है। सम्मन्तभद्र, विद्यानन्द अमृतचन्द्र, मल्लिषेण आदि सभी जैनाचार्यों ने स्यात् शब्द को निपात या अव्यय माना है / आप्त मीमांसा में इसके अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है कि वाक्येष्वनेकान्तद्योति गम्यं प्रति विशेषणम्। स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि / - स्यात् शब्द निपात है, जो अर्थ के साथ सम्बन्धित होने पर वाक्य में अनेकान्त का द्योतक है तथा गम्य अर्थ का विशेषण होता है / आचार्य अमृतचन्द्र ने भी स्यात् शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि स्यात् एकान्तता का निषेधक, अनेकान्त का प्रततिपादक तथा कथंचित् अर्थ का द्योतक एक निपात है—“सर्वथात्व निषेधकोऽनेकांतता द्योतकः कथंचिदर्थे स्यात् शब्दो निपातः स्यादित्यव्ययमनेकांतद्योतकम्।' स्यात् शब्द के प्रशंसा, अस्तित्व, विवाद, विचारणा, अनेकान्त, संशय, प्रश्न आदि अनेक अर्थ हैं / जैन दर्शन में इसका प्रयोग अनेकान्त अर्थ में होता है / इस प्रकार यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि जैन विचारकों की दृष्टि में स्यात् शब्द संशयपरक न होकर निश्चयात्मक अर्थ का द्योतक है। वाद शब्द का अर्थ 'कथन विधि' है। इस प्रकार स्याद्वाद सापेक्ष कथन पद्धति का सूचक है। भिक्ष न्याय कर्णिका में स्याद्वाद को परिभाषित करते हुए कहा गया, 'अर्पणानपणाभ्यामनेकांतात्मकार्थप्रतिपादनपद्धतिः स्याद्वादः' प्रधानता एवं गौणता से अनेकान्तात्मक वस्तु का प्रतिपादन करनेवाली पद्धति स्याद्वाद है / वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ वस्तु में न्यस्त है। वस्तु विरोधी धर्मयुगलों का समवाय है। एक ही वस्तु नित्य भी है, अनित्य भी है। सत् भी है, असत् भी है। स्याद्वाद की प्राचीनता ___ भगवान् महावीर ने स्याद्वाद की पद्धति से अनेक प्रश्नों का समाधान किया है। उसे आगम युग का अनेकान्त या स्याद्वाद कहा जाता है। दार्शनिक युग में उसी का विस्तार हुआ किन्तु उसका मूल रूप नहीं बदला। भगवती सूत्र में अनेक स्थानों पर स्याद्वाद का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। जब गौतम भगवान् से पूछते हैं-भगवन् ! जीव शाश्वत है या अशाश्वत / भगवान् ने कहा-द्रव्यार्थिक अपेक्षा से शाश्वत एवं पर्यायार्थिक अपेक्षा से अशाश्वत है / 'गोयमा। जीवा सिय सासया, सिय असासया।' यहाँ सिय का अर्थ स्यात् है जो अपेक्षा अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। स्याद्वाद की नींव अपेक्षा है / स्याद्वाद अपेक्षा भेद से विरोधी धर्म युगलों के Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद / 183 विरोध का समन्वय करता है / वस्तु में सत्, असत्, नित्य, अनित्य आदि विरोधी धर्म विद्यमान है / स्याद्वाद वस्तु के उस स्वरूप की सापेक्ष व्याख्या करता है जो वस्तु सत् है, वही असत् भी है किन्तु जिस रूप से सत् है उस रूप से असत् नहीं है / स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा वस्तु सत् परचतुष्ट्य की अपेक्षा वह नास्ति रूप है। दो निश्चित दृष्टि बिन्दुओं के आधार पर वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन करनेवाला वाक्य संशय रूप नहीं हो सकती / स्याद्वाद को अपेक्षावाद या कथंचित्वाद भी कहा जा सकता है। ___ 'स्यादस्ति घटः' इस वाक्य में अस्ति पद वस्तु के अस्तित्व धर्म का वाचक है और स्यात् पद उसमें रहनेवाले नास्तित्व आदि शेष धर्मों का द्योतन करता है / स्यात् शब्द वस्तु का अस्तित्व किस अपेक्षा से है / इसके प्रतिपादन के साथ यह भी स्पष्ट करता है कि अस्ति के अतिरिक्त भी वस्तु में अन्य धर्म है अतः आचार्य सम्मन्तभद्र ने कहा—'स्यात् सत्' इत्यादि वाक्यों में स्यात् शब्द अनेकान्त का द्योतक एवं गम्य अर्थ का समर्थक होता है। स्याद्वाद वस्तु के अनन्त धर्मों का प्रतिपादन सातभंगों और नयों की अपेक्षा से ही करता है ‘सप्तभंगनयापेक्षः स्याद्वादः / ' सप्तभंगी के द्वारा स्याद्वाद वस्तु की व्यवस्था करता है। अनेकान्त एवं स्याद्वाद में अन्तर - अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को यद्यपि पर्यायवाची मान लिया जाता है किन्तु दोनों में अन्तर है। अनेकान्त एक व्यापक विचार पद्धति है और स्याद्वाद उस विचार पद्धति की अभिव्यक्ति का निर्दोष मार्ग है। अनेकान्त दर्शन है और स्याद्वाद उसकी * अभिव्यक्त का ढंग है / अनेकान्तवाद के द्वारा वस्तुतत्त्व के जिन अनन्त धर्मों का बोध होता है उनमें से किसी एक धर्म को दूसरे धर्मों का प्रतिषेध किए बिना प्रस्तुत करना ही स्याद्वाद है / स्याद्वाद का सिद्धान्त सुव्यवस्थित और व्यावहारिक है। यह अनन्त धर्मात्मक वस्तु की विभिन्न दृष्टिकोणों से व्यवस्था करता है / एक ही मनुष्य में अपेक्षा भेद से पितृत्व, पुत्रत्व आदि विरोधी धर्मों का युगपद् अस्तित्व सम्भव है / आपेक्षिक व्यवहार का नाम ही स्याद्वाद है / अनेकान्त और स्याद्वाद ये पर्यायवाची नहीं हैं किन्तु इनमें परस्पर प्रतिपाद्य प्रतिपादक सम्बन्ध है / स्याद्वाद प्रतिपादक है / अनेकान्त प्रतिपाद्य है। जैन दर्शन का आधार-स्तम्भ अनेकान्त एवं स्याद्वाद ही है / जागतिक एवं वार्तमानिक समस्याओं का समाधान अनेकान्त एवं स्याद्वाद के आलोक में प्राप्त किया जा सकता Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विध सत् की अवधारणा जैन दर्शन में सत्, तत्त्व, अर्थ, द्रव्य, तत्त्वार्थ एवं पदार्थ इन शब्दों का प्रयोग प्रायः . एक ही अर्थ में होता रहा है / जो सत्-रूप पदार्थ हैं वे ही द्रव्य हैं, तात्त्विक है / दर्शन शास्त्र में सर्वप्रथम स्वयं के दर्शन से सम्मत तत्त्वों का निर्देश प्रारम्भ में कर दिया जाता है। वैशेषिक सूत्र में द्रव्य आदि छः पदार्थ स्वीकार किये गये हैं। उनमें से द्रव्य गुण एवं कर्म इन तीनों को 'सत्' इस पारिभाषिक संज्ञा से अभिहित किया गया है। न्याय सूत्र में प्रमाण आदि सोलह तत्त्वों को भाष्यकार ने सत् शब्द से व्यवहृत किया। सांख्य ने प्रकृति एवं पुरुष इन दो तत्त्वों को स्वीकार किया है। वेदान्त दर्शन में ब्रह्म ही एकमात्र सत् है / जैन आगमों में संक्षेप में जीव एवं अजीव ये दो तत्त्व तथा विस्तार में नयतत्त्वों का उल्लेख प्राप्त है। . जैन धर्म के प्रमुख आचार्य तत्त्वव्याख्याता वाचकमुख्य ने सत् का बीज जो भगवान् महावीर की वाणी में था, उसका पल्लवन किया। आगमों में तिर्यक् और ऊर्ध्व दोनों प्रकार के पर्यायों का आधार द्रव्य को माना है / जो सर्वद्रव्यों का अविशेष है। 'अविसेसिए दव्वे विसेसिए जीव दवे अजीव दवे, किन्तु आगमों में द्रव्य की सत् संज्ञा नहीं थी। जब अन्य दर्शनों में 'सत्' इस संज्ञा का समावेश हआ तब जैन दार्शनिकों के समक्ष भी 'सत्' किसे कहा जाए यह प्रश्न उपस्थित हुआ। उमास्वाति ने कहा द्रव्य ही सत् है / 'सद् द्रव्यलक्षणम्' सत् को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' ऐसी परिभाषा होने से जैन दर्शन का सत् अन्य दर्शनों से स्वतः ही विलक्षण हो गया तथा जैन दृष्टि के सर्वथा अनुकूल सिद्ध हुआ। वाचक ने सत्य को नित्य कहा किन्तु नित्य की स्वमन्तव्य पोषक परिभाषा करके उसे एकान्त के आग्रह से मुक्त रखा। तद्भावाव्ययं नित्यम्' उत्पाद और व्यय के होते हुए भी जिसका सद्रुप समाप्त नहीं होता यही सत् की नित्यता है / पर्यायों के बदल जाने पर भी द्रव्य की सत्ता समाप्त नहीं होती / वह निरन्तर पूर्व-उत्तर पर्यायों में अनुस्यूत होती रहती है। उमास्वाति ने चतुर्विध सत् की कल्पना की है। सत् को उन्होंने चार भागों में विभक्त किया है- (1) द्रव्यास्तिक, (2) मातृकापदास्तिक, (3) उत्पन्नास्तिक, (4) पर्यायास्तिक / सत् का इस प्रकार का विभाजन अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विध सत् की अवधारणा / 185 यह उनकी मौलिक अवधारणा है / उमास्वाति ने इस चतुर्विध सत् का विशेष व्याख्यान नहीं किया। ज्ञान की स्थूलता एवं सूक्ष्मता के आधार पर सत् के चार पदों का निरूपण किया। टीकाकार सिद्धसेनगणी ने इनकी कुछ स्पष्टता की है। प्रथम दो सत् (द्रव्याश्रित) द्रव्यनयाश्रित है तथा अन्तिम दो भेद पर्यायनयाश्रित हैं / सत् के चार विभागों के अन्तर्गत आचार्य उमास्वाति ने सत् की सम्पूर्ण अवधारणा को समाहित करने का प्रयत्न किया है / द्रव्यास्तिक सत् का कथन द्रव्य के आधार पर है, मातृकापदास्तिक का कथन द्रव्य के विभाग के आधार पर, उत्पन्नास्तिक का व्याकरण तात्कालिक वर्तमान पर्याय के आधार पर है तथा पर्यायास्तिक का कथन भूत एवं भावी पर्याय के आधार पर हुआ है ऐसा प्रतीत होता है / द्रव्यास्तिक के अनुसार-'असन्नाम नास्त्येव द्रव्यास्तिकस्य' असत् कुछ होता ही नहीं वह सत् को ही स्वीकार करता है / 'सर्ववस्तु सल्लक्षणत्वादसप्रतिषेधेन सर्वसंग्रहादेशो द्रव्यास्तिकम् (5/31 टी, पृ. 400) / द्रव्यास्तिक सत् संग्रह नय के अभिप्राय वाला है। ‘सर्वमेकं सदविशेषात्' इस सत् के द्वारा सप्तभंगी का प्रथम भंग ‘स्यात् अस्ति' फलित होता है। ___ मातृकापदास्तिक सत् के द्वारा द्रव्यों का विभाग होने से अस्तित्व एवं नास्तित्व धर्म प्रकट होता है / मातृकापद व्यवहारनयानुसारी है द्रव्यास्तिक के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों को सत् कह देने मात्र से वह व्यवहार उपयोगी नहीं हो सकता / व्यवहार विभाग के बिना नहीं हो सकता। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय का द्रव्यत्व तुल्य होने पर भी वे परस्पर भिन्न स्वभाव वाले हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय नहीं हो सकती यही मातृकापदास्तिक का कथन है / विभक्ति का निमित्त होने के कारण मातृकापद, व्यवहार उपयोगी है—'स्थूलकतिपयव्यवहारयोग्यविशेषप्रधान मातृकापदास्तिकम्'। ___ उत्पन्नास्तिक सत् का सम्बन्ध मात्र वर्तमान काल से है / वह अतीत एवं अनागत को अस्वीकार करता है.। अतः यह अस्ति नास्ति रूप है / वर्तमान को स्वीकार करता है अतः अस्ति है। भूत अनागत का निषेध करता है अतः नास्ति है। इससे सप्तभंगी का अवक्तव्य नाम का भंग फलित होता है। पर्यायनयानुगामी होने से इसकी दृष्टि भेदप्रधान है / सम्पूर्ण व्यवहार की.कारणभूत वस्तु निरन्तर उत्पाद विनाशशील है। कुछ भी स्थितिशील नहीं है, यह उत्पन्नास्तिक का कथन है। इसकी मान्यता उत्पत्ति में ही है। ‘उत्पन्नास्तिकमुत्पनेऽस्तिमतिः' अनुत्पन्न स्थिति को यह स्वीकार ही नहीं करता। . पर्यायास्तिक नय विनाश को स्वीकार करता है / जो उत्पन्न हुए हैं वे अवश्य ही विनश्वर स्वभाव वाले हैं। जितना उत्पाद है उतना ही विनाश / 'विनाशाऽस्तिमतिकम्' Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 / आर्हती-दृष्टि कुछ मानते हैं कि पर्यायस्तिक उत्पद्यमान पर्याय को ही मानता है / 'उत्पद्यमानाः पर्यायाः पर्यायास्तिकमुच्यते' इन दोनों मतों का समन्वय करने से फलित होता है कि पर्यायास्तिक नय भूत एवं अनागत को स्वीकार करता है तथा वर्तमान का निषेध करता है अतः यह अस्तिनास्ति रूप है। भूत भविष्य की अपेक्षा अस्ति वर्तमान की अपेक्षा नास्ति है। इससे भी अवक्तव्य भंग का कथन होता है। क्योंकि अस्ति नास्ति को एक-साथ नहीं कहा जा सकता। संक्षेप में द्रव्यास्तिक से परम संग्रह का विषय भूत सत् द्रव्य और मातृकापदास्तिक से सत् द्रव्य के व्यवहाराश्रित धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य का. विभाग उनके भेद-प्रभेद अभिप्रेत है। प्रत्येक क्षण में नवनवोत्पन्न वस्तु का रूप उत्पत्रास्तिक और प्रत्येक क्षण में होनेवाला विनाश या भेद पर्यायास्तिक से अभिप्रेत है / उत्पाद व्यय एवं धौव्य इस त्रिपदी का समावेश चतुर्धा विभक्त सत् में हो जाता है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के सन्दर्भ में सप्तभंगी भगवती-सूत्र जैन-परम्परा का प्राचीन आगम ग्रन्थ है / उसमें अनेक विषयों का सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है। स्याद्वाद जो जैन दर्शन की पृष्ठभूमि है, उसका उल्लेख इस आगम में है। सप्तभंगी वस्तु के कथन की शैली है / उसके प्राचीन भंगों का वर्णन भगवती में प्राप्त है / वर्तमान सप्तभंगी का उत्स भगवती-सूत्र में है / यद्यपि उसमें भंगों के प्रकारों का वर्णन पृथक् रूप से है किन्तु वह तो मात्र कथन का तरीका है उसमें कोई विप्रतिपत्ति नहीं। . __ भगवती में वस्तुओं का निर्णय उनके भंगों के आधार पर है / अमुक अपेक्षा से वस्तु है, अमुक अपेक्षा में नहीं है तथा किसी तीसरी अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य है। गौतम भगवान् महावीर से रत्नप्रभा पृथ्वी का स्वरूप पूछते हैं। भगवान् कहते हैंरयणपहा पुढवी सिय आया, सिय नो आया, सिय अवत्तव्वा / रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है, स्यात् नहीं है और स्यात् अवक्तव्य है। इस प्रकार गौतम पूछते जाते हैं। एक परमाणु के सन्दर्भ तक यही उत्तर प्राप्त होता है / वस्तु अपनी अस्तित्व की अपेक्षा से है, दसरे के अस्तित्व की अपेक्षा से नहीं है। अस्तित्व नास्तित्व का कथन एकसाथ नहीं हो सकता अतः वह अवक्तव्य है। भगवती के अनुसार जो संख्या की दृष्टि से एक है उसके तीन ही भंग हो सकते हैं / तीन से अधिक नहीं हो सकते / जैसे भगवान् ने रत्नप्रभा पृथ्वी से लेकर एक परमाण पदगल तक उत्तर दिया है उसके तीन-तीन भंग ही होते हैं / द्विप्रदेशी के बारे में पूछने पर उत्तर मिला उसके 6 भंग हो सकते हैं, सात नहीं हो सकते। तीन तो परमाणु के संदर्भ जैसे हैं / तीन संयोगज भंग और हो जाते हैं। तीन प्रदेशी स्कन्ध के 13 भंग हो जाते हैं। उसके सात भंग स्यात् अस्ति नास्ति एवं अवक्तव्य यह भंग त्रिप्रदेशी से लेकर आगे के परमाणु पुद्गल के हो सकते हैं / द्विप्रदेशी के नहीं हो सकते क्योंकि द्विप्रदेशी के दो ही प्रदेश हैं जबकि यह त्रयात्मक कथन है / अस्ति नास्ति तथा अवक्तव्य / अतः यह भंग दो प्रदेशी स्कन्ध के पश्चात् ही सम्भव है / इसी प्रकार चार-पांच-छः प्रदेशी के सन्दर्भ में जिज्ञासा करने पर उन्हीं का इसी प्रकार उत्तर उपलब्ध होता है / उनके भंगों की संख्या की भी वृद्धि होती चली जाती है / प्रश्न उपस्थित होता है कि जब भगवती में भंगों की संख्या सात से अधिक है तब आज हम सप्तभंगी का ही उल्लेख क्यों करते हैं। इसका समाधान यही है कि Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 188 / आहती-दृष्टि मूल भंग सात ही है। उनकी संख्या नहीं बढ़ सकती जो भगवती में अतिरिक्त भंग उपलब्ध हो रहे हैं, वे उन्हीं सात भंगों के उपभंग हैं। प्रदेश के आधार पर उनको मिलाकर भंगों की संख्या का विकास दिखाया गया है। वस्तुतः मौलिक भंग सात ही हैं जिनका स्वरूप वर्तमान में हमें उपलब्ध है। भगवती के अनुसार विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि परमाणु (इकाई) के तीन से अधिक भंग नहीं हो सकते क्योंकि वह एक प्रदेशी है / अर्थात् अस्ति-नास्ति यह संयुक्त भंग परमाणु में सम्भव नहीं है वह द्विप्रदेशी स्कन्ध में ही सम्भव है। इसी प्रकार ‘अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य इन तीनों का संयुक्त भंग द्विप्रदेशी में सम्भव नहीं है यह भंग त्रिप्रदेशी से बन सकता है / यह भगवती सूत्र का मंतव्य है / बाद के दार्शनिकों के विचारों में हमें परिवर्तन उपलब्ध होता है / उन्होंने सातों ही भंग सब वस्तुओं में घटित किये हैं। चाहे वह वस्तु Composite हो अथवा non-composite / तथा तीसरे एवं चौथे भंग के क्रम में भी किसी-किसी ने परिवर्तन किया है। भगवती में अवक्तव्य तीसरा भंग है तथा किन्हीं दार्शनिकों ने उसे चौथे स्थान पर भी स्वीकार किया है। . निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि भगवती में प्राप्त भंग ही वर्तमान सप्त भंगी के आधार है। उनमें जो वुछ भी परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहा है वह विचार विकास की सूचना दे रहा है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवाद : विकास का सिद्धान्त विश्व के आदि बिन्दु, मूल तत्त्व की जिज्ञासा ने दार्शनिक क्षेत्र में एक नया आयाम उद्घाटित किया है। विश्व प्रहेलिका को सुलझाने का प्रयल भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों दार्शनिकों ने किया है। दृश्यमान जगत् का कारण क्या है? यह क्यों है? ऐसे प्रश्न दर्शन के जनक माने जाते हैं। कार्य कारणवाद के सिद्धान्त पर तत्त्व का निर्णय करना दार्शनिक क्षेत्र की विशेषता है / यह जगत् एक कार्य है। कारण की व्याख्या विभिन्न दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। पाश्चात्य दर्शन के जनक थेलिज ने विश्व के मूल कारण के रूप में जल तत्त्व को स्वीकृति दी। उसके अनुसार यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् जल तत्त्व का ही परिवर्तित रूप है। इसके मूल में जल ही है। एनेगजीमेनीज ने वायु तत्त्व को विश्व का मूल कारण स्वीकार किया तथा पाइथागोरस ने संख्या को, हेरेक्लाइट्स ने अग्नि तत्त्व को विश्व का उपादान कारण स्वीकार किया। सर्वेश्वरवादी जेनोफेनीज ने जल को विश्व के कारण के रूप में स्वीकृति दी। - एनेग्जीमेण्डर की विश्व व्याख्या भारतीय जड़ाद्वैत के सिद्धान्त के सदृश है / उसने असीम जड़ तत्त्व को मूल द्रव्य के रूप में स्वीकृति दी है। उसके अनुसार यह असीम जड़ तत्त्व निर्गुण, निराकार, निर्विशेष तथा अविभक्त द्रव्य है / एनेग्जीमेण्डर के अनुसार सबसे पहला जीव नमी तत्त्व से पैदा हुआ था तथा मनुष्य एवं अन्य प्राणियों का आदि रूप मछली था। उनकी यह धारणा आधुनिक विकासवाद के सिद्धान्तों से बहुत अंशों में मिलती है। चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धान्त के बहुत पूर्व बिना किसी ठोस वैज्ञानिक आधार के इस प्रकार की अवगति निःसन्देह महत्त्वपूर्ण है। ये सारे दार्शनिक प्रायः सृष्टिवाद के सम्बन्ध में एक तत्त्ववादी है। भारतीय दर्शन जगत् में दो धाराएं प्रमुख रही हैं—द्वैतवाद और अद्वैतवाद / अतः उनको विश्व सम्बन्धी व्याख्या की पृष्ठभूमि अद्वैत या द्वैत है। . . ____ अद्वैतवादी धारा में जड़ाद्वैत तथा चैतन्याद्वैत ये दो मुख्य धाराएँ रही हैं / जड़ाद्वैत पाश्चात्य दार्शनिक एनेग्जीमेण्डर की तरह जड़ तत्त्व को ही सृष्टि का उपादान कारण मानता हैं / जड़ाद्वैतवाद के अनुसार चेतन तत्त्व की उत्पत्ति अचेतन तत्त्व से हुई है। चार भूतों के विशिष्ट संयोग से चेतन तत्त्व उत्पन्न होता है / अनात्मवादी चार्वाक और Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 / आर्हती-दृष्टि क्रम विकासवादी वैज्ञानिक इसी अभिमत के समर्थक हैं। .. चैतन्याद्वैत चेतन तत्त्व को ही सृष्टि का मूल कारण मानता है। चेतन इतर अन्य तत्त्व का अस्तित्व उसे मान्य नहीं है / यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्ममय है / संसार का नानात्व असत्य है / 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म, नेह नानास्ति किञ्चन' ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है / अविद्या के कारण उसमें अनेक की प्रतीति होती है / अचेतन का अस्तित्व ही इनको मान्य नहीं द्वैतवादी दर्शन जड़ और चेतन का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार इन दो विरोधी तत्त्वों की समन्विति ही संसार है। नैयायिक, वैशेषिक और मीमांसक सृष्टि पक्ष में आरम्भवादी है / जड़ और चेतन अनादिकाल से है / परमात्मा सृष्टि के प्रारम्भ में परमाणुओं को संयुक्त करता है। इनके संयोग का आरम्भ होने पर ही सष्टि होती है। इसलिए यह आरम्भवाद कहलाता है। सांख्य और योग परिणामवादी है / उनके अनुसार सृष्टि का कारण त्रिगुणात्मिका प्रकृति है / ईश्वर के द्वारा प्रकृति को क्षुब्ध किये जाने पर त्रिगुण का विकास होता है। पुरुष संयोग से प्रकृति की साम्यावस्था समाप्त हो जाती है और इससे संसार का विकास होता है। सांख्य का पुरुष अपरिणामी कूटस्थ है / अतएव सृष्टि का विकास परिणामधर्मा नित्य प्रकृति से ही होता है। जैन और बौद्ध दर्शन सृष्टिवादी नहीं हैं। वे परिवर्तनवादी हैं / बौद्ध दर्शन में परिवर्तन की प्रक्रिया प्रतीत्यसमुत्पाद' है। इसमें कारण से कार्य उत्पन्न नहीं होता किन्तु सन्तति प्रवाह में पदार्थ उत्पन्न होते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जीव अजीव की समन्विति ही विश्व है। भगवान महावीर से पूछा गया लोक क्या है ? उन्होंने कहा—जीव और अजीव ही लोक है / जीव और अजीव अनन्त एवं शाश्वत है / जो शाश्वत होते हैं उनमें पौर्वापर्य नहीं होता / जैसे जीव और वृक्ष में पौर्वापर्य नहीं है / जैन को सृष्टिवाद का वह सिद्धान्त मान्य नहीं है जिसका कोई कर्ता हो / उसके अनुसार पदार्थों में नियतिवाद है। लोक की विविधता का हेत जीव और पुद्गल का संयोग है / इस विविधरूपता को ही सृष्टि कहा जाता है / दीपिका में कहा गया—'जीवपुद्गलयोविविधसंयोगैः स विविधरूपः इयं विविधरूपता एव सृष्टिरिति कथ्यते'। जैन आगम साहित्य में लोक की अनेक परिभाषाएं उपलब्ध हैं / भगवती-सूत्र में कहा गया—'जे लोक्कइ से लोए', पञ्चास्तिकायमयो लोकः' अथवा 'षड्द्रव्यातत्मको लोकः' यह दृश्यमान जगत् शाश्वत भी है अशाश्वत भी है / यह जैन दर्शन का अभ्युपगम Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवाद : विकास का सिद्धान्त / 191 है। जैन दर्शन द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु को स्वीकार करता है। प्रत्येक सत् वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक ही होती है। द्रव्य के बिना पर्याय का और पर्याय के बिना द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं हो सकता। द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्यायाः द्रव्यवर्जिताः। क्व कदा केन किंरूपा दृष्टा मानेन केन वा / / द्रव्य और पर्याय में विचारगत भेद है / वस्तुनिष्ठ भेद नहीं है / आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में द्रव्य और पर्याय में अन्यत्व नाम का भेद है, पृथक्त्व नाम का भेद नहीं _ 'उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं सत्' जो वस्तु त्रयात्मक है वही सत् है वास्तविक है। भगवान् महावीर ने कहा-'उपन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' उत्पाद, व्यय एवं ध्रुवता ही विकास का आधार है। अकेली ध्रुवता कूटस्थ होती है। कूटस्थ में परिणाम (परिवर्तन) का अभाव होने से विकास की कल्पना ही असम्भव है। उत्पाद, व्यय आधार के बिना नहीं रह सकते / ध्रुवता उनका आधार बनती है। अतः विकास का आधार स्तम्भ वस्तु की त्रयात्मकता है। त्रिपदी के अभ्युपगम के बिना विकास की कल्पना आकाश-कुसुम के सदृश है। जैन इस त्रिपदी को विकास का मल सिद्धान्त मानता है। लोक की शाश्वतता द्रव्य के आधार पर है, अशाश्वतता पर्याय पर निर्भर है। द्रव्य लोकवाद का आधार बनता है। पर्याय सृष्टिवाद का। द्रव्य की अपेक्षा जैन का लोक शाश्वत है। पर्याय की अपेक्षा वह सृष्टिवादी भी है। ____ संक्षेप में, यह जगत् जीव और अजीव की सहस्थिति है। विस्तार में षड्द्रव्य इस विश्व विकास के निमित्तभूत है / षड्द्रव्य की स्वीकृति के बिना विकास की कल्पना अधूरी है। ये छहों मिलकर ही विकास की कल्पना में सम्पूर्णता का भाव अभिव्यंजित करते हैं / जीव और पुद्गल में गति स्थिति स्वत: है किन्तु उसमें अनन्य सहायक द्रव्य धर्म एवं अधर्म है उनके बिना वे गतिशील नहीं रह सकते हैं तथा स्थिति को भी प्राप्त नहीं कर सकते / आकाश के अतिरिक्त पदार्थ अवगाह्य है / आकाश अवकाश प्रदाता है एवं स्वाश्रित है। यदि आकाश को स्वीकार नहीं किया जाए तो पदार्थ रहते कहां? काल पदार्थों के परिवर्तन का हेत बनता है। वर्तना लक्षणा वाला काल पदार्थों को स्वसत्तानुभूति करवाने में सहायक है। काल की स्वीकृति के बिना पदार्थों में परिवर्तन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। ज्ञानात्मक चेतना जीव का अविनाभावी लक्षण है। अवशिष्ट जो विकास है उसका केन्द्र बिन्दु पुद्गल है / पर्याय स्वभाव एवं विभाव Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 / आर्हती-दृष्टि : भेद से दो प्रकार की हैं। धर्म आदि चार में स्वाभाविक पर्याय है / जीव और पुद्गल में वैभाविक पर्याय भी है। काल के निमित्त से होने वाली स्वभाव पर्याय है। जीव के निमित्त से पुद्गल में और पुद्गल के निमित्त से जीव में जो परिवर्तन होता है वह उनकी विभाव पर्याय है। जीव और पुद्गल एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और उससे ही दृश्य जगत् का विकास होता है / सांख्य ने सृष्टिक्रम में पुरुष को साक्षी मात्र स्वीकार किया है। प्रकृति के द्वारा ही जगत् का सम्पूर्ण विकास-क्रम दिखाने का प्रयत्न किया है। जैन प्रकृति अर्थात् पुद्गलास्तिकाय को विकास का एक बिन्दु ही मानता है। जैन की विकास क्रमबद्धता सांख्य से अधिक स्पष्ट प्रतीत होती है। जैन दृष्टि के अनुसार. दृश्य विश्व का परिवर्तन जीव और पुद्गल के संयोग से होता है / परिवर्तन स्वाभाविक एवं प्रायोगिक दोनों प्रकार से होता है / स्वाभाविक परिवर्तन सूक्ष्म होने से दृष्टिगम्य नहीं है / प्रायोगिक परिवर्तन स्थूल होता है / दृष्टिगम्य होता है, यही सृष्टि या दृश्य जगत् है। जीव की विकास यात्रा अव्यवहार राशि से प्रारम्भ होती है और मुक्तावस्था में सम्पन्न हो जाती है। मुक्तावस्था की प्राप्ति जीव का सर्वोत्कृष्ट विकास है। प्राणी का निम्नतम विकसित रूप निगोद है / निगोद अनादि वनस्पति है / यह जीवों का अक्षय कोश है और मूल स्थान है। संसार के अथवा मुक्तावस्था के सम्पूर्ण जीवों का प्रथम रूप निगोद ही होता है / निगोद में सबको रहना होता है / यह नियति है। इनमें विकास की कोई प्रवृत्ति नहीं होती / मनुष्य का विकास वनस्पति से होता है। यह सम्पर्ण जीवों के विकास का आधारभूत है। निगोद के जीवों में कोई विभाग नहीं होता। वहां से निकलने के बाद वे विभाग के जगत् में प्रवेश करते हैं। वे विभाग हैं—पृथ्वी, अप्, तैजस, वायु, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, समनस्क, अमनस्क आदि / यह सारा विकास अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आने वाले जीवों का होता है। जीव अपनी स्वतन्त्र संकल्प शक्ति के आधार पर अव्यवहार राशि से नहीं निकल सकता / काल लब्धि का परिपाक होने पर ही जीव अव्यवहार राशि में आ सकता है। व्यवहार राशि में आने के बाद ही वह द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि भूमिका को प्राप्त होता हआ केवलज्ञान की स्थिति तक पहुंच जाता है। यह सारा जैविक विकास स्वतन्त्र इच्छा शक्ति और संकल्प शक्ति के आधार पर होता है। यहां एक बात स्मरणीय है कि सम्पूर्ण जीवों का सर्वोत्कृष्ट विकास नहीं होता। विकास यात्रा के वे सहभागी कुछ . अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। कुछ उस दौड़ में पीछे रह जाते हैं। कुछ दौड़ने के अधिकारी भी नहीं होते हैं / संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं। भव्य और अभव्य / Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- लोकवाद : विकास का सिद्धान्त / 193 अभव्य जीव विकास की सर्वोत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकेंगे यह उनकी नियति है। भव्य भी सारे चरम विकास को प्राप्त नहीं होंगे / उनको विकास का अवसर ही उपलब्ध नहीं होता। यदि होता भी है तो वे सम्पूर्ण मार्ग को तय नहीं कर पाते। ____ जीव अपनी पहली ( अव्यवहार राशि) एवं अन्तिम अवस्था (मुक्तावस्था) में समान होते हैं। उनमें किसी भी प्रकार का विभाग नहीं होता। इन दोनों अवस्थाओं के मध्य में जीव के विकास में असमानता परिलक्षित होती है। अकेला चेतन या अकेला अचेतन विकास नहीं कर सकता, दोनों के संयोग से ही विकास होता है। चार्ल्स डार्विन के विकासवाद की आंशिक तुलना जैन लोक विकासवाद से की जा सकती है। डार्विन का मन्तव्य है कि आरम्भ में प्रत्येक जीवित वस्तु का रूप अंत्यधिक सरल होता है। यह स्थिति असम्बद्ध, अनिश्चित समानता की स्थिति है। अर्थात ऊपर से वस्तु के विभिन्न रूप इतने समान होते हैं कि उनमें कोई निश्चित सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता लेकिन जैसे-जैसे उस वस्तु का विकास होता है उसके विभिन्न अंग एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न हो जाते हैं। जैन के अनुसार भी अव्यवहार राशि के जीवों में कोई विभाग नहीं होता। उनमें न भाषा का व्यवहार होता है न चिन्तन का। वे सब एक श्रेणी के होते हैं / व्यवहार राशि में आने के बाद उनकी समानता समाप्त हो जाती है ।व्यवहार राशि से ही विकास के अग्रिम सपनों का वे आरोहण करते हैं - जैन के अनुसार विकास का कारण कोई एक तत्त्व नहीं है / परन्तु अनेक कारणों के समवाय से कार्य घटित होते हैं। काल, स्वभाव आदि सारे कारण सम्मिलित होकर ही विकास को घटित करते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जगत् का विकास नहीं हो सकता, वह परिपूर्ण है। द्रव्य कम अधिक नहीं हो सकते। द्रव्यं नोत्पद्यते किञ्चित् न विनश्यति किञ्चन / केवलं परिवर्तोऽस्ति, सृष्टिरेषा तवोदिता / / कोई द्रव्य न उत्पन्न होता है, न विनष्ट होता है, केवल उसमें परिवर्तन होता रहता है। प्रभो ! तुम्हारे शासन में इस परिवर्तन का नाम ही सृष्टि है / कुछ दार्शनिक मानते हैं कि सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है। जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि का कर्ता ईश्वर नहीं है। वह स्वतः है, सापेक्ष है। द्रव्य की दृष्टि से यह जगत् है, पर्याय की दृष्टि से यह सृष्टि है। जगत् स्वाभाविक है। पर्याय परिवर्तन सहेतुक और निर्हेतुक है। लोगो अकिट्टिमो खलु अणाइ निहनो सभाव निष्फन्तो' लोक अकृत्रिम है, अनादि निधन है Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194/ आर्हती-दृष्टि और स्वभाव निष्पन्न है। संसार में जितने द्रव्य हैं, उतने ही रहेंगे, उनमें तिलमात्र भी घट-बढ़ नहीं हो सकती / प्रत्येक पदार्थ बदलता है, बार-बार अपने रूप बदलता है। परिवर्तन ध्रुव सिद्धान्त है / जैन दर्शन के अनुसार परिवर्तन का नाम ही सृष्टि है। जगत् स्वाभाविक है, सृष्टि कृत्रिम है। हम सृष्टि का निर्माण कर रहे हैं / जगत् का मूल कारण है चेतन और अचेतन का अस्तित्व / सृष्टि का मूल कारण है जीव और पुद्गल में होनेवाला परिवर्तन जैन दर्शन के अनुसार चेतन अचेतन अनादि है। इनमें परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन से हास एवं विकास दोनों होते हैं। उत्सर्पिणी विकास का एवं अवसर्पिणी ह्रास का प्रतीक है / विकास और ह्रास का हेतु काल है। प्रतिपाद्य के निष्कर्ष 1. जगत् परिपूर्ण है, उसमें विकास ह्रास नहीं होता। पदार्थ जितने हैं उतने ही रहेंगे। 2. जीव पुद्गल के संयोग से सृष्टि होती है। 3. पर्यायवाद के आधार पर जैन सृष्टि को मानता है। 4. जीव का विकास अव्यवहार राशि से शुरू होता है और मुक्तावस्था में सम्पन्न हो जाता है। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन व्याख्या पद्धति : एक अनुशालीन जैन आगम साहित्य में ‘अनुयोग द्वार' एक महत्त्वपूर्ण विषय है। किसी भी सूत्र की व्याख्या पद्धति में सबसे पहले अनुयोग का उपयोग किया जाता है। अनुयोगद्वार का निरूपण आगम साहित्य का प्राचीनतम भाग है। प्रथम भद्रबाहु, जिनको नियुक्तिकार माना जाता है, उनके द्वारा कृत अनुयोगद्वार प्राचीनतम है। जैन व्याख्या पद्धति का नाम अनुयोगद्वार है / हम प्राचीन भारतीय साहित्य का अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि प्रायः सभी परम्पराओं में सूत्र का निरूपण कैसे करना चाहिए इसका निर्देश प्राप्त होता है / आर्य परम्पराओं की एक शाखा जरथोस्थियन की ओर दृष्टिपात करते हैं तब उसमें भी पवित्र माने जाने वाले 'अवेस्ता' आदि ग्रन्थों का प्रथम शुद्ध उच्चारण कैसे करना, किस तरह पद आदि का विभाग करना इस रूप में व्याख्यान पद्धति का उल्लेख प्राप्त होता है। वैदिक परम्पराओं में भी अर्थविधि बतलाई गई है। सर्वप्रथम वैदिक मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण, पदच्छेद; पदार्थज्ञान इस प्रकार क्रमशः अर्थज्ञान किया जाता है / जैन परम्पराओं में भी सूत्र की व्याख्या कैसे होनी चाहिए इसका निर्देश उपलब्ध है। निम्न कारिका से यह आशय स्पष्ट हो रहा संहिता च पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः / चालना प्रत्यवस्थानञ्च व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा / / - जैन परम्परा में सूत्र और अर्थ सिखाने के सम्बन्ध में एक निश्चित व्याख्यान विधि रही है जिसका उल्लेख नियुक्ति, अनुयोगद्वार, बृहत्कल्पभाष्य, विशेषावश्यक भाष्य आदि ग्रन्थों में सांगोपांग रूप से उपलब्ध है। प्रसंगतः आचार्य हरिभद्र के मन्तव्य का यहां पर उल्लेख करना उचित होगा। उन्होंने इसी व्याख्यान विधि को अपने दार्शनिक ज्ञान के प्रकाश में नवीनता के साथ प्रस्तुत किया है। व्याख्यान विधि नये नामों के साथ प्रस्तुत किया है / वे नाम हैं—पदार्थ, वाक्यार्थ, महावाक्यार्थ, ऐदम्पर्यार्थ / 1. किसी भी प्राणी का घात न किया जाए यह ‘पदार्थ' है। 2. यदि प्राणिघात वर्ण्य हैं तो आवश्यक करणीय कैसे किए जाएंगे यह शंका . विचार 'वाक्यार्थ' है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 / आर्हती-दृष्टि 3. आवश्यक कर्तव्य अगर शास्त्र विधिपूर्वक किया जाए तो उससे होने वाला प्राणिघात दोषावह नहीं है। अविधिकृत ही दोषावह है. यह विचार महावाक्यार्थ है। 4. जो जिनाज्ञा है वह एकमात्र उपादेय है ऐसा तात्पर्य निकालना ऐदम्पर्यार्थ इस प्रकार सर्वथा निषेध रूप सामान्य नियम में विधिविहित अपवादों को ऐदम्पर्य तक निकाला जाता है / इस पृष्ठभूमि के साथ हमें अनुयोगद्वार का अवबोध करना है। जैसा के हमें ज्ञात हुआ कि जैन व्याख्या पद्धति का नाम अनुयोगद्वार है। सर्वप्रथम शब्दमीमांसा के द्वारा अनुयोग को समझने का प्रयत्न करेंगे। अनुयोग का अर्थ है व्याख्या और द्वार का अर्थ है प्रवेश-स्थान / अतः अनुयोगद्वार का सामान्य अर्थ है व्याख्यान करने की पद्धति अथवा उसका प्रवेश पथ। शीलांकाचार्य ने अनुयोग को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “सूत्रादनुपश्चादर्थस्य योगो अनुयोगः” सूत्र के पश्चात् अर्थ का योग करना अनुयोग है अथवा संक्षिप्त सूत्र का महान् अर्थ के साथ समायोजन करना अनुयोग है / आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अनुयोग को परिभाषित करते हुए कहा अणुओयणमणुयोगो सुयस्स नियएण जमभिधेएणं / वावारो वा जोगो जो. अणुरुवोऽणुकूलो वा। सूत्र का स्वयं के अभिधेय अर्थ के साथ जो सम्बन्ध होता है वह अनुयोग है अथवा योग का अर्थ है व्यापार / अतः सूत्र का निज अभिधेय के साथ अनुरूप या अनुकूल जो योग होता है वह अनुयोग है। आवश्यक नियुक्ति में अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा एवं वार्तिक इन शब्दों को एकार्थक माना है / ये पांचों ही शब्द अर्थ के अन्तर्गत आते हैं / अर्थ को प्रवचन का पर्यायवाची माना गया है अतः अनुयोग प्रवचन अर्थात् श्रुत (आगम) का एक भाग है / अनुयोग सूत्र के साथ अर्थ का सम्बन्ध करवाने वाला है / आवश्यकनिर्यक्ति में तथा विशेषावश्यक भाष्य में तथा उसकी कोट्याचार्य की टीका में एवं मलधारी की टीका में भाषा, विभाषा आदि का अन्तर स्पष्ट करनेवाले अनेकों उदाहरण उपलब्ध हैं, यथा-सूत्र काष्ठ के समान है। सूत्र के एक अर्थ का भाषण भाषा है। स्थूल अर्थों का कथन विभाषा एवं यथासम्भव सम्पूर्ण अर्थों का प्रकटीकरण वार्तिक है। .. प्रश्न उपस्थित होता है कि अनुयोगद्वार करने की आवश्यकता क्या है ? अनुयोग Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन व्याख्या पद्धति : एक अनुशालीन / 197 क्यों करने चाहिए? इसका समाधान आचार्यों ने उदाहरणों के माध्यम से किया है। जिस प्रकार एक नगरी में यदि प्रवेश द्वार नहीं होता है तो वहाँ प्रवेश करना कठिन हो जाता है, अतः प्रवेशद्वार का होना आवश्यक है। यदि नगरी का एक ही द्वार हो तो मार्ग जनसंकुल हो जाता है जिससे प्रवेश एवं निर्गम कठिन हो जाते हैं। अतः नगरी के चार द्वार बनाए जाते हैं वैसे ही सूत्र के अर्थज्ञान के लिए अनुयोगद्वार का होना आवश्यक है। अनुयोगद्वार प्रमुखतया चार भागों में विभक्त है तथा इन चार प्रमुख द्वारों के प्रतिद्वार अनेक हैं। उपक्रम, निक्षेप, अनुगम एवं नय ये चार प्रमुख अनुयोगद्वार हैं और इनके प्रतिद्वार ये हैं, यथा—उपक्रम के 6, निक्षेप के 3, अनुगम के 2 तथा नय के 1 प्रतिद्वार हैं। इन भेदों के प्रभेद भी अनेक हैं। भेद-प्रभेद के सघन जंगल का पार कुशल मार्गदर्शक के बिना दुरूह है। प्रस्तुत निबन्ध में चार प्रमुख द्वारों की चर्चा करना अभीष्ट है। उपक्रम को स्पष्ट करते हुए मल्लधारी हेमचन्द्र ने कहा 'दूरस्थस्य वस्तुनः तैस्तैः प्रकारैः समीपीकरणं न्यासदेशानयनं निक्षेपयोग्यताकरणं उपक्रमः' विभिन्न प्रतिपादन प्रकारों के द्वारा शास्त्रीय विषयों को निक्षेप योग्य बनाना उपक्रम नाम का प्रथम अनुयोगद्वार है। उपक्रम शास्त्रीय तथा लौकिक भेद से दो प्रकार का है तत्पश्चात् इन दोनों के 6-6 भेद और हो जाते हैं। द्रव्योपक्रम एवं भावोपक्रम के भेद से भी उपक्रम को दो प्रकार का माना गया है / उपक्रम आदि का विशिष्ट ज्ञान करने के लिए विशेषावश्यक भाष्य विशेष मननीय है। आज की भाषा में उपक्रम को भूमिका अथवा शास्त्र का Introduction कहा जा सकता है। किसी भी विषय का प्रतिपादन करने से पूर्व उसकी भूमिका बांधी जाती है। ठीक इसी प्रकार शास्त्र की व्याख्या के पूर्व उपक्रम के द्वारा शास्त्र का परिचय करवाया जाता है। ___ शास्त्र की नाम, स्थापना आदि प्रकारों से व्यवस्था करना निक्षेप है। 'शास्त्रादेर्नाम स्थापनादिभेदैर्व्यसनं व्यवस्थापन निक्षेपः' अर्थसंकीर्णता का अपनयन करने के लिए निक्षेप अत्यन्त उपयोगी है। सूत्रार्थयोगानुरूपनुकूलं सरणं सम्बन्धकरणमनुगमः' सूत्र , और अर्थ का अनुरूप एवं अनुकूल सम्बन्ध करना अनुगम है। जितनी भी वस्तु की सम्भव पर्याएं हैं उनका ज्ञान करवाने वाला नय है। उपक्रम आदि क्रमपूर्वक होतें हैं। उपक्रम वस्तु को समीप लाता है। क्योंकि जो वस्तु समीप नहीं होती उसका निक्षेप नहीं किया जा सकता, निक्षेप के बिना अर्थज्ञान अर्थात् अनुगम नहीं हो सकता Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 / आर्हती-दृष्टि और सूत्र का अनुगम किए बिना नय का प्रयोग नहीं किया जा सकता। ऐसा विशेषावश्यक भाष्य का मन्तव्य है / अनुयोगद्वार सूत्र में भी इनकी विशद चर्चा है। वर्तमान परिपेक्ष्य में भी अनुयोगद्वार नवीनकरण के साथ प्रासंगिक है। इनके माध्यम से शिक्षा क्षेत्र में एक नई सजगता आ सकती है। शिक्षा पद्धति में भी अपेक्षित परिवर्तन इनके द्वारा किया जा सकता है। अपेक्षा है इनके गहरे अध्ययन की तथा जनभोग्य बनाने की / शोध के द्वारा अनुयोगद्वार का विस्तृत उपयोग किया जा सकता है, जो आज के परिवेश में अत्यन्त लाभदायक सिद्ध हो सकता है। '' Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल स्वभावादि पंचक यह दृश्यमान् चराचर जगत् एक कार्य है, जो कार्य होता है उसका कारण भी निश्चित रूप से कोई अवश्य होता है। कारण के बारे में विविध प्रकार के चिन्तन हमें दार्शनिक क्षेत्र में उपलब्ध है। भारत के प्राचीन दार्शनिक साहित्य में जगत् रूप कार्य की, कारण मीमांसा में मुख्यतया पांच वाद उपलब्ध होते हैं-काल, स्वभाव, नियति कर्म एवं पुरुष / ये पांचों अपने-अपने मन्तव्य के आधार पर जगत् की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। काल, स्वभाव और नियति ये तीनों हमारे जीवन में घटित होने वाली दैनिक घटनाओं को आधार बनाकर अपनी व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। जो घटित घटना है उसके कार्य-कारण का सम्बन्ध अपने अनुसार प्रस्तुत करते हैं / कर्मवाद का सम्बन्ध हमारे जीवन में घटित होने वाली उन घटनाओं से है जिनका कारण वर्तमान में उपलब्ध नहीं हो रहा है। पुरुषवादी (ईश्वरवादी) प्रत्येक घटना की व्याख्या ईश्वर के आधार पर ही करता है। 1. कालवाद - कालवादियों का मानना है कि इस सम्पूर्ण जगत् का कर्तृत्व काल में निहित है। सर्दी, गर्मी, वर्षा का होना बाल्य, यौवन आदि अवस्था सब काल के कारण ही हैं। यदि काल नहीं होता तो न जन्म होता, न मृत्यु / संसार की सारी व्यवस्था ही अव्यवस्थित हो जाती / जगत् का विकास ही नहीं हो पाता / उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि काल के अतिरिक्त सम्पूर्ण कारण सामग्री के उपस्थित रहने पर भी मुद्ग तक का परिपाक नहीं होता है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जगत् का कारण काल है कालः पचति, भूतानि, कालः संहरति प्रजाः। कालः सुप्तेषु जागार्ति, कालो हि दुरतिक्रमः / / ____ जगत् की स्थिति, उत्पत्ति एवं संहार इन सबका कारण काल ही है अतएव काल की सीमा का उल्लंघन करना असम्भव है। 2. स्वभाववाद कालवादी के विपरीत स्वभाववादी का कहना है कि इस जगत् का कारण काल . Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 / आर्हती-दृष्टि नहीं किन्तु स्वभाव है / उसका मानना है कि काल आदि सामग्री का सहकार होने पर भी बिना स्वभाव के कार्य नहीं हो सकता। एक मुद्ग जो कोरटू है उसका पकने का स्वभाव नहीं है, उसको अनन्तकाल का योग मिलने पर भी उसमें पाचन क्रिया नहीं हो सकती क्योंकि उसका पकने का स्वभाव ही नहीं है। अतएव यह निश्चित है कि कार्यमात्र का कारण स्वभाव है। कहा भी है कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां च। स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः / / कांटों की तीक्ष्णता, पक्षियों की गगनगामिता ये सब स्वभाव के कारण ही हैं। स्वभाव के बिना ये नहीं हो सकते। बदर्याः कण्टकस्तीक्ष्ण ऋजुरेकश्च कुञ्चितः। फलं च वर्तुलं तस्या वद केन विनिर्मितम्॥ 3. नियतिवाद नियतिवादी के अनुसार नियति ही इस संसार का कारण है। जगत् की सभी वस्तुएं नियत आकार वाली हैं। एक मनुष्य के आँख, नाक आदि नियत स्थान पर ही क्यों होते हैं? यदि नियति को इनका कारण न माना जाए तो अनियतता के कारण कभी आंख पीछे हो जाएगी, सिर नीचे, पैर ऊपर हो जाएगे। संसार में अत्यधिक अव्यवस्था हो जाएगी। संसार में हम जितने भी कार्य देखते हैं उनके पीछे नियति ही कारण है। काल से कार्य नियत रूप से पैदा नहीं होते। काल से भी ज्यादा प्रबल स्वभाव है / नियति इन दोनों से प्रधान है / वही इन दोनों की नियामक है / एक व्यक्ति जिसको तीक्ष्ण शास्त्रों से उपहत किया गया फिरभी उसके मरण नियति का अभाव होने से वह जीवित दिखाई देता है तथा एक अन्य व्यक्ति जिसका मरणकाल निश्चित हो गया है शस्त्र आदि के द्वारा घात न होने पर भी वह मृत्यु को प्राप्त कर लेता है। यद् यदैव यतो यावत् तत् तदैव तस्तथा। नियतं जायते न्यायात् क एतां बाधितुं क्षमः / / जिस वस्तु को जिस समय जिस परिमाण में होना होता है वह वैसे ही नियम रूप में पैदा होती हुई देखी जाती है। ऐसी स्थिति में नियति के सिद्धान्त का अपलाप करने में कौन समर्थ है / भवितव्यता भवत्येव' यह नियति का ही सिद्धान्त है / नियति को टालने में कोई समर्थ नहीं है Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल स्वभावादि पंचक / 201 प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृणां शुभाशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि प्रयत्ने, नाऽभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः // नियति का तात्पर्य ही है सार्वभौमिक नियम जो निश्चित रूप से सब पर लागू होते हैं। 4. कर्मवाद ___ अदृष्टवादी के अनुसार वर्तमान में प्राप्त सम्पूर्ण अवस्थाओं का कारण पूर्वकृत कर्म ही हैं। प्राणी अपने जीवन में स्वाधीन नहीं है, उसकी प्रवृत्ति के पीछे पूर्वकृत कर्म की ही प्रेरणा है- . स्वकर्मणा युक्त एव सर्वो हात्पद्यते नरः / स तथाऽकृष्यते तेन न यथा स्वयमिच्छति // दो व्यक्ति एक ही स्थान में उत्पन्न हुए हैं एक जैसा उनको विकास का वातावरण उपलब्ध है इसके बावजूद उन दोनों की प्रगति में आकाश-पातल का अन्तर परिलक्षित है। इसका कारण पूर्वकृत कर्म ही है। .. न भोक्तव्यतिरेकण भोग्यं जगति विद्यते / . न चाकृतस्य भोगः स्यान्मुक्तानां भोगभावतः॥ जगत् में भोक्ता के बिना भोग्य वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है / जिसने कर्म ही * नहीं किये वह फल भोक्ता नहीं हो सकता / यदि कर्म किए बिना ही फल भोग सम्भव हो तो मुक्त जीवों को भी संसारगत वस्तुओं का भोग प्राप्त होता है / प्राणियों को भोग सामग्री स्वकृत कर्मों के अनुसार ही उपलब्ध होती है / अतः यह स्पष्ट है कि इस जगत् का कारण कर्म ही है। नियति भी कर्म के ही अधीन है। 5. पुरुषवाद .. पुरुषवादी के अनुसार पुरुष ही इस जगत् का कारण है / जैसे मकड़ी जाले के सब तन्तुओं को पैदा करती है / उसी प्रकार ईश्वर ही जगत् का कर्ता, धर्ता एवं संहर्ता है। हमें कारण रूप में जो वस्तुएं दिखलाई देती हैं वे भी पुरुषायत्त हैं___ पुरुषो जन्मिन हेतुर्नोत्पत्तिविकल्पत्वतः / गगनाम्भोजवत् सर्वमन्यथा युगपद् भवेत् / / सम्पूर्ण उत्पत्तिशील पदार्थों का कारण पुरुष है, यदि पुरुष को कर्ता न माना जाए Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 / आर्हती-दृष्टि तो गगनाम्भोजवत् किसी का भी अस्तित्व नहीं हो सकता अथवा सबकी प्राप्ति युगपद् होगी। पुरुष का अर्थ आत्मा भी कर सकते हैं / अतः इस जगत् का कारण पुरुष है। ये पांचों ही वादी एक-दूसरे की उपेक्षा करके जगत् कर्तृत्व में स्वयं अपनी ही अहमन्यता प्रकट करते हैं। अपने से इतर का निराकरण कर देने से वस्तुतः इनकी सत्ता भी कायम नहीं रह सकती / अतएव आचार्य सिद्धसेन का कहना है कि इतर . निरपेक्ष काल आदि एकान्तवाद अयथार्थ है / स्वतन्त्र रूप से इनके द्वारा जगत् की व्यवस्था नहीं की जा सकती। किन्तु जब ये ही सापेक्ष हो जाते हैं एकान्त आग्रह को छोड़ देते हैं तब जगत् की कारणता की व्याख्या में इनका महत्त्वपूर्ण योग होता है। परस्पर सापेक्ष होकर मिथ्या परिधि को त्याग कर सम्यक् परिधि में आ जाते हैं। कालो सहाव णियई पुवकायं पुरिसकारणेगंता। मिच्छत्तं ते चेवा समासओ होंति सम्मतं / / - यद्यपि काल आदि के समवाय से कार्य पैदा होता है किन्तु इनमें भी कारणों की मुख्यता गौणता है / आत्मा ही मुख्य कारणं है वही इन सबका परस्पर समवाय करवाती - कालो वा कारणं राज्ञः राजा वा कारणं कालः। इति संशयो मा भूत राजा कालस्य कारणम्॥ आत्मा ही मुख्य कारण है। विज्ञान के जितने चमत्कार हैं वे सब पुरुषकृत हैं नियति भी पुरुष के अधीन हो गई है। श्वेताश्वतरोपनिषद में भी ब्रह्मर्षियों ने जगत् कारण की खोज की है 'कालः स्वभाव नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या। संयोग एषां न त्वात्मभावदात्माप्यनिशो सुखदुःखहेतुः / / ' ब्रह्मर्षि ब्रह्म को जगत् का कारण मानते हैं / इस प्रकार प्राचीनकाल से ही जगत् के कारण की व्याख्या में चिन्तन हो रहा था। जैन दार्शनिकों ने सम्पूर्ण कारणों के समवाय से ही कार्य की उत्पत्ति स्वीकार की है वे कारण सापेक्ष होकर ही कार्य को पैदा कर सकते हैं। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त और क्षायोपशमिक भाव कर्म को जैन दर्शन वास्तविक द्रव्य स्वीकार करता है / वे मात्र संस्कार-स्वरूप नहीं हैं किन्तु पौद्गलिक अणु-परमाणु रूप होते हैं, जो संसारावस्था में आत्मा में संलग्न रहते हैं। जीव चेतनामय अरूपी पदार्थ है / उसके साथ लगे हुए सूक्ष्म-मलावरण को कर्म कहते हैं / जीव की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा प्रकम्पित आत्म-प्रदेश कर्म प्रायोग्य पुद्गल स्कन्ध को अपनी ओर आकर्षित करते हैं / आकृष्ट पुद्गल स्कन्ध राग-द्वेष के कारण आत्म-प्रदेशों पर चिपक जाते हैं तथा वे ही कर्म कहलाते हैं। छहों दिशाओं से आकर्षित चतुःस्पर्शी कर्म-प्रायोग्य पुद्गल स्कन्धों से ही कर्म की रचना होती है। भगवती-सूत्र में कांक्षा-मोहनीय कर्मबन्ध के प्रसंग में कहा है कि जीव सर्वात्म प्रदेशों से सब ओर से कर्म पुद्गलों को आकर्षित करता है।' - संसार में जीव और अजीव ये दो मूल तत्त्व हैं। अवशिष्ट तत्त्व इन दो का ही विस्तार है। जीव और अजीव दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है। संसारावस्था में जीव अजीव (कर्म) से सम्बद्ध होता है। कर्म जीव के ज्ञान, दर्शन, आनन्द एवं शक्ति रूप सहज स्वभाव को आवृत, विकृत एवं अवरुद्ध करता रहता है। कर्म के संयोग के कारण चेतना का ऊर्ध्वारोहण प्रतिहत हो जाता है। कर्म का उदय जीव के आध्यात्मिक विकास को रोकता है तथा क्षायोपशमिक भाव औदयिक भाव को रोककर जीव को विकास के मार्ग पर प्रतिष्ठित करता है / औदयिक भाव एवं क्षायोपशमिक भाव में निरन्तर संघर्ष चलता रहता है / ये अवस्थाएं जीव में ही होती हैं, अतः जीव का भाव असाधारण धर्म कहा जा सकता है। भाव जीव को अजीव से पृथक् करते हैं / तत्त्वार्थ सूत्र में पांच भावों को जीव का स्वरूप कहा है। ___ भाव का शाब्दिक अर्थ है- होना। भवनं भावः। इसका पारिभाषिक अर्थ है-कर्म के उदय, उपशम, क्षय एवं क्षयोपशम से होनेवाली जीव की अवस्था। जीव का अस्तित्व निरपेक्ष है। उसमें किसी भी प्रकार की उपाधि नहीं है / उसके उपाधि/ विभाग कर्म के उदय अथवा विलय से होती है। जैसे ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव अज्ञानी कहलाता है और उसके क्षयोपशम से जीव मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी आदि कहलाता है। ज्ञानावरण के क्षय से वह सर्वज्ञ बन जाता है। औदयिक भाव से व्यक्ति का बाह्य व्यक्तित्व निर्मित होता है / क्षायोपशमिक भाव 4 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 / आर्हती-दृष्टि से उसके आन्तरिक व्यक्तित्व का निर्माण होता है / व्यक्तित्व की सर्वांगीण व्याख्या के लिए भावों का अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है / क्षयोपशम भाव व्यक्तित्व का निर्धारक तत्त्व है। वर्तमान जीवन संचालन एवं निर्माण में क्षयोपशम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति अपने पुरुषार्थ के द्वारा क्षयोपशम भाव को सतत वृद्धिंगत कर सकता है। उपशम अंशकालीन होता है तथा क्षय फलित रूप होता है किन्तु क्षयोपशम दीर्घकालीन एवं सतत आत्मा को विकास के पथ पर अग्रसर करनेवाली महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। साधना के क्षेत्र में क्षयोपशम का महत्त्वपूर्ण स्थान है / क्षय की अवस्था बारहवें गणस्थान से प्राप्त होती है, उससे पूर्व साधक अपने क्षयोपशम भाव को ही बढ़ाता रहता है / क्षयोपशम-प्रक्रिया के द्वारा वह निरन्तर अपने लक्ष्य की ओर अभिमुख रहता है। यह क्षयोपशम भाव संसार के सभी छोटे-बड़े जीवों में रहता है। निगोद जैसे स्वल्प विकसित जीव में भी क्षयोपशम भाव की नियमा है / नन्दी-सूत्र में कहा गयाअक्षर के अनन्तवें भाग जितना जीव नित्य उद्घाटित रहता है अन्यथा जीव भी अजीव बन जाये। यह शाश्वत नियम है कि जीव कभी अजीव नहीं बन सकता, अजीव कभी जीव नहीं बन सकता है / इसलिए क्षयोपशम को समझना आवश्यक है। .. क्षयोपशम, क्षय और उपशम इन दो शब्दों से निष्पन्न होता है / कर्म सिद्धान्त के प्रसंग में कर्मों के समूल नाश को क्षय कहा जाता है। जिस समय कर्म के विपाकोदय एवं प्रदेशोदय का सर्वथा अभाव होता है वह उपशम की अवस्था कहलाती है। क्षयोपशम के प्रकरण में क्षय एवं उपशम शब्द का अर्थ भिन्न है / क्षयोपशम काल में क्षय और प्रदेशोदय अथवा मन्द विपाकोदय चलता रहता है। उपशम भाव में मोहनीय कर्म का न तो क्षय होता है न उदय / वह सुप्त अवस्था जैसा शान्त हो जाता है किन्तु उसकी सत्ता बनी रहती है, अतः औपशमिक भाव के प्रकरण में उपशम का अर्थ क्षायोपशमिक भाव के उपशम से भिन्न है। धवला में क्षयोपशम को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि सर्वघाती स्पर्धक अनन्तगुण हीन होकर देशघाती स्पर्धक में परिणत होकर उदय में आता है। उस सर्वघाती स्पर्धक का अनन्तगुण हीन होना ही क्षय है तथा उनका देशघाती स्पर्धक के रूप में अवस्थान होना उपशम है / उन्हीं क्षय एवं उपशम से संयुक्त उदय क्षयोपशम कहलाता है। सर्वार्थ सिद्धि के अनुसार सर्वघाती स्पर्धकों के उदय का क्षय होने से तथा उनका ही सदवस्था रूप उपशम होने से एवं देशघाती स्पर्धकों का उदय होने से क्षयोपशमिक भाव निष्पन्न होता है। इन दोनों उल्लेखों में क्षयोपशम की परिभाषा Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त और क्षायोपशमिक भाव / 205 का भेद परिलक्षित है। जैसे कोद्रव धान को धोने से कुछ कोदों की मदशक्ति क्षीण हो जाती है और कुछ की अक्षीण / उसी तरह परिणामों की निर्मलता से कर्मों के एक देश का क्षय एवं एक देश का उपशम होना क्षायोपशमिक भाव है। फलितार्थतः कर्मों के एक देश का क्षय एवं एक देश का उपशम होने को क्षयोपशम कहते हैं। यद्यपि क्षयोपशम में कर्मों का उदय भी विद्यमान रहता है परन्तु उसकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाने के कारण वह जीव के गुणों का घात करने में समर्थ नहीं होता। क्षयोपशम की प्रक्रिया में उदयावलिका प्राप्त अथवा उदीर्ण दलिक का क्षय होता रहता है तथा अनुदीर्ण का उपशम होता रहता है / यह क्षय और उपशम की प्रक्रिया निरन्तर चलती है। उपशम भी दो प्रकार का होता है (1) उदयावलिका में आने योग्य कर्म दलिकों को विपाकोदय के अयोग्य बना. देना, और (2) तीव्र रस का मन्द रस में परिणमन / 3 क्षयोपशम, ज्ञानावरणं आदि चार घाती कर्मों का ही होता है। घातिकर्मों की प्रकृतियां दो प्रकार की होती हैं-(१) सर्वघाती, (2) देशघाती। कर्मग्रन्थ में 20 प्रकृतियों को सर्वघाती एवं 25 को देशघाती स्वीकार किया गया है।" सर्वघाती एवं देशघाती कर्म प्रकृतियों के अनन्तानन्त रस स्पर्धक होते हैं / गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) की टीका में घातिकर्मों की विशिष्ट शक्ति को ही स्पर्धक कहा है। अकलंकदेव ने स्पर्धक को भिन्न प्रकार से व्याख्यायित करते हुए कहा है कि उदयप्राप्त कर्म के प्रदेश अभव्यों से अनन्तगुणा तथा सिद्धों के अनन्तभाग प्रमाण होते हैं। उनमें से सर्वजघन्य गुणवाले प्रदेश के अनुभाग का बुद्धि के द्वारा उतना विभाग किया जाए जिससे आगे विभाग न हो सकता हो / सर्वजीव राशि के अनन्तगुण प्रमाण ऐसे सर्वजघन्य अविभाग परिच्छेदों की राशि को वर्ग कहते हैं। इसी तरह सर्वजघन्य अविभाग परिच्छेदों के, जीव राशि से अनन्तगुण प्रमाण राशिरूप वर्ग बनाने चाहिए। इन समगुणवाले सम संख्यक वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं। पुनः एक अविभाग परिच्छेद अधिक गुणवालों के सर्वजीवराशि की अनन्त गुण प्रमाण राशि रूप वर्ग बनाने चाहिए। उन वर्गों के समुदाय की वर्गणा बनानी चाहिए। इस तरह एक-एक अविभाग परिच्छेद बढ़ाकर वर्ग और वर्गसमूह रूप वर्गणाएँ तब तक बनानी चाहिए जब तक एक परिच्छेद मिलता जाए। इस क्रमहानि और क्रम वृद्धि वाली वर्गणाओं के समुदाय को स्पर्धक कहते हैं।६ . प्रत्येक कर्म के अनन्तानन्त रस स्पर्धक होते हैं / "सर्वघाती प्रकृतियों के रसस्पर्धक तो सर्वघाती ही होते हैं तथा देशघाती प्रकृतियों के रस-स्पर्धक सर्वघाती एवं देशघाती Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 / आईती-दृष्टि उभयरूप होते हैं। 'ज्ञानबिन्दु-प्रकरण' में देशघाती प्रकृति के रस स्पर्धकों को चतुःस्थानक, त्रिस्थानक, द्विस्थानक एवं एकस्थानक के भेद से चार प्रकार का स्वीकार किया गया है। देशघाती प्रकृति के चतुःस्थानक एवं त्रिस्थानक रस-स्पर्धक तो सर्वघाती ही होते हैं तथा द्विस्थानक स्पर्धक कुछ सर्वघाती एवं कुछ देशघाती होते हैं / एकस्थानक स्पर्धक देशघाती ही होते हैं / विपाक की मन्दता एवं तीव्रता के आधार पर एकस्थानक यावत् चतुःस्थानक आदि भेद किये गये हैं। गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) में रसस्पर्धकों की सर्वघातिता एवं देशघातिता को लता, दारु, अस्थि एवं शैल के दृष्टान्त से समझाया गया है। घातिकर्मों के स्पर्धक लता आदि की तरह चार प्रकार के होते हैं। जैसे लता, दारु, अस्थि एवं शैल क्रमशः कठोर होते हैं वैसे ही कर्मों के स्पर्धकों की फल दान शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है / लता से लेकर दारु के अनन्तवें भाग पर्यन्त तक के रस-स्पर्धक देशघाती होते हैं / दारु के अनन्त बहुभाग से लेकर अस्थि और शैलरूप सब स्पर्धक सर्वघाती है। लता स्थानीय स्पर्धकों की ज्ञान बिन्दु में आगत एक स्थानक स्पर्धक कहा जा सकता है, वे देशघाती ही होते हैं / दारु तुल्य स्पर्धक द्वि-स्थानकं है उनमें कुछ देशघाती एवं कुछ सर्वघाती हैं। अस्थि तुल्य त्रि-स्थानक एवं शैल तुल्य चतुःस्थानक रस-स्पर्धक होते हैं जो सर्वघाती ही होते हैं। एक प्रश्न उपस्थित होता है कि देशघाती के स्पर्धक सर्वघाती कैसे हो सकते हैं? इसको समाहित करते हुए गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) की टीका में कहा है कि मतिज्ञानावरण आदि देशघाती प्रकृतियों का अनुभाग शैल, अस्थि, दारु एवं लता सदृश होता है ।,अनुभाग की तीव्रतावाले सर्वघाती एवं मन्दतावाले रस-स्पर्धक देशघाती होते हैं, जैसे चक्षुदर्शनावरणीय देशघाती प्रकृति है। एकेन्द्रिय में चक्षुदर्शन के सर्वघाती परमाणुओं का उदय होता है, अतः उनको चक्षु दर्शन की प्राप्ति नहीं होती / वे सर्वघाती परमाणु चक्षुदर्शन रूप आत्मगुण को प्रकट ही नहीं होने देने तथा दूसरी ओर चतुरिन्द्रिय के चक्षुदर्शन के देशघाती परमाणुओं का उदय है / देशघाती का उदय होने पर भी आत्म-गुण आंशिक रूप में प्रकट होता है, अतः उनके चक्षु दर्शन होता है / यदि चक्षु-दर्शनावरण आदि देशघाती प्रकृतियों के रसस्पर्धक सर्वघाती ही होते तो किसी भी जीव को चक्षुदर्शन प्राप्त ही नहीं होता तथा वे देशघाती ही होते तो सबको चक्षुदर्शन उपलब्ध होना चाहिए; अतः स्पष्ट है चक्षुदर्शन के रसस्पर्धक उभय रूप हैं। सर्वघाती एवं देशघाती स्पर्धकों का बन्ध कब, किस रूप में होता है इत्यादि विषयों का भी विवेचन 'ज्ञान बिन्दु' आदि अनेक ग्रन्थों में प्राप्त है। देशघाती एवं सर्वघाती कर्म-प्रकृतियों के आधार पर भी क्षयोपशम के दो प्रकार Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त और क्षायोपशमिक भाव / 207 बन जाते हैं—(१) देशघाती कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम और (2) सर्वघाती कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम / देशघाती कर्मप्रकृतियों के क्षयोपशम काल में सम्बद्ध प्रकृति का मन्द विपाकोदय रहता है / मन्द विपाक अपने आवार्य गुण के विकास को रोक नहीं सकता। इस अवस्था में सर्वघाती रस वाला कोई भी दलिक उदय में नहीं रहता। सर्वघाती कर्म-प्रकृतियों के क्षयोपशम काल में विपाकोदय सर्वथा नहीं रहता केवल प्रदेशोदय . रहता है / केवल-ज्ञानावरण एवं केवल-दर्शनावरण इन दो सर्वघाती कर्म-प्रकृतियों का क्षयोपशम नहीं होता। ___शुभ अध्यवसाय, शुभ लेश्या और शुभ योग के द्वारा कर्म-प्रकृतियों के तीव्र विपाकोदय को मन्द विपाकोदय और विपाकोदय को प्रदेशोदय में बदलने की क्रिया चालू रहती है। औदयिक एवं क्षायोपशमिक भाव का संघर्ष निरन्तर चलता है।" साधना की सघनता से क्षायोपशमिक भाव प्रबल हो जाता है। साधना के विविध प्रयोगों के द्वारा क्षायोपशम भाव को शक्तिशाली बनाया जा सकता है। तपस्या, ध्यान आदि साधना के द्वारा आत्मप्रदेशों को विशुद्ध बना दिया जाता है / उस विशुद्धि के सम्पर्क में आते ही अशुद्धि का क्षय होता चला जाता है। जैसे लेसर किरण निर्मित यन्त्र सैकड़ों हीरों को एकसाथ काट देता है, वैसे ही विशुद्धिमय आत्मप्रदेशों के द्वारा अनन्तानन्त कर्मों का निर्जरण सतत होता रहता है। क्षयोपशम की प्रक्रिया के सैद्धान्तिक स्वरूप का अवबोध प्राप्त कर जीवन के व्यवहार में उसका अवतरण आवश्यक है। ध्यान/तपस्यात्मक पुरुषार्थ के द्वारा उदीरणा, अपवर्तन, उद्वर्तन, संक्रमण आदि अवस्थाओं को निष्पादित करके सन्तुलित व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है। आवेगों के शोधन, परिवर्तन आदि की प्रक्रिया पर मानस-शास्त्र में विचार हुआ है। जैन कर्मशास्त्र में भी आवेश-परिशोधन की विस्तृत प्रक्रिया उपलब्ध है। कर्मशास्त्र की भाषा में आवेग-नियन्त्रण की तीन पद्धतियां हैं-उपशमन, क्षयोपशमन एवं क्षयीकरण। - 1. उपशमन–मन में जो आवेग उत्पन्न हुए हैं उनको दबा देना उपशम है / इसमें आवेगों का विलय नहीं होता किन्तु वे एक बार तिरोहित जैसे प्रतीत होते हैं किन्तु पुनः उभर जाते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में इसे दमन की पद्धति कहा गया है / मनोविज्ञान दमन की पद्धति को स्वस्थ नहीं मानता। कर्मशास्त्र में यह मान्य है। आयुर्वेद में दो प्रकार के वेग बतलाए गए हैं—शारीरिक एवं मानसिक / वहाँ कहा गया है कि शारीरिक वेग नहीं रोकना चाहिए, मानसिक वेग को रोकना आवश्यक है। क्रोध का Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 / आर्हती-दृष्टि आवेग आया है तो तत्काल उसे एक बार दबाना होगा, बाद में उसका परिशोधन आवश्यक है / कर्मशास्त्र भी मानता है कि उपशमन की पद्धति लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकती। उपशम-प्रक्रिया से चलनेवाला साधक ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंचकर भी वहां से गिर पड़ता है / अन्ततः तो उपशमित वृत्तियां अत्यन्त वेग से पुनः उभर आती हैं, अतः उपशमन के साथ ही परिशोधन आवश्यक है। 2. क्षयोपशम इस प्रक्रिया में दोषों का उपशमन एवं क्षय साथ-साथ चलता है / यह मार्गान्तरीकरण की प्रक्रिया है / मनोविज्ञान की भाषा में इसे उदात्तीकरण कहा जा सकता है। 3. क्षयीकरण इसमें दोषों का सर्वथा विलयन हो जाता है। सर्वथा क्षय हो जाने के बाद दोषों का पुनः आविर्भाव नहीं हो सकता। क्षयोपशम केवल चार घातिकर्म का ही होता है। अघातिकर्म का नहीं होता। वेदनीय, आयुष्य, नाम एवं गोत्र-कर्म आत्मा के गुणों का घात करने वाले नहीं हैं। आत्मा के चार मौलिक गुण हैं-ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति / घातिकर्म इन गुणों का घात करते हैं किन्तु वे सर्वथा घात नहीं करते इसलिए उनका क्षयोपशम होता रहता है। अघातिकर्म का उदय तथा क्षय ही हो सकता है। उपशम एवं क्षयोपशम नहीं होता क्योंकि अघातिकर्म संयोग करनेवाले हैं। शुभ कर्म का उदय होता है तो शुभ पुद्गलों का और यदि अशुभ कर्म का उदय होता है तो अशुभ पुद्गलों का संयोग मिलता है। ये कर्म आत्मगुणों के आवारक, विकारक एवं अवरोधक नहीं हैं बल्कि ये प्रापक हैं, कुछ प्राप्त करवानेवाले हैं, अतः इनका उदय या क्षय ही हो सकता है। क्षयोपशम एवं उपशम नहीं हो सकता। ___पूर्ण उपशम केवल मोहनीय कर्म का ही होता है / इसका हेतु यह है कि मोहनीय कर्म की प्रकृतियां संवेगात्मक और विकारक हैं, इसलिए उनका उपशम किया जा सकता है / ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृतियां आवारक और अन्तराय कर्म की प्रकृतियां अवरोधक होती हैं, अतः उनका उपशम नहीं होता / अघातिकर्म का भी उपशम नहीं हो सकता,उनका तो निरन्तर भोग ही किया जाता है / जब गुणस्थानातीत अवस्था प्राप्त होती है तब अघाति कर्म का क्षय होता है। शरीरी अवस्था में तो उनका भोग ही हो सकता है जबकि घातिकर्मों का सशरीर अवस्था में ही पूर्णतया नाश हो जाता है। जैन दर्शन में पांचों भावों का विशद विवेचन प्राप्त है। उनके आधार पर व्यक्तित्व के बाह्य एवं आभ्यन्तर स्वरूप का विश्लेषण किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक क्षेत्र Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त और क्षायोपशमिक भाव / 209 में प्रदत्त व्यक्तित्व की मीमांसा भी पांच भावों के साथ समीक्षणीय है। जैनेतर दर्शन में भी भावों के सदृश विचारों का उल्लेख हुआ है / मुख्यतः पातञ्जल योग सूत्र में ऐसे विचार उपलब्ध हैं / जैनन्याय के विशिष्ट विद्वान् उपाध्याय यशोविजय जी ने पातञ्जल योग-सूत्र पर टीका लिखी है। उसमें उन्होंने इन भावों के साथ क्लेशों के आविर्भाव एवं तिरोभाव अवस्था की तुलना की है। उन्होंने अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष एवं अभिनिवेश इन पाँच क्लेशों को मोहनीय कर्म का उदय माना है / पतञ्जलि के अनुसार क्लेश प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न एवं उदार—इन चार रूपों में विद्यमान रहते हैं।२३ उपाध्यायजी के अनुसार क्लेश की प्रसुप्तावस्था जैन मान्य अबाधाकाल सदृश है। तनु अवस्था उपशम अथवा क्षयोपशम स्थानीय है। उदार अवस्था उदय के तुल्य पातञ्जल योग में असंप्रज्ञात समाधि, भवप्रत्यय एवं उपाय प्रत्यय के भेद से दो प्रकार की स्वीकृत है।" भवप्रत्यय समाधि विदेह एवं प्रकृतिलीन पुरुषों के होती है / 26 जब तक चित्त पुनरावर्तित नहीं होता है तब तक इस समाधि में कैवल्य सदृश पद का अनुभव होता है किन्तु निर्धारित समय के पश्चात् पुनः वृत्तियों का आविर्भाव हो जाता है, अतः भवप्रत्यय समाधि की तुलना जैन मान्य उपशम भाव से की जा सकती है। उपाय-प्रत्यय समाधि योगियों के होती है। साधक श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि तथा प्रज्ञा–इन उपायों के द्वारा असंप्रज्ञात समाधि को प्राप्त करता है। श्रद्धा आदि उपायों के द्वारा पुरुषार्थ पूर्वक साधक क्लेशों को क्षय करता हुआ अन्त में असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध होता है / समाधि प्राप्ति की प्रयत्नावस्था को क्षयोपशम एवं उसकी प्राप्ति की अवस्था की तुलना क्षायिक भाव से की जा सकती है। . भौतिक वैज्ञानिक भी आज 'क्वांटम' के आधार पर आन्तरिक भावों की प्रस्तुति कर रहे हैं / डेविड बोम के अनुसार, हमारे भीतर एक सहज आनन्द की स्थिति हैं किन्तु जब चिन्तन एवं इन्द्रिय संवेदन/सुख प्रबल हो जाते हैं तब वह आदृत हो जाता है / जब बाह्य चिन्तन एवं सुखैषणा रूप संवेदना शान्त हो जाती है तब भीतर आनन्द प्रकट हो जाता है / बाह्य चिन्तन एवं इन्द्रिय संवेदना को औदयिक भाव रूप माना जा सकता है तथा आन्तरिक ज्ञान एवं आनन्द की अभिव्यक्ति क्षयोपशम भाव के सदृश स्वीकार की जा सकती है। भौतिक विज्ञान के नियम भी अध्यात्म की ओर बढ़ रहे हैं, ऐसा प्रतीत हो रहा है। पारिणामिक भाव अस्तित्व का घटक तत्त्व है / पारिणामिक भाव के कारण वस्तु का अस्तित्व कभी नष्ट नहीं हो सकता। क्षायोपशमिक भाव व्यक्तित्व का निर्माता है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 / आर्हती-दृष्टि जीव अपने पुरुषार्थ के द्वारा निरन्तर आध्यात्मिक आरोहण कर सकता है। क्षायोपशमिक भाव के द्वारा ही आध्यात्मिक विकास सम्भव है और क्षायोपशमिक भाव की वृद्धि पुरुषार्थ से सम्भव है। भगवान् महावीर पुरुषार्थवाद के प्रवक्ता थे। उनका सिद्धान्त था कि जीव अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्म का बन्ध करता है और पुरुषार्थ के द्वारा उसमें परिवर्तन भी कर सकता है। कर्मवाद का सामान्य नियम है-अपने किये हए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। यदि यह नियम सार्वभौम एवं निरपेक्ष हो तो धार्मिक पुरुषार्थ की सार्थकता कम हो जाती है। उसकी सार्थकता तभी फलित होती है कि मनुष्य अतीत के बन्धन को बदल डाले / पूर्वकृत कर्म को निर्वीर्य बना दे। अध्यात्म विकास का तात्पर्य है कर्मों के बन्धन को तोड़ डालना। ज्यों-ज्यों कर्म बन्ध शिथिल होता जाएगा, आत्मा अपने स्वभाव को प्राप्त होती जाएंगी। इस प्रकार कर्म के क्षयोपशम के द्वारा व्यक्ति आध्यात्मिक ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकता है, ऐसा निर्विवाद कहा जा सकता है। .. सन्दर्भ 1. जैन-सिद्धान्त-दीपिका.४/१ .. 2. भगवती 1/119 3. ठाणं 2/1 4. तत्त्वार्थ सू. 2/1 5. तत्त्वा . भा. टी. 2/1 6. जैन सि. दी. 2/42 7. अनुयोगद्वार, भा. सू. 271 8. सव्वजीवाणं पि य णं-अक्खरस्स अणंततमो भागो निच्चुघाडिओ, जई पुण सो वि आवरिज्जा, तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा। नन्दी सूत्र 71 9. तदत्यन्तात्ययात् सः क्षयः / तत्त्वा. भा. टी. 2/1, 10. सव्यधादिफद्दयाणि अणंतगुणहीणाणि घेदूण देसघादिफद्दयत्तणेण परिणमिय उदयमागच्छंति, तेसिमणंतगुणहीणतं खओ णाम। देसघादिफद्दयसरुवेणवट्ठाणमुवसमो। तेहिं खओवसमेहिं संजुत्तोदयो खओवसमो णाम। धवला 7/2, 1, 49/91/7, 11. सर्वघातिस्पर्धकानामुदयक्षयात्तेषामेव सदुपशमाद्देशघातिस्पर्द्धकानामुदये क्षायोपशमिको भावो भवति। सर्वार्थसिद्धि 2/5/157/3, 12. उभयात्मको मिश्रः क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रववत् ।तत्त्वा. रा. वा. 2/1/3, Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त और क्षायोपशमिक भाव / 211 13. अनुयोगद्वार-भा. सू. 271-287 14. (क) केवलजुयलावरणा पणनिद्दा बारसाइमकसाया। मिच्छं ति सव्वघाई - चउणाण - तिदंसणवरणा संजलण नोकसाया विग्धं इय देसघाइय अघाई / / _कर्मग्रन्थ 5, गा. 13-14 (ख) ज्ञानबिन्दु, पृ. 3 15. घातिनां ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयान्तरायाणां शक्तयः स्पर्धकानि / गो. क गा. टी. 180, 16. अविभागपरिछिनकर्मप्रदेशरसभागप्रचयपंक्तेः क्रमवृद्धिः क्रमहानिः स्पर्धकम्। त. रा. वा. 2/5/4, 17. इह हि कर्मणां प्रत्येकं अनन्तान्तानि रसस्पर्धकानि भवन्ति / ज्ञानबिन्दु, पृ. 3, 18. ज्ञानबिन्दु, पृ. 3 19. सत्ती य लदादारुअट्ठीसेलोवमा हु घादीणं / दारु अणंतिमभागो त्ति देशघाती तदो सव्वं // गो. क. गा. 180, 20. गो. क गा. टी. 180 21. अनुयोगद्वार भा. सू. 271-287 . 22. धारयेत्तु सदा वेगान् हितैषी प्रेत्य चेह च। लोभेाद्वेषमात्सर्यरागादीनां जितेन्द्रियः / / वेगान्न धारयेद्वातविण्मूत्रक्षवतृक्षुधाम् / निद्राकासश्रमश्वासजृम्भाश्रुच्छिदिरेतसाम् // ___ अष्टांग हृदय, सूत्र स्थान अध्याय 4, श्लोक 24 23. अविद्याक्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदराणाम्। पा. यो. द. 2/4, 24. Studies in Jaina Philosophy, p. 259-60 25. स खल्वयं द्विविधः, उपायप्रत्ययो भवप्रत्ययश्च / पा. यो. सू. मा. 1/19, 26 . भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्। पा. यो. 1/19, 27. श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्। पा. यो. सू. 1/20 28. कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि / उत्तराध्ययन 4/3, Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न भारतीय दर्शनों में आश्रव सभी भारतीय चिन्तकों ने आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया है / आत्मा के शुद्ध स्वरूप के निरूपण के अवसर पर उसे अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द, अनन्त शक्ति सम्पन्न, निर्लेप, शुद्ध, निरंजन, निराकार आदि अनेक विशेषणों से अभिहित किया जाता है किन्तु संसारावस्था में उसका स्वरूप वर्णित स्वरूप से भिन्न प्रकार का होता है। उसके ज्ञान, आनन्द, शक्ति आदि स्वभाव संसारावस्था में सीमित होते हैं, अतः सभी दार्शनिकों ने आत्मा की दो अवस्थाएँ स्वीकार की हैं—बद्ध-आत्मा और मुक्त-आत्मा / मुक्तावस्था में आत्मा शुद्ध स्वरूपवाली ही होती है / वह अनन्त चतुष्ट्यी से सम्पन्न होती है किन्तु बद्धावस्था में वह कर्मों से आवृत्त रहती है, अतः कर्म बन्धन के कारण उसके असीमित ज्ञान आदि स्वभाव में सीमितता आ जाती है। आत्मा कर्मों से क्यों बंधती है ? बन्धन का हेतु क्या है ? इन बन्धन के कारणों की मीमांसा भी दार्शनिकों के चिन्तन का विषय रहा है। - कर्मबन्ध के हेतुओं का निरूपण विभिन्न दर्शनों में पृथक्-पृथक् नाम से हुआ है / जैन एवं बौद्ध दर्शन में कर्मबन्ध के हेतुओं को आश्रव/आसव कहा गया है / जैन सिद्धान्त दीपिका में आश्रव को परिभाषित करते हुए कहा गया. 'कर्माकर्षणहेतुरात्मपरिणाम आश्रवः' कर्म आकर्षण के हेतुभूत आत्म परिणाम को आश्रव कहा जाता है / जिस आत्म-परिणाम से आत्मा में कर्मों का आश्रवण-प्रवेश होता है, उसे आश्रव अर्थात् कर्मबन्ध का हेतु कहा जाता है। . कर्मबन्ध के हेतरूप में आश्रव शब्द का प्रयोग जैन, बौद्ध परम्परा में हआ है। किन्तु इस बन्धन हेतु रूप आश्रव की स्वीकृति तो नामान्तर से प्रायः सभी भारतीय दर्शन परम्परा में है। जीव/आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करनेवाले सभी भारतीय दर्शनों ने बन्ध और मोक्ष को स्वीकार किया है / समस्त दर्शनों ने अविद्या, मोह, अज्ञान, मिथ्याज्ञान को बन्ध अथवा संसार का कारण तथा विद्या, तत्त्वज्ञान, भेदविज्ञान आदि को मोक्ष का हेतु माना है। दार्शनिक प्रस्थान का यह सर्वसम्मत विचार है / विभिन्न दर्शनों में यह विचार किस रूप में प्रस्फुटित है उसका अवलोकन करना प्रस्तुत प्रसंग में काम्य है। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न भारतीय दर्शनों में आश्रव / 213 वेदान्त दर्शन . . वेदान्त के अनुसार अविद्या संसार का कारण है / ब्रह्म नित्य, शुद्ध, चैतन्य स्वभाव एवं अखण्ड आनन्द स्वरूप है। किन्तु अविद्या के कारण ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती है। इसी के कारण जीव को अपने स्वरूप की विस्मृति रहती है। अपने स्वभाव से भिन्न विभाव में आसक्ति होती है। अविद्या के कारण ही जीव अपने ब्रह्म स्वरूप से भिन्न रहता है / इन्द्रियां बहिर्मुख हैं,वे अन्तरात्मा का दर्शन नहीं कर सकतीं / कठोपनिषद् (2/1/1) में कहा है कि पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूस् तस्मात् पराड्यश्यन्ति नान्तरात्मन् // वेदान्त दर्शन के अनुसार ज्ञान से मुक्ति होती है और अज्ञान/अविद्या से बन्ध होता है—'ज्ञानान्मुक्तिः बन्धो विपर्ययात्' / जीव अनादि माया से सुप्त है / उस माया/ . अविद्या की निवृत्ति से ही वह जागृत होता है और जीव का जागृत होना ही मोक्ष है। अविद्यानिवृत्तिरेव मोक्षः / सम्यक् ज्ञान ही मोक्ष का उपाय है / मोक्ष में अद्वैत अवभासित होता है अनादिमायया सुप्तो यदा जीवः प्रबुध्यते। अजं अनिद्रं अस्वनं अद्वैतं बुध्यते तदा / / उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि वेदान्त के अनुसार आश्रव अर्थात् कर्मबन्ध का हेतु अविद्या ही है। सांख्य एवं योग दर्शन ____सांख्य दर्शन के अनुसार यह सांसारिक जीवन आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं अधिदैविक इन त्रिविध दुःखों से परिपूर्ण है / दुःख का मूल कारण अविद्या अर्थात् मिथ्याज्ञान ही है। प्रकृति एवं पुरुष में एकत्व की अनुभूति अविद्या के कारण होती है। अविद्या विवेक ख्याति की अवरोधक है / सांख्य दर्शन के अनुसार बन्ध विपर्यय पर आधारित है और विपर्यय ही मिथ्याज्ञान है। अनात्मा में आत्मबुद्धि होना ही ' मिथ्याज्ञान है। ___ योग दर्शन के अनुसार क्लेश ही बन्ध के कारण हैं / क्लेश पांच माने गये हैं"अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः' इन सब क्लेशों के मूल में अविद्या है-अविद्याभूमिमुत्तरेषाम् / सांख्य जिसको विपर्यय कहता है योग में उसे क्लेश कहा Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 / आर्हती-दृष्टि गया है / अविद्या को परिभाषित करते हुए कहा गया— 'अनित्याशुचिदुः खानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या' अनित्य, अशुचि, दुःख एवं अनात्मा में क्रमशः नित्य, शुचि, सुख एवं आत्मबुद्धि करना अविद्या है। सांख्य एवं योग ने ज्ञान को ही मुक्ति का कारण माना है / पुरुष का प्रकृति से असम्बन्ध ही मोक्ष है / वस्तुतः इस दर्शन के अनुसार बन्ध और मोक्ष पुरुष के नहीं होते अपितु प्रकृति के ही होते हैं—'संसरति बध्यते मुच्यते नानाश्रया प्रकृतिः।' योग दर्शन के मन्तव्य के अनुसार अविद्या आदि पांच क्लेशों के कारण क्लिष्ट वृत्ति चित्त व्यापार की उत्पत्ति होती है और उससे धर्म, अधर्म रूप संस्कार उत्पन्न होते हैं। योगमान्य क्लेश कषाय आश्रव स्थानीय एवं चित्तवृत्ति योग आश्रव स्थानीय है। विवेक ख्याति से क्लेशों का निरोध सम्भव है / क्लेशावरण दूर होने पर मुक्ति हो जाती है। न्याय-वैशेषिक दर्शन न्याय वैशेषिक दर्शन द्वैतवादी है। वे आत्मा और परमाणु का पृथक् अस्तित्व स्वीकार करते हैं / अविद्या के कारण ही जीव शरीर को आत्मा समझने लगता है। नैयायिक राग-द्वेष और मोह रूप तीन दोषों को स्वीकार करते हैं / ये तीनों दोष नैयायिक दर्शन में जैनमान्य आश्रव स्थानीय है। इन दोषों से प्रेरणा प्राप्त करके जीव के मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति होती है। उस प्रवृत्ति से धर्म; अधर्म की उत्पत्ति होती है। इनको संस्कार भी कहा जाता है। तत्त्वज्ञान से बन्ध का नाश होता है। मिथ्याज्ञान, दोष, प्रवृत्ति आदि के कारण ही संसार प्रवर्तित होता है-'मिथ्याज्ञानादयो दुःखान्तधर्माविच्छेदेनैव प्रवर्तमानः संसार:' और इनका नाश होने से मुक्ति हो जाती है। न्यायसूत्र में मुक्ति की प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए कहा गया'दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदन्तरापायादपवर्गः'।. सर्वप्रथम मिथ्याज्ञान का नाश होता है तत्पश्चात् क्रमशः दोष, प्रवृत्ति, जन्म एवं दुःख का नाश होने से अपवर्ग की प्राप्ति होती है। राग, द्वेष एवं मोह ये तीन कर्म बन्ध के हेतु बनते हैं। इनके निरोध से अपवर्ग:सम्मुख हो जाता है। बौद्ध दर्शन बौद्ध दर्शन अनात्मवादी है / इस दर्शन के अनुसार शाश्वत, नित्य स्वरूपवाला आत्मा नाम का कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है / आत्मा जैसी किसी स्वतन्त्र, शाश्वत वस्तु का अस्तित्व नहीं होने पर भी शरीर आदि अनात्म द्रव्यों में आत्म-बुद्धि होना ही बन्धन Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न भारतीय दर्शनों में आश्रव / 215 का हेतु है तथा इसे ही अविद्या या मिथ्याज्ञान कहा जाता है / बौद्ध दर्शन के अनुसार नाम और रूप के संसर्ग से अनादिकालीन संसार-चक्र चल रहा है। संसार-चक्र का कारण लोभ, राग, द्वेष आदि हैं / ये लोभ आदि ही कर्मबन्धन के हेतु हैं। कर्मबन्ध के हेतु के रूप में जैसे जैन परम्परा में आश्रव शब्द का प्रयोग हुआ है वैसे ही बौद्ध परम्परा में पाली भाषा में 'आसव' शब्द का प्रयोग हुआ है। ‘आसव' को व्याख्यायित करते हुए कहा गया कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है फिर भी उसका स्थिर वस्तु के रूप में स्वीकार अनादि दोष के कारण होता है और वही दोष अविद्या है। यह अविद्या आसव के निमित्त से प्रकट होती है / आसव चार प्रकार का है 1. कामासव–शब्द आदि विषयों को प्राप्त करने की इच्छा। 2. भवासक-पंच स्कन्ध अर्थात् सचेतन देह में जीने की इच्छा। 3. दृष्यासव–बौद्ध दृष्टि से विपरीत दृष्टि सेवन का वेग। 4. अविद्यासव–अस्थिर अथवा अनित्य पदार्थों में स्थिरता या नित्यता की बुद्धि / दुःख में सुख, अनात्म में आत्मबुद्धि आदि। . अगुत्तर निकाय में आश्रव के कामाश्रव, भवाश्रव एवं अविद्याश्रव ये तीन भेद किये गये हैं। अविद्या को सबने कर्मबन्ध का मूल हेतु माना है। जैन दर्शन ___जैन दर्शन के अनुसार कर्म आकर्षण के हेतुभूत आत्म परिणाम को आश्रव कहा जाता है / आश्रव ही संसार का मूल कारण है, जैसा कि हेमचन्द्राचार्य ने कहा है'आश्रवो भवहेतुः स्यात्' / जैन आगमों में अनेक स्थलों पर कर्मबन्ध के हेतुओं की चर्चा है। भगवती में प्रमाद और योग को बन्ध का हेतु कहा गया—'जीवे णं कंखामोहणियकम्मं कज्जइ पमाएणं जोगेणं'स्थानांग में भी राग एवं द्वेष को कर्मबन्ध का हेतु कहा है। पत्रवणा में भी इसकी विस्तार से चर्चा है। उत्तराध्ययन में राग एवं द्वेष को कर्म का बीज कहा गया है—'रागो य दोसो वि य कम्मबीअं' तत्त्वार्थ-सूत्र में कर्मबन्ध के पांच हेतुओं का उल्लेख है___ 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोग बन्धहेतवः' / इन बन्ध हेतुओं को ही जैन दर्शन में आश्रव कहा गया है। जैन दर्शन में मिथ्यात्व आश्रव से प्रसिद्ध तत्त्व जैनेतर दर्शनों में अविद्या, मिथ्याज्ञान आदि नामों से प्रसिद्ध है / इन आश्रवों के द्वारा ही कर्म परमाणुओं का आकर्षण होकर आत्मा से वे चिपक जाते हैं। ___ जैन साहित्य में आश्रव पर विस्तार से चर्चा उपलब्ध है। पांचों ही आश्रवों का संक्षेप में वर्णन यहां काम्य है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 / आहती-दृष्टि .. 1. मिथ्यात्व—'अतत्त्वे तत्त्वश्रद्धा मिथ्यात्वम्' दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से अतत्त्व (अयथार्थ) में तत्त्व की प्रतीति मिथ्यात्व है। आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, आभिनिवेशिक, अनाभोगिक एवं सांशयिक के भेद से मिथ्यात्व को पांच प्रकार का निर्दिष्ट किया है / मिथ्यात्व ही मूल आश्रव है / इसका निरोध होने से ही अन्य आश्रवों का निरोध सम्भव है। अन्य दर्शनों में मिथ्यात्व को ही अविद्या, अज्ञान, मिथ्याज्ञान आदि कहा गया है। 2. अविरति-'अप्रत्याख्यानमविरतिः' अप्रत्याख्यान एवं प्रत्याख्यान मोह के उदय से आत्मा का हिंसा आदि में अत्यागरूप जो अध्यवसाय होता है, उसे अविरति कहते हैं। 3. प्रमाद–'अनुत्साहः प्रमादः' अरति आदि मोह के उदय से अध्यात्म के प्रति जो अनुत्साह होता है, उसका नाम प्रमाद है। 4. कषाय—'रागद्वेषात्मकोत्तापः कषायः' आत्मा की रागद्वेषात्मक उत्पत्तता कषाय आश्रव है / अनन्तानुबन्धी आदि के भेद-प्रभेद से कषाय के अनेक प्रकार हैं। 5. योग–'काय-वाङ्मनो व्यापारो योगः' वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से तथा शरीर नाम कर्म के उदय से निष्पन्न तथा शरीर, भाषा एवं मन की वर्गणा के संयोग से होनेवाले शरीर, वचन एवं मन की प्रवृत्ति रूप आत्मा के परिणाम को योग कहते हैं। शुभ एवं अशुभ के भेद से योग दो प्रकार का है। योग की शुभता एवं अशुभता का कारण मोहकर्म का संयोग-वियोग है। जैसा कि आचार्य भिक्षु ने नवपदार्थ में कहा है—'उजला नै मैला कह्या जोग, मोहकरम संजोग विजोग'। सभी भारतीय दर्शनों में मुक्ति की अवधारणा है / मुक्ति की अवधारणा के साथ बन्ध की स्वीकृति स्वत: फलित है / बन्ध है तो उसका कारण भी है जिसे आश्रव कहा जाता है / बन्धन मुक्ति का उपाय संवर एवं निर्जरा है, इन संवर निर्जरात्मक हेतु के द्वारा आत्मा की आत्यन्तिक एवं ऐकान्तिक बन्धन मुक्ति सम्भव है। ' Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व : उपयोगितावाद सभी दार्शनिकों ने संसार के मूल पदार्थों पर चिन्तन किया है / उन्हीं मूल पदार्थों को भारतीय दर्शन में तत्त्व या पदार्थ कहा जाता है ।सभी दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न रूप से मूल तत्त्वों को स्वीकृति दी है / चार्वाक लोगों का मानना है कि पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु ये चार मूल तत्त्व हैं / बौद्ध दर्शन में भिन्न-भिन्न प्रस्थानों के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार के तत्त्व स्वीकृत हैं / शून्यवादी केवल शून्य को, योगाचार केवल विज्ञान स्कन्ध को तथा अन्य बौद्ध पांच आन्तरिक स्कन्धों और चार बाह्य परमाणुओं को तत्त्व मानते हैं। दुःखं च संसारिण स्कन्धा ते च पञ्च प्रकीर्तिता। विज्ञानं वेदना संज्ञा संस्कारों रूपमेव च। भगवान् बुद्ध के अनुसार चार आर्यसत्य ही तत्त्व हैं। रामानुज सम्प्रदाय के अनुसार सभी पदार्थ प्रमाण और प्रमेय उन दो रूपों में विभक्त हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम ये प्रमाण है / द्रव्य, गुण एवं सामान्य प्रमेय हैं / इनके उत्तरभेद अनेक हैं / मध्व सम्प्रदाय के अनुसार द्रव्य, गुण आदि दस तत्त्व हैं / नैयायिक सोलह तत्त्व मानता है। " वेशैषिक का सात पदार्थों का अभ्युपगम है। सांख्य दर्शन संक्षेप में प्रकृत्यात्मक,. विकृत्यात्मक, उभय एवं अनुभय स्वरूपवाले चार भागों में विभक्त तत्त्व को मानता है। उनका विस्तृत रूप ही 25 तत्त्व हैं। अद्वैत वेदान्त में पदार्थ एकात्मक है वह ब्रह्ममय है / इसके अनुसार द्वैत की प्रतीति अनादि अविद्या के कारण कल्पित है / जैन दर्शन द्वैतवादी दर्शन है। उसके मूल में जीव एवं अजीव ये दो तत्त्व हैं किन्तु विवक्षा भेद से उनके छः सात या नौ भेद हो जाते हैं। - मोक्ष साधना के उपयोगी ज्ञेयों को तत्त्व कहा जाता है / वे नौ हैं—जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष / उमास्वाति ने तत्त्वों की संख्या सात स्वीकृत की है। पुण्य-पाप का अन्तर्भाव बन्ध तत्त्व के अन्तर्गत किया है / संक्षेप दृष्टि से तत्त्व दो ही हैं—जीव और अजीव / सात या नौ का विभाग उन्हीं का विस्तार है। पुण्य-पाप बन्ध के अवान्तर भेद हैं। उनकी स्वतन्त्र विवक्षा हो तो तत्त्व नौ और स्वतन्त्र विवक्षा न हो तो वे सात होते हैं। उनके छः भेद भी उपलब्ध होते हैं-धर्म, अधर्म, Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 / आहती-दृष्टि आकाश, काल, पुद्गल और जीव / छह एवं नौ प्रकार के भेद के निरूपण के पीछे दो प्रकार की दृष्टियां हैं। जब हम जागतिक स्थिति को समझने का प्रयत्न करते हैं तब दो की संख्या छह हो जाती है। जहां लोक के बारे में वर्णन मिलता है वहां नव तत्त्व का उल्लेख ही नहीं है। छह द्रव्यों की ही व्याख्या प्राप्त होती है। - लोकस्थिति की जानकारी के लिए अजीव अन्तर्गत पदार्थों का जितना महत्त्व है उतना जीव की विभिन्न दशाओं का नहीं है / छहः द्रव्यों में जीव की अवस्थाओं का विभाग नहीं किया गया है। उनमें सिर्फ अजीव का वर्गीकरण किया गया है। आत्मा की मुक्ति कैसे हो सकती है? जीव या अजीव की कौन-सी अवस्थाएँ मुक्ति में बाधक एवं साधक हैं ? संसार मुक्ति की जिज्ञासा अर्थात् आत्मसाधना की जिज्ञासा इन दो तत्त्वों को नौ तत्त्वों में विभक्त कर देती है। पुण्य से लेकर मोक्ष तक के सात तत्त्व स्वतन्त्र नहीं है। जीव अजीव की अवस्था विशेष है। पुण्य, पाप और बन्ध ये पौद्गलिक हैं, इसलिए अजीव के पर्याय हैं ।आश्रव संवर, निर्जरा एवं मोक्ष ये जीव की पर्याय हैं / नव तत्त्वों में पहला तत्त्व जीव है और अन्तिम मोक्ष / जीव के दो प्रकार बतलाए गये हैं-बद्ध और मुक्त / बद्ध जीव पहला और मुक्त जीव अन्तिम तत्त्व है। अजीव जीव का प्रतिपक्ष है। वह बद्ध-मुक्त नहीं होता। कर्म का बन्धन पौद्गलिक होता है इसलिए साधना के क्रम में अजीव की जानकारी भी आवश्यक है। अजीव को जाने बिना संसार मुक्ति का उपाय नहीं जाना जा सकता। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है—'जो जीवे वि न याणाइ अजीवे विनं याणई जीवाजीवे अयाणतो कहं सो नाहइ सजम, संयम एवं अहिंसा का आचरण करने के लिए जीव एवं अजीव की अवगति अत्यन्त अपेक्षित है / बन्धन-मुक्ति की जिज्ञासा उत्पन्न होने पर जीव साधकतत्त्व और मोक्ष साध्यतत्त्व बनता है। शेष सारे तत्त्व मोक्ष मार्ग के साधक या बाधक बनते हैं। पुण्य-पाप, और बन्ध मोक्ष के बाधक हैं / आश्रव भी अपेक्षा भेद से साधक-बाधक दोनों माना जा सकता है। शुभयोग से कर्म निर्जरित होते हैं अतः यह साधक है किन्तु आश्रव का कर्म संग्राहक रूप तो मोक्षमार्ग का बाधक ही है। संवर और निर्जरा मोक्ष के साधक हैं। . ___ छह द्रव्यों में एक द्रव्य जीव और पांच द्रव्य अजीव तथा नौ तत्त्वों में 5 तत्त्व . जीव और 4 तत्त्व अजीव हैं / इससे यही सिद्ध होता है कि विश्व में मूल तत्त्व दो राशि ही हैं / जीव राशि और अजीव राशि / जीव राशि में सब जीव और अजीव राशि में सब अजीव समा जाते हैं अर्थात् सम्पूर्ण लोक का विस्तार इन दो राशियों में समाहित हो जाता है। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व : उपयोगितावाद | 219 तत्त्वों के विभाजन की एक पृथक् शैली भी रही है उनको चार भागों में भी विभक्त किया गया है / उद्भट विद्वान् उद्योतकर ने हेय, हेयनिर्वतक, हान एवं हानोपाय ये चार अर्थपद माने हैं / चिकित्सा शास्त्र में भी चार विभाग उपलब्ध होते हैं / रोग, रोगहेतु, आरोग्य और भैषज्य / वैसे ही अध्यात्म शास्त्र के तत्त्वों का विभाग भी चार भागों में किया जा सकता है / संसार, संसारहेतु मोक्ष और मोक्षोपाय। व्याधिज्ञेयो व्याधिहेतुः प्रहेयः, स्वास्थ्यं प्राप्य भैषज्यं सेव्यमेवं / दुःखं हेतुस्तन्निरोधोऽथ मार्गो, ज्ञेयं हेयं स्पर्शितव्यं निषेव्यः / / भगवान् बुद्ध ने भी चार आर्य सत्यों को तत्त्व माना है। दुःख, दुःखहेतु, निरोध एवं निरोध का मार्ग / ठीक उसी प्रकार जैन के सात तत्त्वों का विभाजन इसी रूप में किया जा सकता है / जीव और अजोव ये दो तत्त्व संसार हैं, आश्रव और बन्ध संसार के हेतु हैं, मोक्ष लक्ष्य है तथा संवर निर्जरा उसकी प्राप्ति के साधन हैं / परन्तु संक्षेप में इनका अन्तर्भाव जीव राशि, अजीव राशि में ही हो जाता है। ____ अन्य दार्शनिकों की तत्त्व कल्पना का अन्तर्भाव इन दो तत्त्वों में ही हो जाता है / वैशेषिक परिकल्पित द्रव्य, पृथ्वी, जल, वायु आदि गुण-स्पर्श आदि कर्म उत्क्षेपण आदि एवं सामान्य विशेष समवाय इन छहों का अन्तर्भाव इन दो तत्त्वों में हो जाता है। सांख्य के 25 तत्त्व, बौद्धों के चार आर्य सत्य, चार्वाक् के चार भूत इन सबका समावेश इन द्विविध राशियों में हो जाता है / इन दो राशियों में सारा जगत् व्याप्त है। जो इन दो राशियों में समाविष्ट नहीं होता शशशृंग की तरह उसका अस्तित्व भी नहीं हो सकता। केवल चेतन या केवल जड़ का भी अस्तित्व विश्व में नहीं हो सकता। उभयरूपता का स्पष्ट प्रतिभास हो रहा है / 'नाद्वयं वस्तु नापि तद्व्यतिरिक्तमस्ति / ' जगत् जब द्विरूप है तब उसके आश्रव इत्यादि भेद भी नहीं हो सकेंगे। यह कथन भी समीचीन नहीं है / संसार के कारण एवं मुक्ति के हेतु का प्रतिपादन के लिए उन दो के प्रभेद किये गये। वस्तुतः तत्त्व दो ही हैं / 'तत्त्वद्वय्यां नवतत्त्वावतारः'। - वैशेषिक दर्शन के समान जैन तत्त्वज्ञान स्पष्टतः बहुतत्त्ववादी है / जैनों ने तत्त्वज्ञान का जो ढांचा खड़ा किया है उसकी अनेक प्रस्थानों के साथ सहमति के अनेक बिन्दु मिल सकते हैं किन्तु उसका अपना एक विशिष्ट व्यक्तित्व है। जो दूसरों के साथ समानता के कारण समाप्त नहीं हो जाता / सात या नौ तत्त्वों में दो तत्त्व ऐसे हैं जिनका तात्त्विक अस्तित्व है। संक्षेपतः जीव-अजीव नौ पदार्थों के मूल स्रोत हैं। नौ पदार्थ की व्यवस्था का उद्देश्य आध्यात्मिक है। जीव किस प्रकार श्रेणी आरोहण के द्वारा अपने लक्ष्य को Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 / आर्हती-दृष्टि प्राप्त कर सकता है। क्या बद्ध संसारी जीव मुक्ति की दिशा में प्रयाण कर सकते हैं ? संसार में क्यों है, संसार से छुटकारा मिल सकता है क्या? इन प्रश्नायित जिज्ञासाओं के समाधान स्वरूप दो तत्त्वों का नौ तत्त्वों में विभाजन किया गया है। नव तत्त्व के मूल स्रोत जीव और अजीव हैं / नव पदार्थ की व्यवस्था का उद्देश्य अध्यात्मपरक है / संसारी जीव-बद्ध होता है, वह अजीव से जुड़ा है, अतः जीव-अजीव ये दो मूल तत्त्व हैं / बन्धन शुभ-अशुभ रूप होता है, अतः शुभ बन्धन पुण्य और अशुभ बन्धन पाप है इन कर्मों को आकर्षित करनेवाला भी कोई होता है वह आश्रव है। जीव जब व्याकुल होने लगता है तब वह आते हुए कर्म-प्रवाह को रोकता है तथा लगे हुए कर्मों को तोड़ता है, यही क्रमशः संवर निर्जरा है। जीव के चिपके हुए कर्मबन्ध है तथा जब साधना की अग्नि से जीव सर्वथा कर्म मल-रहित हो जाता है, वही मोक्ष है। यही उनका क्रमिक विकास है। नंव पदार्थ की व्यवस्था तटाक दृष्टान्त से भी समझी जा सकती है। जीव तालाब है, अजीव अतालाब रूप है। पुण्य और पाप तालाब से निकलते हुए पानी के समान हैं। आश्रव तालाब का नाला है। संवर–नाले को रोक देना संवर है। . उलीचकर या मोरी से पानी को निकालना निर्जरा है। तालाब के अन्दर का पानी बन्ध है। खाली तालाब मोह है। षड् द्रव्य की व्याख्या अस्तित्ववाद है एवं नव तत्त्व की व्याख्या उपयोगितावाद Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्य : एक परिचय [ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार] आगम आत्म-दर्शन भारतीय विचार-सरणी का मुख्य केन्द्रीय तत्त्व है / प्राचीन युग में आत्म-साक्षात्कार-कर्ता द्रष्टा पुरुष मौजूद थे। सम्प्रति उनके अभाव में उनकी अनुभव निःसृत वाणी जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन कर रही है / आत्मा तथा तत्सम्बन्धित उनका चिन्तन प्रवचन आज आगम/पिटक/वेद/उपनिषद् आदि नामों से विश्रुत हैं / जैन धर्म की यह अवधारणा है कि राग-द्वेष आदि आत्म-शक्ति अवरोधक मलों के नाश हो जाने से आत्मा की सम्पूर्ण शक्तियां उद्घाटित हो जाती हैं। सम्पूर्ण शक्ति का विकास/प्रकाश ही सर्वज्ञता है। उस सर्वज्ञ अर्थात् आप्त पुरुष के वचन/प्रवचन को ही आगम' कहा जाता है / आगम के अनेक निर्वचन एवं परिभाषाएं उपलब्ध हैं जिसके द्वारा अर्थ (तत्त्वार्थ) जाने जाते हैं, वह आगम है। अधिकांश परिभाषाओं में आप्त वचन से उत्पन्न अर्थज्ञान को ही आगम कहा गया है। आप्त पुरुष राग-द्वेष आदि दोषों से मुक्त होते हैं, अतः उनके वचन ही प्रमाणभूत हैं, वे ही आगम हैं। पूर्वापर दोषरहित एवं शुद्ध आप्तवचन को आगम कहा जाता है। तीर्थकर अर्थागम के कर्ता होते हैं। तथा उनके वचनों को अतिशय सम्पन्न विद्वान गणधर शासन के हित के लिए सूत्र में गुम्फित कर लेते हैं। वर्तमान में उपलब्ध आगम भगवान् महावीर की देशना के हैं। जैन-परम्परा में वर्तमान में शास्त्र के लिए आगम शब्द व्यापक हो गया है। किन्तु प्राचीन काल में वह श्रुत या सम्यक् श्रुत के नाम से प्रचलित था। इसीसे, 'श्रुतकेवली' शब्द प्रचलित हुआ। 'आगमकेवली या सूत्रकेवली' ऐसा प्रयोग उपलब्ध नहीं होता है / आचार्य उस्वाति ने भी श्रुत के पर्यायवाची शब्द के रूप में आगम शब्द का प्रयोग किया है / उन्होंने आप्तवचन, आगम, उपदेश, ऐतिह, आम्नाय, प्रवचन और जिनवचन को श्रुत के पर्याय शब्द कहे हैं। इनमें आज आगम.शब्द ही विशेष रूप से प्रचलित हैं। भगवान् महावीर के उपदेशों को गणधरों ने सूत्र में ग्रथित किया। वे उपदेश बारह भागों में विभक्त थे। अतः उनको 'द्वादशांगी' कहा गया। द्वादशांगी का अपर Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 / आर्हती-दृष्टि नाम 'गणिपिटक' भी है। पिटक शब्द का प्रयोग बौद्ध-शास्त्रों के लिए भी प्रचलित है। इससे अनुमान होता है कि श्रमण-परम्परा में आप्त पुरुषों की वाणी के संग्रह को पिटक कहा जाता था। समय के प्रवाह में आगम की संख्या में वृद्धि होती गयी। कालक्रम के अनुसार आगमों का पहला वर्गीकरण समवयांग में प्राप्त है। वहां केवल द्वादशांगी का निरूपण हुआ। दूसरा वर्गीकरण अनुयोग द्वार में मिलता है। वहां केवल द्वादशांगी का नामोल्लेख मात्र है। तीसरा वर्गीकरण नन्दी का है। नन्दी का वर्गीकरण आगम की सारी शाखाओं का निरूपण करने के ध्येय से हुआ है / आगमों की संख्या के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं। उनमें तीन मुख्य हैं--(१) 84 आगम, (2) 45 आगम, एवं (3) 32 आगम / श्रीमज्जयाचार्य ने 84 आगमों का उल्लेख किया है। उनमें 12 के नाम नन्दी में, 6 का उल्लेख स्थानांग एवं 5 का उल्लेख व्यवहार-सूत्र में है / श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय 45 आगम तथा स्थानकवासी एवं तेरापंथी सम्प्रदायी 32 आगमों को स्वीकार करते हैं। दिगम्बर आम्नाय में 12 अंग, 14 अंगबाह्य एक समय स्वीकृत थे किन्तु उनके अनुसार वर्तमान में अंगज्ञान सर्वथा लुप्त हो गया किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार १२वें अंग दृष्टिवाद का लोप हुआ है। 11 अंग आज भी उपलब्ध हैं एवं उनको मान्य हैं। आगम स्वीकृति का मानदण्ड ग्रन्थों की संख्या में विकास होने लगा। तब एक प्रश्न उठा किन ग्रन्थों को आगम माना जाए। सभी को आगम स्वीकार नहीं किया जा सकता है / तब एक कसौटी का निर्धारण हुआ। गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली एवं अभिन्नदशपूर्वी कथित वचन ही आगम कहे जा सकते हैं।" अतएव जब दशपूर्वी नहीं रहे तब आगम की संख्या वृद्धि भी स्वतः स्थगित हो गयी। यद्यपि श्वेताम्बर-परम्परा में आगम रूप में मान्य कुछ प्रकीर्णक ऐसे भी हैं जो उस काल के बाद भी आगम में सम्मिलित कर लिए गये हैं। ऐसा कुछ विशेष स्थिति में हुआ है / जैनागमों की संख्या जब बढ़ने लगी तब उनका वर्गीकरण भी आवश्यक हो गया। अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य के रूप में आगम का वर्गीकरण हुआ। भगवान् महावीर के मौलिक उपदेश का गणधरकृत संग्रह अंग एवं अन्य को अंगबाह्य कहा गया। अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य आगम के ये दो भेद वक्ता की अपेक्षा से हुए हैं। अपने स्वभाव के अनुसार प्रवचन की प्रतिष्ठा करना ही जिसका फल है, ऐसे परम शुभ तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से सर्वज्ञ, सर्वदशी, परमर्षि अरहन्त भगवान् ने जो कुछ कहा तथा उन वचनों को अतिशयसम्पन्न वचनऋद्धि तथा बुद्धि-ऋद्धि से परिपूर्ण तीर्थंकर भगवान् के गणधरों के द्वारा जिनकी रचना हुई वे Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्य : एक परिचय | 223 आगम अंगप्रविष्ट कहलाये तथा जिन आचार्यों की वचनशक्ति एवं मतिज्ञान की शक्ति परम प्रकृष्ट एवं आगमश्रुतज्ञान अत्यन्त विशुद्ध था, उन गणधरों के पश्चातवर्ती आचार्यों के द्वारा काल, संहनन, आयु आदि दोषों से शक्ति अल्प हो गयी है उन शिष्यों पर अनुग्रह करने के लिए जिन आगमों की रचना की उनको अंगबाह्य कहा जाता है।" आचारांग, सूत्रकृतांग आदि 12 अंग हैं / अवशिष्ट अंगबाह्य कहलाये। आगे चलकर अंगबाह्य ही उपांग, प्रकीर्णक, छेदसूत्र, मूलसूत्र आदि में विभक्त हो गये। उपांगों की संख्या भी 12 है / 11 अंग स्वतः प्रमाण हैं, बाकी आगमों का प्रामाण्य परतः है। आवश्यक सूत्र का महत्त्व : आगम शृंखला में आवश्यक सूत्र का अतिविशिष्ट स्थान है / नन्दी सूत्र में अंगबाह्य का विभाग आवश्यक एवं आवश्यक-व्यतिरिक्त के आधार पर हआ है।" इस विभाग से ही आवश्यक का महत्त्व स्वतः ज्ञात हो जाता है। वहीं आवश्यक के 6 विभाग बतलाए हैं—सामायिक, चतुर्विशति, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान / आगमों के अध्ययन का भी क्रम था। पठनक्रम में सर्वप्रथम आवश्यक सूत्र तदनन्तर दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि पढ़े जाते थे। अध्ययन-क्रम व्यवस्था में आवश्यक को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। आवश्यक अर्थात् अवश्यकरणीय। विशेषावश्यक भाष्य में आवश्यक के दश पर्यायवाची शब्द उपलब्ध होते हैं। श्रमण अन्य आगम पढ़े या न पढ़े किन्तु आवश्यक तो अनिवार्य रूप से प्रतिदिन दो बार करणीय है। आवश्यक सूत्र अंगागम जितना तो प्राचीन है / जैन निर्ग्रन्थों के लिए प्रतिदिन करणीय आवश्यक क्रिया सम्बन्धी पाठ इसमें है / आवश्यक के छहों अध्ययनों के नाम धवला में अंगबाह्य में परिगणित किये हैं / इस उल्लेख से भी आवश्यक सूत्र की प्राचीनता स्वतः सिद्ध है। आवश्यक क्रिया की महत्ता अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में साधक के लिए कुछ साधना नित्य-प्रति अवश्य करणीय होती है। हर धर्म दर्शन में वैसी क्रियाओं का उल्लेख एवं प्रचलन प्राप्त है। वैदिक समाज में संध्या का, पारसी लोगों में खोर-देह-अवस्ता' का, यहूदी एवं ईसाइयों में प्रार्थना का और मुसलमानों में नमाज का जैसा महत्त्व है जैन समाज में वैसा ही महत्त्व आवश्यक का है। जैन समाज की दिगम्बर एवं श्वेताम्बर भेद से दो मुख्य धाराएं हैं। आवश्यक क्रिया का करने का प्रचलन श्वेताम्बर समाज में है, वैसा दिगम्बर परम्परा में नहीं है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 / आर्हती-दृष्टि दिगम्बरों में जो प्रतिमाधारी एवं ब्रह्मधारी आदि होते हैं, उनमें भी मुख्यतया सामायिक करने का प्रचलन दृष्टिगोचर होता है / श्वेताम्बर-परम्परा में क्रमशः सामायिक आदि छहों आवश्यक करने की प्राचीन विधि का आज भी बहुत अधिक प्रचलन है / दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने का विधान श्वेताम्बरपरम्परा में है / श्रावक एवं साधु दोनों के लिए ही आवश्यक क्रिया का विधान है।" किन्तु साधु को तो प्रतिदिन सुबह-शाम अनिवार्य रूप से आवश्यक करना होता है। प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं के लिए प्रतिदिन प्रतिक्रमण करने का विधान है, अन्य के लिए विकल्प है।" वर्तमान में आवश्यक शब्द के स्थान पर छहों आवश्यकों के लिए ही प्रतिक्रमण शब्द रूढ़ हो गया है / आवश्यक शब्द का बहुत कम प्रयोग होता है / प्रतिक्रमण शब्द ही बहुप्रचलित है। प्रतिक्रमण हेतु गर्भ, प्रतिक्रमण-विधि आदि अर्वाचीन ग्रन्थों में आवश्यक के लिए प्रतिक्रमण शब्द का प्रयोग ही उपलब्ध है / प्रमादवश शुभयोग से गिरकर अशुभयोग को प्राप्त करने के बाद पुनः शुभ योग को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है।"अशुभ योग को छोड़कर उत्तरोत्तर शुभ योग में वर्तन करना भी प्रतिक्रमण है।" - आवश्यक सूत्र नित्य प्रति करने की क्रिया है अतः उसमें ज्ञानवृद्धि एवं ध्यान वृद्धि के लिए समय-समय पर उपयोगी पाठ जुड़ते रहे, अतः प्राचीन आवश्यक के पाठों का निर्धारण टीका के आधार पर ही किया जा सकता है। आवश्यक सूत्र पर विशाल व्याख्या साहित्य लिखा गया है। सबसे अधिक टीकाएं कल्पसूत्र एवं आवश्यक सूत्र पर ही लिखी गयी हैं / आवश्यक सूत्र पर लिखित व्याख्या साहित्य का संक्षेप दिशा दर्शनआवश्यक 'चैत्यवन्दन ललितविस्तर 'पंजिका 'टबा (देव कुशल) प्रान्तीय भाषा में आबद्ध को टबा कहा जाता है। वृत्ति (तरुणप्रभ) अवचूरि (कुलमण्डन) बालावबोध . नियुक्ति पीठिका बालावबोध विशेषावश्यकभाष्य Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्य : एक परिचय | 225. वृत्ति (कोट्याचार्य) वृत्ति (हेमचन्द्र) आदि विपुल मात्रा में व्याख्या साहित्य आवश्यक सूत्र का उपलब्ध आगम-व्याख्या साहित्य आगम सूत्रात्मक शैली में गुम्फित है। सूत्र का गूढार्थ सहजता से उपलब्ध होना दुरुह है / व्याख्या साहित्य के द्वारा सूत्र की दुरूहता अल्प हो जाती है / मूल ग्रन्थ के रहस्य का उद्घाटन करने के लिए उस पर व्याख्यात्मक साहित्य का निर्माण करना भारतीय ग्रन्थकारों की बहुत प्राचीन परम्परा रही है। जैन विद्वानों ने भी आगम का व्याख्यात्मक साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा है / प्राचीनतम जैन आगमिक व्याख्यात्मक साहित्य को पांच भागों में विभक्त किया जा सकता है- (1) नियुक्ति, (2) भाष्य, (3) चूर्णिं (4) संस्कृत टीका, (5) लोक भाषा में रचित व्याख्या (टब्बा)। नियुक्तियों और भाष्य जैन आगमों की पद्यबद्ध व्याख्याएं हैं। ये दोनों प्राकृत भाषा में लिखित हैं / नियुक्तियां सांकेतिक भाषा में निबद्ध हैं। पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना इनका मुख्य प्रयोजन है / सूत्र में नियुक्त अर्थ की सुव्यवस्थित व्याख्या करनेवाला ग्रन्थं नियुक्ति कहलाता है। नियुक्ति के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए कहा कि सब व्यक्ति सूत्र में नियुक्त अर्थ को व्याख्या के बिना समझ नहीं सकते, अतः सूत्रों पर नियुक्ति रूप व्याख्या आवश्यक है। आगम के व्याख्या ग्रन्थों में नियुक्ति के बाद भाष्य का क्रम आता है। नियुक्ति की अपेक्षा भाष्य अर्थ को अधिक स्पष्टता से प्रस्तुत करते हैं। नियुक्ति के पारिभाषिक शब्दों में गुम्फित अर्थबाहुल्य के प्रकाशनार्थ भाष्यों की रचना हुई / नियुक्तियों की व्याख्यान शैली निक्षेप पद्धति के रूप में प्रसिद्ध है। इस पद्धति में किसी पद के सम्भावित अनेक अर्थ करने के बाद उनमें से अप्रस्तुत अर्थ का निषेध करके प्रस्तुत अर्थ का ग्रहण किया जाता है। जैनन्याय-शास्त्र में इस पद्धति का बहुत महत्त्व है / आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि 10 आगमों पर नियुक्तियाँ लिखी गयी है / उपलब्ध नियुक्तियों के कर्ता आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) माने जाते हैं जो छेदसूत्रकार भद्रबाहु से भिन्न हैं / नियुक्ति के पश्चात् भाष्य साहित्य का क्रम आता है। भाष्य आगम व्याख्या साहित्य में भाष्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है / प्राकृत भाषा में पद्यबद्ध . शैली में रचित भाष्य साहित्य नियुक्तियों के पारिभाषिक शब्दों में छिपे हुए अर्थबाहुल्य Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 / आर्हती-दृष्टि को प्रकट करते हैं। सूत्र विवरण का विशद रूप से व्याख्यान करनेवाले ग्रन्थ को भाष्य/वार्तिक कहते हैं। वार्तिकभाष्य का ही पर्याय शब्द है। भरत मुनि ने भाष्य को परिभाषित करते हुए कहा—सूत्रानुसारी पदों के द्वारा जिसमें सूत्र के अर्थ एवं स्वनिर्मित पदों का भी विवेचन होता है उसको भाष्य कहा जाता है। कुछ भाष्य नियुक्तियों पर तथा कुछ मूल सूत्रों पर रचित है। आवश्यक, दशवैकालिक आदि सूत्र तथा पिण्डनियुक्ति आदि पर भाष्य लिखे गये हैं। आवश्यक सूत्र पर तीन भाष्य लिखे गये हैं। विशेषावश्यकभाष्य आवश्यक सूत्र के प्रथम सामायिक अध्ययन पर लिखा गया है। इसमें 3603 गाथाएं हैं। दशवैकालिक भाष्य में 63, उत्तराध्ययन भाष्य में 45, पंचकल्प महाभाष्य में 2574, व्यवहार भाष्य में 4626, निशिथ में 6500, जीतकल्प भाष्य में 2606 गाथाएं हैं / कुछ भाष्य बहुत छोटे हैं। जैसे दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, पिण्डनियुक्तिभाष्य आदि। कुछ विशाल हैं जैसे—व्यवहारभाष्य, बृहत्कल्प, विशेषावश्यकभाष्य आदि / विशेषावश्यक भाष्य __ भाष्य-परम्परा में आवश्यक सूत्र के प्रथम सामायिक अध्ययन पर रचित विशेषावश्यकभाष्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है / विशेषावश्यक एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें जैन आगमों में वर्णित प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण विषय की चर्चा उपलब्ध है। जैन ज्ञानवाद प्रमाणवाद,आचारनीति, स्याद्वाद, नयवाद, कर्म-सिद्धान्त आदि सभी विषयों से सम्बन्धित सामग्री की समपलब्धि इस ग्रन्थ में सहज ही हो जाती है। इस ग्रन्थ की एक बहत बड़ी विशेषता यह है कि इसमें जैन तत्त्व का निरूपण इतर दार्शनिक मान्यताओं की तुलना के साथ हुआ है / आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने आगमों की सभी प्रकार की मान्यताओं का जैसा तर्क पुरस्सर निरूपण इस ग्रन्थ में किया है, वैसा अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता / यही कारण है कि जैनागमों के तात्पर्य को ठीक तरह से समझने के लिए विशेषावश्यकभाष्य एक अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है। आचार्य जिनभद्र के उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने विशेषावश्यक भाष्य की सामग्री एवं तर्क पद्धति का उदारतापूर्वक उपयोग किया है। उनके बाद लिखा गया आगम की व्याख्या करनेवाला सम्भवतः एक भी ऐसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ नहीं है जिसमें विशेषावश्यक भाष्य का आधार न लिया हो। विशेषावश्यकभाष्य तीन हजार छह सौ तीन (3603) गाथाओं में गुम्फित एक महान् आकार ग्रन्थ है। इसमें आगमिक, सैद्धान्तिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक तथ्यों का बड़ी सूक्ष्मता से विश्लेषण किया गया है। विशाल-ज्ञान राशि के संवाहक 'पूर्वो' के अवशेष भी इसमें समुपलब्ध होते हैं। अनेक पारम्परिक मान्यता Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विशेषावश्यकभाष्य : एक परिचय / 220. भेदों का भी इसमें आकलन हुआ है। इसमें पद-पद पर ज्ञान रत्नों की ज्योतियां जल रही हैं। . विशेषावश्यक में आवश्यक के प्रथम अध्ययन सामायिक से सम्बन्धित नियुक्ति गाथाओं का व्याख्यान है। अतः इस भाष्य का अपर नाम सामायिकभाष्य भी है।" इस व्याख्यान में मंगलरूप ज्ञानपंचक, निरुक्त, निक्षेप, अनुगम, नय, सामायिक की प्राप्ति, सामायिक के बाधक कारण चारित्र लाभ, प्रवचन सूत्र, अनुयोग, सामायिक की उत्पत्ति, गणधरवाद, अनुयोगों का पृथक्करण, निह्नववाद आदि विभिन्न विषयों का विस्तार से कथन है / ज्ञान-पंचक के प्रकरण में आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान, चक्षु और मन की अप्राप्यकारिता श्रुत-निश्रित मतिज्ञान के 336 भेद, भाषा का स्वरूप, श्रुत के चौदह प्रकार आदि का भी विशद विवेचन प्राप्त है / चारित्र रूप सामायिक की प्राप्ति का विचार करते हुए भाष्यकार ने कर्म की पद्धति, स्थिति, सम्यक्त्व प्राप्ति आदि का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। चारित्र प्राप्ति के कारणों पर प्रकाश डालते हुए क्षमाश्रमणजी ने सामायिक, छेदोपस्थापना आदि पंच चारित्र की व्याख्या की है। सामायिकचारित्र का उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरुष आदि 26 द्वारों से वर्णन किया है। सामायिक के तृतीय द्वार निर्गम की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने भगवान् महावीर के एकादश गणधरों का विस्तार से विवेचन किया है / आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता सिद्धि के लिए अधिष्ठातृत्व, - संघातपरार्थत्व आदि अनेक हेतु दिये हैं / एकात्मवाद का निराकरण करके अनेकात्मवाद की प्ररूपणा भाष्य में है। आत्मा के स्वदेह परिमाणत्व के साथ ही जीव का नित्यानित्य भी आचार्य ने सिद्ध किया है। विज्ञान भूतधर्म न होकर आत्मतत्त्व का धर्म है। भाष्य में कर्म-मीमांसा भी विशालता से हुई हैं। द्वितीय गणधर अग्निभूति के संशय का निराकरण करते समय कर्म के अस्तित्व सिद्धि में अनेक हेतु दिये गये हैं। कर्म के पौदगलिकत्व को सिद्ध करते हए कर्म और आत्मा के सम्बन्ध पर प्रकाश डाला गया है। आत्मा और देह की भेद सिद्धि में चार्वाक् सम्मत भूतवाद का निरास किया गया है। मण्डित के संशय का निवारण करने के लिए विविध हेतुओं से बन्ध और मोक्ष की सिद्धि की गयी है। सामायिक ग्यारहवें समवतार द्वार का व्याख्यान करके भाष्यकार ने द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग आदि अनुयोगों के पृथक्करण की / चर्चा की है। नियुक्तिकार निर्दिष्ट सात निह्नवों में शिवभूति बोटिक नामक एक निहव / को और मिलाकर भाष्यकार ने आठ निहवों की मान्यताओं का वर्णन किया है। निह्नववाद के बाद सामायिक के अनुमत आदि शेष द्वारों का वर्णन करते हुए भाष्यकार Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 / आर्हती-दृष्टि ने सूत्र स्पर्शिनियुक्ति का विवेचन नमस्कार की उत्पत्ति, निक्षेप, पद आदि 11 द्वारों से किया है। इस प्रस्तुत भाष्य में जैन आचार-विचार के मूलभूत समस्त तत्त्वों का सुव्यवस्थित एवं सुप्ररूपित संग्रह हुआ है। विशेषावश्यकभाष्य आगमानुसारी तार्किक ग्रन्थ है / भाष्यकार ने मंगलाचरण स्वरूप प्रथम कारिका में ही अपनी आगमप्रतिबद्धता गुरुवएसाणुसारेणं' शब्द प्रयोग से स्पष्ट कर दी है। अत: अपने पूर्ववर्ती आचार्यों ने यदि आगम निरपेक्ष मात्र तर्क के द्वारा तत्त्व निरूपण का प्रयल किया है तो भाष्यकार ने उस मत की समीक्षा की है। यथा-आचार्य सिद्धसेन दिवाकर केवलज्ञान एवं केवल दर्शन को युगपद् मानते हैं। जिनभद्रगणि क्षमाक्षमण ने आगमिक मान्यता का आधार देकर ज्ञान, दर्शन के युगपत् सिद्धान्त का प्रतिक्षेप किया है।" ___ दार्शनिक जगत् की समस्याओं का समाधान भी हमें भाष्य में उपलब्ध होता है ।प्रमाण जगत् में अन्य दार्शनिक इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते थे। जैन का आगमिक दृष्टिकोण उसको परोक्ष मानने का है / यद्यपि नन्दी सूत्र में ज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष में विभक्त किया है तथा प्रत्यक्ष को भी इन्द्रिय प्रत्यक्ष नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में द्विविध स्वीकार किया है। किन्तु इन्द्रिय प्रत्यक्ष के लिए जिनभद्रगणि ने 'संव्यवहार' प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग सबसे पहले किया। इससे पूर्व किसी भी दार्शनिक, तार्किक आचार्य ने यह प्रयोग नहीं किया। जिनभद्गणी के बाद तो “संव्यवहार' शब्द इतना बहुप्रचलित हो गया कि उत्तरवर्ती सभी तार्किक आचार्यों ने एकस्वर से इन्द्रिय प्रत्यक्ष के स्थान पर 'सांव्यावहारिक' प्रत्यक्ष का प्रयोग किया है और प्रमाण जगत् में यह बहुआदृत ___भाष्य में तत्त्व की गम्भीरता के साथ प्रतिपादन की सरसता भी परिलक्षित होती है। ग्रन्थकार ने गहन विषय को भी अपने प्रांजल प्रतिपादन वैशिष्ट्य के कारण जन-भोग्य बना दिया है। अनेक प्रकार के सुरुचिपूर्ण दृष्टान्तों से गम्भीर तत्त्व का प्ररूपणभाष्य में हुआ है। आवश्यक सूत्र का आचरण करना उचित है। इस तथ्य को प्रतिपादित करते हुए योगद्वार में कहा गया जिस प्रकार वैद्य बालक आदि के लिए यथोचित आहार की सम्मति देता है, उसी प्रकार मोक्षमार्गाभिलाषीभव्य के लिए प्रारम्भ में आवश्यक का आचरण करना उपयुक्त है। इस भाष्य की महत्ता को प्रकट करते हुए अन्त में भाष्यकार लिखते हैं-इस सामायिक भाष्य के श्रवण, अध्ययन, मनन से बुद्धि परिमार्जित हो जाती है। शिष्यं में शास्त्रानुयोग को ग्रहण करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। विशालकायभाष्य साहित्य में विशेषावश्यकभाष्य का स्थान अत्यन्त Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्य : एक परिचय | 229 श्रद्धास्पद एवं महत्त्वपूर्ण है। यह जैन आगमों के बहुविध विषयों का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में जिनभद्रगणि की अपूर्व तर्कणा एवं व्याख्या शक्ति के दर्शन होते हैं। साहित्यिक एवं सांस्कृतिक सन्दर्भ के तथ्य भी विशेषावश्यकभाष्य में उपलब्ध है। इन विषयों का भी गम्भीर अध्ययन किया जा सकता है। भाष्यकार ने अपने व्याख्यान-क्रम में अनेक दृष्टान्तों का उपयोग किया है। उन दृष्टान्तों के विवेचन से तत्कालीन सांस्कृतिक, सामाजिक मूल्यों का परिशीलन भी सुगमता से हो सकता है। व्याकरण सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रयोग इसमें उपलब्ध हैं / उनका भी आलोड़न किया जा सकता है / एक ही शब्द के व्याकरण प्रयोग से अनेक अर्थ किये हैं। जैसे आभिनिबोध ज्ञान की चर्चा / " भाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण तत्त्व रत्न राशि के महासमुद्र रूप विशेषावश्यक भाष्य के अवलोकन के साथ ही इसके कर्तापुरुष के प्रति श्रद्धाप्रणति स्वतः अभिव्यंजित होने लगती है। उस दिव्य पुरुष से परिचय की आकांक्षा उद्भूत होती है / उसी आकांक्षा के समाधान आलोक में उनके जीवन दर्शन के संक्षिप्त तथ्य उपलब्ध होते हैं। जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण आगम-प्रधान आचार्य थे। वे ज्ञान के सागर, कशलवाग्मी एवं आगमवाणी के प्रति अगाध श्रद्धाशील थे। आचार्य जिनभद्र ने आगम को प्रथम स्थान दिया। आगम का अवलम्बन लेकर ही उन्होंने युक्त और अयुक्त का चिन्तन किया है।" इतिहास के पृष्ठों पर आगम परम्परा के पोषक आचार्यों में आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का नाम अग्रणी स्थान पर है। ___ आचार्य जिनभद्र का अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के कारण जैन-परम्परा के इतिहास. में विशिष्ट स्थान है। ऐसा होते हुए भी जैन ग्रन्थों में उनके जीवन सम्बन्धी सामग्री उपलब्ध नहीं है। उनके जन्म और शिष्यत्व के विषय में परस्पर विरोधी उल्लेख मिलते हैं। आचार्य जिनभद्रं कृत विशेषावश्यक भाष्य की प्रति शक संवत् 531 में लिखी गई तथा वलभी के एक जैन मन्दिर में समर्पित की गई। इस घटना से प्रतीत होता है आचार्य जिनभद्र का वलभि से कोई सम्बन्ध अवश्य होना चाहिए। कि आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने मथुरा में देव-निर्मित स्तूप के देव की आराधना एक पक्ष की तपस्या द्वारा की और दीमक द्वारा खाए हुए महानिशीथ सूत्र का उद्धार किया। इससे उनका सम्बन्ध मथुरा से भी स्थापित होता है। डॉ. उमाकान्त प्रेमानन्दशाह ने अंकोट्टक(आकोटा) गांव से प्राप्त हुई दो प्रतिमाओं के आधार पर यह सिद्ध किया है कि ये प्रतिमाएं ई. सन् 550 से 600 तक के काल Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 / आईती-दृष्टि की हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि इन प्रतिमाओं के लेखों में जिन जिनभद्र आचार्य : का नाम है वे विशेषावश्यक के कर्ता क्षमाश्रमण जिनभद्र ही हैं। उनकी वाचना के अनुसार एक मूर्ति के पद्मासन के पिछले भाग में 'ॐ देवधर्मोयं निवृतिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य' तथा दूसरी मूर्ति के भामण्डल में 'ॐ निवृतिकुले जिनभद्र वाचनाचार्यस्य ऐसा लेख है।" इन लेखों से फलित होता है कि सम्भवतः जिनभद्र : जी ने इन प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया होगा तथा उनके कुल का नाम निवृति कुल था। उन्हें वाचनाचार्य भी कहा जाता था। यद्यपि जिनभद्रगणी की प्रसिद्धि क्षमाश्रमण से है किन्तु विद्वानों ने वाचक, वादी, वाचनाचार्य, क्षमाश्रमण आदि को एकार्थक माना है। वाचनाचार्य एवं क्षमाश्रमण शब्द वास्तव में एक ही अर्थ के सूचक हैं / प्रस्तुत प्रतिमा लेख के आधार पर क्षमाश्रमण निवृति कुल के सिद्ध होते हैं। उनके गुरु एवं गुरु-परम्परा के नामों की सूची प्राप्त नहीं है। नवांगवृत्ति संशोधक दोषाचार्य, सूराचार्य, गर्षि, दुर्गर्षि, उपमितिभवप्रपंचकथा रचनाकार सिद्धर्षि जैसे प्रभावशाली आचार्य इस निवृत्ति कुल में हुए हैं / निवृति कुल का सम्बन्ध आचार्य वज्रसेन के शिष्य निवृति से था, अतः क्षमाश्रमण जी आर्य सुहस्ती की परम्परा में होनेवाला वज्रसेन शाखीय सम्भव है। ___इन तथ्यों के अतिरिक्त उनके जीवन से सम्बन्धित अन्य स्रोत उपलब्ध नहीं है . जिनसे उनके जीवन पर और अधिक प्रकाश डाला जा सके / किन्तु उनके उत्तरवर्ती आचार्यों ने उनकी प्रतिभा का वैशिष्ट्य स्वीकार करते हुए उनके गुणों का वर्णन किया है, वे उपलब्ध है / जितकल्पचूर्णि के कर्ता सिद्धसेनगणी ने अपनी चूर्णि के प्रारम्भ में / छह गाथाओं द्वारा भावपूर्ण शब्दों में उनकी प्रशंसा की है—'जो अनुयोगधर, युगप्रधान, सर्वश्रुति और शास्त्र में कुशल तथा दर्शनज्ञानोपयोग के मार्गरक्षक हैं / सुवास से आकृष्ट भ्रमर जैसे कमलों की उपासना करता है उसी प्रकार ज्ञान मकरन्द के पिपासु मुनि जिनभद्रगणी के मुख से निःसृत ज्ञानामृत का पान करने के लिए उत्सुक रहते हैं" आदि-आदि। मुनि चन्द्रसूरि ने जिनवाणी के प्रति अगाध निष्ठाशील जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण को जिनमुद्रा के समान माना है। वाक्यै विशेषातिशयै विश्वसन्देहहारिभीः / जिनभद्रं जिनभद्रं किं क्षमाश्रमणं स्तुवं / / जिनभद्रगणी आगम के अद्वितीय व्याख्याता थे / आचार्य हेमचन्द्र ने उपजिनभद्रक्षमाश्रमणं व्याख्यातारः" कहकर जिनभद्रगणी के प्रति आदर-भाव प्रकट किया है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्य : एक परिचय | 231 उत्तरवर्ती आचार्यों में भी आचार्य जिनभद्र का बहुमानपूर्वक नामोल्लेख किया है। इनके लिए भाष्य सुधाम्भोधि, भाष्य पीयूषपाथोधि, दलितकुवादिप्रवाद आदि विशेषणों का प्रयोग करके उच्च कोटि के भाष्यकार के रूप में स्मरण किया है। विशेषावश्यक भाष्य के अतिरिक्त भी जिनभद्रगणी ने अन्य ग्रन्थों की रचना की है, जो निम्न है(१) विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञ वृत्ति (अपूर्ण), (2) वृहत्संग्रहिणी, (3) वृहत् क्षेत्र समास, (4) विशेषणवती, (5) जीतकल्प, (6) जीतकल्प भाष्य, (7) अनुयोगद्वार चूर्णि, तथा (8) ध्यान-शतक / इन ग्रन्थों में अनुयोगद्वार चूर्णि गद्यात्मक है तथा शेष रचनाएं पद्यात्मक हैं। विशेषावश्यकभाष्य वृत्ति संस्कृत में है तथा अवशिष्ट रचनाएं प्राकृत में निबद्ध हैं / ध्यान शतक के कर्ता क्षमाश्रमण जी को मानने में विद्वान् संशयास्पद हैं। साहित्यिक क्षेत्र में जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण का विशेष अनुदान भाष्य साहित्य है। उनके वर्तमान में विशेषावश्यकभाष्य एवं जीतकल्पभाष्य उपलब्ध है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण आगम वाणी के मूर्त रूप थे। जिनभद्रगणी के काल का निश्चय कुछ तथ्यों के आधार पर किया जा सकता है। उनके ग्रन्थों में सिद्धसेन, पूज्यपाद आदि के मतों का उल्लेख है, पर वि. सं. 650 के बाद होनेवाले आचार्यों के मतों का उल्लेख अब तक प्राप्त नहीं हआ है। जिनदास की वि. सं. 733 में बनी नन्दी चर्णि में जिनभद्र के विशेषावश्यक का उल्लेख है। इन बिन्दुओं एवं अन्य उपलब्ध उल्लेखों के आधार पर आधुनिक शोध विद्वानों ने वि. सं. 545 से 650 तक उनका अनुमानित समय निर्धारण किया है। सन्दर्भ 1. णज्जंति अत्था जेण सो आगमो। आव. चू. , पृ. 36, ..2. अत्तस्स वा वयणं आगमो। अनु. चू. , पृ. 16, 3. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं। सासणस्स हियट्ठाए तओ सुत्तं पवत्तइ // आव. नियुक्ति, गा. 92, 4. नन्दी, सूत्र 65 ___5. श्रुतमाप्तवचनमागमउपदेश ऐतिहमाम्नायः प्रवचनं जिनवचनमित्यनान्तरम्। तत्त्वा , भा. 1/20, __.. आगमो सिद्धन्तो पवयणमिदि एयट्ठो। धवला 1/1, 1, 1/20/7, 6. दुवालसंगे गणिपिंडगे। नन्दी, सू. 66, Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 / आर्हती-दृष्टि 7. समवायांग, सू. 2 8. अनुयोग द्वार, सू. 50 9. नन्दी, सू. 73-80 10. भगवती की जोड़। 11. सुत्तं गणहरकहिदं तहेव पत्तेयबुद्धकहिदं च। ___ सुदकेवलिणाकहिदं अभिण्णदसपूव्वकहिदं च // . मूलाचार, 5.80, 12. नन्दी, सू. 73 13. तत्त्वार्थ भा. 1/20 14. तत्त्वार्थ भा. 1/20 15. नन्दी, सू. 74, ठाणं 2/105 16. नन्दी, सू. 75 17. अवश्यं कर्तव्यमावश्यकम्, सामायिकादि रूपम्। वि. भा. टी, पृ. 1 / 18. अवस्सयं अवस्सकरणिज्जं धुव मिग्गहो विसोही य। अज्झयणछक्क वग्गो नाओ आरहणा मग्गो // अनुयोगद्वार 24, - 19. समणेण सावएण य, अवस्सकायव्वयं हवइ जम्हा। अन्तो अहोनिसस्स उ तम्हा आवस्सयं नाम // अनुयोग द्वा. 28, 20. सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिक्कमणं॥ आ नि. 1244, 21. स्वस्थानादपरस्थानं प्रमादस्य वशाद्गतः। तत्रैव क्रमणं भूय: प्रतिक्रमणमुच्यते // 22. प्रतिवर्तनं वा शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु / . निःशल्यस्य यतेर्यत् तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम् // आवश्यक सूत्र, पृ. 553, 23. जैन साहित्य का वृहत् इतिहास, प्रस्तावना, पृ. 50, 24. निज्जुत्ता ते अत्था जं बद्धा तेण होइ निज्जुत्ती। आव. नि. 88, . 25. सुत्ते निज्जुत्ताणं निज्जुत्तीए पुणो किमत्थाण? निज्जुत्ते वि न सव्वे कोइ अवक्खाणिए मुणइ // वि. भा. 1087-88, 26. वृत्तेः सूत्रविवरणस्य व्याख्यानं भाष्यं वार्तिकमुच्यते। _ विभा. वृ. गा. 1422, 27. सूत्राथों वर्ण्यन्तै यत्र पदैः सूत्रानुसारिभिः। स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः // भरतमुनि, Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्य : एक परिचय / 233 28. बुद्धिदिढे अत्थे जे भासइ तं सुयं मईसहियं / . इयरत्थ वि होज्ज सुयं उवलद्धिसमं जइ भणेज्जा // वि. भा. गा. 128, 29. वि. भा. गा. 3096 30. वि. भा. टी, पृ. 1 ३१.सव्वाणुओगमूलं भासं सामाइअस्स सोउण.. वि. भा. गा. 3603, 32. विशेषावश्यकभाष्य, गा 975 33. विशेषावश्यकभाष्य, गा. 1549 से 1603 34. विशेषावश्यकभाष्य, गा. 1610 से 1640 35. विशेषावश्यकभाष्य, गा. 2606 . 36. नाणम्मि दंसणम्मि य एत्तो एगयरयम्मि उवउत्तो। सव्वस्स केवलिस्स जुगवं दो नत्थि उवओगा // - विशेषावश्यक भाष्य, गा. 3096, 37. नन्दी सूत्र 4 38. इंदियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं वि. भा. गा.९५ 39. विशेषावश्यकभाष्य, गा. 4 . 40. विशेषावश्यकभाष्य, गा. 3603 41. विशेषावश्यकभाष्य, गा. 81 42. मोत्तूण हेउवायं आगममेत्तावलंबिणो होउं / ... सम्ममणुचिंतणिज्जं किं जुत्तमजुत्तमेयति // विशेषणवती, 43. सन्दर्भ स्थल, विविध तीर्थकल्प, पृ. 19 / 44. जैन सत्य प्रकाश, अंक 196 45. जीतकल्पचूर्णि, गा. 5-10 46. शब्दनुशासन, सू. 39 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानस्वरूप विमर्श मानव-संस्कृति ज्ञान की उपासक रही है। द्रष्टा पुरुषों ने ज्ञान-सम्प्राप्ति के लिए अपने आपको सर्वात्मना समर्पित कर दिया। ज्ञान के प्रति समर्पण भाव ने अनेक अज्ञातं रहस्यों का उद्घाटन किया। तत्त्व चिन्तन का आधार ज्ञान-मीमांसा ही रही। तत्त्व-मीमांसा एवं ज्ञान-मीमांसा दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं / ज्ञान-सिद्धान्त ने सर्वदा तत्त्व-मीमांसा का अनुगमन किया है। वह उसका अंग बनकर रहा है। वस्तुतः तत्त्व-मीमांसा का अध्ययन ज्ञान-सिद्धान्त के अभाव में अपूर्ण है / तत्त्व-मीमांसा से ज्ञान-मीमांसा को वियुक्त नहीं किया जा सकता। ज्ञान-मीमांसा तत्त्व-मीमांसा का आवश्यक अंग है / यथार्थ ज्ञान के द्वारा ही हम सत् के स्वरूप का निर्णय कर सकते ... ज्ञान-मीमांसा केवल दार्शनिक ज्ञान का ही नहीं वरन् समस्त ज्ञान मात्र का आधार है / ज्ञान के सम्बन्ध में उपस्थित होनेवाले विभिन्न प्रश्नों की मीमांसा करना ज्ञान-मीमांसा का उद्देश्य है। ज्ञान-मीमांसा के बहुचर्चित विषय हैं-ज्ञाता का ज्ञेय से क्या सम्बन्ध है ? ज्ञान की सीमाएं क्या हैं ? ज्ञान के स्रोत क्या हैं? हम कैसे जान सकते हैं कि हमारा ज्ञान वस्तु का यथार्थ ज्ञान है? क्या ज्ञाता का ज्ञान सम्भव है? ज्ञान क्या है? इन विभिन्न प्रश्नों से ज्ञान-मीमांसा का विषय-क्षेत्र स्पष्ट हो सकता है। ज्ञान-मीमांसा की विषय सामग्री-ज्ञान की प्रक्रिया, उसके स्रोत, आलम्बन, लक्षण, . प्रामाणिकता, अयथार्थता आदि हैं। इनका विवेचन ही ज्ञान-मीमांसा है। ____भारतीय दर्शन मोक्षवादी है। उसकी सारी प्रवृत्ति-निवृत्ति का केन्द्रबिन्दु बन्धन-मुक्ति की अवधारणा है। ज्ञान-स्वरूप-चिन्तन में भी हमें इस अवधारणा का दर्शन होता है / मोक्ष तत्त्व में संलग्न धी/बुद्धि ज्ञान है और शिल्प शास्त्र में प्रवण बुद्धि विज्ञान है। चेतन और अचेतन के अन्यत्व का विज्ञान ही ज्ञान कहलाता है।' योगशास्त्र में ज्ञान को परिभाषित करते हुए कहा गया—बुद्धि.मन, इन्द्रियां एवं व्यापी आत्मा का एकत्व ही सर्वोत्कृष्ट ज्ञान है। योगशास्त्र में इस ज्ञान को ही मोक्ष धर्म कहा गया हैं। साधना के क्षेत्र में ज्ञान की अवधारणा का स्वरूप मोक्ष प्राप्ति की ओर ले जाने के रूप में ही रहा है। ज्ञानवादी चिन्तकों ने तो यहां तक कहा-'ऋते Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानस्वरूप विमर्श / 235 ज्ञानान्न मुक्तिः' / ज्ञान नहीं तो मुक्ति भी नहीं हो सकती / गीता कहती है—'नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।" ज्ञान के समान इस संसार में अन्य कुछ भी पवित्र नहीं है। ज्ञानयोग के विवेचन के सन्दर्भ में गीता में ज्ञान पर विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। वहां पर ज्ञानयज्ञ को ही परम तप कहा गया है। गीता में सात्त्विक, राजस एवं तामस के भेदों से ज्ञान को तीन भागों में विभक्त किया गया है। पृथक्-पृथक् सर्वभूतों में जिसके द्वारा अविभक्त एक एवं अव्यय सत्ता देखी जाती है, वह सात्विक ज्ञान है। जो ज्ञान सर्वभूतों में पृथग्भूत नाना भावों को पृथक् रूप में जानता है, वह ज्ञान राजस कहलाता है। जो देह, प्रतिमा आदि एक कार्य में परिपूर्ण की तरह आसक्त होता है। यही आत्मा है, यही ईश्वर है। ऐसा अभिनिवेश युक्त ज्ञान अयथार्थ, तुच्छ है। उसी को तामस ज्ञान कहा जाता है। भारतीय दर्शन ने आत्मज्ञान को मुख्य माना है। आत्मज्ञान के अभाव में अन्य ज्ञान संसार-परिभ्रमण के ही हेतु बनते हैं। आत्मज्ञान कैसे उत्पन्न होता है, उसका वर्णन करते हुए विष्णु पुराण में कहा गयावैराग्य से ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान के फल का वर्णन करते हुए कहा गया—वैराग्य से ज्ञान उत्पन्न होता है / ज्ञान से योग प्रवर्तित होता है। योगज्ञ पतित हो जाने पर भी मुक्त हो जाता है इसमें कोई संशय नहीं है। वायुपुराण में ज्ञान की विवेचना में कहा गया-ज्ञान प्रकृष्ट, अजन्य, अनवछिन्न एवं सर्वसाधक है / ज्ञान उत्तम, सत्य, अनन्त एवं ब्रह्म है।"ज्ञान नेत्र को ग्रहण करके जीव निष्कल, निर्मल, शान्त हो जाता है। तब उसे यह स्मृति हो जाती है कि मैं ही ब्रह्म हूं।"ब्रह्मस्वरूप में प्रतिष्ठा ज्ञान के द्वारा ही हो सकती है। मोक्ष का एकमात्र कारण ज्ञान ही है। ज्ञान का प्रामुख्य अध्यात्म-मीमांसा, तत्त्व-मीमांसा आदि में सर्वत्र. दृष्टिगोचर होता है। जैन दर्शन में भी ज्ञान को मोक्ष मार्ग के रूप में स्वीकार किया गया। आचार-मीमांसा में कहा है कि प्रथम ज्ञान एवं उसके बाद अहिंसा आदि का आचरण होता है। आत्मा और ज्ञान में अभिन्नता भी जैन दर्शन में स्वीकार की गई है। जो आत्मा है, वह विज्ञाता है। जो विज्ञाता है, वही आत्मा है।५ उपर्युक्त विवेचना प्रमुख रूप से आत्मदर्शन के सन्दर्भ में हुई है। ज्ञान की स्वरूप मीमांसा तत्त्व-दर्शन के सन्दर्भ में भी हुई है और दार्शनिक युग में तो ज्ञान के तत्त्वदर्शनीय स्वरूप का ही विस्तार हुआ है। वर्तमान में ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्र में इसी ज्ञान पर विचार-विमर्श किया जाता है। ज्ञान, संवेदन, अधिगम, चेतन भावं, विद्या-ये परस्पर एकार्थक शब्द हैं। इन शब्दों के द्वारा ज्ञान के स्वरूप का निरूपण Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 / आर्हती-दृष्टि हुआ है। नन्दी चूर्णि में ज्ञान की व्युत्पत्तिपरक परिभाषा उपलब्ध होती है। जिसके द्वारा जाना जाता है, वह ज्ञान है। यह परिभाषा करण साधन के आधार पर है। अधिकरण साधन के द्वारा ज्ञान को पारिभाषित करते हुए कहा गया जिसमें जानता है वह ज्ञान है।" भाव साधन में जानने मात्र को ज्ञान कहा गया है। करण साधन की स्पष्टता करते हुए कहा गया है कि क्षायोपशमिक एवं क्षायिक भाव के द्वारा जीवादि पदार्थों को जानना ज्ञान है।" ज्ञान की ये परिभाषाएं. वस्तुजगत् के साथ सम्बन्ध की द्योतक हैं। पाश्चात्य परम्परा __ पाश्चात्य दर्शन में ज्ञान-मीमांसा दर्शन की मुख्य शाखा के रूप में विकसित हुई है। इसमें ज्ञान पर बहुविध विचार हुआ है ।सुकरात पूर्व के ग्रीक दर्शन में हम ज्ञान-मीमांसा के स्वरूप का अवलोकन करते हैं तो ज्ञात होता है कि उनकी ज्ञान सम्बन्धी अवधारणा आत्मकेन्द्रित थी। प्रोटागोरस प्रथम सोफिस्ट एं। उनके दर्शन का सार है मानव सब पदार्थों का मापदण्डं है। (Man is the measure of all things) उन्होंने मनुष्य को ही सर्वोत्कृष्ट माना है। इस विचारधारा से उनकी ज्ञान-मीमांसा भी प्रभावित हुई है। इलियाई मत के अनुसार इन्द्रिय तथा बुद्धि दोनों ही ज्ञान-प्राप्ति के साधन हैं। सत् का ज्ञान बुद्धि से तथा परिणाम का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा होता है / इसके विपरीत हेराक्लाइटंस के अनुसार परिणाम का ज्ञान बुद्धि द्वारा प्राप्त होता है ।डिमाक्रिट्स परमाणुओं का ज्ञान बुद्धि से तथा स्थूल वस्तुओं का ज्ञान इन्द्रियों से मानते हैं। प्रोटागोरस बुद्धि और इन्द्रिय के भेद का खण्डन करते हैं। उसके अनुसार मनुष्य सब पदार्थों का मापदण्ड है। अतः वही सत्य है जो उसे सत्य प्रतीत होता है / सत्य तो व्यक्ति की संवेदना और अनुभूति तक ही सीमित है / अतः सत्य व्यक्तिगत है। वस्तुगत नहीं है। ज्ञान के क्षेत्र में साफिस्ट लोगों ने एक बड़े ही विवादास्पद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है / उनके अनुसार सत्य तो संवेदनाजन्य है। संवेदनाएं व्यक्तिगत होती हैं अतः सत्य आत्मकेन्द्रित है। ___ सुकरात के दर्शन में ज्ञान विचार सबसे महत्त्वपूर्ण विचार है। ज्ञान के क्षेत्र में सकरात का मत दो ज्ञान का सिद्धान्त (Doctrine of two knowledge) कहलाता है। उनके अनुसार ज्ञान के दो रूप हैं—बाह्य और आन्तरिक / बाह्य ज्ञान अस्पष्ट; संदिग्ध, इन्द्रियजन्य तथा लोक आधारित है। यह ज्ञान परिवर्तनशील है। आन्तरिक ज्ञान तर्कसंगत एवं यथार्थ ज्ञान है। सुकरात ज्ञान को प्रत्ययात्मक जाति रूप मानते Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानस्वरूप विमर्श / 237 है। उसकी उत्पत्ति अनुभव से होती है। सुकरात के अनुसार ज्ञान सार्वजनिक तथा सार्वकालिक है। यह व्यक्ति का व्यक्तिगत अनुभव नहीं अपितु सभी व्यक्तियों का सत्य ज्ञान है। सुकरात साफिस्ट लोगों के ज्ञान सिद्धान्त का निराकरण करते हैं। महात्मा सुकरात सामान्य ज्ञान को ही यथार्थ मानते हैं। वह प्रत्ययात्मक है।" ज्ञान प्रत्यय या जाति रूप होने से ज्ञान सार्वभौम और सामान्य बन जाता है। उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट होता है कि साफिस्ट वस्तु विशेष का ज्ञान मानते थे तथा इसके विपरीत सुकरात सामान्य को ही यथार्थ मानते हैं। जैन दर्शन इन दोनों विचारधाराओं का समन्वय करता है। वस्तु का स्वरूप उभयात्मक है और ज्ञान उभयात्मक वस्तु को ग्रहण करता है। इतना अवश्य है जैन परिभाषा में सामान्यग्राही को दर्शन एवं विशेषग्राही को ज्ञान कहा जाता है। .. प्लेटो का ज्ञान-सिद्धान्त भी महत्त्वपूर्ण है। प्लेटो के अन्य दार्शनिक विचार उनके ज्ञान-सिद्धान्त पर ही आधारित है। प्लेटो के अनुसार बौद्धिक ज्ञान ही यथार्थ है। प्लेटो-सुकरात के ज्ञान सम्बन्धी विचार की सम्पुष्टि करते हैं / ज्ञान को प्रत्ययात्मक स्वीकार करके प्लेटो स्पष्टतः ज्ञान के संवेदनात्मक स्वरूप का निराकरण करते हैं। प्रातिभासिक, व्यावहारिक, विश्लेषणात्मक एवं प्रत्ययात्मक ज्ञान को ही वास्तविक एवं सत् मानते हैं। प्लेटो सुकरात के मत को अधिक पुष्ट, परिष्कृत एवं विस्तृत करते हैं। सुकरात के अनुसार प्रत्ययं केवल मानसिक है जबकि प्लेटो प्रत्यय को वास्तविक मानते हैं। प्लेटो के अनुसार प्रत्यय केवल मानसिक विचार ही नहीं वरन् बाह्यवस्त है। 22 / सन्त ऑगस्टाइन मध्ययुग के सबसे महत्त्वपूर्ण ईसाई विचारक माने जाते हैं। उनके अनुसार यथार्थज्ञान ईश्वर विषयक होता है। परमात्मा का ज्ञान ही सर्वोत्तम ज्ञान है / अन्य सभी सांसारिक या व्यावहारिक ज्ञान है / ईश्वर से अलग किसी ज्ञान का स्वतः अस्तित्व नहीं है। सन्त ऑगस्टाइन के अनुसार ज्ञान तीन प्रकार का है-इन्द्रियज्ञान (Sense Knowledge), बौद्धिक ज्ञान (Rational Knowledge) एवं अन्तप्रज्ञा (Wisdom) / इन्द्रिय ज्ञान संवेदनात्मक होता है। यह ज्ञान इन्द्रिय तथा विषय के सम्पर्क से उत्पन्न होता है। इसको इन्होंने निम्न स्तर का माना है। बौद्धिक ज्ञान, इन्द्रिय ज्ञान एवं अन्तर्ज्ञान के मध्य की अवस्था है। यह शुद्ध बुद्धि का व्यापार है। ऑगस्टाइन के अनुसार इन्द्रियाँ भौतिक वस्तु का ज्ञान करवाती हैं एवं बुद्धि से अभौतिक वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ सुन्दर वस्तु का Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 / आर्हती-दृष्टि ज्ञान ऐन्द्रियिक एवं सौन्दर्य का ज्ञान बौद्धिक है / बौद्धिक ज्ञान नित्य, अपरिणामी सत्यों (eternal and immutable truths) का ज्ञान है / आन्तर ज्ञान यह उच्चतम ज्ञान है। ऑगस्टाइन इसे 'प्रज्ञा' कहते हैं। यह बुद्धि का सर्वोत्तम स्वरूप है। बुद्धि निर्णय करती है परन्तु निर्णय की शक्ति प्रज्ञा से प्राप्त होती है। प्रज्ञाध्यानपरक ज्ञान है। वह आत्मज्ञान है। ___ ज्ञान स्वरूप एवं ज्ञान की प्रामाणिकता स्पिनोजा की ज्ञान-मीमांसा के महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। स्पिनोजा स्वतः प्रामाण्यवादी हैं। उनकी प्रसिद्ध उक्ति है कि ज्ञान स्वतः प्रकाशी है, उसे प्रकाशित करने के लिए किसी दूसरे ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। स्पिनोजा भी ज्ञान के तीन स्तर बताते हैं / इन्द्रियजन्य ज्ञान, बौद्धिक ज्ञान एवं प्रज्ञाजन्य ज्ञान / जैन दर्शन के अनुसार स्पिनोजा स्वीकृत प्रथम दो ज्ञानों का समावेश मति, श्रुत ज्ञान में तथा प्रज्ञाजन्य ज्ञान का समाहार पारमार्थिक प्रत्यक्ष में किया जा सकता लॉक के दार्शनिक विचारों का प्रारम्भ उनके ज्ञान सिद्धान्त से होता है। लॉक ज्ञान-मीमांसा को सभी दार्शनिक विचारों की आधारशिला मानते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ज्ञान-मीमांसा से लॉक का तात्पर्य ज्ञान की उत्पत्ति तथा ज्ञान के प्रामाण्य से है। इन दोनों के आधार पर लॉक ज्ञान के स्वरूप का निश्चय करते हैं।" लॉक के अनुसार समस्त ज्ञान अनुभव जन्य है तथा उसकी प्रामाणिकता भी अनुभव पर आश्रित है। उनके अनुसार कोई भी प्रत्यय, धारणा जन्मजात नहीं है। लॉक ज्ञानपक्ष में बुद्धिवाद का खण्डन करके अनुभववाद का समर्थन करते हैं / बर्कले भी अनुभववादी हैं / लॉक ने अनुभववाद का प्रारम्भ किया तथा बर्कले ने उसे परिष्कृत किया। देकार्त बुद्धिवादी हैं। इनके अनुसार बुद्धि ही यथार्थज्ञान की जननी है / यह यथार्थज्ञान सार्वभौम, सुनिश्चित और अनिवार्य है। यही ज्ञान का स्वरूप है। इस प्रकार के ज्ञान का आदर्श गणित शास्त्र है / देकार्त के अनुसार यथार्थ ज्ञान प्राप्ति के दो साधन हैं५-सहज ज्ञान एवं निगमन / सहज ज्ञान तो अनुभूति है तथा निगमन अनुमानजन्य ज्ञान है / देकार्त का मानना है कि सब ज्ञानों का आधार तो सहजज्ञान है, परन्तु निष्कर्ष निगमनात्मक ज्ञान है / देकार्त आत्मज्ञान को सह-बोध, स्वतःसिद्ध मानकर अन्य विषयों का ज्ञान आत्मज्ञान पर आधारित मानते हैं। . ___लाइबनित्स का ज्ञान सिद्धान्त तत्त्व सिद्धान्त से सम्बन्धित है। उनके अनुसार चिदणु ही तत्त्व है तथा चिदणु गवाक्षहीन होने के कारण बाह्य प्रभाव से विहीन है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानस्वरूप विमर्श / 239 अतः ज्ञान के लिए बाह्य जगत् की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान बुद्धि-प्रसूत है। ज्ञान जन्मजात है। अनुभवजन्य नहीं है / अनुभववादी लॉक के अनुसार कोई भी प्रत्यय जन्मजात नहीं है। सभी अनुभवजन्य है। बुद्धिवादी लाइबनित्स के अनुसार सभी प्रत्यय जन्मजात है। इनके अनुसार ज्ञान के दो भाग हैं-विज्ञान तथा विचार। विज्ञान जन्मजात है तथा विचार का उपादान है। विचार विज्ञानों का विस्तार है। .. इमान्युएल काण्ट के सिद्धान्त को 'समीक्षावाद' कहा जाता है। काण्ट ज्ञान विचार के क्षेत्र में बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों मतों की समीक्षा करते हैं। काण्ट के पहले बुद्धिवाद और अनुभववाद दो विरोधी सिद्धान्त थे। काण्ट ने इन दोनों का समन्वय किया। काण्ट ने दोनों पक्षों के दोषों का परिहार करके दोनों के गुणों का समन्वय किया है। इसे ही ‘समीक्षावाद' कहते हैं। काण्ट के अनुसार जिन बातों को बुद्धिवादी एवं अनुभववादी स्वीकार करते हैं, वे सत्य हैं और जिनका वे निषेध करते हैं, वे असत्य हैं। अर्थात् काण्ट किसी भी एकांगी पक्ष को स्वीकार नहीं करते / अकेला बुद्धिवाद पूर्ण ज्ञान-मीमांसा नहीं कर सकता वैसे ही अकेला अनुभववाद भी पूर्ण ज्ञान व्याख्या करने में असमर्थ है। उसके अनुसार इन्द्रियानुभव के बिना बुद्धि रिक्त है और बुद्धि के बिना इन्द्रियानुभव अन्धा है। काण्ट का दृष्टिकोण अनेकांतवादी परिलक्षित होता है / जैन दर्शन में भी समन्वय का दृष्टिकोण ही सत्य व्याख्या का आधारभूत तत्त्व है / इन्द्रिय ज्ञान एवं अतीन्द्रिय ज्ञान अपनी-अपनी सीमा में दोनों यथार्थ हैं एवं यथार्थता के निर्णायक हैं / पाश्चात्य दर्शनों का जैन ज्ञान-मीमांसा के आलोक में अवलोकन करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि जैन दर्शन जैसे अतीन्द्रिय ज्ञान की यहां पर कोई परिकल्पना नहीं है। पाश्चात्य दर्शन सम्मत अनुभववाद एवं बुद्धिवाद दोनों का समावेश जैन स्वीकृत संव्यवहार प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ज्ञान के अन्तर्गत हो जाता है। हम यों समझ सकते हैं पाश्चात्य दर्शन में भारतीय अतीन्द्रिय ज्ञान-मीमांसा जैसी अवधारणा नहीं है / उनका ज्ञान-मीमांसीय चिन्तन इन्द्रिय जगत् एवं बुद्धि की परिक्रमा करता हुआ दृष्टिगोचर होता है। भारतीय परम्परा - भारतीय परम्परा में ज्ञान-मीमांसा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सभी तत्त्वचिन्तकों ने तत्त्व की अवगति के लिए ज्ञान की अनिवार्य अपेक्षा स्वीकार की है। वैदिक, अवैदिक सभी धर्म-दर्शनों में ज्ञान-चिन्तन और विचारणा उपलब्ध है। भारतीय चिन्तक सत्य की खोज करके रुक नहीं जाते थे बल्कि उसे अपने अनुभव में उतारने Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 / आर्हती-दृष्टि का भी प्रयत्न करते थे। दर्शन का उद्देश्य मात्र बौद्धिक आस्था की प्राप्ति नहीं था। मैक्समूलर ने कहा है कि भारत में तत्त्व-चिन्तन ज्ञान की उपलब्धि के लिए नहीं है बल्कि उस परम उद्देश्य की सिद्धि के लिए किया जाता था जिसके लिए मनुष्य का इस लोक में प्रयत्न करना सम्भव है। इस दृष्टि से भारतीय चिन्तनधारा में ज्ञान का स्वरूप, उसके भेद-प्रभेद आदि का निरूपण अपने केन्द्रीय तत्त्व को ध्यान में रखकर ही हुआ है। ज्ञान के विषय में उपनिषद् में ब्रह्म विद्या के प्ररूपण के प्रसंग में ज्ञान-मीमांसीय तत्त्व उपलब्ध होते हैं। अनुभव की वस्तुओं के लिए उपनिषदों में 'नाम-रूप' का प्रयोग हुआ है / मनस और ज्ञानेन्द्रियों का व्यापार. 'नामरूप के दायरे तक ही सीमित है। इन्द्रिय ज्ञान अनिवार्यतः परिच्छिन्न वस्तु का ही होता है। ब्रह्मज्ञान इन्द्रियज्ञान से उच्चकोटि का है। ब्रह्म अज्ञेय नहीं है। उपनिषद् का परम उद्देश्य ब्रह्म का ज्ञान कराना ही है। मुण्डक उपनिषद् में सारे ज्ञान को दो वर्गों में विभक्त किया गया है—परा विद्या एवं अपरा विद्या। परा विद्या सर्वोत्कृष्ट है। इससे परब्रह्म का साक्षात्कार होता है तथा अपरा विद्या के द्वारा सांसारिक वस्तुओं का ज्ञान होता है। - वेदान्त परम्परा में अध्यात्म विद्या, आत्म विद्या का मूल है। मुण्डकोपनिषद् में शिष्य गुरु से पूछता है-भगवन् ! ऐसा कौन-सा तत्त्व है जिसको जान लेने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है। परम तत्त्व की जिज्ञासा ज्ञान उत्पत्ति का मुख्य आधार है। सत्य ज्ञान स्वरूप ब्रह्म ही परम तत्त्व है।" ब्रह्म पराविद्यागम्य है। अपरा विद्या सांसारिक मार्गानुसारी है / वह भवभ्रमण का कारण है / श्रेय और प्रेय चिरन्तन काल से मनुष्य के लक्ष्य बनते रहे हैं। विद्यावान् धीरपुरुष ज्ञान चेतना के द्वारा प्रेय को त्यागकर श्रेय को स्वीकार करता है जबकि मंद त्वरा से प्रेरित होकर प्रेय का वरण करता है। प्रेय मार्ग तमस की ओर ले जाता है। श्रेय मार्ग प्रकाश का पुञ्ज है। श्रेय मार्ग अर्थात् विद्या, प्रेय अर्थात् अविद्या / उपनिषदों के अनुसार अविद्या वह है जिसका अन्तिम परिणाम अन्धकार है तथा विद्या वह है, जो प्रकाश में ले जाती है। इसलिए उपनिषद् का ऋषि गाता है–तमसो मा ज्योतिर्गमय / विद्या बन्धन से मुक्त करवाती है जबकि अविद्या बन्धन का हेतु है। संसार के सम्पूर्ण ज्ञान में पारंगत होकर भी व्यक्ति ब्रह्मविद् नहीं हो सकता तथा एक ब्रह्म को जान लेने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है। जैन आगम आचारांग में भी कहा गया है जो एक को जानता है वह सबको जान लेता है। उपनिषद् दर्शन के अनुसार सांसारिक ज्ञान में वैदुष्य-प्राप्त Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानस्वरूप विमर्श / 241 व्यक्ति भी अविद्यावान् ही है। यदि वह ब्रह्म ज्ञाता नहीं है / उपनिषद् कहती है जो लोग अविद्या में पड़े रहकर अपने आपको बहुत बड़ा पंडित और ज्ञानी मानते हैं, वे वास्तव में मूढ हैं और उन अन्धे मनुष्यों के समान है जिनको अन्धे मनुष्य ही ले जा रहे हैं और जो गिरते-पड़ते भटकते रहते हैं। नचिकेता-यम, मैत्रेयी-याज्ञवल्क्य, नारद-सनतकुमार आदि के औपनिषदिक आख्यानों से उपनिषद् ज्ञान-मीमांसा का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है / उपनिषद् की ज्ञान-मीमांसा का प्रमुख लक्ष्य है-ब्रह्मज्ञान / ब्रह्म की प्राप्ति अथवा ब्रह्ममय बन जाने के साथ ही ज्ञान-मीमांसा कृतकृत्य हो जाती है। उपनिषद् ‘सा विद्या या विमुक्तये के माध्यम से मोक्षदायिनी विद्या (ज्ञान) को सर्वश्रेष्ठ स्वीकार करती है। ____ सांख्य दर्शन प्रकृति और पुरुष इन दो तत्त्वों को स्वीकार करता है। पुरुष निर्गुण है एवं प्रकृति त्रिगुणात्मिका / पुरुष चेतन है किन्तु वह ज्ञान शून्य है। सांख्य के अनुसार बुद्धि या ज्ञान जड़ है। ज्ञान पुरुष का धर्म नहीं किन्तु प्रकृति का धर्म है। अतः अनुभव की उपलब्धि न तो पुरुष में होती है और न ही बुद्धि में होती है। जब ज्ञानेन्द्रिय बाह्य जगत् के पदार्थों को बुद्धि के सामने उपस्थित करती है तब बुद्धि उपस्थित पदार्थ का आकार धारण कर लेती है। बुद्धि के पदार्थाकार होने के पश्चात् चैतन्यात्मक पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ता है / बुद्धि में प्रतिबिम्बित पुरुष का पदार्थों से सम्पर्क होना ही ज्ञान है।" बुद्धि में प्रतिबिम्बित होने पर ही पुरुष को ज्ञाता कहा जाता है। प्रत्यक्ष अनुमान एवं आगम के भेद से सांख्य तीन प्रमाण स्वीकार करता है ।विवेक ज्ञान को ही पूर्ण ज्ञान मानता है। विपर्यय ज्ञान को इस दर्शन में सदसत्ख्याति कहते हैं.। सांख्य दर्शन ज्ञान की प्रमाणता एवं अप्रमाणता को स्वतः स्वीकार करता है। जैन दर्शन ज्ञान गुण के सन्दर्भ में सांख्यों की तरह जड़वादी नहीं है। वह ज्ञान को प्रकृति का गुण-धर्म नहीं मानता। जैन मत के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। वह आत्मा का गुण है। आत्मा स्वरूपतः ज्ञान गुण सम्पन्न है। जैन चैतन्य और ज्ञान को सांख्यों की तरह भिन्न-भिन्न नहीं मानते। ये दोनों अभिन्न है। जैसे अग्नि स्वभावतः ही उष्णगुण युक्त होती है वैसे ही आत्मा भी स्वभावतः ज्ञानगुण युक्त. ही होती है। ___न्याय तथा वैशेषिक दर्शन, परस्पर सम्बद्ध हैं / वैशेषिक में तत्त्व-मीमांसा प्रधान है तथा न्यायदर्शन में तर्कशास्त्र और ज्ञान-मीमांसा का प्राधान्य है। न्यायदर्शन. वस्तुवादी है। वह ज्ञान को ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध मानता है / ज्ञाता और ज्ञेय Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 / आर्हती-दृष्टि के अभाव में ज्ञान पैदा नहीं हो सकता। ज्ञाता जब ज्ञेय के सम्पर्क में आता है तब उसमें 'ज्ञान' नामक गुण उत्पन्न होता है ज्ञान आत्मा का आगन्तुक धर्म है क्योंकि . चेतना उसका आगन्तुक लक्षण है। न्याय दर्शन के अनुसार द्रव्य अपनी उत्पत्ति के प्रथम क्षण में गुण विहीन होता है। समवाय सम्बन्ध के द्वारा उत्पत्ति के बाद गुण का गुणी से सम्बन्ध करवाया जाता है। चैतन्य गुण आत्मा से अन्य है। समवाय सम्बन्ध रूप उपाधि से आगत है।" न्यायदर्शन की आत्मा स्वरूपतः अज्ञान स्वरूप है / जब ज्ञाता ज्ञेय पदार्थ के संपर्क में आता है तब ज्ञेय पदार्थ के द्वारा ही ज्ञाता में ज्ञान पैदा होता है / ज्ञेय पदार्थ के अभाव में ज्ञान पैदा ही नहीं हो सकता। ज्ञान का कार्य ज्ञेय पदार्थ को प्रकाशित करना है।" बुद्धि, उपलब्धि, अनुभव ये शब्द ज्ञान के पर्याय हैं। जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं मानता है। ज्ञान तो आत्मा का स्वरूप है। आत्मा चैतन्य लक्षण वाली है।" ज्ञान का अस्तित्व ज्ञेय पदार्थ पर निर्भर नहीं है। वह स्वत; अस्तित्ववान् है। जैन दर्शन के अनुसार गुण-गुणी में धर्म-धर्मी में ज्ञानगत भिन्नता है वस्तुगत भिन्नता नहीं है / द्रव्य गुण से संयुक्त ही होता है। उत्पत्ति के प्रथम क्षण में अगुणता का सिद्धान्त सम्यक् नहीं है। न्याय के अनुसार यथार्थ एवं अयथार्थ के भेद से ज्ञान दो प्रकार का है। वस्तु जैसी है उसका वैसा ही ज्ञान होना यथार्थ ज्ञान है। तथा वस्तु स्वभाव से विपरीत ज्ञान होना अयथार्थ अनुभव है। इनके अनुसार ज्ञान स्वप्रकाशक नहीं है मात्र अर्थप्रकाशक है। ज्ञान भी ज्ञानान्तर वेद्य है।" प्रमाण के चार प्रकार इस दर्शन में स्वीकार किए गए हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान उपमान और शाब्द (आगम)। मीमांसा दर्शन में ज्ञान को आत्मा का विकार कहा गया है। ज्ञान को एक क्रिया का व्यापार कहा गया है और उसे अतीन्द्रिय माना गया है। इस दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा जैसे सूक्ष्म द्रव्य में पाया जाता है। प्रमुख मीमांसक कुमारिल एवं प्रभाकर की ज्ञान सम्बन्धी अवधारणा पृथक्-पृथक् दीखती है। कुमारिल का ज्ञान विषयक मत ज्ञाततावाद कहलाता है / यह प्रभाकर के मत से भिन्न है / कुमारिल. के अनुसार ज्ञान स्व-प्रकाशक नहीं है। ज्ञान केवल ज्ञेय विषय को ही प्रकाशित करता है / अर्थ प्राकट्य के द्वारा उसका ज्ञान होता है / जैन मत से जो ज्ञान स्व-प्रकाशक नहीं है वह अर्थ प्रकाशक भी नहीं हो सकता। प्रभाकर का ज्ञान विषयक मत त्रिपुटी प्रत्यक्षवाद कहा जाता है। वे ज्ञान को स्व-प्रकाशक मानते हैं। उसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी अन्य ज्ञान की Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानस्वरूप विमर्श / 243 आवश्यकता नहीं है / ज्ञान के लिए ज्ञानान्तर की कल्पना से अनवस्था दोष आता है। ज्ञान स्व-प्रकाशक तो है किन्तु नित्य नहीं / ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण है। विषय सम्पर्क से आत्मा में ज्ञान उत्पन्न होता है। प्रत्येक ज्ञान में ज्ञेय, ज्ञान और ज्ञाता की त्रिपुटी का प्रत्यक्ष होता है। इसलिए यह त्रिपुटी प्रत्यक्षवाद है। ... बौद्ध दर्शन में साकार चित्त को ज्ञान कहा जाता हैं। बौद्ध दर्शन के भिन्न-भिन्न प्रस्थान हैं। अतः उनकी ज्ञान-मीमांसा में भी वैविध्य है। योगाचार अर्थात् विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध ज्ञान को ही मात्र परमार्थ सत् मानता है। उसके अनुसार बाह्य पदार्थ का कोई अस्तित्व ही नहीं है। वैभाषिक बौद्ध ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्र में तदुत्पत्ति एवं तदाकारता के स्वीकार करते हैं उसके अभाव में प्रतिनियत कर्म-व्यवस्था नहीं हो सकती।" ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होता है तथा पदार्थाकार को ग्रहण करता है / घट से उत्पत्र ज्ञान घटाकार में परिणत होकर ही घटज्ञान करता है / बौद्ध दर्शन में अपूर्व अर्थ के ज्ञापक सम्यक ज्ञान को ही प्रमाण कहा गया है। जो ज्ञान अविसंवादी है वही सम्यग्ज्ञान कहलाता है।" अर्थ क्रिया की व्यवस्था से ही ज्ञान के अविसंवादित्व आदि का बोध होता है। सम्यग्ज्ञान प्रत्यक्ष एवं अनुमान भेद से दो प्रकार का है। कल्पना रहित ज्ञान अर्थात् निर्विकल्प ज्ञान एवं अभ्रांत ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है। व्याप्ति ज्ञान से सम्बन्धित किसी धर्म के ज्ञान से धर्मी के विषय में जो परोक्ष ज्ञान होता है वह अनुमान है। बौद्ध दर्शन में वही ज्ञान प्रमाण है और वही ज्ञान प्रमाण फल भी है। प्रत्येक ज्ञान अर्थ से उत्पन्न होता है तथा अर्थाकार होता है / यथा जो ज्ञान पुस्तक से उत्पन्न हुआ है वह पुस्तकाकार है तथा पुस्तक का बोधरूप है। अतः ज्ञान में जो पुस्तकाकारता है वह प्रमाण है और जो पुस्तक का बोध है, वह प्रमाणफल है। इस प्रकार एक ही ज्ञान में प्रमाण और फल की व्यवस्था की जाती है। बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी है वहां आत्मा जैसे किसी नित्य द्रव्य की स्वीकृति नहीं है / ज्ञान चैतसिक है। चित्त परम्परा चलती रहती है। प्रवृत्ति विज्ञान एवं आलय विज्ञान की अवधारणा बौद्ध दर्शन में है। ___ चारू (रुचिकर) वक्तव्य के आधार पर इस दर्शन को चार्वाक दर्शन के रूप में जाना जाता है। इसको नास्तिक दर्शन भी कहा गया है। चार्वाक दर्शन में प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है। इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्म से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष है। इस पञ्चविध इन्द्रिय प्रत्यक्ष के द्वारा अनुभूत वस्तु प्रमाणसिद्ध; एवं अन्य सब वस्तुएं कल्पना प्रसूत हैं / प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य किसी अनुमान आदि को यह स्वीकार नहीं करता Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 / आर्हती-दृष्टि जैन दर्शन जैन दर्शन के अनुसार आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद एवं अनंत वीर्य से सम्पन्न है। किन्तु सांसारिक अवस्था में आत्मा के ये गुण तिरोहित रहते हैं। कर्म आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि को आवृत्त किए रहता है / अतः आत्मा का सांसारिक अवस्था में मूल स्वरूप दृष्टिगोचर नहीं होता है। ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। ज्ञान जीव का विशेषण नहीं किन्तु स्वरूप है अतः जीव में यह सामर्थ्य है कि वह संसार के सम्पूर्ण ज्ञेय को अपरोक्षतः और यधार्थ रूप में जान सकता है। आत्मा सर्वज्ञ बन सकती है। कर्म के आवरण के कारण जीव को आंशिक ज्ञान होता है। जिस प्रकार कुछ लोग दर्शन ज्ञान की परिच्छिन्नता का कारण अविद्या को बताते हैं उसी प्रकार जैन दर्शन कर्म को बताता है / कर्मरूपी मेघ आत्मा रूपी सूर्य के प्रकाश को आवृत्त कर देते हैं जिससे आंशिक ज्ञान होता है। किन्तु कर्म ज्ञान रूप जीव के स्वभाव को नष्ट नहीं कर सकते / जीव का अक्षर के अनन्तवें भाग जितना ज्ञान हमेशा उद्घाटित रहता है। यदि ऐसा न हो तो जीव अजीव हो जाएगा। जैन दर्शन ज्ञान को नैयायिक वैशेषिक की तरह आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं मानता तथा सांख्य की तरह प्रकृतिजन्य भी नहीं मानता। ज्ञान तो आत्मा का सहजात गुण है। ज्ञान के अभाव में आत्मा की एवं आत्मा के अभाव में ज्ञान की कल्पना करना भी सम्भव नहीं है / ज्ञान और आत्मा का अभेद स्थापित करते हुए कहा गया विशिष्ट क्षयोपशम युक्त आत्मा जानती है, वही ज्ञान है / 'राजवार्तिक' में भी आत्मा को ही ज्ञान एवं दर्शन कहा गया है / एवंभूतनय की वक्तव्यता से ज्ञान, दर्शन रूप पर्याय में परिणत आत्मा ही ज्ञान और दर्शन है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आत्मा को ही उसकी पर्याय विशेष के आधार पर 'ज्ञान' कहा गया है। __ज्ञान की परिभाषा ज्ञेय तत्त्व के आधार पर भी प्राप्त होती है। जिसके द्वारा जाना जाता है अथवा जानने मात्र को ज्ञान कहा जाता है। ज्ञान ज्ञेय का प्रकाशक होता है। जो यथार्थ तत्त्व को प्रकाशित करता है अथवा सद्भाव पदार्थों का निश्चायक होता है। उसे ज्ञान कहा जाता है। जैन दर्शन में आत्म-मीमांसा, ज्ञान-मीमांसा, कर्म- मीमांसा परस्पर में अत्यन्त सम्बद्ध है। आत्मा अधिगम स्वभाववाली है।" निश्चयनय के अनुसार तो आत्मा का स्वभाव या स्वरूप केवलज्ञान ही है। सांसारिक अर्थात् कर्मयुक्त अवस्था में वह स्वभाव पूर्णरूपेण प्रकट नहीं होता है। अतः जैन साधना पद्धति का यही उद्देश्य है कि वह आत्मा पर आए हुए आवरणों को दूर करे ताकि वह अपने शुद्ध स्वरूप में उपस्थित हो सके। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानस्वरूप विमर्श | 245 आत्मा ज्ञान दर्शन स्वभाववाली है। ज्ञान की तरह दर्शन भी उसका स्वभाव है। ज्ञान एवं दर्शन दोनों की ज्ञापकता में क्या विशेषता है? इसका अवबोध ज्ञान एवं दर्शन के भेद को समझने से ही प्राप्त हो सकता है / जैन दर्शन के अनुसार वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है।" द्रव्य सामान्य एवं पर्याय विशेष का द्योतक है। जब वस्तु का स्वरूप उभयात्मक है तो उसके ज्ञापक का स्वरूप भी उभयात्मक होना चाहिए। अतः 'सन्मति तर्क' में कहा गया सामान्यग्राही दर्शन एवं विशेषग्राही ज्ञान कहलाता है।" सामान्यग्राही दर्शन की प्रवृत्ति द्रव्यास्तिक नय की एवं विशेषग्राही ज्ञान की प्रवृत्ति पर्यायास्तिक दृष्टि की प्रेरक है। अतएव दर्शन द्रव्यास्तिक नय में एवं ज्ञान पर्यायास्तिक नय में माना जाता है / दर्शन और ज्ञान काल में ग्राह्य वस्तु में अधिक अन्तर नहीं पड़ता है। दर्शन काल में वस्तु का सामान्य धर्म प्रधान एवं विशेष गौण हो जाता है तथा ज्ञान काल में विशेष प्रधान एवं सामान्य गौण हो जाता है। आत्मा पर दर्शन एवं ज्ञान को घटित करके आचार्य सिद्धसेन ने इस तथ्य को उजागर किया है।“ साकार व अनाकार के भेद से उपयोग दो प्रकार का है। साकार उपयोग ज्ञान एवं अनाकार उपयोग.दर्शन है। ग्राह्य वस्तु को भेद के साथ ग्रहण करनेवाला ज्ञान तथा अभेद का ग्राह्य दर्शन कहलाता है।" जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है / स्व-पर प्रकाशता के अभाव में ज्ञान स्वयं की एवं वस्तु जगत् की व्यवस्था नहीं कर सकता। प्रमाण-मीमांसा के अन्तर्गत ज्ञान की स्व-पर प्रकाशकता की चर्चा की गई है / किन्तु उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञान परिभाषा में इसका समावेश करके ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्र में एक नया अध्याय जोड़ा है / ज्ञान को परिभाषित करते हुए उन्होंने 'ज्ञान बिन्दु प्रकरण' में कहा है-स्व-पर प्रकाशक ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है।६९ जैन सम्मत इस ज्ञान स्वरूप की दर्शनान्तरीय ज्ञान स्वरूप से तुलना करते समय चिन्तकों की मुख्य रूप से दो विचारधाराओं की ओर ध्यान आकृष्ट होता है। प्रथम विचारधारा सांख्य एवं वेदान्त तथा दूसरी विचारधारा बौद्ध, न्याय आदि दर्शनों में उपलब्ध होती है। प्रथम धारा के अनुसार ज्ञान गुण और चित्तशक्ति इन दोनों का आधार एक नहीं है। प्रथम धारा के अनुसार चेतना और ज्ञान दोनों भिन्न-भिन्न आधार वाले हैं। दूसरी धारा चैतन्य और ज्ञान का आधार भिन्न-भिन्न नहीं मानती / बौद्ध चित्त में, जिसे वह नाम भी कहता है, चैतन्य और ज्ञान का अस्तित्व मानता है। न्याय आदि दर्शन भी क्षणिक चित्त की बजाय स्थिर आत्मा में चैतन्य और ज्ञान का अस्तित्व मानते हैं। जैन दर्शन दूसरी Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 / आर्हती-दृष्टि विचारधारा का अवलम्बी है क्योंकि वह एक ही आत्मतत्त्व में कारणरूप से चेतना और कार्य रूप से ज्ञान को स्वीकार करता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने उसी भाव-ज्ञान को आत्मा का गुण कहकर प्रकट किया है। तत्त्वार्थ सूत्र में मोक्ष मार्ग की विवेचना करते हुए आचार्य उमास्वाति सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चारित्र को मोक्ष मार्ग कहते हैं। स्वामी के भेद से ज्ञान भी सम्यक् एवं मिथ्या इन दो भेद दों में विभक्त हो जाता है। मोक्ष मार्ग का हेतु सम्यक् ज्ञान बनता है। मिथ्याज्ञान संसार परिभ्रमण का हेतु बनता है। सम्यक् रूप से जिसके द्वारा वस्तु का ग्रहण होता है, वही ज्ञान है।" सम्यक् दृष्टि के जो . ज्ञान कहलाता है वही मिथ्या दृष्टि से अज्ञान कहलाता है। मति, श्रुत एवं अवधि-ये ज्ञान सम्यक् एवं मिथ्या दोनों ही प्रकार से हो सकते हैं। सामान्यतः मति के दो भेद होते हैं-मति-ज्ञान और मति-अज्ञान / उसको विश्लेषित करने से ज्ञात होता है कि वह सम्यक् दृष्टि के मतिज्ञान है एवं मिथ्यादृष्टि के मति अज्ञान है।" मति अज्ञान भी ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम रूप है किन्तु उस ज्ञान के धारक व्यक्ति को दृष्टि मिथ्या है अतः दर्शन मोहकर्म के उदय के कारण क्षायोपशमिक ज्ञान भी अज्ञान . कहलाता है। यह अज्ञान संसार वृद्धि एवं परिभ्रमण का हेतु बनता है। ज्ञानावरण के उदय से औदयिक भावरूप जो अज्ञान है उसकी वक्तव्यता प्रस्तुत प्रकरण में नहीं है। औदयिक अज्ञान ज्ञान का अभाव है। जबकि मिथ्याज्ञान कुत्सित ज्ञान है। इस प्रकार अज्ञान में आगत नञ् का एक स्थान पर अभाव एवं एक स्थान पर कुत्सित अर्थ होगा। जीव की क्रमिक आत्म-विशुद्धि के आधार पर जैन-परम्परा में गुणस्थान को अवधारणा है / कर्म-विशुद्धि की अपेक्षा से चौदह गुणस्थान माने गए हैं। मिथ्याज्ञान प्रथम एवं तृतीय, इन दो गुणस्थानों में ही होता है। क्योंकि इन दो गुणस्थानों में ही मिथ्यात्वी जीव स्थित है। प्रथम गुणस्थान मिथ्यादृष्टि एव तृतीय मिश्र गुणस्थान है। ज्ञान का अभाव रूप अज्ञान तो प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक रहता है। केवलज्ञान प्राप्त होने पर ही उदयभाव रूप अज्ञान नष्ट होता है। उदयभाव रूप अज्ञान सम्यक्त्वी एवं मिथ्यादृष्टि दोनों के होता है। प्रथम एवं तृतीय गुणस्थान को छोड़कर अवशिष्ट सभी गुणस्थानों में सम्यक् ज्ञान माना गया है / यद्यपि सम्यक् दृष्टि को भी पदार्थों का विपरीत ज्ञान हो सकता है। रज्जू में सर्प का भ्रम हो सकता है पर वह कुत्सित ज्ञान नहीं कहलाता है। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानस्वरूप विमर्श / 247 अयथार्थ ज्ञान के दो पक्ष होते हैं—आध्यात्मिक और व्यावहारिक / आध्यात्मिक विपर्यय को मिथ्यात्व एवं आध्यात्मिक संशय को मिश्र मोह कहा जाता है। इनका उद्भव आत्मा की मोह दशा में होता है। इससे श्रद्धा विकृत होती है। व्यावहारिक संशय और विपर्यय का नाम समारोप है। यह ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है। इसमें ज्ञान यथार्थ नहीं होता है। पहला पक्ष दृष्टि मोह है तथा दूसरा पक्ष ज्ञान-मोह है इनका भेद समझाते हए आचार्य भिक्षु ने लिखा है-तत्त्व श्रद्धा में विपर्यय होने पर मिथ्यात्व होता है। अन्यत्र विपर्यय होता है, तब ज्ञान असत्य होता है किन्तु मिथ्या नहीं बनता।" दृष्टि-मोह मिथ्यादृष्टि के ही होता है। जबकि ज्ञान-मोह सम्यक् दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि दोनों के होता है। अतः उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ज्ञान के सम्यक् एवं मिथ्या होने में पात्र ही निमित्त बनता है। जयाचार्य ने भी इसी को स्पष्ट किया है। अध्यात्म साधना में सर्वप्रथम दृष्टि का परिमार्जन आवश्यक माना जाता है। दृष्टि परिशुद्ध होते ही ज्ञान स्वतः ही सम्यक् बन जाता है। ज्ञान को सम्यक् बनाने के लिए अतिरिक्त प्रयल की आवश्यकता नहीं होती है। जैन दर्शन में दृष्टि विशुद्धि को ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है / ज्ञान एवं चारित्र की विशुद्धता उसके ऊपर ही निर्भर रहती है अतः कहा जाता है—चरित्र भ्रष्ट की तो मुक्ति हो सकती है किन्तु दर्शन भ्रष्ट सिद्ध नहीं हो सकता। सन्दर्भ 1. मोक्षे धीनिमन्यत्र विज्ञानं, इत्यमरः। 2. चेतनाचेतनान्यत्वविज्ञानं ज्ञानमुच्यते, ज्ञानस्तु ज्ञानमित्याहुः भगवान् ज्ञान सनिधिः। लिङ्गपुराण पूर्वार्ध, 10/29, 3. एकत्वं बुद्धिमनसोरिन्द्रियाणाञ्च सर्वशः। आत्मनो व्यापिनस्तात ज्ञानमेतदनुत्तमम् / / योगशास्त्र, 4. गीता, 4/38 5. ज्ञानयज्ञः परन्तपः। . गोता, 4/33, सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते। अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धिसात्विकम् // गीता, 18/20, .. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 / आर्हती-दृष्टि 7. पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान् पृथग्विधान् / - वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्॥ गीता, 18/21, 8. यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन् कार्येसक्तमहैतुकम्। ____ अतत्त्वार्थवदल्पञ्च तत्तामसमुदाहृतम् // गीता, 18/22, 9. वैराग्याज्जायते ज्ञानम् // वि. पु. महा. भा., 13/149/61 10. वैराग्याज्जायते ज्ञानं ज्ञानाद् योगः प्रवर्तते / योगज्ञः पतितो वापि मुच्यते नात्र संशयः // वि. पू. महाभा, 13/149/61 11. ज्ञानं प्रकृष्टमजन्यमनवच्छिन्नं सर्वस्य साधकमिति ज्ञानमुत्तमं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म इति श्रुतेः। वायुपुराण उत्तरार्ध, 11/36 12. ज्ञाननेत्रं समादाय चरेद् वह्मिमतः परम्। निष्कलं निर्मलं शान्तं तद् ब्रह्माहमितिस्मृतम् // ___ ब्रह्मबिन्दु उपनिषद्, 21 13. सम्यक् दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। . तत्त्वार्थ सूत्र, 1/1. 14. पढमं नाणं तओ दया। दशवै, 4/10 15. जे आया से विम्माया, जे विम्माया से आया।, ' आचा, 5/104 16. णाणंति वा संवेदणं ति वा अधिगमो ति वा चेतणं ति वा भावोति वा एते सद्दा एगट्ठा। दशवै. जि. चू, पृ. 10 णाणं ति वा विज्ज ति वा एगट्ठा। . उत्तरा, चू, पृ. 147 17. णज्जइ अणेणेतिज्ञानं, णज्जति एतम्हि त्ति णाणं। नंदी चू, पृ. 13 18. णाती-णाणं अवबोधमेते, भावसाधणो। नंदी चू, पृ. 13 19. अहवा णज्जइ अणेणेति णाणं, खयोवसमिय -खाइएण। वा भावेण जीवादिपदत्था णज्जंति इति णाणं करणसाधणो / नंदी चू; पृ. 13 20. Man is the measure of all things-It means that the way thing appear to one man is truth for him, and the way thing appear to another is the truth for him. ___The Greek Philosophy, p.p. 63-69, 21. All knowledge is knowledge through concepts... A Critical History of Greek Philosophy, p. 143, 77. Conceptual knowledge, then is the only genuine knowledge that was the teaching of Socrates which Plato Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानस्वरूप विमर्श | 249 : adopted as the starting point for his inquiries. ___Histroy of Philosophy, p. 77 . 23. Moreover, this lower use of reason is directed towards action, whereas wisdom is contemplative, not practical. ___History of Philosophy, Vol. II, P. 70 24. To inquireinto the original, certaintry andextentof human knowlege, together with the grounds and degrees of belief, opinion and assent. An Essay.....Understanding Book, p. 63 25. According to Descartes some ideas are innate according to Leibnitz all. History of Modern Philosophy, p. 283 26. The two methods which hedescribed as bestindiscovering new principles, are intuition by which meant an immediate intellectual awareness and deduction......Which is a correct injerence from facts that are known with certainly. A History of Philosophy, p. 109 27. They are justified in what they affim but wrong in what they deny. A history of Philosophy 28. Six Systems of Indian Philosophy, p. 370 29. मुण्डको, 1 / 1 / 45 . 30. कस्मिनु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति। मुण्डको, 1 / 3 31. सत्यं ज्ञानमनन्तंब्रह्म। तैत्तेरियो, 3 / 1 / 1 32. श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः / श्रेयोहि धीरोऽभिप्रेयसोवृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते // कठोप, 1 / 2 / 2 * ' 33. जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ..... आचा, 3 74 34. अविधायामन्तरे वर्तमाना: स्वयं धीरा: पंडितं मन्यमानाः / दन्द्रम्यमाणा: परियन्ति मूढ़ा अंधेनैव नीयमाना यथान्धाः / / __कठो, 1 / 2 / 25 35. अर्थाकारेण परिणताया बुद्धिवृत्तेश्चेतने प्रतिबिम्बनात् विषयप्रकाशरूपं ज्ञानम्। __सा. प्र. सू. (भाष्ययोः) : 36. प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वत: सांख्या: समाश्रिताः / सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. 106 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 / आर्हती-दृष्टि 37. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 178 38. उत्पन्नं द्रव्यं क्षणमगुणं निष्क्रियं च तिष्ठतीति समयाति गुणानां गुणिनो __व्यतिरिक्त त्वम्। स्याद्वादमञ्जरीका, 7 39. चैतन्यमौपाधिकमात्मनोऽन्यत्। अन्ययोगव्यवच्छेदिका, 8 40. न चाविषया काचिदुपलब्धिः / 41. अर्थप्रकाशो बुद्धिः। . 42. चैतन्यलक्षणो जीव.... षड्दर्शनसमुच्चय, 49 43. तद्वति तत्प्रकारकोऽनुभवो यथार्थः / तर्कसंग्रह, पृ. 58 तद्भाववति तत्प्रकारकश्चायथार्थः / - तर्कसंग्रह, पृ. 61 44. ज्ञानमपि ज्ञानान्तस्वेद्यं प्रमेयत्वात् पटादिवत् / / 45. प्रत्यक्षमनुमानं चोपमानं शाब्दिक तथा। प. द. सं., 17 46. शास्त्रदीपिका, पृ. 56-57 47. स्वार्थावबोधक्षम एवं बोध: प्रकाशने नार्थकथान्यथा तु। न्ययोग व्यच्छेदिका. 12 48. नास्ति बाह्योऽर्थ: कश्चितकिन्तु ज्ञानमेवेदं सर्वं नीलाद्याकरण प्रतिभाति / स्याद्वादमञ्जरी, पृ. 158 - 49. तदुत्पतितदाकारताभ्यां हि सोपपद्यते। स्याद्वादम, पृ. 154 50. प्रमाणं सम्यग्ज्ञा. मपूर्वगोचरम्। तर्कभाषा, पृ. 1 51. अविसंवादकं ानं सम्यग्ज्ञानम् / , न्यायबिन्दु, पृ.४. 52. तत्र कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् / 53. या च सम्बन्धिनो धर्माद्भूतिर्मिणि जायते। सानुमानं परोक्षाणामेकान्तेनैव साधनम् // प्रमाणवार्तिक, 3 62 54. तदेव च प्रत्यक्षं ज्ञानं प्रमाणफलमर्थप्रतीति रूपत्वात् / न्यायबिन्दु, पृ. 18 55. पद्दर्शन समुच्चय, टीका, पृ. 74 56. सव्वजीवाणं पियणं अक्खरस्स अणंततमो भागो णिच्चुग्घाडिओ चिट्ठई। सो विअ जइ आवरिज्जा, तेणं जोवा अजीवतणं पाविज्जा। नंदीसूत्र, 71 57. आत्मैव विशिष्टक्षयोपशमयुक्त: जानातीति वा ज्ञानं तदेव, . स्वविषय संवेदन रूपत्वात् तस्य। न्यायबिन्दु, पृ. 8 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानस्वरूप विमर्श | 251 58. एवंभूतनयवक्तव्यवशात् ज्ञान दर्शन पर्याय परिणतात्मैव ज्ञानं दर्शनं च, तत्स्वभाव्यात् / राजवार्तिक, 15 / 5 / 1 59. जानातिज्ञायतेऽनेन ज्ञप्तिमात्रं वा ज्ञानं। सर्वार्थसिद्धि, 1 / 1 / 6 / 1 60. भूतार्थप्रकाशनं ज्ञानम् अथवा सद्भाव विनिश्चयोपलम्भकं ज्ञानम्। ध, 11 61. विनिर्मल: साधिगम: स्वभावः। परमात्म द्वात्रिंशिका, 24 62. केवलनाणमणंतं जीवसरूवं तयं निरावरणम्। ज्ञानबिन्दु, पृ. 3 63. ज्ञानदर्शनात्मिका चेतना। जैन सि. दीपिका, 2 / 3 64. द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु / प्रमाणमी, 1 / 30 65. जं सामण्णग्गहणं दंसणमेयं विसेसियं णाणं / दोण्ह विणयाण एसो पडिक्कं अत्थपज्जाओ। स.त, 21 66. दव्वढिओ वि होऊण दंसणे पज्जवढिओ होइ। उवसमियाई भावं पडुच्च णाणे उ विवरीय // सम्म. 2 / 2 67. सागारे से नाणे हवइ अणागारे से दंसणे। प्रज्ञापना, 30 314 68. सहआकारैर्ग्राह्यभेदैर्वत्तते यद् ग्राहकं तत् साकारं ज्ञानमित्युच्यते। . अविद्यमान आकार: भेदोग्राह्यस्य अस्येत्यनाकारं दर्शन मुच्यते // सम्म. टी., पृ. 458 69. तत्र ज्ञानं तावदात्मन: स्वपरावभासक: असाधारणो गुण: ज्ञानबिन्दु प्रकरण, पृ. 3 70. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। तत्त्वार्थ सूत्र, 1 / 1 . 71. सम्यगवेपरीत्येन विद्यतेऽवगम्यते वस्तु स्वरूपमनयेति सेवित् / स्याद्वादमञ्जरी, 16 / 221 / 28 72. मति-श्रुत-विभंगा मिथ्यात्व साहचर्यादज्ञानम्।। ___जै. सि. दी, 2133 73. अविसेसिया मई-मइनाणं च मइ अन्नाणं च। विसेसिया सम्मद्दिट्ठिस्स मई मइनाणं / ... मिच्छादिट्ठिस्स मई मइअन्नाणं / नंदी, 36 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 / आर्हती-दृष्टि . 74. कर्मविशुद्धमार्गणापेक्षाणि चतुर्दश जीवस्थानानि / जैन सि. दीपिका, 7 / 1 75. इन्द्रियवादी री चौपई, 7-9 76. भाजन लारे जाण रे ज्ञान अज्ञान कही जिए। समदृष्टि रै ज्ञान रे, अज्ञान अज्ञानी तणो / भगवती जोड़, 8 / 2 / 55 77. भ्रष्टेनापि च चारित्राद दर्शनमिह दृढ़तरं ग्रहीतव्यम्। सिध्यन्ति चरणरहिता, दर्शनरहिता न सिध्यन्ति // त. भाष्यानु. टी. पृ. 12 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनज्ञानमीमांसा का विकास मानवसंस्कृति के उदयकाल से ही ज्ञान विमर्श का विषय रहा है। हर सभ्यता, संस्कृति ने ज्ञान की महत्ता को निर्विवाद रूप से स्वीकृत किया है। धर्म-दर्शन के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में ज्ञान के अस्तित्व का चिन्तन सुदूर अतीत तक चला जाता है। जैन परम्परा में ज्ञान की विशद चर्चा उपलब्ध है। ज्ञान से सम्बन्धित उपलब्ध साहित्य के आधार पर यह सप्रमाण कहा जा सकता है कि जैन दर्शन में जितनी विशदता एवं विस्तृता से ज्ञान की चर्चा है उतनी अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होती है। जैन धर्म में मात्र ज्ञान मीमांसा पर नंदी आदि सूत्रों का प्रणयन हुआ है / अन्य दर्शनों में निखालिस ज्ञान की चर्चा करनेवाली ग्रन्थ अद्यप्रभृति उपलब्ध नहीं है। आगम पूर्ववर्ती ज्ञान चर्चा जैन धर्म में आगम का सर्वोच्च स्थान है। वर्तमान में उपलब्ध जैन साहित्य में आगम ग्रन्थ ही सबसे अधिक प्राचीन है। उन आगमों में तो ज्ञानसिद्धान्त का वर्णन प्राप्त है ही किन्तु आगम से पूर्ववर्ती पूर्वसाहित्य में भी ज्ञान चर्चा का उल्लेख था, इसका भी प्रमाण उपलब्ध है। विशेषावश्यक भाष्य में ज्ञान चर्चा के सन्दर्भ में एक माथा उद्धृत की गयी है। जिसको भाष्यकार एवं कृत्तिकार ने पूर्व गाथा के रूप में स्वीकृत किया है बुद्धिढेि अत्ये जे भासह तं सुयं मईसहियं / इयरत्य वि होज्ज सुबंदिसमं जइ भणेजा। विभा 128; पूर्व श्रुत जो भगवान् महावीर से थी पूर्ववर्ती था तथा अब वह नष्ट हो गया है ऐसी मान्यता है / उस पूर्व श्रुत में शाकावाद नाम का पूर्व था जिसमें पंचविधज्ञान की चर्चा थी दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराएं इस तथ्य को स्वीकार करती हैं। कर्म सम्बन्धी अति प्राचीन माने जाने वाले ग्रन्थों में भी पञ्चविध ज्ञान के आधार पर ही ज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृतियों का विभाजन है / कर्म सम्बन्धी अवधारणा निश्चित रूप से लुप्त हुए कर्मप्रवाद पूर्व की अवशिष्ट परम्परा मात्र हैं / उपलब्ध श्रुत में प्राचीन माने जाने वाले आगमों में भी पञ्चविध ज्ञान की स्पष्ट चर्चा है / उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 / आहती-दृष्टि मूलसूत्र में भी उनका वर्णन है। नन्दी सूत्र में तो केवल पञ्चविद्य ज्ञान की ही चर्चा है। आवश्यक नियुक्ति जैसे प्राचीन व्याख्या ग्रन्थ का मंगलाचरण पंचज्ञान के द्वारा ही किया गया है। पंचज्ञान की भगवान् महावीर से भी पूर्ववर्तिता राजप्रश्नीय सूत्र के द्वारा भी ज्ञात होती है। शास्त्रकार ने भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य केशीकुमार के मुख से ये वाक्य कहलवाए हैंएंव खु पएसी अम्हं समणाणं निग्गंथाणं पंचविहे नाणे पण्णत्ते, तं जहा. आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे, ओहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे। इस उद्धरण से स्पष्ट फलित होता है कि इस आगम के संकलनकर्ता के मत से भगवान् महावीर से पहले भी श्रमणों में पांच ज्ञान की मान्यता थी। उनकी यह मान्यता निर्मूल भी नहीं है। उत्तराध्ययन के २३वें अध्ययन के केशी-गौतम-संवाद से स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में प्रचलित आचार विषयक संशोधन महावीर ने किया है किन्तु पार्श्वनाथ परम्परा के तत्त्व चिन्तन में विशेष संशोधन नहीं किया है। इस सम्पूर्ण चर्चा से फलित होता है कि भगवान् महावीर ने पांच ज्ञान की नवीन चर्चा प्रारम्भ नहीं की है किन्तु पूर्व परम्परा से जो चली आ रही थी उसको ही स्वीकार कर उसे आगे बढ़ाया है। आगम युग में ज्ञान आगम साहित्य के आलोक में ज्ञान चर्चा के विकास क्रम का अवलोकन करने से उसकी तीन भूमिकाओं का स्पष्ट अवभास होता है। 1. प्रथम भूमिका में ज्ञान को पाँच भेदों में ही विभक्त किया गया है। 2. द्वितीय भूमिका में ज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो भेदों में विभक्त किया गया है। पाँच ज्ञान में प्रथम दो मति एवं श्रुत को परोक्ष एवं अवधि मनःपर्यव एवं केवल ज्ञान को प्रत्यक्ष के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है / इस भूमिका में आत्म मात्र सापेक्ष ज्ञान को ही प्रत्यक्ष स्वीकार किया है। इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान को परोक्ष माना गया है। जिस इन्द्रिय ज्ञान को अन्य सभी दार्शनिक प्रत्यक्ष स्वीकार करते थे, वह इन्द्रिय ज्ञान जैन आगमिक परम्परा में परोक्ष ही रहा। 3. तृतीय भूमिका में इन्द्रिय-जन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों के अन्तर्गत स्वीकार किया है / इस भूमिका में लोकानुसरण स्पष्ट है। प्रथम भूमिकागत ज्ञान का वर्णन हमें भगवती सूत्र में उपलब्ध होता है। वहां पर ज्ञान को पांच भागों में विभक्त किया है। जो निम्न सारिणी में समझा जा सकता है Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनज्ञानमीमांसा का विकास / 255 ज्ञान केवल आभिनिबोधिक श्रुत अवधि मनःपर्यव / / अवग्रह ईहा अवाय धारणा भगवती सूत्र में ज्ञान सम्बन्धी इससे आगे के वर्णन को राजप्रश्नीय सूत्र से पूरा करने का निर्देश दिया गया है तथा राजप्रश्नीय से पूर्वोक्त भेदों के अतिरिक्त अवग्रह के दो भेदों का कथन करके शेष की नन्दी सूत्र से पूर्ति करने की सूचना दी गई है। इस वर्णन का तात्पर्यार्थ यही है कि शेष वर्णन नन्दी के अनुसार होने पर भी यह अन्तर है कि इस भूमिका में नन्दीसूत्र के प्रारम्भ में कथित प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदों का कथन नहीं है तथा नन्दी में आगत श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित का भी इस भूमिका में उल्लेख नहीं है। इसी आधार पर कहा जा सकता है कि यह वर्णन प्राचीन भूमिका का है। स्थानांगगत ज्ञान चर्चा द्वितीय भूमिका की प्रतिनिधि है। स्थानांग में ज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ये दो भेद किए गए हैं तथा पांच ज्ञानों का समाहार इन दो भेदों में हुआ है / इस सूत्र में मुख्यतः ज्ञान के दो भेदों का उल्लेख है, पांच का नहीं / यह स्पष्ट ही प्राथमिक भूमिका का विकास है। . . ज्ञान 1. प्रत्यक्ष - 2. परोक्ष 1. केवल 2. नोकेवल 1. आभिनिबोधिक 2. श्रुतज्ञान 1. अवधि 2. मनःपर्यय . 1. श्रुतनिःसृत 2. अश्रुतनिःसृत 1. भवप्रत्ययिक 2. क्षायोपशमिक 1. अर्थावग्रह 2. व्यंजनावग्रह | 1. ऋजुमति 2. विपुलमति 1. अर्थविग्रह 2. व्यंजनावग्रह 1. अंगप्रविष्ट 2. अंगबाह्य 1. आवश्यक 2. आवश्यक व्यतिरिक्त 1. कालिक २.उत्कालिक Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 / आर्हती-दृष्टि इसी वर्गीकरण के आधार पर आचार्य उमास्वाति ने भी प्रमाण को प्रत्यक्ष परोक्ष में विभक्त करके उन्हीं दो भेदों में पंचज्ञानों का समावेश किया है तथा पश्चात्वर्ती जैनतार्किकों ने प्रत्यक्ष के सकल एवं विकल के भेद से दो विभाग किए। इस वर्गीकरण का आधार भी स्थानांग में आगत प्रत्यक्ष के केवल एवं नोकेवल ये दो भेद हैं। ... ज्ञान चर्चा विकास क्रम की तृतीय आगमिक भूमिका का आधार नन्दी सूत्र गत ज्ञान चर्चा है। जान . 1. आभिनिबोधिक 2. श्रुत 3. अवधि 4. मनःपर्यव 5. केवल 1. प्रत्यक्ष . 2. परोक्ष 2. श्रुत 1. इन्द्रिय प्रत्यक्ष 1. श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष 2. चक्षुरिन्द्रिय प्रत्यक्ष 3. घाणेन्द्रिय प्रत्यक्ष 4. जिह्वेन्द्रिय प्रत्यक्ष 5. स्पर्शनेन्द्रिय प्रत्यक्ष 2. नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष 1. आभिनोबोधिक 1. अवधि 2. मनःपर्यय 3. केवल . १.श्रुतनिःश्रुत 1. अश्रुतनिःश्रुत 1. अवग्रह 2. ईहा 3. अवाय 4. धारणा 1. व्यंजनाग्रह 2. अर्थावग्रह . 1. औत्पत्तिकी 2. वैनयिकी 3 कार्मिकी 4. पारिणामिकी नन्दी में सर्वप्रथम ज्ञान को पांच भागों में विभक्त करके फिर इन पांच का समावेश प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो भेदों में किया गया है / प्रत्यक्ष के इन्द्रिय एवं नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष ये दो भेद किए गए हैं / इन्द्रिय प्रत्यक्ष में पांच इन्द्रियों से उत्पन्न-ज्ञान का एवं नोइन्द्रिय Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनज्ञानमीमांसा का विकास / 257 प्रत्यक्ष में अवधि, मनःपर्यव एवं केवलज्ञान का उल्लेख है / आभिनिबोध एवं श्रुतज्ञान को परोक्षान्तर्गत स्वीकार किया गया है। परोक्ष आभिनिबोध के श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित ये दो भेद हैं / श्रुतनिश्रित के अवग्रह आदि चार भेद है / अश्रुतनिश्रित औत्पतिकी आदि चार बुद्धियों को माना है। इस विभाजन की यह विशेषता है कि इसमें इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों भेदों के अन्तर्गत स्वीकार किया है। ऐसा भेद उपर्युक्त दो भूमिकाओं में नहीं है। जैनेतर सभी दर्शनों ने इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है अतः जैन परम्परा में नन्दीकार ने इनको प्रत्यक्ष में समाविष्ट करके लौकिक मत का समन्वय करने का प्रयत्न किया है। आचार्य जिनभद्र ने इस समन्वय को ही लक्ष्य में रखकर स्पष्टीकरण किया है कि इन्द्रिय प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहना चाहिए। ऐदम्पर्यार्थ यही है कि इन्द्रिय ज्ञान वस्तुतः तो परोक्ष ही है किन्तु लोक व्यवहार के कारण उसको प्रत्यक्ष कहा गया है। वास्तविक प्रत्यक्ष तो अवधि मनःपर्यव और केवलज्ञान ही है। परमार्थ रूप से जो ज्ञान आत्ममात्र सापेक्ष है वही प्रत्यक्ष है / उपर्युक्त विवेचन से ये तथ्य स्पष्ट हो जाते हैं कि... 1.. अवधि मनःपर्यव और केवल ये ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। . 2. श्रुत परोक्ष ही है। 3. इन्द्रियजन्य मतिज्ञान पारमार्थिक दृष्टि से परोक्ष है और व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष है। . 4.. मनोजन्य मतिज्ञान परोक्ष ही है। ज्ञान चर्चा की स्वतन्त्रता __पंचज्ञान चर्चा के क्रमिक विकास की इन तीनों आगमिक भूमिकाओं की विशिष्टता यह है कि इनमें ज्ञान चर्चा के साथ इतर दर्शनों में प्रसिद्ध प्रमाण-चर्चा का कोई समन्वय स्थापित नहीं किया। ज्ञान को अधिकारी की अपेक्षा से सम्यक् एवं मिथ्या माना गया। इस सम्यक् एवं मिथ्या विशेषण रूप ज्ञान के द्वारा ही आगमिक युग में प्रमाण एवं अप्रमाण के प्रयोजन को सिद्ध किया गया / आगम युग में प्रमाण अप्रमाण ऐसे विशेषण नहीं दिये गये हैं। किन्त प्रथम तीन मति, श्रुत, अवधि को ज्ञाता की अपेक्षा मिथ्या तथा सम्यक स्वीकार किया है तथा अन्तिम दो को सम्यक् ही माना है। अतः ज्ञान को साक्षात् प्रमाण न कहकर भी भिन्न प्रकार से उस प्रयोजन को निष्पादित कर लिया है। ज्ञानविचार विकास - जैन परम्परा में ज्ञान सम्बन्धी विचारों का विकास दो अलग-अलग दिशाओं से हुआ है / 1. स्वदर्शनाभ्यास और 2. दर्शनान्तराभ्यास / स्वदर्शन अभ्यासजनित ज्ञान Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 / आर्हती-दृष्टि विचार विकास के अन्तर्गत दर्शनान्तरीय परिभाषाओं को अपनाने का प्रयत्न नहीं देखा जाता तथा परमतखण्डन इत्यादि न्यायशास्त्र प्रसिद्ध तत्त्वों का उल्लेख प्राप्त नहीं है। दर्शनान्तर अभ्यास क्रम में ज्ञान विकास में दर्शनान्तरीय परिभाषाओं को आत्मसात् करने का प्रयत्न है तथा परमत खण्डन के साथ-साथ कभी-कभी जल्पकथा का भी अवलम्बन देखा जाता है। ज्ञान सम्बन्धी जैन विचार विकास का जब हम अध्ययन करते हैं तब उसकी अनेक ऐतिहासिक भूमिकाएं जैन साहित्य में उपलब्ध होती है। ज्ञान-विचार विकास को हम कुछ भूमिकाओं में विभक्त कर अवलोकन करें तो यह तथ्य स्पष्ट रूप से बुद्धि गम्य हो जाता है। आगम युग से लेकर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण तक ज्ञान विकास की भूमिकाओं को छह भागों में विभक्त कर सकते हैं। सातवीं उनके उत्तरवर्ती आचार्यों की हो सकती है। 1. कर्मशास्त्रीय तथा आगमिक युग 2. नियुक्तिगत 3. अनुयोगगत 4. तत्त्वार्थगत 5. सिद्धसेनीय 6. जिनभद्रीय एवं 7. उत्तरवर्ती आचार्य परम्परा कर्मशास्त्रीय तथा आगमिक युग कर्मशास्त्रीय तथा आगमिक भूमिका में मति या अभिनिबोध आदि पाँच ज्ञानों के नाम मिलते हैं तथा इन्हीं नामों के आस-पास से स्वदर्शन अभ्यास जनित ज्ञान के भेदों प्रभेदों का विचार दृष्टिगोचर होता है। नियुक्तिगत ज्ञानमीमांसा नियुक्तियों को आगमों की प्रथम व्याख्या माना गया है। नियुक्ति का वह भाग जो विक्रम की दूसरी शताब्दी का माना जाता है उसमें पंचविधज्ञान की चर्चा है तथा नियुक्ति में मति और अभिनिबोध शब्द के अतिरिक्त संज्ञा, स्मृति आदि पर्यायवाची शब्दों की वृद्धि देखी जाती है तथा उसमें ज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ये दो विभाग भी उपलब्ध है / यह वर्गीकरण न्यूनाधिक रूप से दर्शनान्तर के अभ्यास का सूचक है। अनुयोगगत अनुयोगद्वार सूत्र जिसको विक्रम की दूसरी शताब्दी का माना जाता है। उसमें Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनज्ञानमीमांसा का विकास / 259 अक्षपादीय न्यायसूत्र के चार प्रमाणों का तथा उसी के अनुमान सम्बन्धी भेद-प्रभेदों का संग्रह है जो दर्शनान्तरीय अभ्यास का असंदिग्ध प्रमाण है आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वार में पंचविध ज्ञान को सम्मुख रखते हुए भी न्याय दर्शन के प्रसिद्ध प्रमाण विभाग को तथा उसकी परिभाषाओं को जैन विचार क्षेत्र में लाने का सर्वप्रथम प्रयत्न किया है। अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में ही ज्ञान के पाँच भेद बताये गये हैं। ज्ञान प्रमाण के विवेचन के प्रसंग में ही अनुयोगद्वार के कर्ता पंचज्ञान को ज्ञान प्रमाण के भेदरूप में बता देते किन्तु ऐसे न करके उन्होंने नैयायिकों में प्रसिद्ध चार प्रमाणों को ही ज्ञान प्रमाण के भेद रूप में सूचित किया है। तत्त्वार्थगत ___ज्ञान विकास की चतुर्थ भूमिका तत्त्वार्थ सूत्र एवं उसके स्वोपज्ञ भाष्य में उपलब्ध है। यह विक्रम की तीसरी शताब्दी की कृति है / वाचक ने नियुक्ति प्रतिपादित प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रमाण का उल्लेख किया है तथा अनुयोगद्वार में स्वीकृत न्यायदर्शनीय चतुर्विध प्रमाण विभाग की ओर उदासीनता व्यक्त की है। वाचक के इस विचार का यह प्रभाव पड़ा कि उनके उत्तरवर्ती किसी भी तार्किक ने चतुर्विध प्रमाण को कोई स्थान नहीं दिया यद्यपि आर्यरक्षितसूरि जैसे प्रतिष्ठित अनुयोगधर के द्वारा एक बार जैन श्रुत में स्थान पाने के कारण न्यायदर्शनीय चतुर्विध प्रमाण भगवती आदि परम प्रमाणभूत .माने जाने वाले आगमों में हमेशा के लिए संगृहीत हो गया। वाचक ने मीमांसा आदि दर्शनान्तर में प्रसिद्ध अनुमान, अर्थापत्ति आदि प्रमाणों का समावेश भी मति श्रुत में किया है। ऐसा प्रयल वाचक से पूर्व किसी के द्वारा नहीं हुआ है। सिद्धसेनीय ज्ञान विचारणा सिद्धसेन दिवाकर दार्शनिक तार्किक जगत् के देदीप्यमान उज्ज्वल नक्षत्र है। उन्होंने अपनी तार्किक प्रतिभा के द्वारा ज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न विचारणीय मुद्दों को प्रस्तुत किया है। ये विक्रम की पाँचवीं शताब्दी के विद्वान् माने जाते हैं / ज्ञान विचारणा के क्षेत्र में उन्होंने अपूर्व बातें प्रस्तुत की। जैन परम्परा में उनसे पूर्व किसी ने शायद ऐसा सोचा भी नहीं होगा। दिवाकर श्री के ज्ञान मीमांसा के मुख्य मुद्दों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है। 1. मति एवं श्रुतज्ञान का वास्तविक ऐक्य / इनके अनुसार मति एवं श्रुतज्ञान .. अलग-अलग नहीं है / इन्हें दो पृथक् ज्ञान स्वीकार करने की कोई अपेक्षा नहीं है। .. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 / आहती-दृष्टि 2. अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान में तत्त्वतःअभेद है / दिवाकरजी के अनुसार इन दो ज्ञानों को पृथक् स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है। एक ज्ञान के स्वीकार से भी प्रयोजन सिद्धि हो जाती है। 3. जैन परम्परा में मान्य केवलज्ञान एवं केवलदर्शन रूप उपयोग को इन्होंने पृथक् स्वीकृति नहीं दी तथा उनके अभेद समर्थन में अपनी महत्त्वपूर्ण तार्किक युक्तियों को प्रस्तुत किया। 4. सिद्धसेन दिवाकर ने श्रद्धान रूप दर्शन एवं ज्ञान में अभेद को भी स्वीकार किया है। इन चार नवीन मुद्दों को प्रस्तुत करके सिद्धसेन दिवाकर ने ज्ञान के भेद प्रभेद की प्राचीन रेखा पर तार्किक विचार कर नया प्रकाश डाला है। इन नवीन विचारों पर जैन परम्परा में काफी ऊहापोह हुआ। दिवाकर श्री ने इन चार मुद्दों पर अपने स्वोपज्ञ विचार सन्मति तर्क प्रकरण एवं निश्चयद्वात्रिंशिका में व्यक्त किए हैं। न्यायावतार की रचना करके प्रमाण के क्षेत्र में भी अभिनव उपक्रम प्रस्तुत किया है। जिनभद्रीय ज्ञान मीमांसा आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ज्ञान विचार विकास के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। आगम परम्परा से लेकर उनके समय तक ज्ञान मीमांसा का जो स्वरूप उपलब्ध था उसी का आश्रय लेकर क्षमाश्रमण जी ने अपने विशालकाय ग्रन्थ, विशेषावश्यकभाष्य में ज्ञान की विशद मीमांसा की है। विशेषावश्यकभाष्य में ज्ञान पञ्चक की ही 840 गाथाएं हैं। इस भाष्य में जिनभद्रगणि ने पंचविध ज्ञान की आगम आश्रित तर्कानुसारिणी सांगोपांग चर्चा प्रस्तुत की है। क्षमाश्रमणजी की इस विकास भूमिका को तर्क उपजीवी आगम भूमिका कहना अधिक युक्तिसंगत है। उनका पूरा तर्क बल आगम सीमा में आबद्ध देखा जाता है, विशेषावश्यकभाष्य में ज्ञान से सम्बन्धित सामग्री अत्यन्त व्यवस्थित रूप से गुम्फित कर दी है, जो सभी श्वेताम्बर ग्रन्थ प्रणेताओं के लिए आधारभूत बनी हुई है। जिनभद्र से उत्तरवर्ती आचार्यों की ज्ञान मीमांसा ___श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के उत्तरवर्ती कुछ विशिष्ट आचार्यों का योगदान ज्ञान के क्षेत्र में रहा है / आचार्य अकलंक विद्यानन्दी, हेमचन्द्र और उपाध्याय यशोविजयजी उनमें प्रमुख हैं / ज्ञान विचार के विकास क्षेत्र में भट्ट अकलंक का-प्रयल बहुमुखी है। ज्ञान सम्बन्धी उनके तीन प्रयत्न विशेष उल्लेखनीय हैं / प्रथम तत्त्वार्थसूत्रानुसारी तथा दूसरा सिद्धसेन दिवाकर के न्यायावतार सूत्र का प्रतिबिम्बग्राही कहा जा सकता है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. जैनज्ञानमीमांसा का विकास / 261 तीसरा प्रयत्न लघीयत्रयी और विशेषतः प्रमाण संग्रह में है, वह उनकी अपनी महत्त्वपूर्ण चिन्तना है। उनके अष्टसहस्री, आदि ग्रन्थों में भी ज्ञान एवं प्रमाण सम्बन्धी विशद चर्चा उपलब्ध है / उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञान बिन्दु प्रकरण में सम्पूर्ण अद्यप्रभृति ज्ञान मीमांसा का सार तत्त्व प्रस्तुत कर दिया। नयदृष्टि से अनेकों विचारणीय मुद्दों का समाधान भी उपाध्याय जी के ग्रन्थों में परिलक्षित है / इसके अतिरिक्त ज्ञान सम्बन्धी अनेक नए विचार भी ज्ञान बिन्दु में सन्निविष्ट है जो उनके पूर्व के ग्रन्थों में प्राप्त नहीं है। जैसे अवग्रह आदि की तुलना न्याय आदि दर्शनों में आगत कारणांश, व्यापारांश आदि से की है। ज्ञान मीमांसा के परिवर्धन, परिशोधन में अनेक आचार्यों का योगदान रहा है। विशेष बात यह है कि ज्ञान के आगमिक मौलिक स्वरूप एवं भेद आदि का कहीं भी अतिक्रमण नहीं हुआ है। जैन आगमों में प्रमाण चर्चा ज्ञानमीमांसा का उद्भव, विकास जैन परम्परा में स्वदर्शन के अभ्यास से हुआ। आगमिक उल्लेख से यह तथ्य स्पष्ट है कि ज्ञान के साथ में प्रमाण को सम्मिश्रित नहीं किया गया। यद्यपि ऐसा तो नहीं कहा जा सकता जैन आचार्य अपने परिपार्श्व में होने वाली प्रमाण चर्चा से अनभिज्ञ थे किन्तु इतना तो निश्चित है प्रमाण के क्षेत्र में उनका आगमन देरी से हुआ। अन्य जैनेतर परम्पराओं में जब प्रमाण का स्वरूप स्थिर एवं निश्चित हो गया तो जैन तार्किकों के समक्ष भी प्रमाण सम्बन्धी समस्या का उद्भव हुआ कि जैन परम्परा में प्रमाण किसको माना जाये / इस समस्या के समाधान में ज्ञान ने ही प्रमाण का रूप धारण कर लिया आचार्य आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वार में प्रमाण की सर्वप्रथम चर्चा की है। वहाँ पर उन्होंने प्रमाणों को ज्ञानगुण प्रमाण के भेद के रूप में ही व्याख्यायित किया है / अन्य दार्शनिक प्रत्यक्ष आदि जिन चार प्रमाणों को मानते थे। आर्य रक्षित ने स्पष्ट किया ये प्रमाण ज्ञानात्मक है। इस विवेचन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा में अज्ञान रूप इन्द्रिय सन्निकर्ष, कारक साकल्य, इन्द्रियवृत्ति आदि प्रमाण नहीं हो सकते। सिद्धसेन से लेकर सभी जैन दार्शनिकों ने प्रमाण के लक्षण में ज्ञानपद को अवश्यमेव स्थान दिया है। जैन आगमों में प्रमाणचर्चा, ज्ञानचर्चा से स्वतन्त्र रूप से प्राप्त है / यद्यपि आगमों में प्रमाण चर्चा के प्रसंग में नैयायिक आदि सम्मत चार प्रमाणों का उल्लेख आता है। कहीं-कहीं तीन प्रमाणों का भी उल्लेख है / भगवती सूत्र में गौतम गणधर और भगवान् महावीर के संवाद में भी प्रमाणचर्चा का अवतरण हुआ है। इससे सम्भव लगता है कि शास्त्रकार स्वसम्मत ज्ञान की तरह प्रमाण को भी ज्ञप्ति में स्वतन्त्र साधन मानते Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 / आर्हती-दृष्टि थे। स्थानांग सूत्र में प्रमाण शब्द के स्थान में हेतु शब्द का प्रयोग भी मिलता है। इतनी चर्चा से स्पष्ट है कि जैन शास्त्रकारों ने आगम काल में जैन दृष्टि से प्रमाण विभाग में स्वतन्त्र विचार नहीं किया है किन्तु इस काल में प्रसिद्ध अन्य दार्शनिकों के विचारों का संग्रह मात्र उनमें परिलक्षित है। यद्यपि उमास्वाति तक आते-आते जैन प्रमाण परम्परा का पृथक् स्वरूप प्रतिपादित हो जाता है। तत्पश्चात्वी आचार्यों के ग्रन्थों में प्रमाणचर्चा प्रमुख विचारणीय विषय रहा है। . जैन दर्शन में पदार्थ ज्ञप्ति में नयवाद का मौलिक स्थान है। आगम साहित्य में अनेक बार द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय के द्वारा तत्त्व की विवेचना हुई है / गौतम भगवान् से जिज्ञासा करते हैं-भंते ! जीव शाश्वत है या अशाश्वत? भगवान् गौतम को सम्बोधित करते हुए कहते हैं—गौतम ! द्रव्य अपेक्षा जीव शाश्वत है तथा भाव (पर्याय) की अपेक्षा अशाश्वत है / जैन दर्शन के अनुसार वस्तु अनन्तधर्मात्मक है तथा उसको ही प्रमाण का विषय भी स्वीकार किया गया है / वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता का साक्षात् तो मात्र केवल ज्ञान रूप क्षायिक ज्ञान से ही हो सकता है। छद्मस्थ के ज्ञान को भी आगम एवं दर्शन दोनों परम्परा में सम्यक् माना गया है। ऐसी स्थिति से स्याद्वाद, सप्तभंगी आदि के द्वारा ज्ञेय व्यवस्था स्थापित की गयी है / दर्शन जगत् में जब प्रमाण की चर्चा होने लगी तब सम्भव लगता है कि जैन दार्शनिकों को भी प्रमाण के क्षेत्र में अवतरित होना पड़ा। प्रमाण की स्वीकृति करने पर भी नय को विस्मृत नहीं किया गया अपितु कहना चाहिए नय व्यवस्था को नवीनीकरण के साथ प्रस्तुत किया गया। नय के प्रमाण व अप्रमाणत्व के सन्दर्भ में भी चिन्तन किया गया। नय को प्रमाणांश स्वीकार किया गया। किन्तु यह स्पष्ट है ज्ञेय-ज्ञप्ति में नय व्यवस्था जैनों की प्राचीन एवं मौलिक है तथा प्रमाण व्यवस्था परिस्थिति सापेक्ष उद्भूत हुई है। विद्वानों का मन्तव्य है कि जैन विचार सरणी में ज्ञान की प्रमुखता से स्वीकृति है किन्तु तत्कालीन प्रमाण परिचर्चा के वातावरण ने जैन विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया, फलस्वरूप कुछ नये प्रस्थानों का विकास हुआ। आचार्य उमास्वाति ने सर्वप्रथम स्वतन्त्र जैन प्रमाण की चर्चा की। ज्ञान ही प्रमाण रूप में परिणत हो गया। तत्पश्चात् ज्ञान और प्रमाण की परम्परा निरन्तर विकसित होती गयी। आचार्य उमास्वाति ने ज्ञेय पदार्थ के अवबोध के सन्दर्भ में प्रचलित नय व्यवस्था को विस्मृत नहीं किया, अपितु पदार्थ अधिगम के साधन रूप में प्रमाण एवं नय दोनों को स्वीकार किया। __ आगम युग तक जैन साहित्य में ज्ञान मीमांसा का ही प्राधान्य रहा। प्रमाण का प्रवेश दर्शन युग में हुआ है। उसका प्रवेश करवाने वालों में दो, प्रमुख आचार्य Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनज्ञानमीमांसा का विकास / 263 . हैं—आर्यरक्षित और उमास्वाति / आर्यरक्षित ने अनुयोग का प्रारम्भ पंचविध ज्ञान के सूत्र से किया है। उन्होंने प्रमाण की चर्चा ज्ञान गुण प्रमाण के अन्तर्गत की है। इसका निष्कर्ष है कि प्रमाणमीमांसा का मौलिक आधार ज्ञानमीमांसा ही है / उमास्वाति ने पहले पाँच ज्ञान की चर्चा की है फिर ज्ञान प्रमाण है इस सूत्र की रचना की है। यह निर्विवाद सत्य है कि ज्ञान मीमांसा का जितना विशद निरूपण जैन दर्शन में हुआ है उतना अन्य दर्शनों में नहीं हुआ। नन्दी, विशेषावश्यकभाष्य, आवश्यक नियुक्ति, षट्खण्डागम, कषायपाहुड, ज्ञानबिन्दुप्रकरण आदि ग्रन्थों में जैन ज्ञानमीमांसा का विशद निरूपण हुआ है। जैन ज्ञानमीमांसा में ज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ये दो विभाग प्रचलित है। ये विभाग उत्तरकालीन है। प्राचीन काल में ज्ञान के पाँच प्रकार ही किये गये हैं। उनका प्रत्यक्ष, परोक्ष जैसा कोई विभाग नहीं है। प्रमाण के साथ प्रत्यक्ष का प्रयोग प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में मिलता है। परोक्ष शब्द का प्रयोग जैन ज्ञान मीमांसा अथवा जैन प्रमाण मीमांसा के अतिरिक्त किसी अन्य दर्शन में नहीं मिलता है। ज्ञानमीमांसा के सन्दर्भ में 'परोक्ष' शब्द का प्रयोग जैन आगम युग की विशिष्ट देन है। . ___ आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों ज्ञेय को साक्षात् नहीं जानते इसलिए इन्हें परोक्ष माना गया है। दार्शनिक युग प्रमाण मीमांसा के युग में परोक्ष शब्द का प्रयोग अस्पष्ट ज्ञान के अर्थ में हुआ है। आंगम युग में प्रयुक्त परोक्ष के अर्थ का दार्शनिक युग में विस्तार हुआ है। संदर्भ 1. ज्ञानबिन्दु प्रकरण ( भूमिका) 2. आगमयुग का जैनदर्शन . Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान ज्ञान का क्षेत्र बहुत व्यापक है / उससे मूर्त एवं अमूर्त दोनों प्रकार के तत्त्व जाने जाते हैं। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों प्रकार के विषयों का अवबोध ज्ञान के द्वारा होता है। जैन दर्शन में मति आदि पांच ज्ञान प्रसिद्ध हैं। उनमें केवलज्ञान को छोड़कर शेष चार ज्ञान मात्र मूर्त द्रव्यों के ही ग्राहक हैं / केवलज्ञान मूर्त-अमूर्त सभी विषयों का ज्ञाता है। प्रथम चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं, उनमें ज्ञानावरण कर्म का आवरण सर्वथा क्षीण नहीं होता। केवलज्ञान क्षायिक है / वही आत्मा का विशुद्ध रूप है। ज्ञान, दर्शन और आचार इस त्रिपदी में ज्ञान का स्थान प्रथम है किन्तु सम्यक् शब्द का योग होते ही ज्ञान का स्थान दूसरा एवं श्रद्धा का स्थान प्रथम हो जाता है। ज्ञान और दर्शन एक ही सिक्के के दो पहल हैं। ___ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है / ज्ञान के अभाव में आत्मा की कल्पना नहीं की जा सकती। आचारांग में तो ज्ञान एवं आत्मा के अद्वैत को स्थापित किया है।' व्यवहार नय के आधार पर आत्मा और ज्ञान का भेद है एवं निश्चय नय से आत्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं है। न्याय वैशेषिक दर्शन ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक गुण मानता है किन्तु जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का मौलिक गुण मानता है / संसारी अवस्था में आत्मा का ज्ञान ज्ञानावरण कर्म से आवृत्त रहता है। अनावृत्त ज्ञान एक हैकेवलज्ञान / आवृत्त-दशा में उसके चार विभाग होते हैं / आवृत्त-अनावृत्त दोनों प्रकार के ज्ञानों को मिलाने से ज्ञान के पांच प्रकार हो जाते हैं—मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव एवं केवल / मति एवं श्रुत ये दो ज्ञान न्यूनतम रूप से सभी जीवों के होते हैं। मतिज्ञान ____पांच ज्ञानों में यह प्रथम ज्ञान है / आगम में मतिज्ञान को आभिनिबोधिक ज्ञान कहा गया है। कर्म सिद्धान्त में जब ज्ञानावरणीय कर्म के पांच भेद आते हैं तब मतिज्ञानावरण का प्रयोग होता है। किन्तु पंच ज्ञान विभाग में प्रायः आगम में मति के स्थान पर आभिनिबोधिक ज्ञान इस शब्द का प्रयोग मिलता है। विशेषावश्यक भाष्य में भी ज्ञान प्रभेद में आभिनिबोधिक शब्द का प्रयोग हुआ है। विद्वान् मति शब्द को प्राचीन एवं आभिनिबोधिक प्रयोग को अर्वाचीन मानते हैं। इन्द्रिय एवं मन की Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 265 सहायता से उत्पन्न होनेवाला यह मतिज्ञान परोक्ष ज्ञान के अन्तर्गत है / यद्यपि अनुयोगद्वार एवं नन्दी सूत्र में इन्द्रियज ज्ञान को इन्द्रिय प्रत्यक्ष स्वीकार किया है। तथा विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता ने उस इन्द्रिय प्रत्यक्ष को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष ही माना है।" परमार्थतः तो वह परोक्ष ही है। विशेष द्रष्टव्य बिन्दु यह कि जिनभद्रगणि ने इन्द्रिय के साथ मन से उत्पन्न को भी संव्यवहार प्रत्यक्ष में स्वीकार किया है जबकि नन्दी आदि सूत्रों में मन का ग्रहण नहीं है, मात्र पांच इन्द्रियों का ही ग्रहण है। मन से उत्पन्न ज्ञान को परोक्ष ही माना है। वाचक उमास्वाति ने इन्द्रिय प्रत्यक्ष भेद को ही स्वीकृति नहीं दी। इन्द्रियज को परोक्ष ज्ञान ही माना है / यह स्पष्ट है कि इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष स्वीकार करना लौकिक परम्परा का अनुसरण है। आगमिक परम्परा में सभी जैन चिन्तकों ने उसे परोक्ष ही माना है। ___आभिनिबोधिक ज्ञान को परिभाषित करते हुए विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है-अर्थाभिमुख नियत बोध को अभिनिबोध माना गया है तथा अभिनिबोध ही आभिनिबोधिक ज्ञान है। अर्थग्रहण करने में प्रवण को अर्थाभिमुख एवं निश्चित अवबोध को नियत बोध कहा जाता है / जैसे रस आदि का अपोह करके यह रूप ही है ऐसा अवधारणात्मक अर्थाभिमुख ज्ञान ही आभिनिबोधिक ज्ञान है।" भद्रबाहुकृत् आवश्यक नियुक्ति एवं नन्दी सूत्र में आभिनिबोधिक ज्ञान के एक जैसे पर्यायवाची नाम प्राप्त हैं / " वहां पर ईहा, अपोह, वीमंसा, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति एवं प्रज्ञा इन सबको आभिनिबोधिक कहा गया है। विशेषावश्यक में नियुक्ति का यही श्लोक उद्धृत है।" तत्त्वार्थसूत्रकार ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता एवं अभिनिबोध को एकार्थक माना है। आचार्य अकलंक कुछ अतिरिक्त पर्याय शब्दों को और जोड़ देते हैं जैसे—प्रतिभा, बुद्धि, उपलब्धि आदि / आचार्य उमास्वाति ने प्रथम बार मतिज्ञान की परिभाषा तत्त्वार्थ सूत्र में दी। इससे पूर्व मति के पर्यायवाची नाम मिलते हैं किन्तु परिभाषा उपलब्ध नहीं है / इन्द्रिय एवं मन से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान मतिज्ञान है। उमास्वाति ने अपने स्वोपज्ञ भाष्य में मतिज्ञान को दो प्रकार का बतलाया है—१. पांच इन्द्रियों से स्पर्श आदि विषयों में होनेवाला तथा 2. मनोवृत्ति एवं ओघज्ञान को अनिन्द्रिय माना है। सिद्धसेनगणि ने इन्द्रिय एवं मन दोनों की संयुक्त क्रिया से भी मतिज्ञान ( माना है / यह निमित्त की अपेक्षा से मतिज्ञान के भेद हैं / सर्वांगीण दृष्टि से अवलोकन करने पर मतिज्ञान के चार प्रकार हो जाते हैं-१. मात्र इन्द्रिय से उत्पन्न, 2. केवल मन से, 3. इन्द्रिय एवं मन दोनों से, तथा 4. इन्द्रिय एवं मन दोनों की सहायता के बिना उत्पन्न / प्रथम तीन के अवग्रह आदि भेद होंगे। चतुर्थ के औत्पत्तिकी आदि चार Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 / आर्हती-दृष्टि बुद्धियां / चार बुद्धियों की उत्पत्ति में मन एवं इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं है / यह प्रातिभज्ञान मतिज्ञान के भेद-प्रभेद आगमों में मतिज्ञान को अवग्रह आदि चार भेदों में या श्रुतनिश्रित आदि दो भेदों में विभक्त किया है तदनन्तर उनके प्रभेद प्राप्त हैं / वाचक ने स्थानांग और नन्दी सूत्र में प्राप्त श्रुत-निश्रित एवं अश्रुत-निश्रित"ये भेद नहीं किये हैं तथा दिगम्बर परम्परा में भी ये भेद उपलब्ध नहीं होते। इससे स्पष्ट होता है कि मति के ये भेद प्राचीन नहीं है। उमास्वाति ने अवग्रह के बहु-बहुविध आदि भेद किए हैं जो नन्दी आदि में नहीं है तथा स्थानांग में बहु आदि का परिगणन क्रम भेद से है। जबकि तत्त्वार्थ में बहु-बहुविध आदि के प्रतिपक्षी भेदों का भी संग्रहण है। विशेषावश्यकभाष्य में मति के आगम में आगत श्रुत-निश्रित, अश्रुत-निश्रित तथा तत्त्वार्थगत बहु-बहुविध आदि भेदों का भी उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि भाष्यकाल तक पहुंचते-पहुंचते मतिज्ञान के ये दोनों प्रकार के भेद प्रतिष्ठित हो गये थे अतः क्षमाश्रमण जी ने दोनों . परम्पराओं का उल्लेख अपने भाष्य में कर दिया है। , . - मतिज्ञान के मौलिक भेदों का कथन वाचक ने उत्पत्ति के निमित्त के आधार पर किया है।२६ .. मतिज्ञान के दो भेद-इन्द्रिय निमित्त, अनिन्द्रिय निमित्त विशेषावश्यक में भी इन्द्रिय और मन को मति की उत्पत्ति में कारण माना है।" अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा–ये मति के चार भेद हैं। विशेषावश्यक में मति के श्रुत-निश्रित एवं अश्रुतनिश्रित भेद करके उनके अवग्रह आदि चार-चार भेद किये हैं। इन्द्रिय निमित्त मतिज्ञान के चौबीस भेद होते हैं 1. स्पर्शनेन्द्रिय के 5 + व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा आदि 2. रसनेन्द्रिय के 5 + व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा आदि 3. घाणेन्द्रिय के 5 + व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा आदि 4. श्रोत्रेन्द्रिय के 5 + व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा आदि 5. चक्षुरिन्द्रिय के 4 = 24 / अनिन्द्रिय (मन) के 4 + = 28 / चक्षु एवं मन ये दो अप्राप्यकारी हैं, अतः इनके व्यंजनावग्रह नहीं हैं। चार इन्द्रियां ही प्राप्यकारी मतिज्ञान के इन अठाईस भेदों से बहुविध क्षिप्र, अनिश्चित, असंदिग्ध एवं ध्रुव इन छः भेदों से गुणित करने पर (28 46) = 128 / भेद होते हैं तथा इन छः के Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 267 ही प्रतिपक्षी अल्प-अल्पविध आदि छह और भेद होने से बारह हो जाते हैं / अट्ठाईस को बारह से गुणित करने पर मतिज्ञान के 336 (तीन सौ छत्तीस) भेद हो जाते हैं।" नन्दीकार मतिज्ञान के श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित दो भेद करते हैं / फिर भी मतिज्ञान को अट्ठाईस भेदवाला ही बताया है। इससे यह प्रकट होता है कि औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियों को मति में समाविष्ट करने के लिए उसके दो भेद तो किये परन्तु प्राचीन परम्परा में उसका स्थान न होने से मति भी 28 भेदवाला ही स्वीकार किया। अन्यथा चार बुद्धियों को मिलाने से तो मति के 32 भेद हो जाते / मति के 28 भेदवाली परम्परा सर्वमान्य है, किन्तु 28 भेदों की स्वरूप रचना में दो परम्पराएं मिलती हैं। एक परम्परा अवग्रह अभेदवादियों की है / इसमें व्यंजनावग्रह की अर्थावग्रह से भिन्न गणना नहीं होती, इसलिए श्रुतनिश्रित मति के 24 भेद और अश्रुत निश्रित के ४–इस प्रकार मति के 28 भेद हो जाते हैं। दूसरी परम्परा जिन भद्रगणि क्षमाश्रमण की है। इसके अनुसार अवग्रह आदि चतुष्ट्य अश्रुतनिश्रित और श्रुतनिश्रित मति के सामान्य धर्म हैं इसलिए भेद गणना में दोनों का समाहार हो जाता है। मतिज्ञान के 28 भेद सिद्ध हो जाते हैं। अवग्रहादि चतुष्ट्य का विश्लेषण अवग्रह लौकिक प्रत्यक्ष, आत्म प्रत्यक्ष की भांति समर्थ प्रत्यक्ष नहीं होता। इसलिए इसमें क्रमिक ज्ञान होता है / इस क्रम में सर्वप्रथम अवग्रह आता है / इन्द्रिय और पदार्थ का योग होने पर दर्शन के पश्चात होनेवाला सामान्य ग्रहण अवग्रह कहलाता है।" इन्द्रिय एवं अर्थ का उचित देश आदि में अवस्थानात्मक सम्बन्ध होने पर विशेष के उल्लेख से रहित सत्ता मात्र का ज्ञान दर्शन कहलाता है / दर्शन के पश्चात् अनिर्देश्य सामान्य वस्तु का ग्रहण अवग्रह कहलाता है। नियुक्तिकार ने रूप आदि पदार्थ के ग्रहण को अवग्रह कहा है। भाष्यकार अवग्रह को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जिसमें सम्पूर्ण विशेष अन्तर्निहित है तथा जिसका किसी प्रकार से निर्देश नहीं किया जा सकता, वह सामान्यग्राही अवग्रह कहलाता है। नन्दी सूत्र में अवग्रह के पर्यायवाची का उल्लेख है। अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलम्बनता तथा मेधा ये नन्दी में आगत अवग्रह के पर्यायवाची है।"तत्त्वार्थ सूत्र में अवग्रह, ग्रह, ग्रहण, आलोचन एवं अवधारण ये अवग्रह के एकार्थक हैं / " अवग्रह दो प्रकार का है—व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह।" अर्थावग्रह का पूर्ववर्ती ज्ञान व्यापार, जो इन्द्रिय और अर्थ के संयोग से उत्पन्न होता Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 / आर्हती-दृष्टि है। वह व्यंजनावग्रह है / यह अव्यक्त परिच्छेद है। जिसके द्वारा अर्थ प्रकट होता है। जैसे दीपक के द्वारा घट वह व्यंजन है तथा उपकरण इन्द्रिय एवं शब्द आदि रूप परिणत द्रव्य के सम्बन्ध को भी व्यंजन कहा जाता है। नन्दी सूत्र में मल्लक (सिकोरा) एवं सुप्त व्यक्ति के दृष्टान्त से व्यंजनावग्रह है एवं अर्थावग्रह को स्पष्ट किया गया है। अर्थावग्रह एक सामयिक है। व्यंजनाग्रह असंख्य सामयिक है / "व्यंजनावग्रह काल में भी ज्ञान होता है किन्तु वह सूक्ष्म और अव्यक्त होने से उपलब्ध नहीं होता। विशेषावश्यक भाष्य में व्यंजनावग्रह के स्वरूप का विस्तार से वर्णन करने के पश्चात् अर्थावग्रह का विवेचन किया गया है। अर्थावग्रह को नैश्चयिक एवं व्यावहारिक बताया गया है तथा उसके विषय, समय आदि का भी विस्तृत विवेचन हुआ है। ईहा ___ अवग्रह के द्वारा ज्ञात अर्थ को विशेष रूप से जानने की इच्छा ईहा है। अवग्रह के बाद संशय ज्ञान होता है। यह क्या है—शब्द या स्पर्श? इसके अनन्तर ही जो सत् अर्थ का साधक वितर्क उठता है यह श्रोत्र का विषय है ‘इसलिए शब्द होना चाहिए' 'शब्देन भाव्यम्' / अवग्रह के द्वारा ज्ञात पदार्थ के स्वरूप का निश्चय करने के लिए विमर्श करनेवाला ज्ञान क्रम ईहा है।" इसकी विमर्श पद्धति अन्वय-व्यतिरेक पूर्वक होती है। ज्ञात वस्तु के प्रतिकूल तथ्यों का निरसन और अनुकूल तथ्यों का संकलन कर ईहा उसके स्वरूप निर्णय की परम्परा को आगे बढ़ाती है। अवग्रह में अर्थ के सामान्य रूप का ग्रहण होता है और ईहा में उसके विशेष धर्मों का पर्यालोचन शुरू हो जाता है। आभोगणता, मार्गणता, गवेषणता, चिन्ता एवं विमर्श ये ईहा के एकार्थक नन्दी में उपलब्ध हैं।" उमास्वाति ने ईहा, ऊह, तर्क, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा को एकार्थक माना है। ईहा का कालमान अन्तर्मुहूर्त है।" अवाय ईहित अर्थ का विशेष निर्णय अवाय है। अवाय की स्थिति में ज्ञान निणींत हो जाता है / मधुर स्निग्ध आदि गुणों से युक्त होने के कारण यह शंख का ही शब्द है, शृंग का शब्द नहीं है / इस प्रकार का विशेष ज्ञान अवाय है / 'ववसायं च अवार्य' यह नियुक्ति का कथन है / नन्दी में आवर्तनता, प्रत्यावर्तनता, अवाय, बुद्धि, विज्ञान ये अवाय के एकार्थक बताये हैं।" तत्त्वार्थ भाष्य में अवाय के लिए अपगम, अपनोद, अपव्याध, अपेत, अपगत, अपविद्ध, अपनुत, शब्दों का प्रयोग हुआ है।" अवाय के लिए अपाय शब्द भी विशेष प्रचलित है / अपाय निषेधात्मक है, अवाय विधेयात्मक Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 269 है / अवाय का कालमान भी अन्तर्मुहूर्त है / एक वस्तु के ज्ञान में अविशेषित सामान्य का ज्ञान करानेवाला नैश्चयिक अवग्रह है तथा अवाय के द्वारा एक तथ्य का निश्चय होने के पश्चात् फिर तत्सम्बन्धी दूसरे तथ्य की जिज्ञासा होती है, तब पहले का अवाय व्यावहारिक अर्थावग्रह बन जाता है। यह क्रम जब तक जिज्ञासाएं शान्त नहीं होती तब तक चलता रहता है। धारणा अवाय में जो निश्चित ज्ञान होता है, उसकी अवस्थिति धारणा है। धारणा को स्मृति का हेतु कहा गया है। विशेषावश्यक भाष्य में धारणा को त्रिभेदात्मक कहा है। धारणाकाल में जो सतत उपयोग चलता है, उसे अविच्युति कहा जाता है। उपयोगान्तर होने पर धारणा वासना के रूप में परिवर्तित हो जाती है। यही वासना कारण विशेष से उबुद्ध होकर स्मृति बन जाती है।" नन्दी सूत्र में धारणा के लिए धरणा, धारणा, स्थापना, प्रतिष्ठा, कोष्ठा इन शब्दों का प्रयोग हुआ है।" उमास्वाति ने प्रतिपत्ति, अवधारणा, अवस्थान, निश्चय, अवगम एवं अवबोध शब्द को धारणा का पर्यायवाची माना है। धारणा संख्येय एवं असंख्येय काल तक रह सकती है। अवग्रह आदि का क्रम विभाग ___ अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा का न उत्क्रम होता है और न व्यतिक्रम। अर्थग्रहण के बाद ही विचार हो सकता है, विचार के बाद ही निश्चय और निश्चय के बाद ही धारणा होती है। इसलिए ईहा अवग्रहपूर्वक, अवाय ईहापूर्वक और धारणा अवायपूर्वक होती है / अवग्रह आदि परस्पर भिन्न भी है और अभिन्न भी है। ये एक वस्तु विषयक ज्ञान की धारा के अविरल रूप हैं, फिर भी उनकी अपनी विशेष स्थितियां हैं जो उन्हें एक-दूसरे से पृथक् करती हैं।" (1) असामस्त्येन उत्पत्ति-एक के उत्पन्न होने पर दूसरा उत्पन्न हो ही यह आवश्यक नहीं है। ज्ञान का क्रम, अवग्रह, ईहा कहीं पर भी रुक सकता (2) अपूर्वापूर्व प्रकाश-ये एक ही वस्तु के नये-नये पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं। इससे एक बात और भी स्पष्ट होती है कि अपने-अपने विषय में इन सबकी निर्णायकता है, इसलिए ये सब प्रमाण हैं। .. (3) क्रमभावित्व-इनकी धारा अन्त तक चले, यह कोई नियम नहीं है। किन्तु जब तक चलती है तब क्रम का उल्लंघन नहीं होता है, ईहा हुई है तो Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 / आर्हती-दृष्टि यह निश्चित है उससे पूर्व अवग्रह हो चुका है। अपरिचित वस्तु के ज्ञान में इस क्रम का सहज अनुभव होता है। परिचित वस्तु को जानते समय हमें इस क्रम का स्पष्ट भान नहीं होता है, इसका कारण है ज्ञान का आशु उत्पाद / " वहां भी क्रम नहीं टूटता / अवग्रह आदि में परस्पर कार्य-कारण भाव है। पूर्व-पूर्व प्रमाण है, उत्तर-उत्तर फल है। जैसे अवग्रह प्रमाण एवं ईहा उसका फल। यह क्रम अनुमान तक क्रमशः चलता रहता है / 65 लौकिक प्रत्यक्ष ज्ञान प्रक्रिया लौकिक प्रत्यक्ष, आत्म प्रत्यक्ष की भांति समर्थ प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए इसमें क्रमिक ज्ञान होता है / वस्तु के सामान्य दर्शन से लेकर उसकी धारणा तक का क्रम इस प्रकार है * ज्ञाता और ज्ञेय वस्तु का उचित सन्निधान-व्यंजन। * वस्तु के सर्वसामान्य रूप का बोध-दर्शन / * वस्तु के व्यक्तिनिष्ठ सामान्य रूप का बोध-अवग्रह / * वस्तु स्वरूप के बारे में अनिर्णायक विकल्प-संशय / * वस्तु स्वरूप का परामर्श-वस्तु में प्राप्त और अप्राप्त धर्मों का पर्यालोचन / ईहा-निर्णय चेष्टा। * वस्तु स्वरूप का निर्णय-अवाय। * वस्तु स्वरूप की स्थिर अवगति या स्थिरीकरण-धारणा। प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया में शब्दभेद भले ही हो पर विचारभेद किसी का नहीं है। न्याय-वैशेषिक आदि वैदिक दर्शन तथा बौद्ध दार्शनिकों का यही मन्तव्य है कि जहां इन्द्रियजन्य एवं मनोजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वहां सबसे पहले विषय और इन्द्रिय का सन्निकर्ष, तत्पश्चात् निर्विकल्प ज्ञान आदि जो जैन प्रक्रिया में अवग्रह आदि का क्रम है उसी रूप से शब्दभेद से प्रत्यक्ष प्रक्रिया को प्रस्तुत किया है। प्रत्यक्ष प्रक्रिया का तुलनात्मक विवेचन जैन-जैनेतर दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में बड़ा महत्त्वपूर्ण हो सकता है। उपाध्याय यशोविजय जी ने ज्ञान बिन्दु में दर्शनान्तरीय परिभाषा के साथ अवग्रह आदि की तुलना की है। वैसी तुलना अन्य किसी जैन ग्रन्थ में प्राप्त नहीं है / न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया कारणांश, व्यापारांश, फलांश एवं परिपाकांश इन चार भेदों में विभक्त है। उपाध्यायजी ने व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह आदि पुरातन जैन परिभाषाओं को इन चार भागों में विभक्त करके यह स्पष्ट किया है कि जैनेतर दर्शन में जो प्रत्यक्ष की प्रक्रिया है वही शब्दान्तर से जैन दर्शन में है। उपाध्यायजी ने Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 271 व्यंजनावग्रह को कारणांश, अर्थावग्रह तथा ईहा को व्यापारांश, अवाय को फलांश और धारणा को परिपाकांश माना है।६७ बुद्धिचतुष्ट्य ___ मतिज्ञान के श्रुत-निश्रित एवं अश्रुत-निश्रित भेद सर्वविदित हैं / व्यवहार काल से पूर्व जो बुद्धि श्रुत परिकर्मित थी किन्तु व्यवहारकाल में जो श्रुतातीत है उसको श्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहा जाता है, जो सर्वथा श्रुतातीत है वह अश्रुत-निश्रित मतिज्ञान है।८ अवग्रह, ईहा, श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित उभयरूप हैं / स्थानांग में यह विवेचन है। नन्दी में अश्रुत निश्रित के औत्पत्तिक़ी आदि चार भेद किये गये हैं।" जिनभद्रगणि ने अवग्रह, ईहा आदि को श्रुत-निश्रित, अश्रुत-निश्रित, उभयरूप स्वीकार किया है। भाष्यकार ने औत्पत्तिकी आदि बुद्धि के भी अवग्रह, ईहा आदि स्वीकार किये हैं। मुर्गे को बिना दूसरे मुर्गे के योद्धा बनाना है। इस प्रसंग के विश्लेषण में आचार्य जिनभद्रगणि ने बुद्धियों के अवग्रह आदि को घटित किया है / " . औत्पत्तिकी. औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियां अध्ययन एवं शिक्षा से प्राप्त नहीं होती किन्तु स्वतः स्फुरित होती हैं / यह प्रकृति का उपहार है / आवश्यक नियुक्ति में औत्पत्तिकी बुद्धि को विवेचित करते हुए कहा गया जो बुद्धि पूर्व में अदृष्ट, अश्रुत वस्तु के स्वभाव को तत्काल ज्ञात कर लेती है तथा उसका वह आकलन सत्य ही होता है। नन्दी में भी नियुक्ति के इसी मत को उद्धृत किया गया है। दीपिका में भी अदृष्ट एवं अश्रुत अर्थ को ग्रहण करनेवाली को औत्पत्तिकी बुद्धि कहा गया है। वैनयिकी विनय का अर्थ है विधिपूर्वक शिक्षा / शिक्षा से उत्पन्न होनेवाली बुद्धि वैनयिकी कहलाती है। गुरु के प्रति विनय शुश्रूषा के निमित्त होनेवाली बुद्धि भी वैनयिकी है। वैनयिकी बुद्धि कठिन कार्य को निष्पादित करने में समर्थ है तथा धर्म, अर्थ एवं काम का शाब्दिक एवं आर्थिक हार्द को समझती है / इहभव-परभव दोनों के लिए हितावह होती है। कार्मिका “कर्मसमुत्था कार्मिकी' कर्म का अर्थ है अभ्यास / अभ्यास करते-करते जो बुद्धि पैदा होती है वह कार्मिकी कहलाती है। उपयोग से जिसका सार परमार्थ देखा जाता . Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 / आर्हती-दृष्टि है, अभ्यास और विचार से जो विस्तृत बनती है और जिससे प्रशंसा प्राप्त होती हैं वह कर्मजा बुद्धि कहलाती है। पारिणामिकी ___ परिणामजनिता पारिणामिकी अवस्था बढ़ने के साथ-साथ जो नाना प्रकार के अनुभव होते हैं, उनसे उत्पन्न होनेवाली बुद्धि पारिणामिकी कहलाती है। अनुमान, हेतु-दृष्टान्त से कार्य को सिद्ध करनेवाली, आयु के परिपक्व होने से पुष्ट, लोक.हितकारी तथा मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाली बुद्धि पारिणामिकी है। इन चारों का सामान्य तत्त्व एक ही है कि ये श्रुत से प्राप्त नहीं होतीं / स्वतः स्फूर्त, सेंवा, विनय, अभ्यास तथा वयपरिणति से क्रमशः प्राप्त होती हैं / मति के स्मृति आदि भेद ____मति के दो साधन हैं—इन्द्रिय और मन / मन द्विविध धर्मा है—अवग्रह आदि धर्मवान् / इस स्थिति में मति दो भागों में बंट जाती है—संव्यवहार-प्रत्यक्ष मति और परोक्ष मति / " संव्यवहार प्रत्यक्ष का विवेचन हो चुका है अब परोक्षात्मक मति का विवेचन करना काम्य है। - परोक्ष मति के चार भेद हैं-स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान। ... स्मृति-वासना का उद्बोध होने पर उत्पन्न होनेवाला 'वह' इस आकारवाला ज्ञान स्मृति है। स्मृति अतीत के अनुभव का स्मरण है / धारणा रूप संस्कार के जाग्रत होने पर तत्' इस उल्लेखवाली मति स्मृति कहलाती है / यथा-वह राजगही आदि / जैन दर्शन में स्मृति को प्रमाण माना गया है। जैनेतर सभी दार्शनिक गृहीतग्राही या अर्थ से उत्पन्न न होने से इसको प्रमाण नहीं मानते / जैन के अनुसार स्मृति अविसंवादी ज्ञान है अतः यह प्रमाण है। प्रत्यभिज्ञा-अनुभव और स्मृति से उत्पन्न यह वही है, यह उसके समान है, यह उससे विलक्षण है, यह उसका प्रतियोगी है, इस प्रकार का संकलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञा कहलाता है। प्रत्यभिज्ञा को दूसरे शब्दों में तुलनात्मक ज्ञान, उपमित करना या पहचानना भी कहा जा सकता है। प्रत्यभिज्ञा में दो अर्थों का संकलन होता है उसमें प्रत्यक्ष और स्मृति संकलन, प्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष का संकलन एवं स्मृति का भी संकलन हो सकता है। उसके तीन रूप बनते हैं१. (क) यह वही निर्ग्रन्थ है। (ख) यह उसके सदृश है। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 273 (ग) यह उससे विलक्षण है। (घ) यह उससे छोटा है। * पहले आकार में निर्ग्रन्थ की वर्तमान अवस्था का अतीत के साथ संकलन है, इसलिए यह एकत्व प्रत्यभिज्ञा है। * दूसरे आकार में दृष्ट-वस्तु की पूर्व दृष्ट-वस्तु से तुलना है, अतः यह सादृश्य प्रत्यभिज्ञा है। * तीसरे आकार में दृष्ट वस्तु की पूर्व दृष्ट वस्तु से विलक्षणता है, अतः यह वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञा है। चौथे आकार में दृष्ट वस्तु पूर्व दृष्ट वस्तु की प्रतियोगी है, अतः यह प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञा है। 2. दो प्रत्यक्षों का संकलन—इसमें दोनों ज्ञान प्रत्यक्ष होते हैं--यह इसके सदृश है, यह इससे विलक्षण है, यह इससे छोटा है। 3. दो स्मृतियों का संकलन, इसमें दोनों परोक्ष हैं—वह उसके सदृश है, वह उससे विलक्षण है, वह उससे छोटा है। तुलनात्मक ज्ञान चाहे वह किसी भी प्रकार का क्यों न हो, प्रत्यभिज्ञा के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाता है / जैन दर्शन में प्रत्यभिज्ञा को प्रमाण माना गया है। .. तर्क-उपलम्भ, अनुपलम्भ निमित्र व्याप्तिज्ञान तर्क है / - “उपलम्भ का अर्थ है-लिंग के सद्भाव से साध्य के सद्भाव का ज्ञान / धूम लिंग और अग्नि साध्य है। अनुपलम्भ का अर्थ है–साध्य के अभाव में साधन के अभाव का ज्ञान / जहां अग्नि नहीं होती वहां धूम भी नहीं हो सकता / व्याप्ति के लिए तर्क आवश्यक है। तर्क को ऊह भी कहते हैं। ___ अनुमान-साधन से साध्य का ज्ञान होना अनुमान है।" साधन का अर्थ है हेतु या लिंग, साधन को देखकर उसके अविनाभावी साध्य का ज्ञान करना अनुमान है। यथा-धूम से अग्नि का अनुमान करना / प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपनय एवं निगमन ये अनुमान के पांच अंग है। स्वार्थ एवं परार्थ के भेद से अनुमान के दो प्रकार हैं। मतिज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष स्वरूप पर विचार-मंथन किया गया। अब श्रुतज्ञान पर विचार-विमर्श प्रस्तुत प्रसंग में वांछित है। श्रुतज्ञान . प्राचीन जैन परम्परा में श्रुतज्ञान का सम्बन्ध मात्र आगमों से था। यद्यपि उसके स्वरूप में बाद में परिवर्तन होता आया है परन्तु आगम युग में जिन प्रवचन को ही होता प्रमाण Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 / आहती-दृष्टि श्रुतज्ञान कहा जाता था। तत्त्वार्थभाष्य में प्रदत्त उसके पर्यायवाची शब्दों से इसका स्पष्ट अवबोध हो जाता है। श्रुतमाप्तवचनमागम उपदेश ऐतिहमाम्नाय: प्रवचन जिनवचनमित्यनान्तरम् / आगमों के ज्ञान को भी श्रुतज्ञान कहा जाता है / आचार्य उमास्वाति ने श्रुतज्ञान को मतिपूर्वक माना है तथा उसके अंगबाह्य एवं अंगप्रविष्ट ये दो भेद माने हैं / अंग बाह्य के अनेक प्रकार हैं तथा अंग प्रविष्ट के 12 भेद हैं।" इन दो भेदों में सम्पूर्ण जैन वाङ्गमय समाविष्ट हो जाता है / जैन धर्म का यह विश्वास है कि आगम सम्पूर्ण सत्य के संग्राहक हैं / विशेषावश्यक भाष्य में श्रुत की व्युत्पत्ति करते. हुए कहा गया जो आत्मा के द्वारा सुना जाता है अथवा श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से सुना जाता है इत्यादि श्रुत के व्युत्पत्तिपरक अर्थ उपलब्ध होते हैं।" इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होनेवाला श्रुतानुसारी ज्ञान जो स्वयं में प्रतिभासित घट-पट आदि पदार्थों को दूसरों को समझाने में समर्थ होता है, यह श्रुतज्ञान है। ज्ञानबिन्दु में भी श्रुतानुसारी को श्रुत कहा है तथा धारणात्मक ज्ञान के द्वारा वाच्य-वाचक सम्बन्ध संयोजना से जो ज्ञान होता है वह श्रुतानुसारी है। वही श्रुतज्ञान है। जब श्रुतानुसारी को श्रुतज्ञान कहा गया तब शंका उपस्थित करते हुए पूछा गया कि यदि शब्दोल्लेखी श्रुतज्ञान है तब तो मतिज्ञान का भेद अवग्रह ही मतिज्ञान होगा। शेष ईहा आदि.श्रुतज्ञान हो जायेंगे क्योंकि वे भी शब्दोल्लेख से युक्त हैं अतः मतिज्ञान का लक्षण अव्याप्त एवं श्रुतज्ञान का लक्षण अतिव्याप्त दोष से दूषित होगा। समाधान की भाषा में आचार्य ने कहा कि ईहा आदि साभिलाप है किन्तु सशब्द होने मात्र से वे श्रुतज्ञान नहीं हैं क्योंकि जो श्रुतानुसारी साभिलाप है वही श्रुतज्ञान है। अतः मतिज्ञान के ईहा आदि भेद साभिलाप होने पर भी श्रुतानुसारी नहीं हैं अतः वे श्रुतज्ञान के अन्तर्गत नहीं आ सकते। अतः दोनों ज्ञानों के लक्षण दोषमुक्त हैं / साभिलाप अवग्रह आदि श्रुतनिश्रित मतिज्ञान हैं, वे श्रुतानुसारी नहीं हैं / मतिज्ञान साभिलाप एवं अनभिलाप उभयप्रकार का है। किन्तु श्रुतज्ञान तो साभिलाप ही होता है / द्रव्यश्रुत के अनुसार जो दूसरे को समझाने में समर्थ होता है, वह श्रुतज्ञान है।" श्रुतज्ञान को परप्रत्यायनक्षम माना गया है। __श्रुतज्ञान को श्रुतानुसारी स्वीकार किया गया तब शंकाकार ने शंका उपस्थित की है कि यह लक्षण अव्याप्त दोष से दूषित है। क्योंकि श्रुतानुसारी श्रुतज्ञान एकेन्द्रिय के नहीं हो सकता।" क्योंकि उनके मन आदि सामग्री नहीं है जबकि आगम में एकेन्द्रिय के दो ज्ञान माने हैं। समाधान देते हुए कहा गया उनके द्रव्यश्रुत नहीं है किन्तु भावश्रुत हैं। कारण वैकल्य के कारण उनके द्रव्यश्रुत नहीं है किन्तु Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 275 श्रुतावरणक्षयोपशम रूप भावश्रुत है / यह तथ्य सर्वज्ञ कथित है तथा लता आदि में आहार, भय, परिग्रह, मैथुन आदि संज्ञा होती है। उन संज्ञाओं के चिह्न उनमें स्पष्ट देखे जाते हैं / पुनः शंका उपस्थित करते हुए कहा गया भावश्रुत तो भाषा एवं श्रोतलब्धिवान् के हो सकता है अन्य के नहीं होता। एकेन्द्रिय के न भाषा है न श्रोतलब्धि है अतः उसके भावश्रुत कैसे हो सकता है। आचार्य महत्त्वपूर्ण समाधान देते हुए कहते हैं कि जैसे द्रव्येन्द्रिय के अभाव में भी एकेन्द्रिय के सूक्ष्म भावेन्द्रिय का ज्ञान होता है, वैसे ही पृथ्वी आदि के द्रव्यश्रुत का अभाव होने पर भी भावश्रुत हो सकता है।" वृत्तिकार स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि केवली को छोड़कर संसार के सभी प्राणियों के अतिस्तोक बहु, बहुतर आदि तारतम्य से द्रव्येन्द्रिय के न होने पर भी पांचों ही लब्धि इन्द्रियों के आवरण का क्षयोपशम होता है। अतः पृथ्वी आदि ऐकेन्द्रिय के भावेन्द्रिय के समान भावश्रुत होता है / इस प्रसंग में वृत्तिकार ने बहुत रोचक ढंग से पृथ्वी आदि में पांचों भावेन्द्रियों का सद्भाव उदाहरणपूर्वक प्रस्तुत किया है। श्रुतज्ञान के भेद . आवश्यक नियुक्ति में श्रुतज्ञान के भेदों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि लोक में जितने प्रत्येक अक्षर हैं, जितने उन अक्षरों के संयोग हैं उतनी ही श्रुतज्ञान की प्रकृतियां हैं। संयुक्त और असंयुक्त एकाक्षरों के अनन्त संयोग होते हैं तथा प्रत्येक संयोग के अनन्त पर्याय होते हैं। अभिधेय पदार्थ अनन्त है तो अभिधान स्वतः ही अनन्त हो जाते हैं। अनन्त का कथन सम्भव नहीं है फिर भी उसके अक्षर, संज्ञी आदि चौदह भेद किये जाते हैं / 01 नन्दी में अक्षरश्रुत को तीन प्रकार का बताया है१. संज्ञाक्षर, 2. व्यंजनाक्षर एवं 3. लब्ध्यक्षर / अक्षर का संस्थान या आकृति (अर्थात् जो विभिन्न लिपियों में लिखे जाते हैं) को संज्ञाक्षर कहा जाता है / उच्चारण किये जानेवाले अक्षर व्यंजनाक्षर हैं / अक्षरलब्धि से युक्त व्यक्ति के लब्ध्यक्षर उत्पन्न होते हैं, वे पांच इन्द्रिय एवं मन से उत्पन्न होते हैं / 102 भाष्य में लब्धि अक्षर को व्याख्यायित करते हुए कहा जो अक्षर (प्राप्ति की कारण भूत) लब्धि है वही लब्ध्यक्षर हैं / इन्द्रिय एवं मन के निमित्त से उत्पन्न श्रुतग्रन्थानुसारी विज्ञानरूप श्रुतोपयोग एवं तदावरण कर्म का क्षयोपशम ये दोनों लब्ध्यक्षर है / 03 संज्ञाक्षर एवं व्यंजनाक्षर द्रव्यश्रुत हैं एवं लब्धि-अक्षर भावश्रुत हैं / "प्रथम दो प्रकार के अक्षर तो पौद्गलिक हैं, वास्तविक श्रुत तो लब्ध्यक्षर है और यह लब्ध्यक्षर पांचों में से किसी भी इन्द्रिय एवं मन से उत्पन्न हो सकता है। जब यह शब्द रूप है तो श्रोत्र Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 / आहती-दृष्टि से, वर्ण रूप है तो चक्षु से, गन्ध रूप है तो घाण से, रस रूप है तो रसन से, स्पर्श रूप है तो स्पर्शन से उत्पन्न होता है / ये सारे अक्षर श्रुत हैं / उच्छ्वासित, निःश्वसित, निष्ठभूत, कासित आदि अनक्षर श्रुत हैं / भाष्य में श्रुतज्ञान के इन भेदों का विस्तार से वर्णन हुआ है। मति एवं श्रुत की सहगामिता ___ आचार्य उमास्वाति के अनुसार श्रुत निश्चित रूप से मतिपूर्वक होता है। अतः जहां श्रुत है वहां मति आवश्यक है। किन्तु जहां मतिज्ञान हो वहां श्रुत हो ही यह आवश्यक नहीं है। नन्दीकार ने मति और श्रुत को अन्योन्यानुगत माना है। जहां मति है वहां श्रुत है एवं जहां श्रुत है वहां मति अवश्यमेव है। पूज्यपाद देवनन्दि एवं अकलंक भी नन्दी के विचारों से सहमत हैं / प्रश्न है कि मत्युपयोग और श्रुतोपयोग का सहभाव है या लब्धि का। दो उपयोग एक साथ नहीं हो सकते हैं / लब्धि एक साथ हो सकती है / डॉ. टाटिया ने सम्भावित समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है-संभव . है उमास्वाति का कथन उपयोग एवं नन्दी का कथन लब्धि पर आधारित है। मति एवं श्रुत का भेदाभेद .. अभेद-मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान का सहभाव माना गया है। उन दोनों में कई अपेक्षाओं से अभिन्नता है / मति तथा श्रुतज्ञान स्वामी, कारण, काल, विषय एवं परोक्षता के कारण परस्पर तुल्य है। "मति एवं श्रुतज्ञान का स्वामी एक है / नन्दी में कहा भी है—'जत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं। दोनों की स्थिति भी समान है। नाना जीवों की अपेक्षा इनका उच्छेद कभी नहीं होगा तथा एक जीव की अपेक्षा 66 सागर से कुछ अधिक कालमान इन दोनों का है / इन्द्रिय एवं मनोलक्षण तथा स्वावरण क्षयोपशम स्वरूप दोनों का कारण भी एक जैसा है। मति एवं श्रुतज्ञान का विषय परिमित पर्यायों से युक्त सब द्रव्य है।११ परनिमित्त से होने से ये दोनों परोक्ष हैं। ये तथ्य इनकी परस्पर अभिन्नता के हेतु हैं / पंच ज्ञान क्रम में इन दोनों का प्रथम न्यास इसलिए किया गया है कि संसार का कोई भी प्राणी, अतीत में न ऐसा हुआ, वर्तमान में न है और भविष्य में न होगा जिसको मतिश्रुत से पहले ही अवधि आदि ज्ञान प्राप्त हो गये हों। इन दोनों ज्ञानों का सद्भाव होने पर ही अन्य ज्ञान हो सकते हैं / 12 श्रुत से पूर्व मति न्यास के हेतुओं का विवेचन करते हुए आचार्य कहते हैं कि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है / इन्द्रिय अनिन्द्रिय निमित्त से उत्पन्न सारा ही मतिज्ञान है केवल परोपदेश एवं आप्तवचन से उत्पन्न श्रुतज्ञान मति का ही भेद है। मति मूलंभूत है अतः उसका ही आदि में न्यास उचित है। इसी प्रकार अन्य उचित कारणों के द्वारा अन्य ज्ञानों के Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 277 पौर्वापर्य का कथन भाष्य में हुआ है / 14 मति-श्रुत भेद प्राचीन कर्मशास्त्र में ज्ञानावरण की प्रकृतियों के उल्लेख के समय मतिज्ञानावरण एवं श्रुतज्ञानावरण इन दो प्रकृतियों का पृथक्-पृथक् उल्लेख है अतः स्पष्ट है कि प्राचीन परम्परा में दोनों को पृथक् स्वीकार किया गया है। आज भी उनका वही स्वरूप स्वीकृत है, परन्तु इन दोनों का स्वरूप परस्पर इतना सम्मिश्रित है कि इनकी भेद-रेखा स्थापित करना कठिन हो जाता है। जैन परम्परा में इनकी भेद-रेखा स्थापित करने के तीन प्रयत्ल हुए हैं 1. आगमिक, 2. आगम आधारित तार्किक, एवं 3. तार्किक। 1. आगमिक परम्परा में इन्द्रिय मनो जन्य ज्ञान अवग्रह आदि भेद वाला मतिज्ञान था तथा अंगप्रविष्ट एवं अंग बाह्य रूप में प्रसिद्ध लोकोत्तर जैन-शास्त्र श्रुतज्ञान कहलाते थे। अनुयोग द्वार एवं तत्त्वार्थ में पाया जानेवाला श्रुतज्ञान का वर्णन इसी प्रथम प्रयल का फल है / 15 प्राचीन परम्परा में अंग, उपांग से भिन्न वेद, व्याकरण, साहित्य, शब्द, संस्पर्श से युक्त-रहित सारा ज्ञान मतिज्ञान कहलाता था। ... 2. आगम मूलक तार्किक प्रयत्न में मति श्रुत के भेद को तो स्वीकार कर लिया किन्तु उनकी भेदरेखा स्थिर करने का व्यापक प्रयल किया गया। प्रथम परम्परा जो मात्र आगम को ही श्रुतज्ञान मानती थी। इस दूसरी परम्परा ने आगम के अतिरिक्त को भी श्रुतज्ञान माना एवं श्रुतज्ञान की स्पष्ट परिभाषा दी / क्षमाश्रमणजी ने भाष्य में श्रुत एवं मति को विभक्त करते हुए कहा-इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होनेवाला श्रुतानुसारी ज्ञान जो स्वयं में प्रतिभासित घट, पट आदि पदार्थों को दूसरों को समझाने में समर्थ होता है वह भावश्रुत है। शेष मतिज्ञान है। नन्दीकार ने मतिश्रुत को अन्योन्यानुगत माना है तथा नन्दी में किसी आचार्य के मत को उद्धृत करके कहा गया है -'मइपुव्वं जेण सुयं न मई सुयपुब्विया। "मति श्रुत की इस भेदरेखा को मानकर उमास्वाति ने इसे और भी अधिक स्पष्ट किया है। उत्पन्न, अविनष्ट, अर्थग्राही, वर्तमानग्राही मंतिज्ञान है एवं श्रुतज्ञान का त्रिकाल विषय है / वह उत्पन्न, विनष्ट एवं अनुत्पन्न अर्थ का ग्राहक है।इसी भेदरेखा को आचार्य जिनभद्र ने और पुष्ट किया है। मति-श्रुत की भिन्नता को प्रकट करते हुए कहा गया है लक्खणभेआ हेऊफलभावओ भेयइन्दियविभागा। वाग-क्खर-मुए-यरभेआ भेओ मइसुयाणं // 19 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 / आर्हती-दृष्टि (1) मति एवं श्रुतज्ञान का लक्षण पृथक्-पृथक् है / मति श्रुतानुसारी नहीं होता जबकि श्रुत्त श्रुतानुसारी ही होता है। (2) मतिज्ञान हेतु है तथा श्रुत उसका फल, कार्य है। (3) मतिज्ञान के 28 भेद हैं जबकि श्रुत के 14 भेद हैं। (4) श्रुतज्ञान को श्रोत्रेन्द्रिय का विषय कहा गया है जबकि मति श्रोत्र के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों का भी विषय है। (5) वल्क के समान मतिज्ञान है, वह कारण रूप है। शुम्ब के समान श्रुतज्ञान है, जो कार्य रूप है। (6) मूक के समान मति अमूक सदृश श्रुत है। . . (7) मति अनक्षर एवं श्रुत अक्षरात्मक होता है इत्यादि अनेक प्रकार उनके पारस्परिक भिन्नता के गिनाये गये हैं। 3. शुद्ध तार्किक –मतिश्रुत के बारे में तीसरी दृष्टि के जनक सिद्धसेन दिवाकर . हैं। उन्होंने मतिश्रुत के भेद को ही अमान्य कर दिया। 'वैयर्थ्यातिप्रसंगाभ्यां न मत्यभ्यधिकं श्रुतम्।१२° उनका मानना है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञान में ही अन्तर्भूत हो : जाता है। उसको पृथक् मानना कल्पनागौरव है। अर्थात् जब श्रृतज्ञान का जो कार्य बताया गया है, वह मति से सम्पादित हो जाता है, तब श्रुत को पृथक् मानने से व्यर्थता. एवं अति प्रसंग ये दोष उपस्थित हो जाते हैं / दिवाकर श्री की यह शुद्ध तार्किक परम्परा है। जिनभद्रगणि आगमिक आचार्य हैं, फिर भी इन्होंने भी ज्ञान क्रम के वर्णन के समय श्रुतज्ञान को मतिभेद के रूप में स्वीकार किया है / 21 उनके इस कथन का सिद्धसेन के विचार आलोक में चिन्तन करने पर नया तथ्य उपलब्ध हो सकता है। श्रुतज्ञान प्रक्रिया श्रुतज्ञान उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार होता है१. भावश्रुत-वक्ता के वचनाभिमुख विचार / 2. वचन-वक्ता के लिए वचनयोग और श्रोता के लिए द्रव्यश्रुत। . 3. मति-मतिज्ञान के प्रारम्भ में होनेवाला मत्यंश-इन्द्रिय ज्ञान / 4. भाव-श्रुत-इन्द्रिय ज्ञान के द्वारा हुए शब्दज्ञान एवं संकेत ज्ञान के द्वारा होनेवाला अर्थ-ज्ञान / 22 . वक्ता बोलता है वह उसकी अपेक्षा वचनयोग है, श्रोता के लिए वह भावश्रुत का साधन होने के कारण द्रव्यश्रुत है। एक व्यक्ति का श्रुतज्ञान दूसरे व्यक्ति के लिए श्रुतज्ञान बनता है। उससे पूर्व उस प्रक्रिया के दो अंश होते हैं-द्रव्यश्रुत और मत्यंश / Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 279 एक व्यक्ति के विचार को दूसरे व्यक्ति तक ले जाने के दो साधन हैं—वचन और संकेत / वचन एवं संकेत को ग्रहण करनेवाली इन्द्रियां हैं। श्रोता अपनी इन्द्रियों से उन्हें ग्रहण करता है फिर वक्ता के अभिप्राय को समझता है / वह श्रोता का भावश्रुत बन जाता है। ___मति एवं श्रुतज्ञान परस्पर कार्य-कारण भाव से रहते हैं। संसार के सभी प्राणियों के कम से कम दो ज्ञान तो अवश्य रहते हैं / जैन दर्शन के ज्ञान-मीमांसीय चिन्तन का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण मतिश्रुत ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में महत्त्वपूर्ण हो सकता है। संदर्भ 1. रायपसेणियं सू. 739 2. तत्वार्थ सू. 1/1 3. जे आया से विनाया, जे विनाया से आया आचारांग 5/104 4. समयसार श्लो. 6-7 5. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, का. 8, 6. नंदी सूत्र सू. 34 7. विशेषावश्यक भा. गा. 79, C. Studies in Jain philosophy, P. 30 9. तदिन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तम् तत्वा. सू. 1/14, 10. नंदी सू., 5 11. इंदियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं // विशेषा. भा. गा. 95 12. से किं तं इंदियपच्चक्ख..... नंदी सू.५ से 13. अत्थाभिमुहो नियओबोहो... वि. भा. गा. 80 * ब. अत्थाभिमुहो णियतोबोध..... नंदी चूर्णि. पृ. 13 14. वि. भा. हे. वृ. गाथा, 80 15. ईहा अपोह वीमांसा, मग्गणा य गवसणा। . सना-सई-मई-पन्ना, सव् आभिणिबो हियं // नंदी सू. 54/6 16. विशेषा. भा. गाथा-३९६ 17. मति: स्मृति: संज्ञा चिंताऽभिनिबोध इत्यनान्तरम्। तत्वा. सू. 1/13 18. तत्वा. रा. वा. 1/13 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 / आर्हती-दृष्टि 19. तत्वार्थ सू. 1/14 20. तत्वार्थ भाष्य 1/14 21. नंदी सूत्र, 37, 22. स्थानांग 6/61-64 23. 'बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितासंदिग्धध्रुवाणां सेतराणाम्' / तत्वार्थ सू. 1/16 24. विशेष. भा. गाथा. 177 25. जं बहु-बहुविह-खिप्पा-ऽनिस्सिय निच्छिय-धुवे-यर विभिन्ना व. भा. गा. 307 26. तत्वार्थ सू. 1/14 27. विभा. गा. 177, 95 28. 'अवग्रहहावायधारणा:' तत्वा. 1/15 29. विशेषा. भा. गा. 204 39. वि. भा. गा. 307 31. नंदी सू. 51 32. वि. भा. गा. 301-302 33. चउवइरित्ताभावा जम्हा न तमोग्गहाईओ। भिन्नं तेणोग्गहाइसामण्णओ तयं तग्गयं चेव // वि. भा. गा. 303 34. (क) अक्षार्थयोगे दर्शनान्तरमर्थग्रहणमवग्रहः। प्रमाण मी. 1/1/26 (ख) इन्द्रियार्थयोगे दर्शनानन्तरं सामान्यग्रहणमवग्रहः / जै. सि. दी. 2/11 35. अत्थाणं उग्गहणं अवग्गहं, वि. भा. गा. 179 36. सामण्णत्थावग्गणमुग्गहो, वि. भा. गा. 180 37. नंदी सूत्र, 43 38. तत्वार्थ भाष्य, 1/15 39. (क)उग्गहे दुविहे पण्णत्ते. अत्थुग्गहे य वंजणुग्गहे य। नंदी सू. 40, (ख) 'अर्थस्य'। 'व्यंजनस्यावग्रह' तत्वा. सू. 1 / 17-18, (ग) तत्थोग्गहो दुरूवो गहणं जं होइ वंजण-त्थाणं। वि. भा. गा. 193, 40. जै. सि. दी, पृ. 2/12 41. वंजिज्जइ जेणत्थो घडो व्व दीवेण वंजणं तं च / / उवगरणिंदियसद्दाइपरिणयद्दव्वसंबंधो // वि. भा. गा. 194 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 281 42. नंदी सू. 53-54 43. उग्गह इक्कं समयं / नंदी सू. 34/3 44. असंखेज्जसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति। नंदी सू. 52, 45. व्यंजनावग्रहकालेपिऽज्ञानमस्त्येव, सूक्ष्माव्यक्तत्वात् तु नोपलभ्यते सुप्ताव्यक्तविज्ञानवत्। स्थानांग वृ. पत्र. 47 46. वि. भा. गा. 282-83 47. अवगृहीतार्थविशेषकाक्षणमीहा प्रमाणनयतत्वालोक. 28 48. (क) अमुकेन भाव्यमिति प्रत्यय ईहा। जै. सि. दी. व. 2/13 (ख) तह वियालणं ईहं। _ वि. भा. गा. 179 (ग) इय सामण्णग्गहणाणतरभीहा सदंत्थवीमंसा। वि. भा. गा. 289 49. नंदी सू. 45 50. 'ईहा ऊहा तर्क: परीक्षा विचारणा जिज्ञासेत्यनर्थान्तरम्' तत्वा. भा. 1/15 51. नंदी सू. 50 52. ईहितविशेषनिर्णयोऽवाय:। प्रमाण मी. 1/1/28 53. महराइगुणत्तणओ संखस्सेव त्ति जं न संगस्स। विण्णाणं सोऽवाओ अणुगम-वइरेगभावाओ // वि. भा. गा. 290 54. नंदी सू. 47 55. तत्वा. भा. 1/15 56. नंदी सू. 50 57. स्मृतिहेतुर्धारणा। प्रमाण मी. 1/1/29 58. तयणंतरं तयत्थाविच्चवणं जो य वासणाजोगो। कालंतरे य जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ॥ वि. भा गा. 291 59. नंदी सू. 49 60. तत्वार्थ भा. 1/15 61. नंदी सू. 50 62. वि. भा. गा. 295-96 63. भिक्षु न्याय कर्णिका 2/14 64. वही, 2/15 65. वही, 6/16 66. जैन दर्शन-मनन-मीमांसा, पृ. 518 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 / आर्हती-दृष्टि 67. दर्शन और चिन्तन, पृ. ४२२/ज्ञानबिन्दु. पृ. 41,60, 62. 68. पुव्वं सुयपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयाईयं / तं निस्सियमियरं पुण अणिस्सियं मइचउक्कं तं // वि. भा. गा-१६९ 69. नंदी सू. 38 70. वि. भा. गा.३०३-४ 71. किह पडिकुक्कुडहीणो जुझे बिंबेण वग्गहो, ईहा। ... किं सुसिलिट्ठमवाओ दप्पणसंकंतबिम्ब ति // . वि. भा. गा. 304 72. पुवदिट्ठ-मस्सुय भवइ य, तक्खणविसुद्धगहियत्था। अव्वाहय-फलजोगा, बुद्धि उप्पत्तिया नाम // आ. नि. गा.९३३ 73. अदृष्टाश्रुतार्थग्राहिणी औत्पत्तिकी। जै. सि. दी. 2/17 74. विनयसमुत्था वैनयिकी। जै. सि. दी. 2 /18 75. भर नित्थरण-समत्था तिवग्ग-सुत्तत्थ-गहिय पेयाला। उभओ लोग फलवाई विणयसमुत्था हवई बुद्धि / / आ. नि. गा. - 937 76. जै. सि. दी. 2/19 77. उवओगदिट्ठसारा कम्मपसंगपरिघोलणविसाला। . साहुकार फलवई कम्मसमुत्था हवइ बुद्धि // आव. नि. गा. -940 78. जै. सि. दी. 2/20 79. अणुमान-हेउ-दिट्ठतसाहिआ, वय-विवाग-परिणामा। . हिय-निस्सेयस फलवई बुद्धि परिणामिया नाम / आ. नि. गा. 942 80. जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ. 587 81. वासनोबोधहेतुका तदित्याकार स्मृतिः। प्रमाण. मी. 1/2/3 82. भिक्षु न्याय कर्णिका 3/5 83. अनुभवस्मृतिसंभवं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि संकलनं प्रत्यभिज्ञा। भिक्षुन्यायकर्णिका 3/6 84. उपलम्भानुलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः। प्रमाण मीमांसा 1/2/5 85. साधनात्साध्यज्ञानमनुमानम्। भि. न्याय क 3/8 86. स्थानांग सू. 2/104 87. तत्वार्थ भा. 1/20 88. श्रुतं मतिपूर्वद्वयनेकद्वादशभेदम् / तत्वार्थ सू. 1/20 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 283 89. तं तेण तओ तम्मिम् व सुणेइ सो वा सुअं तेण। वि. भा. गा. 8 90. इंदिय-मणोनिमित्तं जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं। निययत्थुत्तिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं // वि. भा. गा. 100 91. श्रुतं तु श्रुतानुसार्येव श्रुतानुसारित्वं च धारणात्मकपदपदार्थसम्बंधप्रति संधानजन्यज्ञानत्वम्। ज्ञान बि, पृ. 24 92. वि. भा. वृ. गा. 100 93. द्रव्यश्रुतानुसारी परप्रत्यायनक्षम श्रुतम। जैन सि. दी. 2/23. 94. विशेषा. भा. गा. 101 95. एगिन्दिया नियमं दुयन्नाणी, तं जहा - मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य। 96. वि. भा. गा -101 97. वही, -102 98. वही, -103 99. पत्तेयमक्खराइं अक्खरसंजोगजत्तिया लोए। .. एवइया सुयनाणे पयडीओ होति नायव्वा // आव. नि. गा. -17 १००.वि. भा. गा -445-46 101. अक्खर सणी सम्मं साईयं खलु सपज्जवसियं च / गमियं अंगपविटुं तत वि एए सपडिवक्खा // आ. नि. गा. -19 102 नंदी सूत्र -56 . 103. जो अक्खरोवलंभो सा लद्धी, तं च होइ विण्णाणं / - इंदियमणोनिमित्तं जो यावरणक्खओवसमो॥ वि. भा, गा. -466 104. दव्वसुयं सण्णा- वंजणक्खरं, भावसुत्तमियरं तु। वि. भा. गा -467 105. ऊससियं, नीससियं, निच्छुढं खासियं च छीयं च / निस्सिंघिय - मणुसारं, अणक्खरं छेलिआईअं॥ ___नंदी सू. 60/1, आव. नि. ग:-५० 106. श्रुतज्ञानस्य तु मतिज्ञानेन नियत: सहभावस्तत्पूर्वकत्वात् यस्य तु ___ मतिज्ञानं तस्य श्रुतज्ञानं स्याद्वा न वेति // तत्वा. भा. 1/31 107. नंदी सू. -35 108. Studies in Jain Philosophy I. 55 1.09. जं सामिकाल-कारण-विसय-परोक्खत्तणेहिं तुल्लाइं॥ वि. भा. गा. 85, . 110. नंदी सू. - 35 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 / आर्हती-दृष्टि . 111. मतिश्रुतयोर्निबन्ध: सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु। तत्वार्थ सू. 1/27, 112. वि. भा. गा. -85 113. मइपुव्वं जेण सुयं तेणाईए मई, विसिट्ठो वा। ... मइभेओ चेव सुयं तो मइसमणंतरं भणियं // . वि. भा. गा. -86 114. वि. भा. गा. -87-88 115. तत्वार्थ सूत्र - 1/20 116. वि. भा. गा. -100 117. नंदी सूत्र -35 118. तत्वार्थ भाष्य - 1/20 119. वि. भा. गा. -96 120. निश्चयद्वात्रिंशिका, 12 121. वि. भा. गा -86 122. जैनदर्शन म. मी. प. 493 123. वि. भा. वृ. गा. -99 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान जैन दर्शन के अनुसार आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द एवं अनन्त शक्ति-सम्पन्न है / प्रत्येक आत्मा में अनन्त चतुष्ट्य विद्यमान है / आत्मा अपनी अनन्त ज्ञान-शक्ति के द्वारा सार्वकालिक सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थ को सर्वांगीण रूप में जानने में समर्थ है / बन्धनावस्था में आत्मा का यह स्वरूप ज्ञान आवारक ज्ञानावरणीयकर्म से आवृत रहता है, अतः आत्मा का वह स्वरूप प्रकट नहीं हो पाता है ।आवृत दशा में आत्मा का जितना जितना आवरण दूर हटता है, उतना ही वह ज्ञेय जगत् को जान पाती है ।ज्ञान-शक्ति का उतना ही आविर्भाव होता है जितना आवारक कर्म अलग होता है। मति एवं श्रुत ज्ञान की अवस्था में आत्मा पदार्थ से सीधा साक्षात्कार नहीं कर सकती। पदार्थ ज्ञान में उसे आत्मा से भिन्न इन्द्रिय मन, आलोक आदि की अपेक्षा रहती है, अतः उन ज्ञानों को परोक्ष कहा गया है। किन्तु जब आवरण विरल अथवा सम्पूर्ण रूप से हट जाता है तब आत्मा को ज्ञेय साक्षात्कार में बाह्य साधनों की अपेक्षा नहीं रहती है, अतः उस ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है ।प्रत्यक्ष ज्ञान के तीन भेद हैं 1. अवधि, 2. मनःपर्यव एवं 3. केवल। इन तीन को नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष भी कहा गया है। प्रस्तुत प्रसंग में नो का अर्थ है इन्द्रिय का अभाव अर्थात् ये तीनों ज्ञान इन्द्रिय जन्य नहीं हैं। ये ज्ञान केवल आत्म सापेक्ष हैं। आत्मा एवं पदार्थ के मध्य किसी तीसरे माध्यम की आवश्यकता नहीं रहती / इन्द्रिय प्रत्यक्ष को जब संव्यवहार प्रत्यक्ष कहा जाने लगा तब नोइन्द्रिय को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाने लगा। नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय ज्ञान है / इस कोटि का ज्ञान इन्द्रियों की सहायता के बिना सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों का साक्षात्कार कर सकता है। पदार्थ मूर्त और अमूर्त दो प्रकार के होते हैं। अवधि और मनःपर्यव ये ज्ञान केवल मूर्त पदार्थों का साक्षात्कार कर सकते हैं। केवल ज्ञान के मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के विषय है। अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान क्षायोपशमिक होते हैं इसलिए ये अपूर्ण अतीन्द्रिय ज्ञान की कोटि के हैं। केवलज्ञान क्षायिक है, ज्ञानावरण के सर्वथा क्षीण होने से उत्पन्न होता है इसलिए व परिपूर्ण अतीन्द्रिय ज्ञान है / Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 / आईती-दृष्टि अवधिज्ञान की परिभाषा पारमार्थिक प्रत्यक्ष में अवधि का पहला स्थान है / जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अवधि अर्थात् सीमा से युक्त अपने विषयभूत पदार्थ को जानता है, उसे अवधि कहा गया है। आगम में अवधि का नाम सीमा ज्ञान भी है। अधिक अधोगामी . विषय को जानने से अथवा परिमित विषयवाला होने से भी यह अवधि कहलाता है। विशेषावश्यकभाष्य में अवधि की विभिन्न प्रकार से व्युत्पत्ति उपलब्ध है। जिस ज्ञान के द्वारा अधोगामी रूपी वस्तुओं का विस्तार से ज्ञान होता है, वह अवधि है ।अवधि का एक अर्थ है-मर्यादा। जो मर्यादित द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि में रूपी द्रव्यों को जानता है, वह अवधि है / अवधान को भी अवधि कहा गया है अर्थात् साक्षात् पदार्थ का परिच्छेद / जीव अवधिज्ञान से द्रव्य को साक्षात् जानता है / अवधि का विषय केवल रूपी पदार्थ है / अवधिज्ञान धर्म आदि छह द्रव्यों में केवल एक पुद्गल द्रव्य को ही जान सकता है। संक्षेप में अवधिज्ञान के विकास की अनेक कोटियां अथवा मर्यादाएं हैं / इसलिए इसकी संज्ञा अवधिज्ञान है / इसका सम्बन्ध अवधान अथवा प्रणिधान से है। इसलिए इसकी संज्ञा अन्वर्थक है। अवधिज्ञान का विषय अवधिज्ञान सावधिक ज्ञान है। केवलज्ञान के समान अनन्त, असीम नहीं है। आत्मा आकाश, काल आदि अमूर्त पदार्थ उसकी ज्ञेय सीमा से बाहर हैं / विशिष्ट अवधिज्ञान-सर्वाधिक समस्त पुद्गल द्रव्य को जानता है अर्थात् परमाणु मात्र को भी जानता है। अवधिज्ञान का विषय संक्षेप में द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के आधार पर चार प्रकार से प्रतिपादित किया जाता है१. द्रव्य की अपेक्षा-जघन्य अनन्त रूपी द्रव्यों को जानता देखता है। उत्कृष्ट रूप से समस्त रूपी द्रव्यों को जानता देखता है। 2. क्षेत्र की अपेक्षा-जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग / उत्कृष्ट असंख्य क्षेत्र तथा शक्ति की कल्पना करें तो लोकाकाश जैसे-असंख्य खण्ड इसके विषय बन सकते हैं। काल की अपेक्षा-जघन्य-आवलिका का असंख्यातवां भाग। उत्कृष्टअसंख्यकाल (असंख्य अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी) Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविज्ञान / 287 4. भाव की अपेक्षा जघन्य-अनन्त पर्याय / उत्कृष्ट-अनन्त भाव अवधिज्ञान ' का विषय है। विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान के क्षेत्र, काल आदि के खारे में विस्तार से वर्णन हआ है। अवधिज्ञान के भेद ___ अवधिज्ञान के भेदों के प्रसंग में भाष्य में अवधि के संख्यातीत भेद बताए गए। क्षेत्र एवं काल की अपेक्षा से अवधि के असंख्य भेद हैं तथा द्रव्य एवं भाव की अपेक्षा से अनन्त भेद हैं / नन्दी सूत्र में अवधिज्ञान के मुख्य दो भेद बताए गए है—भवप्रत्यय एवं क्षायोपशमिक / जिस अवधिज्ञान में भव अर्थात् जन्म निमित्त होता है, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है, वह देव और नारकीय जीवों को प्राप्त होता है / अवधि ज्ञानावरणीय के सर्वघाती स्पर्धक जो उदय में आए हुए हैं उनका विलय (क्षय) एवं अनुदीर्ण का उपशम ऐसे क्षयोपशम निमित्त से होनेवाला क्षायोपशमिक अवधिज्ञान है ।वह मनुष्य एवं पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च के होता है / वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान गुण (व्रत, तप आदि) एवं सहज उत्पन्न गुण प्रतिपन्नता से होता है / जैसे अभ्राच्छादित गगन में यथाप्रवर्तित छिद्र से सूर्य की किरणें निकलकर पदार्थों को उद्योतित करती हैं, वैसे ही अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से अवधिज्ञान सहज ही उत्पन्न हो जाता है। उसके लिए किसी व्रत, नियम आदि द्वारा प्रयत्न करने की अपेक्षा नहीं होती है ।गुणव्यतिरेक (तप, व्रत आदि के अभ्यास के बिना उत्पन्न) अवधिज्ञान का उल्लेख जो चूर्णि में उपलब्ध है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है ।वर्तमान में जो घटनां प्राप्त होती हैं कि अमुक व्यक्ति गिरा और भूत-भविष्य को जानने लगा। अमुक द्रव्य को सामने लेकर (क्रिस्टलबॉल) अनेको व्यक्ति भविष्यवाणियां करते हैं। सम्भव है वह इसी प्रकार के किसी अवधिज्ञान का भेद हो। नन्दी-सूत्र में उल्लेख प्राप्त होता है कि उदीर्ण अवधिज्ञानावरणीय कर्मों के क्षय तथा अनुदीर्ण अवधिज्ञानावरणीय कर्म के उपशम से क्षायोपशमिक अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। वह अवधिज्ञान संक्षेप में छः प्रकार का प्रज्ञप्त है 1. आनुगामिक 2. अनानुगामिक 3. वर्द्धमान .. 4. हायमान 5. प्रतिपाति एवं 6. अप्रतिपाति / Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 / आर्हती-दृष्टि 1. आनुगामिक आनुगामिक का शाब्दिक अर्थ है-अनुगमनशील। यह अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है उस क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी विद्यमान रहता है / तत्त्वार्थभाष्य में इसे सूर्य के प्रकाश और घट की पाकजनित रक्तता से समझाया गया है। इस अवधिज्ञान में आत्मप्रदेशों की विशिष्ट विशुद्धि होती है। चूर्णिकार ने इसे नेत्र के दृष्टान्त से समझाया है / जैसे नेत्र मनुष्य के हर क्षेत्र में साथ रहता है वैसे ही आनुगामिक अवधिज्ञान हर क्षेत्र में साथ रहता है / वीरसेन ने धवला में आनुगामिक अवधिज्ञान के तीन प्रकार किए हैं 1. क्षेत्रानुगामी-एक क्षेत्र में उत्पन्न होकर अन्य क्षेत्र में विनष्ट नहीं होता। 2. भवानुगामी-जो अवधिज्ञान वर्तमान भव में उत्पन्न होकर अन्य भव में जीव के साथ जाता है। 3. क्षेत्रभवानुगामी-यह संयोगजनित विकल्प है। 2. अनानुगामिक . सांकल से बंधा हुआ स्थित दीप अपने परिपार्श्व में प्रकाश करता है, अन्य क्षेत्र में उसका प्रकाश नहीं होता। वैसे ही अनानुगामिक अवधिज्ञान क्षेत्र प्रतिबद्ध होता है। वह जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है, उसी में कार्यकारी होता है / उत्पत्ति क्षेत्र से भिन्न क्षेत्र में वह कार्यकारी नहीं रहता। चूर्णिकारी ने बतलाया है कि अनानुगामिक अवधिज्ञान की उत्पत्ति क्षेत्र सापेक्ष क्षयोपशम से होती है। तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वाति ने प्रश्नादेशिक पुरुष के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है। जैसे नैमित्तिक अथवा प्रश्नादेशिक पुरुष अपने नियत स्थान में प्रश्न का सम्यक् उत्तर दे सकता है वैसे ही क्षेत्र प्रतिबद्ध अवधिज्ञान अपने क्षेत्र में ही साक्षात् जान सकता है। अकलंक ने इसी का अनुसरण किया है। षट्खण्डागम में अनानुगामिक अवधिज्ञान के तीन भेद बतलाए गए हैं- . 1. क्षेत्र अननुगामी-जो क्षेत्रान्तर में नहीं जाता, भवान्तर में ही जाता है। 2. भव अननुगामी-जो भवान्तर में नहीं जाता, क्षेत्रान्तर में ही जाता है। 3. क्षेत्रभव अननुगामी-जो क्षेत्रान्तर और भवान्तर दोनों में ही नहीं जाता, उसी क्षेत्र और उसी भव से प्रतिबद्ध होता है। 3. वर्धमान जो अवधिज्ञान प्राप्ति के अनन्तर बढ़ता रहता है वह वर्धमान कहलाता है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान / 289 वर्धमान अवधिज्ञान के दो हेतु बतलाए गए हैं 1. प्रशस्त अध्यवसाय में प्रवर्तन एवं 2. चारित्र की विशद्धि। धवला के अनुसार वर्धमान अवधिज्ञान बढ़ता हुआ केवलज्ञान की उत्पत्ति के पूर्व क्षण तक चला जाता है। इसका देशावधि, परमावधि और सर्वावधि इन तीनों में अन्तर्भाव किया गया है। 4. हीयमान __ जो अप्रशस्त अध्यवसायों में वर्तमान और अप्रशस्त चारित्र में वर्तमान है, जो संक्लिश्यमान अध्यवसाय और संक्लिश्यमान चारित्र वाला है, उसका अवधिज्ञान सब ओर से घटता है / वह हीयमान अवधिज्ञान है। धवला में कहा गया है कि अवधिज्ञान उत्पन्न होकर कृष्णपक्ष के चन्द्रमण्डल के समान विनष्ट होने तक घटता ही जाता है / वह हीयमान अवधिज्ञान है। इसका अन्तर्भाव देशावधि में होता है। परमावधि और सर्वावधि में हानि नहीं होती इसलिए हीयमान का अन्तर्भाव उसमें नहीं होता। 5. प्रतिपाति जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मूल नष्ट हो जाता है / अप्रशस्त अध्यवसाय और संक्लेश ही प्रतिपाति के कारण बनते हैं। प्रतिपाति अवधिज्ञान देशावधि है। 6. अप्रतिपाति .. ___जो अवधिज्ञान अलोकाकाश के एक आकाश प्रदेश को अथवा उससे आगे देखने की क्षमता रखता है, वह अप्रतिपाति अवधिज्ञान है / अप्रतिपाति अवधिज्ञान केवलज्ञान उत्पन्न होने पर ही विनष्ट होता है / परमावधि और सर्वावधिदोनों अप्रतिपाति षट्खण्डागम में अवधिज्ञान के तेरह प्रकार बतलाए गए हैं 1. देशावधि, 2. परमावधि, 3. सर्वावधि, 4. हीयमान, 5. वर्धमान, 6. अवस्थित, 7. अनवस्थित, 8. अनुगामी, 9. अननुगामी, 10. सप्रतिपाति, 11. अप्रतिपाति, 12. एकक्षेत्र, 13. अनेक क्षेत्र। ___ठाणं में देशावधि का, प्रज्ञापना में देशावधि एवं सर्वावधि दोनों का तथा विशेषावश्यक भाष्य में परमावधि का उल्लेख मिलता है। एक क्षेत्र; अनेक क्षेत्र का समावेश अंतगत और मध्यगत में हो जाता है। विशेषावश्यक भाष्य में अवस्थित का Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 / आर्हती-दृष्टि . उल्लेख मिलता है / तत्त्वार्थ भाष्य में प्रतिपाति और अप्रतिपाति के स्थान पर अवस्थित और अनवस्थित का प्रयोग किया गया है / प्रज्ञापना में प्रतिपाति, अप्रतिपाति, अवस्थित और अनवस्थित इन चारों का उल्लेख है। ..ऐसा प्रतीत होता है कि अवधिज्ञान के विभिन्न वर्गीकरण सापेक्ष दृष्टि से किए गए हैं / तत्त्वार्थवार्तिक में प्रकारान्तर से अवधिज्ञान के तीन भेद किए गए हैं 1. देशावधि, 2. परमावधि, 3. सर्वावधि। .. - १.वर्धमान, 2. हीयमान, 3. अवस्थित,४.अनवस्थित, 5. अनुगामी, 6: अननुगामी, 7. प्रतिपाति, 8. अप्रतिपाति–इनका देशावधि में समवतार किया गया है। हीयमान और प्रतिपाति इन दो को छोड़कर शेष छह का परमावधि में समवतार किया गया है। अनवस्थित, अवस्थित, अनुगामी, अननुगामी प्रतिपाति और अप्रतिपाति—इनका सर्वावधि में समवतार किया गया है / अकलंक ने देशावधि और परमावधि में तीन-तीन भेद किए हैंदेशावधि 1. जघन्य उत्सेधांगुल के असंख्येय भाग मात्र क्षेत्र को जानने वाला। 2. उत्कृष्ट सम्पूर्णलोक को जानने वाला। . 3. अजघन्योत्कृष्ट (मध्यम)-जघन्य और उत्कृष्ट का मध्यवर्ती। इसके असंख्येय विकल्प होते हैं। परमावधि 1. जघन्य—एक प्रदेश अधिक लोक प्रमाण विषय को जाननेवाला। 2. उत्कृष्ट असंख्यात लोकों को जाननेवाला। 3. अजघन्योत्कृष्ट (मध्यम)—जघन्य और उत्कृष्ट के मध्यवर्ती क्षेत्र को जानने वाला। सर्वावधि ___ उत्कृष्ट परमावधि के क्षेत्र से बाहर असंख्यात लोक क्षेत्रों को जानने वाला। इसके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट कोई विकल्प नहीं होते। अकलंक के अनुसार परमावधि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से सर्वावधि से न्यून है, इसलिए परमावधि भी वास्तव में देशावधि ही है। फलितार्थ यह है कि अवधिज्ञान के मुख्य दो ही भेद हैं—सर्वावधि और देशावधि / Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान / 291 अन्तगत नन्दी-सूत्र में आनुगामिक अवधिज्ञान के दो भेद किए गए हैं। अन्तगत और मध्यगत / वहाँ पर अन्तगत अवधि पुनः तीन प्रकार का निर्दिष्ट है-पुरतः मार्गतः एवं पार्श्वतः। अवधि के ये भेदज्ञाता शरीर के जिस प्रदेश से ज्ञान के द्वारा देखता है, उसके आधार पर किए गए हैं / एक दिशा से जो ज्ञान करता है, उसको अन्तगत अवधिज्ञान कहा जाता है / अथवा सर्व आत्मप्रदेशों में आवरण विलय से विशद्धि होने पर भी जो औदारिक शरीर के किसी एक भाग से जानता है, वह अन्तगत अवधिज्ञान है। अन्त शब्द पर्यंत का वाची है 'आत्मप्रदेशानां पर्यन्ते स्थितमन्तगतम्।' 1. पुरतः अन्तगत-जो अवधिज्ञान औदारिक शरीर के आगे के भाग से - प्रकाश करता है। 2. मार्गत: अन्तगत-जो ज्ञान पीछे के प्रदेश को प्रकाशित करता है, वह मार्गतः अन्तगत आनुगामिक अवधिज्ञान है। . 3. पार्श्वत:- जो अवधिज्ञान एक पार्श्व अथवा दोनों पार्श्व के पदार्थों को प्रकाशित करता है। वह पार्श्वतः अवधिज्ञान है। मध्यगत जिस ज्ञान के द्वारा ज्ञाता चारों ओर के पदार्थों का ज्ञान करता है, वह मध्यगत अवधिज्ञान है / जो सर्वप्रदेशों की विशुद्धि से सारी दिशाओं से ज्ञान करता है, वह मध्यगत है / औदारिक शरीर के मध्यवर्ती स्पर्धकों की विशुद्धि, सब आत्मप्रदेशों की विशुद्धि अथवा सब दिशाओं का ज्ञान होने के कारण यह अवधिज्ञान मध्यगत कहलाता है। ___आत्मा शरीर के भीतर है और इन्द्रिय चेतना भी उसके भीतर है / इन्द्रिय चेतना की रश्मियां अपने-अपने नियत प्रदेशों के माध्यम से बाहर आती हैं / अवधिज्ञान के लिए कोई एक नियत प्रदेश या चैतन्य केन्द्र नहीं है। उसकी रश्मियों के बाहर आने के लिए शरीर के विभिन्न प्रदेश चैतन्यकेन्द्र ही हैं / अन्तगत अवधिज्ञान की रश्मियाँ शरीर के पर्यन्तवर्ती (अग्र, पष्ठ और पार्श्ववर्ती) चैतन्यकेन्द्रों के माध्यम से बाहर आती हैं। मध्यगत अवधिज्ञान की रश्मियाँ शरीर के मध्यवर्ती चैतन्य केन्द्रों-मस्तक आदि से बाहर निकलती हैं। ___ सूत्रकार ने अन्तगत और मध्यगत अवधिज्ञान का भेद स्वयं स्पष्ट किया है। उनके अनुसार एक दिशा में जाननेवाला अवधिज्ञान अन्तगत अवधिज्ञान है और सब . Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 / आर्हती-दृष्टि दिशाओं में जाननेवाला अवधिज्ञान मध्यगत अवधिज्ञान है। नन्दी में प्राप्त ये ज्ञान के भेद अन्यत्र दृष्टिपथ में नहीं आते / इन भेदों का अध्यात्म की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रेक्षाध्यान में चैतन्यकेन्द्र की अवधारणा इन भेदों के आधार पर हुई है। ज्ञान बाह्य जगत् में शरीर के माध्यम से प्रकट होता है, वह शरीर को करण बनाता है / इस विवेचन से यह स्पष्ट है / अवधिज्ञान के इन भेदों को देखने से दिगम्बर साहित्य में अवधिज्ञान उत्पत्ति के चिह्नों का जो उल्लेख है उनका स्मरण हो जाता है, इन भेदों के साथ उनकी महत्त्वपूर्ण तुलना हो सकती है। षखण्डागम के एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान की तुलना अन्तगत और मध्यगत के साथ की जा सकती है। जिस अवधिज्ञान का करण जीव के शरीर का एक देश होता है, वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है / जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्र की वर्जना कर शरीर के सब अवयवों में रहता है वह अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान है। चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने अन्तगत और मध्यगत के बीच भेदरेखा खींचने के लिए दो आधार प्रस्तुत किए हैं अन्तगत - मध्यगत 1. औदारिक शरीर के पर्यंन्तवीं | 1. औदारिक शरीर के मध्यवर्ती आत्मप्रदेशों की विशुद्धि। . आत्मप्रदेशों की विशुद्धि। 2. सब आत्मप्रदेशों की विशुद्धि होने | 2. सब आत्मप्रदेशों की विशुद्धि होने पर पर भी एक पर्यन्त से होने वाला तथा | सब दिशाओं को प्रकाशित करनेवाला। एक दिशा को प्रकाशित करनेवाला। दिगम्बर साहित्य में अवधिज्ञान के करणों का नामोल्लेख मिलता है। अवधिज्ञान की उत्पत्ति आत्मा के उन्हीं प्रदेशों से होती है, जो शंख आदि शुभचिह वाले अंगों में वर्तमान होते हैं तथा मनःपर्याय ज्ञान की उत्पत्ति आत्मा के उन प्रदेशों से होती है जिनका सम्बन्ध द्रव्य मन के साथ है अर्थात् द्रव्य मन का स्थान हृदय ही है, इसलिए हृदय-भाग में स्थित आत्मा के प्रदेशों में ही मनःपर्यव ज्ञान का क्षयोपशम है; परन्तु शंख आदि शुभ चिह्नों का सम्भव सभी अंगों में हो सकता है, इस कारण अवधिज्ञान के क्षयोपशम की योग्यता किसी खास अंग में वर्तमान आत्मप्रदेशों में ही नहीं मानी जा सकती। अपितु सम्पूर्ण शरीर में ही है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान / 293 'सवंग अंगसंभवविण्हादुष्पज्जदे जहा ओही। ___मणपज्जवं च दव्वमणादो उपज्जदे णियमा / ' अन्तगत और मध्यगत ये दोनों चैतन्य केन्द्रों के गमक हैं। इनमें शंख आदि नामों का उल्लेख नहीं है / भगवती (8/ 103) में विभंगज्ञान के संस्थानों का उल्लेख किया गया है। उसमें अनेक संस्थानों के नाम उपलब्ध हैं, जैसे-वृषभ का संस्थान, पशु का संस्थान, पक्षी का संस्थान आदि / धवला में विभंगज्ञान के क्षेत्र संस्थानों का उल्लेख मिलता है। - 'शुभ संस्थान तिर्यञ्च और मनुष्यों के नाभि के उपरिम भाग में होते हैं, नीचे के भाग में नहीं होते; क्योंकि शुभ संस्थानों का अधोभाग के साथ विरोध है तथा तिर्यञ्च और मनुष्य विभंगज्ञानियों के नाभि से नीचे गिरगिट आदि अशुभ संस्थान होते हैं। विभंगज्ञानियों के सम्यक्त्व आदि के फलस्वरूप अवधिज्ञान के उत्पन्न होने पर गिरगिट आदि अशुभ आकार मिटकर नाभि के ऊपर शंख आदि शुभ आकार हो जाते हैं। अवधिज्ञान से लौटकर प्राप्त हुए विभंगज्ञानियों के भी शुभ संस्थान मिटकर अशुभ . संस्थान हो जाते हैं।' . ... प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर आचार्यों के सामने विभंगज्ञान के संस्थान की व्याख्या स्पष्ट नहीं रही। दिगम्बर आचार्यों के सामने वह स्पष्ट थी / अवधिज्ञान और विभंगज्ञान दोनों के शरीरगत संस्थान होते हैं। यह मत निर्विवाद है। षट्खण्डागम और धवला में करण या चैतन्यकेन्द्र के बारे में विशद जानकारी मिलती है 'खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा। सिरिवच्छ-कलस-संख-सोत्थिय-णंदावत्तादीणि संठाणाणि णादव्वाणि भवति // ' इस उद्धरण से यह स्पष्ट होता है कि जीव प्रदेशों के क्षायोपशमिक विकास के आधार पर चैतन्यकेन्द्रमय शरीर प्रदेशों के अनेक संस्थान बनते हैं। पखण्डागम और धवला में उनका उल्लेख किया गया है। नन्दीसूत्र में अन्तगत और मध्यगत के रूप में उनका स्पष्ट निर्देश है / भगवती में प्राप्त विभंगज्ञान के संस्थानों के उल्लेख से यह अनुमान करना सहज है कि अवधिज्ञान से सम्बद्ध चैतन्यकेन्द्रों का निर्देश भी आगम साहित्य में था किन्तु वह किसी कारणवश विलुप्त हो गया। अवधि उत्पत्ति क्षेत्र .. तीर्थंकर, नारकी एवं देवता को अवधिज्ञान सर्वांग से उत्पन्न होता है तथा मनुष्य एवं तिर्यञ्चों के शरीरवर्ती शंख, कमल, स्वस्तिक आदि करण चिह्नों से उत्पन्न होता Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 / आर्हती-दृष्टि है। क्षेत्र की अपेक्षा से शरीर प्रदेश अनेक संस्थान संस्थित होते हैं। श्रीवत्स, कलश, शंख, स्वस्तिक, नन्द्यावर्त आदि आकार भी शरीर संस्थित होते हैं / चिह्नों का आकार नियत नहीं होता। जैसे शरीर और इन्द्रिय आदि का आकार नियत होता है किन्तु अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम को प्राप्त हए जीवप्रदेशों के करण-रूप शरीरप्रदेश अनेक संस्थानों से संस्थित होते हैं। एक जीव के एक ही स्थान में अवधिज्ञान का करण होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है ।किसी भी जीव के एक, दो, तीन आदि क्षेत्र रूप, शंख आदि शुभ स्थान सम्भव हैं / ये शुभ संस्थान तिर्यञ्च एवं मनुष्य के नाभि से ऊपर के भाग में होते हैं तथा विभंग अज्ञानी तिर्यञ्च एवं मनुष्य के नाभि के नीचे अधोभाग में गिरगिट आदि आकारवाले अशुभ संस्थान होते हैं / धवला में स्पष्ट कहा है इस विषय में शास्त्र का वचन नहीं है मात्र गुरु उपदेश से यह तथ्य प्राप्त है। अवधिज्ञान का यह विवेचन साधना के क्षेत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण है किन्तु दार्शनिक चर्चा में अवधि के इस रूप की चर्चा उपलब्ध नहीं होती। विशेषावश्यक भाष्य में आवश्यक नियुक्ति की गाथा को उद्धृत करते हुए अवधिज्ञान का क्षेत्र, संस्थान, आनुगामिकं, अवस्थित आदि चौदह दृष्टियों से तथा ऋद्धि को इसमें सम्मिलित करें तो पन्द्रह दृष्टियों से विस्तृत विवेचन हुआ है। भाष्य में नियुक्ति गाथा के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव एवं भाव इस सात निक्षेपों से वर्णित अवधिज्ञान का विस्तार से वर्णन प्राप्त है / यथा१. नाम अवधि __प्रकृत अवधिज्ञान का वर्णावली मात्र जो अभिधान है, वह नाम अवधि है / अवधि यह अभिधान अवधिज्ञान का वचन रूप स्वपर्याय है। 2. स्थापना अवधि ____ आकार-विशेष को स्थापना अवधि कहा गया है / अवधिज्ञान के विषयभूत द्रव्य भू, भूधर, भरत आदि क्षेत्र तथा अवधि के आधारभूत साधु आदि का जो आकार होता है, उनका आकार-विशेष ही स्थापना अवधि है। 3. द्रव्य अवधि ___कायोत्सर्ग आदि क्रिया में स्थित साधु के अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो वह साधु अथवा जिसको अपना विषय बनाता है, वे पर्वत, पृथ्वी आदि पदार्थ अथवा उस अवधिज्ञान की उत्पत्ति में जो सहकारी रूप से उपकारक द्रव्य हैं / वे सब द्रव्य अवधि हैं / तप, संयम आदि अवधिज्ञान की उत्पत्ति में जो कारणभूत हैं उनको भी द्रव्य अवधि जानना चाहिए। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान / 295 4. क्षेत्र अवधि - नगर, उद्यान आदि क्षेत्र में जहाँ अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, वह अधिकरण भूतक्षेत्र क्षेत्रअवधि कहलाता है तथा अवधिज्ञानी जितने क्षेत्र में स्थित द्रव्यों को जानता है, वह क्षेत्र भी क्षेत्रअवधि है। 5. काल अवधि जिस प्रथम पौरूषी आदि में अवधि उत्पन्न हुआ है, वह कालअवधि है। 6. भव अवधि जिस नारक आदि भव में अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह नारक आदि भव, भवअवधि कहलाता है अथवा अपने या दूसरे व्यक्ति के अतीत, अनागत जितने भी भव देखता है, वे भव अवधि हैं। 7. भाव अवधि जिस क्षायोपशमिक भाव में अवधि उत्पन्न होता है, वह भाव अवधि है अथवा जिन औदारिक आदि पाँचों भावों अथवा उनमें से किसी भाव को देखता है, वह भाव अवधि है। 8. संस्थान अवधि विशेषावश्यक भाष्य में अवधिज्ञान के विभिन्न संस्थानों का उल्लेख है / जघन्य एवं उत्कृष्ट अवधि तो जितना देखता है, वही उसका संस्थान हैं। नारक जीवों का अवधिज्ञान तप्राकार, भवनपति देवों का पल्लक आकार का, व्यन्तर देवों का अवधिज्ञान पटहक आकार ज्योतिष देवों का झल्लरी आकार का सौधर्म आदि कल्पोपन्न देवों का मृदंग के आकार का, ग्रैवेयक देवों का पुष्प एवं अनुत्तर देवों का अवधिज्ञान यव जैसे संस्थान का होता है तथा मनुष्य एवं तिर्यञ्च के अवधि के नाना संस्थान हैं। संदर्भ .. 1. नंदी ( सभाष्य) . . Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन : पर्यवज्ञान जैन दर्शन के अनुसार विशिष्ट योगी अपनी साधना के द्वारा मनोगत भावों को साक्षात् जानने की क्षमता का विकास कर लेता है / मनोगत भावों को जाननेवाला यह अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष जैन ज्ञान मीमांसा में मनःपर्याय अथवा मनःपर्यवज्ञान कहलाता है। जब कोई व्यक्ति चिन्तन-मनन आदि मानसिक क्रियाओं में प्रवृत्त होता है तब वह एक विशेष प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करता है जिन्हें जैन दर्शन में मनोवर्गणा के पुद्गल कहा जाता है। चिन्तनकाल में उन पुद्गलों की भी विचारानुरूप परिणितियाँ होती हैं, आत्मा उस परिणमन के द्वारा इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदि बाह्य साधनों की सहायता के बिना भी मनोगत भावों को जान लेता है / आत्मा की उस क्षमता को ही मनःपर्यवज्ञान कहा जाता है। मनःपर्यवज्ञान की परिभाषा . अतीन्द्रिय ज्ञान अथवा प्रत्यक्षज्ञान के तीन भेदों में दूसरा भेद है-मनःपर्यवज्ञान। यह ज्ञान मनोवर्गणा के माध्यम से मानसिक भावों को जाननेवाला ज्ञान है। व्यक्ति जो सोचता है उसी के अनुरूप चिन्तन प्रवर्तक पुद्गल द्रव्यों के पर्याय-आकार निर्मित हो जाते हैं। मन के उन पर्यायों का साक्षात् करनेवाला ज्ञान मनःपर्यवज्ञान है। मनःपर्यवज्ञान की व्युत्पत्ति करते हुए क्षमाश्रमण जिनभद्रगणि ने लिखा है पज्जवणं पज्जयणं पज्जावो वा मणम्मि मणसों वा। तस्स व पज्जादिन्नणं मणपज्जवं नाणं / पर्यव और पर्यय दोनों का अर्थ है-सर्वतोभावेन ज्ञान / पर्याय शब्द का अर्थ है सर्वतः प्राप्ति / मनोद्रव्य को समग्रता से जानना अथवा बाह्य वस्तुओं के चिन्तन के अनुरूप मनोद्रव्य की पर्यायों की समग्रता से प्राप्ति ही मनःपर्यवज्ञान है। इसको मनःपर्यव, मनःपर्यय एवं मनःपर्याय ज्ञान कहा जाता है। जिस ज्ञानोपयोग में मन (दीर्घकालीन संज्ञा) की पूर्णरूपेण प्राप्ति हो वह मनःपर्यायज्ञान है / मन सूक्ष्म जड़ द्रव्य से बना हुआ है। विभिन्न मानसिक व्यापारों में वह मनोद्रव्य भिन्न-भिन्न आकारों में प्रकट होता है अर्थात् अमूर्त विचारों का जो मूर्तीकरण होता है, उस आधार पर Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन : पर्यवज्ञान / 297 चिन्तनधारा का ज्ञान ही मनःपर्यवज्ञान है। ___ मनःपर्यवज्ञान संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के मनश्चितित अर्थ को प्रकट करता है। इसका सम्बन्ध मनुष्य-क्षेत्र से है यह गुण प्रत्ययिक है / यह चरित्रवान् संयमी के ही होता है / मनःपर्यवज्ञान के भेद नन्दीसूत्र में मनःपर्यवज्ञान के दो प्रकार बतलाए गए हैं—ऋजुमति और विपुलमति मनःपर्यवज्ञान / मनःपर्यवज्ञान के इन दो भेदों की अवधारणा दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों जैन परम्पराओं में है। ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान दूसरे के मनोगत भावों को सामान्य रूप से जानता है। नन्दीचूर्णि के अनुसार ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान मन के पर्यायों को जानता है किन्तु अत्यधिक विशेषण से विशिष्ट पर्यायों को नहीं जानता है। नन्दी चूर्णिकार ने ऋजु का.अर्थ सामान्य किया है / ऋजुमति ज्ञान के सन्दर्भ में सामान्य का अर्थ अपेक्षाकृत कम पर्यायों; धर्मों या आकारों से युक्त ज्ञान है। जैसे कोई व्यक्ति घट का चिन्तन करता है तो ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान यह तो जान ही लेता है कि अमुक व्यक्ति घट का चिन्तन कर रहा है पर यह नहीं जान पाता है कि इस व्यक्ति के द्वारा चिन्तित घट का आकार कितना है, यह किस द्रव्य से बना हुआ है, शीतकाल में बना हुआ है या ग्रीष्मकाल में। इसमें अन्य क्या-क्या विशेषताएं हैं ।अर्थात् बहुत विशेषण विशिष्टता का अभाव ही यहां सामान्य अथवा ऋजु शब्द का अभिधेयार्थ है। धवला में ऋजुमति की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि यथार्थ मन, यथार्थ वचन और यथार्थ कायिक चेष्टागत अर्थ को विषय बनानेवाली मति ऋजुमति है। ऋजु का एक अर्थ किया गया है-व्यक्त / संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित मन व्यक्त मन कहलाता है / व्यक्त मन का ज्ञान ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान है। ऋजुमति चिन्तित अर्थ को ही जानता है / अचिन्तित और अर्धचिन्तित अर्थ अव्यक्त होने से उसके विषय नहीं बनते हैं। श्वेताम्बर साहित्य में ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान के उपभेदों की चर्चा उपलब्ध नहीं है। दिगम्बर साहित्य में ऋजमति मनःपर्यवज्ञान के तीन भेद किए गए हैं. 1. ऋजुमनोगत-जो दूसरे के द्वारा स्फुट रूप से चिन्तन किए गए अर्थ को सामान्य रूप से जानता है। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 / आर्हती-दृष्टि 2. ऋजुवचनगत-जो दूसरे के द्वारा स्फुट रूप से कहे गए वचन को सामान्य रूप से जानता है वह ऋजुवचनगत मनःपर्यवज्ञान है। प्रश्न होता है कि ऋजुवचनगत अर्थ को जानना ऋजुमति मनःपर्यव कैसे? इसका समाधान प्रस्तुत करते हुए आचार्य वीरसेन ने कहा है कि ऋजुवचन की प्रवृत्ति ऋजुमन के बिना नहीं हो सकती, अतः ऋजुवचनगत अर्थ के आधार पर ऋजुमन को जानने की क्रिया ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान की सीमा में आ जाती है। 3. ऋजुकायगत-दूसरे की स्पष्ट कायिक चेष्टा के आधार पर सामान्य रूप से उसके मन को जानना ऋजुकायगत ज्ञान है / कायिक चेष्टा मननपूर्वक होती है, अतः उसके द्वारा वार्तमानिक मनोगत भावों का ज्ञान ऋजमति मनःपर्यवज्ञान है। विपुलमति मनःपर्यवज्ञान मनःपर्यवज्ञानावरणीय के विशिष्ट क्षयोपशम से योगी परकीय मनोगत भावों को विशेष रूप से जान लेता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान विपुलमति मनःपर्यवज्ञान कहलाता नन्दीचूर्णी के अनुसार विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी चिन्तन में परिणत पदार्थों को बहुत विशेषों (पर्यायों) 2 युक्त जानता है। जैसे किसी ने घट का चिन्तन किया तो विपुलमति मनःपर्यवज्ञान केवल घट मात्र ही नहीं जानेगा उसके देश, काल आदि अनेक पर्यायों को भी जान लेगा। विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी दूसरे के द्वारा ग्रहण किए हुए मनोद्रव्य के आधार पर जान लेता है कि इसने जिस घट का चिन्तन किया वह स्वर्ण निर्मित है, पाटलिपत्र में अभी-अभी बना है, बड़ा है, अभी फल से ढककर कमरे में रखा हुआ है, इस प्रकार उसका ज्ञान ऋजुमति की अपेक्षा बह विशेषग्राही होता। सिद्धसेनगणि ने ऋजुमति को सामान्यग्राही एवं विपुलमति को विशेषग्राही बतलाया है। उन्होंने सामान्य का प्रयोग स्तोक के अर्थ में किया है। किसी व्यक्ति ने घट का चिन्तन किया ऋजुमति उसको जान लेता है किन्तु घट की अनेक पर्यायों का चिन्तन किया उन सब पर्यायों को वह नहीं जानता। विपुलमति घट के विषय में चिन्त्यमान सैकड़ों पर्यायों को जान लेता है। विपुलमति मनःपर्यवज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म का विशिष्ट क्षयोपशम है, जिसके द्वारा ज्ञाता अपने या दूसरे के व्यक्त मन से चिन्तित अथवा अचिन्तित चिन्ता, मरण, सुख, दुःख आदि भावों को जान लेता है। धवला में विपुल का अर्थ विस्तीर्ण किया Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन : पर्यवज्ञान / 299 गया है / वीरसेन के अनुसार विपुलमति मनःपर्यवज्ञान अव्यक्त मन को भी जान लेता है। अव्यक्त मन का अभिप्राय है-चिन्तन में अर्धपरिणत, चिन्तित वस्तु के स्मरण से रहित और चिन्तन में अव्यापृत मन ।इस प्रकार विपुलमति मनः पर्यवज्ञान में क्षयोपशम इतना विशिष्ट होता है कि वह ऋजु और अऋजु रूप से चिन्तित, अचिन्तित या अर्धचिन्तित, वर्तमान में विचार किया जा रहा है, अतीत में विचार किया गया था अथवा भविष्य में चिन्तन किया जाएगा, उन सब अर्थों को जान लेता है। गोम्मटसार जीवकाण्ड के अनुसार विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी भूत, भविष्यत् और वर्तमान जीव के द्वारा चिन्तन किए गए त्रिकालगत- रूपी पदार्थ को जानता है / जबकि ऋजुमति केवल वर्तमान में चिन्तन किए गए पदार्थ को ही जानता है। दिगम्बर साहित्य में विपुलमति मनःपर्यवज्ञान के छह भेद उपलब्ध होते हैं१. ऋजुमनोगत-यथार्थ अथवा स्फुट मन के द्वारा चिन्तन किए गए अर्थ को जानना ऋजुमनोगत विपुलमति है। 2. ऋजुवचनगत-यथार्थ वाणी के व्यापार के आधार पर किसी के विचार . को जानना ऋजुवचनगत है। . 3. ऋजुकायगत-यथार्थ कायिक चेष्टा से चिन्तित अर्थ को जानना ऋजुकायगत है। 4. वक्रमनोगत-संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय मन वक्र मन है / तद्गत अर्थ को जानना वक्र मनोगत है। 5. वक्रवचनगत-संशय आदि से युक्त भाषा के आधार पर भी चिन्तित अर्थ को जान लेना वक्रमनोगत है। 6. वक्रकायगत-संशय आदि से युक्त काय-व्यापार के आधार पर मन का ज्ञान वक्रकायगत विपुलमति मनःपर्यवज्ञान है। वक्रता का दूसरा अर्थ व्यक्तता भी है / वर्तमान के चिन्तन को जानना सरल है पर भूत अथवा भविष्य के चिन्तन को यथार्थतः जानना दुष्कर है क्योंकि वह उतना व्यक्त नहीं होती है। मनःपर्यवज्ञानी भी ज्ञानचेतना जब बहुत अधिक पटु हो जाती है, तभी वह भूत और भविष्य में बननेवाले मनोद्रव्य के पर्यायों को यथावत् ग्रहण कर पाता है। ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्यवज्ञान में अन्तर . आचार्य उमास्वाति ने ऋजुमति और विपुलमति का भेद बतलाने के लिए विशुद्धि और अप्रतिपात इन दो हेतुओं का निर्देश किया है। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋजुमति 300 / आर्हती-दृष्टि विपुलमति 1. विशुद्ध 1. विशुद्धतर 2. प्रतिपात 2. प्रतिपात रहित आचार्य देववाचक ने विपुलमति मनःपर्यवज्ञान के क्षेत्र को ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान के क्षेत्र से ढ़ाई अंगुल अधिक बताते हुए चार भेदक विशेषणों का प्रयोग किया है। - अभ्यधिकता-एक दिशा से बड़ा होना अभ्यधिकता है। जैसे एक बड़ा घड़ा छोटे घड़े की अपेक्षा जलधारण की दृष्टि से अभ्यधिक होता है वैसे ही ऋजुमति के ज्ञातव्य क्षेत्र से विपुलमति का ज्ञातव्य क्षेत्र अधिक होता है अथवा आयाम एवं विष्कम्भ (लम्बाई, चौड़ाई) की अपेक्षा क्षेत्र की अधिकता ही अभ्यधिकता है। 2. विपुलतरता-हर दृष्टि से या सब तरह से बड़ा होना विपुलता है। बड़ा घट घटाकाश की अपेक्षा छोटे घट से बड़ा होता है, उसी प्रकार ऋजुमति की अपेक्षा विप्लमति का ज्ञेय क्षेत्र मनोलब्धि वाले जीव द्रव्य के आधार की अपेक्षा विशाल है। 3. विशुद्धतरता-जिस प्रकार दीपक ट्यूबलाइट आदि प्रकाशक द्रव्य जितनी अधिक प्रकाशक क्षमतावाले होते हैं, पदार्थ उतने ही स्पष्ट अवभासित होते हैं / उसी प्रकार चारित्रिक विशुद्धि एवं क्षयोपशम वैशिष्ट्य के कारण विपुलमति की ज्ञान क्षमता विशुद्धतर होती है। 4. वितिमिरतरता बार-बार आवरण आने से आलोकित क्षेत्र भी तिमिरमय हो जाता है तथा ज्ञेय की स्पष्टता में कमी आ जाती है। विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी का चारित्र इतना विशुद्ध होता है कि उसके पुनः मनःपर्यवज्ञानावरण का बन्धन नहीं होता तथा पूर्वबद्ध कर्म भी विपाकोदय में नहीं रहते, अतः वह ज्ञान ऋजुमति की अपेक्षा वितिगिरतर-अन्धकाररहित होता है। ऋजुमति केवल व्यक्त मन को ही जानता है जबकि विपुलमति अव्यक्त मन को भी जानने की क्षमता रखता है, अतः अचिन्तित, अनुक्त और अकृत का ग्रहण अग्रहण भी इन दोनों का भेदक है। मनोविज्ञान की भाषा में ऋजुमति को सरल मनोविज्ञान और विपुलमति को जटिल मनोविज्ञान कहा जा सकता है। मनःपर्यवज्ञान का कारण कर्मशास्त्रीय मीमांसा के अनुसार, मनःपर्यवज्ञान वैभाविक ज्ञान है, अतः उसका Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन : पर्यवज्ञान / 301 कारण भी मति, श्रुत आदि ज्ञानों के समान केवलज्ञानावरण का उदय है। वस्तुतः ज्ञानचेतना अखण्ड है और जब वह पूर्णतः अनावृत होती है तब केवलज्ञान उत्पन्न होता है। छद्मस्थ अवस्था में केवलज्ञानावरण का उदय रहता है। तथा इसी समय मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण एवं मनःपर्यवज्ञानावरण आदि ज्ञानावरण प्रकृतियों का क्षयोपशम होता है, तब उन-उन ज्ञानों की प्राप्ति होती है। ज्ञान के प्रकटीकरण में ज्ञानावरण के समान अन्तरायकर्म की भी अहम् भूमिका है। इसलिए स्वामी पूज्यपाद अकलंक आदि ने मनःपर्यवज्ञान की उत्पत्ति में दो कर्मों के क्षयोपशम को प्रधानता दी है। . 1. वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम। 2. मनःपर्यवज्ञानावरणीय का क्षयोपशम / दिगम्बर मान्यता के अनुसार जिस प्रकार अवधिज्ञान की उत्पत्ति शरीरगत करण चिह्नों से होती है, मतिज्ञान में इन्द्रिय, मन आदि की करणता स्वीकार की गई है, उसी प्रकार मनःपर्यवज्ञान का भी अपना नियत करण है / उस करण का नाम है मन / उनके अनुसार जिस प्रकार इन्द्रियों की निवृत्ति के लिए अंगोपांग नामकर्म का उदय अपेक्षित है, उसी प्रकार अष्ट पंखुड़ीवाले विकसित कमल के समान आकृतिवाले मन की निवृत्ति के लिए भी अंगोपांग नामकर्म का उदय अपेक्षित है। इस प्रकार मनःपर्यवज्ञान का एक कारण अंगोपांग नामकर्म का उदय भी है। ___श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार जिस प्रकार चक्षुर्विज्ञान आलोक सापेक्ष होता है उसी प्रकार मन का ज्ञान मनोवर्गणा सापेक्ष होता है / मनन करने में जो पुद्गल प्रयुक्त होते हैं, उनकी आकृतियों, पर्यायों के द्वारा ही मनःपर्यवज्ञानी दूसरे के मन का ज्ञान करते हैं। मनःपर्यवज्ञान की विषय मर्यादा - मनःपर्यवज्ञान अप्रमत्त साधु को होनेवाला विशिष्ट ज्ञान है / यह क्षायोपशमिक ज्ञान है अतः इसकी अपनी कुछ मर्यादाएं हैं। अरूपी द्रव्य इसके विषय नहीं बनते क्योंकि यह द्रव्य मन की पर्यायों का साक्षात्कार करता है / मनःपर्यवज्ञान अवधिज्ञान से कम रूपी द्रव्य को जानता है / आचार्य उमास्वाति ने मनःपर्यवज्ञान की विषय मर्यादा का सामान्य कथन करते हुए बताया है कि इसका विषय सर्वावधि के विषय का अनन्तवां भाग है। ___ व्याख्याप्रज्ञप्ति एवं नन्दीसूत्र में मनःपर्यवज्ञान की विषय-मर्यादा का द्रव्य, क्षेत्र काल एवं भाव इन चार दृष्टियों से विवेचन उपलब्ध होता है। ही है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 / आर्हती-दृष्टि 1. द्रव्यदृष्टि-द्रव्य की दृष्टि से मनःपर्यवज्ञानी मनोवर्गणा के अनन्त-अनन्त प्रदेशी स्कन्धों को जानता है / मनःपर्यवज्ञान के द्वारा समस्त पुद्गलास्तिकाय . को नहीं जाना जा सकता क्योंकि उसकी क्षमता अनन्त प्रदेशी स्कन्धों को जानने की है। एक पुद्गल परमाणु यावत् संख्यात प्रदेशी और असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध उसकी विषय सीमा से बाहर है। अनन्तप्रदेशी पुद्गल स्कन्धों की अनन्त प्रकार की वर्गणाएं मानी गई हैं। एक उत्कृष्ट मनःपर्यवलब्धि सम्पन्न व्यक्ति भी उन सबका साक्षत् नहीं कर सकता / अतः द्रव्य की दृष्टि से ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी अनन्तप्रदेशी स्कन्धों को जानता है और विपुलमति उन्हें अभ्यधिक रूप में जानता है। 2. क्षेत्रदृष्टि-क्षेत्र की दृष्टि से मनःपर्यवज्ञानी मनुष्य-क्षेत्र के भीतर अढ़ाई द्वीप समुद्र तक पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस अकर्मभूमियों और छप्पन अन्तीपों में वर्तमान पर्याप्त समनस्क पञ्चेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जानता-देखता है / आवश्यक नियुक्ति में मनःपर्यवज्ञान को मनुष्य-क्षेत्र तक सीमित बताया गया है। दिगम्बर परम्परा में षटखण्डागम के अनुसार ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान का जघन्य क्षेत्र गव्यूति पृथक्त्व एवं उत्कृष्ट क्षेत्र मानुषोत्तर पर्वत तक है। श्वेताम्बर परम्परा में पृथक्त्व शब्द दो से नौ तक की संख्या का संकेत करता है जबकि दिगम्बर आम्नाय में वह आठ और नौ का वाचक है। कालदृष्टि-काल की दृष्टि से मनःपर्यवज्ञानी जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग अतीत और भविष्य को जानता-देखता है। दिगम्बर परम्परा में मनःपर्यवज्ञान की काल मर्यादा का कथन ‘भव' के आधार पर किया गया है, एल्योपम आदि के आधार पर नहीं / ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान जघन्यतः दो-तीन भवों को और उत्कृष्टतः सात-आठ भवों को साक्षात् जान-देख सकता है। विपुलमति मनःपर्यवज्ञान कालतः कम-से-कम सात-आठ भवों को और उत्कृष्टः असंख्यात भवों को जानने-देखने की क्षमता रखता है। 4. भावदृष्टि-भाव की दृष्टि से मनःपर्यवज्ञानी अनन्तभावों को जानता देखता है पर वे अनन्तभाव सब भावों के अनन्तवें भाग जितने होते हैं / विपुलमति . मनःपर्यवज्ञान का विषय भी इतना ही है, केवल वह उन्हें अभ्यधिकतर, विशुद्धतर और वितिमिरतर रूप में जानता है / तत्त्वार्थसूत्र में मनःपर्यवज्ञान का विषय सर्वावधि का अनन्तवां भाग बताया गया है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन : पर्यवज्ञान | 303 प्रमत्त मनःपर्यवज्ञानी की अर्हता नन्दीसूत्र में मनःपर्यवज्ञानी के लिए नवअर्हताएं निर्धारित हैं 1. ऋद्धि प्राप्त, 2. अप्रमत्त, 3. संयत, 4. सम्यग्दृष्टि, 5. पर्याप्तक, 6. संख्येयवर्षायुष्क, 7. कर्मभूमिज, 8. गर्भावक्रांतिक, 9. मनुष्य, देखें यन्त्र अस्वामी स्वामी अमनुष्य मनुष्य संमूर्छिम मनुष्य गर्भावक्रान्तिक मनुष्य अकर्मभूमिज और अन्तीपक मनुष्य कर्मभूमिज मनुष्य असंख्येयवर्षायुष्क मनुष्य संख्येयवर्षायुष्क मनुष्य अपर्याप्तक मनुष्य पर्याप्तक मनुष्य मिथ्यादृष्टि और सम्यगदृष्टि / सम्यग्दृष्टि मनुष्य असंयत और संयतासंयत संयत अप्रमत्त अनृद्धिप्राप्त ऋद्धिप्राप्त गौतम पूछते हैं-भगवन् ! मनःपर्यवज्ञान मनुष्यों के उत्पन्न होता है अथवा मनुष्य इतर प्राणियों के ? भगवान् उन्हें समाहित करते हैं—मनःपर्यवज्ञान मनुष्यों के उत्पन्न होता है। मनुष्येतर-तिर्यञ्च, देव और नारक के उत्पन्न नहीं होता है / मनःपर्यवज्ञान केवल उन मनुष्यों के ही हो सकता है जो गर्भज, कर्मभूमिज, संख्येयवर्ष आयुष्यवाले पर्याप्त अर्थात् सभी पौद्गलिक शक्तियों-इन्द्रिय, भाषा, मन आदि से युक्त होते हैं तथा साथ ही जो सम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयत एवं ऋद्धि सम्पन्न होते हैं। मनःपर्यवज्ञान और अवधिज्ञान में अन्तर / ___ मनःपर्यवज्ञान से मन की पर्यायों को जाना जाता है। मन का निर्माण मनोद्रव्य की वर्गणा से होता है। मन पौद्गलिक है और मनःपर्यवज्ञानी मनोवर्गणा के पर्यायों को जानता है / अवधिज्ञान का विषयरूपी द्रव्य है और मनोवर्गणा के स्कन्ध भी रूपीद्रव्य हैं / इस प्रकार दोनों का विषय एक ही बन जाता है / मनःपर्यवज्ञान अवधिज्ञान का एक अवान्तर भेद जैसा प्रतीत होता है। इसीलिए आचार्य सिद्धसेन ने अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान को एक माना है। उनकी परम्परा को सिद्धान्तवादी आचार्यों ने मान्य नहीं किया है / उमास्वाति ने सम्भवतः पहली बार अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान के भेद-ज्ञापक हेतुओं का निर्देश किया है-विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय / Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 / आहती-दृष्टि अवधि और मनःपर्यवज्ञान का अन्तर निम्न चार्ट से समझा जा सकता हैअवधिज्ञान मनःपर्यवज्ञान - स्वामी-अविरत सम्यग्दृष्टि, | ऋद्धि सम्पन्न अप्रमत्त संयत / देशविरत, सर्वविरत। विषय-द्रव्य–अशेष रूपी द्रव्य। द्रव्य-संज्ञी जीवों का मनोद्रव्य।.. क्षेत्र-पूरा लोक और अलोक में प्रमाण | क्षेत्र—मनुष्य-क्षेत्र। ... असंख्येय खण्ड। काल-असंख्येय अवसर्पिणी- | काल-पल्योपम के असंख्येय भाग उत्सर्पिणी प्रमाण अतीत- अनागत | प्रमाण अतीत अनागत काल। / काल। भाव-प्रत्येक रूपी-द्रव्य के असंख्येय | भाव-मनोद्रव्य के अनन्त पर्याय। | पर्याय। .. जिस प्रकार एक फिजिशियन आंख, नाक, गला आदि के सभी अवयवों की जाँच करता है, उसी प्रकार आंख, गला आदि का विशेषज्ञ डॉ. भी करता है। किन्तु दोनों की जाँच और चिकित्सा में अन्तर रहता है। एक ही कार्य होने पर भी विशेषज्ञ के ज्ञान की तुलना में वह डॉ. नहीं आ सकता। इसी प्रकार मनःपर्यवज्ञान की तुलना में साधारण अवधिज्ञान नहीं आ सकता। मन:पर्यवज्ञान और अवधिज्ञान में साधर्म्य अवधिज्ञान के समान मनःपर्यवज्ञान भी अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है। दोनों ही विकल्प प्रत्यक्ष हैं। ये दोनों ही ज्ञानरूपी पदार्थ को इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना साक्षात् करने की क्षमता रखते हैं। अरूपी पदार्थों-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, काल और कर्ममुक्त जीव को साक्षात् करने में दोनों ही समर्थ नहीं हैं। जिनभद्रगणि ने अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान में साधर्म्य के सूचक चार हेतुओं का निर्देश किया है 1. दोनों ज्ञान छद्मस्थ के होते हैं। 2. दोनों ज्ञान का विषयरूपी द्रव्य है। 3. दोनों ज्ञान क्षायोपशमिक भाव है। 4. दोनों प्रत्यक्ष ज्ञान है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन : पर्यवज्ञान / 305 1. छदस्थ साधर्म्य-अवधि और मनःपर्यवज्ञान छद्मस्थ के ही होते हैं / अतः स्वामी की दृष्टि से उन दोनों में समानता है। 2. विषय साधर्म्य-दोनों ही ज्ञानों का विषय केवलरूपी पदार्थ-पुद्गल है। अरूपी पदार्थ उनके विषय नहीं बनते अतः दोनों में विषयकृत साम्य हैं / 3. भाव साधर्म्य-दोनों ही ज्ञान जैन कर्म मीमांसा के अनुसार अपने-अपने कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। 2 4 अध्यक्ष का अर्थ है-प्रत्यक्ष / अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान दोनों ही विकल्प प्रत्यक्ष हैं। इन्हें अपने विषय को ग्रहण करने में इन्द्रिय आदि बाह्य उपकरणों की सहायता की अपेक्षा नहीं होती। आत्मा स्वयं ही विषय को जान लेती है। ये दोनों पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में साधर्म्य ___जैसे मनःपर्यवज्ञान अप्रमत्त यति के होता है, वैसे ही केवलज्ञान भी अप्रमत्त यति के होता है। मनःपर्यवज्ञान में विपर्ययज्ञान नहीं होता, केवलज्ञान में विपर्ययज्ञान नहीं होता। ये दोनों पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं / इनमें विषय के साथ आत्मा का सीधा सम्बन्ध होता है। मन:पर्यवज्ञान का विषय : दो अभिमत . - पण्डित सुखलालजी ने मनःपर्याय के दो मतों की चर्चा की है-'मनःपर्याय ज्ञान का विषय मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु है या चिन्तनप्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएं हैं-इस विषय में जैन-परम्परा में मतैक्य नहीं है / नियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र व्याख्याओं में पहला पक्ष वर्णित है; जबकि विशेषावश्यक भाष्य में दूसरे पक्ष का समर्थन किया गया है। परन्तु योगभाष्य तथा मज्झिमनिकाय में जो परचित्त ज्ञान का वर्णन है उसमें केवल दूसरा ही पक्ष है जिसका समर्थन जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने किया है ।योगभाष्यकार तथा मज्झिमनिकायकार स्पष्ट शब्दों में यही कहते हैं कि ऐसे प्रत्यक्ष के द्वारा दूसरों के चित्त का ही साक्षात्कार होता है, चित्त के आलम्बन का नहीं / योगभाष्य में चित्त के आलम्बन का ग्रहण न हो सकने के पक्ष में दलीलें भी दी गई हैं। परचित्त का साक्षात्कार करनेवाला ज्ञान मनःपर्यवज्ञान है / यह व्याख्या स्पष्ट नहीं है। ज्ञानात्मक चित्त को जानने की क्षमता मनःपर्यवज्ञान में नहीं है। ज्ञानात्मक चित्त अमूर्त है, जबकि मनःपर्यवज्ञान मूर्त वस्तु को ही जान सकता है / इस विषय में सभी . जैन दार्शनिक एकमत हैं / मनःपर्यवज्ञान का विषय है मनोद्रव्य, मनोवर्गणा के पुद्गल स्कन्ध / ये पौद्गलिक मन का निर्माण करते हैं। मन: पर्यवज्ञानी उन पुद्गल स्कन्धों Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 / आर्हती-दृष्टि का साक्षात्कार करता है। मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु मनःपर्यवज्ञान का विषय नहीं है। चिन्त्यमान वस्तु को मन के पौद्गलिक स्कन्धों के आधार पर अनुमान से जाना जाता है / मनःपर्यवज्ञान के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु का साक्षात्कार नहीं किया जा सकता। मणपज्जवनाणं पुण, जणमणपरिचिन्तियत्थपामडणं। माणुसखेत्तनिबद्धं गुणपच्चइयं चरित्तवओ। इस गाथा के आधार पर मनःपर्यवज्ञान का विषय चिन्त्यमान वस्तु बतलाया गया है। चर्णिकार ने इस गाथा की व्याख्या में लिखा है कि मनःपर्यवज्ञान अनन्तप्रदेशी मन के स्कन्धों तथा तद्गत वर्ण आदि भावों को प्रत्यक्ष जानता है। चिन्त्यमान विषयवस्तु को साक्षात् नहीं जानता है क्योंकि चिन्तन का विषय मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के पदार्थ हो सकते हैं। छद्मस्थ मनुष्य अमूर्त का साक्षात्कार नहीं कर सकता इसलिए मनः पर्यवज्ञानी चिन्त्यमान वस्तु को अनुमान से जानता है। इसीलिए मनःपर्यवज्ञान की पश्यत्ता (पण्णवणा 30/2) का निर्देश भी दिया गया है। सिद्धसेनगणि ने चिन्त्यमान विषयवस्तु को और अधिक स्पष्ट किया है। उनका अभिमत है कि मनःपर्यवज्ञान से चिन्त्यमान अमूर्त वस्तु ही नहीं, स्तम्भ, कुम्भ आदि मूर्त वस्तु भी नहीं जानी जाती। उन्हें अनुमान से ही जाना जा सकता है। ____ मनःपर्यवज्ञान से मन के पर्यायों अथवा मनोगत भावों का साक्षात्कार किया जाता है। वे पर्याय अथवा भाव चिन्त्यमान विषय-वस्तु के आधार पर बनते हैं। मनःपर्यवज्ञान का मुख्य कार्य विषयवस्तु या अर्थ के निमित्त से होनेवाले मन के पर्यायों का साक्षात्कार करना है। अर्थ को जानना उसका गौण कार्य है और वह अनुमान के सहयोग से होता है। सिद्धसेनगणि ने मनःपर्यवज्ञान का अर्थ भावमन (ज्ञानात्मक पर्याय) किया है। तात्पर्य की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है / चिन्तन करना द्रव्य मन का कार्य नहीं है। चिन्तन के क्षण में मनोवर्गणा के पुद्गल स्कन्धों की आकृतियां अथवा पर्याय बनते हैं वे सब पौद्गलिक होते हैं। भाव मन ज्ञान-अमूर्त है / अकेवली (छद्मस्थ मनुष्य) अमूर्त को जान नहीं सकता ।वह चिन्तन के क्षण में पौद्गलिक स्कन्ध की विभिन्न आकृतियों का साक्षात्कार करता है। इसलिए मन के पर्यायों को जानने का अर्थ भाव-मन को जानना नहीं होता किन्तु भाव-मन के कार्य में निमित्त बननेवाले मनोवर्गणा के पुद्गल स्कन्धों के पर्यायों को जानना होता है। .. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन : पर्यवज्ञान / 307 अन्य दर्शनों में अतीन्द्रिय ज्ञान ___ अवधि और मनःपर्यवदोनों अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान हैं / न्यायदर्शन, वैशेषिकदर्शन, योगदर्शन, बौद्धदर्शन और जैन में अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष का वर्णन मिलता है। किन्तु जैन आगमों में जितना विस्तार के साथ इन दोनों का निरूपण हुआ है, उतना अन्य किसी दर्शन में उपलब्ध नहीं है। प्राचीन न्याय-दर्शन में अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष का उल्लेख नहीं है। नव्य-न्याय में गंगेश उपाध्याय ने योगज प्रत्यक्ष का उल्लेख किया है। वैशेषिक सूत्र के प्रशस्तपाद भाष्य में वियुक्त-योगी-प्रत्यक्ष का साधारण वर्णन मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि अतीन्द्रिय-प्रत्यक्ष के विषय में श्रमण दर्शनों ने ही अधिक ध्यान दिया है। परचित्त ज्ञान का उल्लेख योगसूत्र व बौद्ध-दर्शन दोनों में मिलता है। बौद्ध दर्शन बौद्ध-दर्शन के अनुसार चैतोपरीय ज्ञान या परिचित्त बोध के द्वारा दूसरे व्यक्ति के विचारों को पढ़ा जा सकता है। मज्झिमनिकाय में कहा गया है कि चैतोपरीय ज्ञान के द्वारा व्यक्ति दूसरे के चित्त की विभिन्न दशाओं को स्पष्ट रूप से जान लेता है कि अमुक व्यक्ति का चित्त मनोवेगपूर्ण है या मनोवेगरहित, सराग है या वीतराग? इसी प्रकार चित्त की विभिन्न स्थितियों-उच्च, नीच, बद्ध, मुक्त आदि का साक्षात् ज्ञान ही चेतोपरीय ज्ञान है / विशुद्धिमग्ग के अनुसार इसके द्वारा स्वयं का बोध नहीं होता, शेष सब सत्त्वों को जाना जा सकता है। योग-दर्शन ___ योगसूत्र के अनुसार चित्तवृत्ति पर संयम करके योगी चित्त को जान सकता है। वह जिस प्रकार स्वचित्त-वृत्ति पर संयम करके स्वचित्त का बोध कर सकता है, उसी प्रकार दूसरे की चित्तवृत्ति पर संयम करके परचित का बोध भी कर सकता है। योग-दर्शन के अनुसार भी योगी को परचित्त का ही ज्ञान होता है, उसके आलम्बन का नहीं अर्थात् योगी यह तो जानता है कि अमुक व्यक्ति का चित्त रागयुक्त है अथवा क्रोधयुक्त पर वह यह नहीं जान पाता है कि किसके प्रति रागयुक्त या क्रोधयुक्त है। योग-दर्शन के अनुसार हृदय में संयम करने से भी परचित्त का साक्षात्कार हो सकता है। पुण्डरीकाकार गर्त रूप हृदय देश में संयम (धारणा, ध्यान, समाधि) करने से चित्त का साक्षात्कार सम्भव है / स्वहृदय में संयम से स्वचित्त और परहृदय में संयम से परचित्त का साक्षात्कार होता है / परचित्त ज्ञान की दृष्टि से जैनमान्य मनःपर्यवज्ञान Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 / आर्हती-दृष्टि से इसकी तुलना की जा सकती है। पातञ्जल योग-दर्शन में ताराव्यूह ज्ञान आदि का उल्लेख है जो अतीन्द्रिय ज्ञान के सूचक हैं। परामनोविज्ञान में मनःपर्यवज्ञान जैन-दर्शन में जिसे मनःपर्यवज्ञान कहा जाता है उसकी आंशिक तुलना परामनोविज्ञान में प्रचलित दूरबोध, विचार-सम्प्रेषण, विचार-संक्रमण (Telepathy). आदि संज्ञानों से की जा सकती है / परामनोविज्ञान में परीक्षित घटनाएं, जो परचित्त-बोध या दूरबोध के नाम से जानी जाती है, वे प्रायः मन-संचार से सम्बन्धित हैं जिसमें एक व्यक्ति बहुत दूरी पर स्थित दूसरे व्यक्ति के विचारों का ग्रहण कर लेता है। अधिकांशतया ऐसी घटनाओं में प्रेषक एवं ग्राहक इन दोनों के मस्तिष्क एक विशिष्ट अनुकूल अवस्था में होने अपेक्षित हैं जिनमें प्रेषक के प्रयत्न बिना ही ग्राहक ने कुछ ग्रहण किया है। जिन मनुष्यों में दूरबोध की क्षमता होती है वे दूसरे के विचारों को इन्द्रिय सहयोग के बिना भी जान सकते हैं / वस्तुतः यह एक विशिष्ट क्षमता है जो सामान्य मनुष्यों में नहीं पाई जाती है। अपितु अपवाद रूप में कुछ विशिष्ट व्यक्ति ही इसके परिज्ञाता होते हैं और वे बिना किसी प्रयास के सहज ही इसका प्रयोग करते हैं। .. .. डॉ०. बेविंक ने अपनी पुस्तक (Anatomy of Modern Science) में लिखा है कि–'मैं सहमत हूं कि ऐसा कोई प्रत्यय है जिसे दूसरे व्यक्ति के मानसिक जीवन की यथार्थ जानकारी कहा जा सकता है।' जो ज्ञान-इन्द्रियों के माध्यम से नहीं हो सकता एवं सम्प्रेषित नहीं किया जा सकता। विचार-सम्प्रेषण से उसे दूसरे तक पहुँचाया जा सकता है। विचार-सम्प्रेषण के प्रसंग में मार्क ट्वेन की घटना मननीय है / सन् 1906 की बात है। उन्हें 1885 में स्वयं अपने द्वारा लिखित एवं क्रिश्चियन यूनियन द्वारा प्रकाशित एक लेख की अत्यन्त आवश्यकता हुई। किन्तु बहुत परिश्रम करने के बावजूद वे उसको प्राप्त नहीं कर सके / यूनियन कार्यालय भी उनकी मदद नहीं कर सका। उनके विचारों में एवं प्रयत्नों में लेख-प्राप्ति का उपक्रम चल रहा था। दूसरे दिन वे न्यूयार्क के फिफ्थ एवेन्यू से ४०वीं स्ट्रीट को पार कर खड़े ही थे कि एक अपरिचित व्यक्ति भागता हुआ उनके पास पहुँचा और कागजों का एक पुलिन्दा उन्हें थमाते हुए बोला—ये कागज बीस साल से मेरे पास है, पता नहीं क्यों आज सुबह से मुझे ऐसा लगा कि इन्हें मैं आपको भेज दूं। मैं अभी इन्हें पोस्ट करने जा रहा था कि आप स्वयं ही मुझे मिल गए। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन : पर्यवज्ञान | 309 मार्क ट्वेन ने कागजों को टटोला, उनको वह लेख उसमें मिल गया जिसकी वे व्यग्रता से प्रतीक्षा एवं खोज कर रहे थे। मार्क ट्वेन का मत है कि यदि ऐसा कोई तरीका उपलब्ध हो जाए जिससे दो मस्तिष्कों में इच्छानुसार सामञ्जस्य स्थापित किया जा सके तो टेलीफोन, टेलीग्राम आदि धीमे संचार साधनों का परित्याग कर व्यक्ति मुक्तरूप से विचारों का आदान-प्रदान कर सकता है। . परामनोविज्ञान के क्षेत्र में टेलीपैथी (विचार-सम्प्रेषण) के बहुत प्रयोग किए जा रहे हैं एवं उनमें आश्चर्यकारी सफलता भी प्राप्त हो रही है / टेलीपैथी के इन प्रयोगों के साथ मनःपर्यवज्ञान की आंशिक तुलना ही हो सकती है / टेलीपैथी एवं मनःपर्यवज्ञान दोनों ही संज्ञात्मक हैं / इनकी प्रक्रिया में इन्द्रिय एवं अन्य भौतिक संसाधनों की अपेक्षा नहीं है / ये दोनों ही देशकाल की सीमाओं से निरपेक्ष हैं / टेलीपैथी में विचार-सम्प्रेषित किए जाते हैं जबकि मनःपर्यवज्ञान में अन्य व्यक्ति के मन को/विचारों को जाना जाता है। व्यक्ति जैसा चिन्तन करता है उसके अनुरूप मनोवर्गणा के पुद्गल आकार ग्रहण करते हैं / उनको मनःपर्यवज्ञानी जानता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि टेलीपैथी आदि ज्ञान को जैनमीमांसा के अनुसार पूर्ण मनःपर्यवज्ञान तो नहीं कहा जा सकता किन्तु उनको मनःपर्यवज्ञान के एक अंश अथवा विशिष्ट प्रकार का ज्ञान स्वीकार करने में तो कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। संदर्भ नंदी ( सभाष्य) Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान जैनदर्शन द्वैतवादी दर्शन है / उसके अनुसार संपूर्ण जगत् में चेतन और अचेतन दो मूल तत्व हैं / ज्ञान-शक्ति, चेतन और अचेतन तत्त्व की विभाजक रेखा है। ज्ञान चेतना का गुण है, स्वरूप है / ज्ञान के अभाव में आत्मा की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती। आत्मा के केवली होने से पूर्व की अवस्था में ज्ञान अपने आवारक कर्म से आवृत्त रहता है, अत: स्वरूपत: सभी आत्माएं समान होने पर भी उनमें ज्ञान का तारतम्य दृष्टिगोचर होता है। ज्ञान के तारतम्य के आधार पर हम इन्द्रिय चेतना से युक्त आत्माओं को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं-अविकसित, अल्पविकसित एवं विकसित। एकेन्द्रिय जीव अविकसित, दोइन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक के जीव अल्पविकसित एवं संज्ञी पञ्चेन्द्रिय को विकसित विभाग में समाविष्ट कर सकते हैं। यद्यपि ये सारे ज्ञान की आवृत्त दशा के ही भेद हैं, किन्तु जैसे-जैसे आवरण विरल होता जाता है, ज्ञान प्रकाश की मात्रा वृद्धिंगत होती जाती है, तथा आवरण की सघनता में वह ज्ञान मात्रा अत्यल्प हो जाती है किन्तु आवरण कितना ही सघन क्यों न हो जाय वह ज्ञान शक्ति को नष्ट नहीं कर सकता, मेघ समूह सूर्य को कितना ही आच्छादित क्यों न करे किन्तु दिन-रात का विभेद तो बना ही रहता है। वैसे ही कर्म, आत्मा के ज्ञान गुण को सर्वथा नष्ट नहीं कर सकते / जीव का अक्षर के अनन्तवें भाग जितना ज्ञान गुण अवश्य उद्घाटित रहता है / नंदी का यह कथन इसका साक्ष्य है। ___'सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंततमो भागो णिच्चुग्घाडियो चिट्ठइ। सो विअ जइ आवरिज्जा तेणं जीवा अजीक्तणं पाविज्जा।'' केवलज्ञान की परिभाषा * नंदीसूत्र के अनुसार जो ज्ञान सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभाव को जानता-देखता है, वह केवलज्ञान है। * जो मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों को सर्वथा, सर्वत्र और सर्वकाल में जानता-देखता है, वह केवलज्ञान है। * आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय और व्यवहारनय के आधार पर केवलज्ञान की परिभाषा की है Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान / 311 . जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं। केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं / नियमसार भा. 159 बृहत्कल्प भाष्य में केवलज्ञान के पांच लक्षण बतलाए गए हैं 1. असहाय- इन्द्रिय मन निरपेक्ष / 2. एक- ज्ञान के सभी प्रकारों से विलक्षण / 3. अनिवरित व्यापार- अविरहित उपयोग वाला। 4. अनंत- अनंत ज्ञेय का साक्षात्कार करने वाला। 5. अविकल्पित- विकल्प अथवा विभाग रहित / तत्त्वार्थभाष्य में केवलज्ञान का स्वरूप विस्तार से बतलाया गया है। वह सब भावों का ग्राहक, सम्पूर्ण लोक और अलोक को जानने वाला है। इससे अतिशायी कोई ज्ञान नहीं है। ऐसा कोई ज्ञेय नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो। आचार्य जिनभद्रगणी ने 'केवल' शब्द के पांच अर्थ किये हैं जिनकी आचार्य हरिभद्र एवं आचार्य मलधारी ने इस प्रकार व्याख्या की है१. एक-केवलज्ञान मति आदि क्षायोपशमिक ज्ञानों से निरपेक्ष है, अत: वह एक है। : 2. शुद्ध-केवलज्ञान को आच्छादित करने वाली मलिनता से सर्वथा मुक्त होने के कारण केवलज्ञान सर्वथा निर्मल अर्थात् शुद्ध है। _सकल-आचार्य हरिभद्र के अनुसार केवलज्ञान प्रथम समय में ही सम्पूर्ण उत्पन्न हो जाता है, अत: वह सम्पूर्ण अर्थात् सकल है। आचार्य मलधारी के अनुसार सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों को ग्रहण करने के कारण केवलज्ञान को सकल कहा गया है। * 4. असाधारण-केवलज्ञान के समान कोई दूसरा ज्ञान नहीं होता, अत: वह असाधारण है। अनन्त—केवलज्ञान अतीत, प्रत्युत्पन्न एवं अनागतकालीन अनन्तज्ञेयों को प्रकाशित करने के कारण अनन्त है / केवलज्ञान अप्रतिपाति है अत: उसका अन्त न होने से वह अनन्त है। मलधारी हेमचन्द्र ने काल की प्रधानता से तथा आचार्य हरिभद्रसूरि ने ज्ञेय-द्रव्य की अपेक्षा से केवलज्ञान की अनन्तता का प्रतिपादन किया है। अपरिमित क्षेत्र एवं अपरिमित भाव को अवभासित करने का सामर्थ्य मात्र Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 / आर्हती-दृष्टि केवलज्ञान में है। अनन्त द्रव्यों की अपेक्षा अनन्त पर्यायों को क्षायोपशमिक ज्ञान भी जान सकते हैं पर प्रतिद्रव्य के अनन्तानन्त पर्यायों का साक्षात्कार करना केवलज्ञान का वैशिष्ट्य है। केवल' शब्द का अनन्त—यह अर्थ एवं इसकी बहुविध दृष्टिकोणों से विभिन्न व्याख्याएं मात्र जैन साहित्य में ही उपलब्ध होती हैं, अन्यत्र नहीं होती हैं, इससे यह स्पष्ट होता है कि अनन्तज्ञान-सर्वज्ञता की मौलिक अवधारणा मुख्यत: जैन का ही अभ्युपगम है। उक्त व्याख्याओं के संदर्भ में सर्व द्रव्य, क्षेत्र-काल और भाव की व्याख्या इस प्रकार फलित होती हैसर्वद्रव्य का अर्थ है- मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों को जानने वाला। केवलज्ञान के अतिरिक्त कोई भी ज्ञान अमूर्त का साक्षात्कार अथवा प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। सर्वक्षेत्र का अर्थ है- सम्पूर्ण आकाश (लोकाकाश और अलोकाकाश) को साक्षात् जानने वाला। सर्वकाल का अर्थ है- वर्तमान व अनन्त (सीमातीत) / अतीत और भविष्य को जानने वाला। शेष कोई ज्ञान असीमकाल को नहीं जान सकता। सर्वभाव का अर्थ है- गुरुलघु और अगुरुलघु सब पर्यायों को जानने वाला अर्थात् केवलज्ञान सर्वत्र, सर्वदा, सर्वथा रूप से सर्व पदार्थों का साक्षात्कार करता है। केवलज्ञान के भेद केवलज्ञान आत्मा का स्वभाव है / स्वभाव में वस्तुत: भेद नहीं होता / वह क्षायिक ज्ञान है / क्षयोपशम से उत्पन्न अवस्थाओं में न्यूनाधिकता होती हैं पर क्षायिकभाव पूर्ण, अखण्ड एवं सकल होता है, अत: उसमें भेद नहीं होता। केवलज्ञान क्षायिक होता है अत: उसमें भेद नहीं हो सकता परन्तु नंदी, प्रज्ञापना, स्थानांग आदि सूत्रों में केवलज्ञान के भी भेद किये गये हैं। इस संदर्भ में यह मननीय है कि वस्तुत: ये भेद केवलज्ञान के न होकर केवलज्ञानी के हैं क्योंकि ज्ञान और ज्ञानी में ज्ञान का उपचार करने से केवलज्ञान के दो प्रकार होते हैं-१. भवस्थ केवलज्ञान और 2. सिद्ध केवलज्ञान / भवस्थ केवलज्ञान भवस्थ केवलज्ञान वह है, जो मनुष्यभव में अवस्थित व्यक्ति के ज्ञानावरणीय Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान / 313 आदि चार घातिकर्मों के क्षीण होने पर उत्पन्न होता है / जब तक शेष चार अघाति-कर्म क्षीण नहीं होते, तब तक वह भवस्थ केवलज्ञान कहलाता है। भवस्थ केवलज्ञान के दो भेद किए गये हैं—१. सयोगिभवस्थ केवलज्ञान / 2. अयोगिभवस्थ केवलज्ञान / केवलज्ञान शरीरधारी मनुष्य के होता है। शरीर की प्रवृत्ति और केवलज्ञान में कोई विरोध नहीं है / उपाध्याय यशोविजयजी ने वात, पित्त आदि शारीरिक दोष और सर्वज्ञत्व में विरोध बताने वाले तीन मतों का उल्लेख कर उनका निरसन किया है। शरीर की प्रवृत्ति से मुक्त अयोगि अवस्था में उसके विरोध का प्रश्न ही नहीं है। भवस्थ केवलज्ञान और सिद्ध केवलज्ञान—केवलज्ञान के ये दो भेद सापेक्ष हैं / मीमांसक दर्शन का अभिमत है कि मनुष्य सर्वज्ञ नहीं हो सकता। वैशेषिक दर्शन का अभिमत है कि मुक में ज्ञान नहीं होता। ये दोनों अभिमत जैनदर्शन को स्वीकार्य नहीं हैं। .. केवलज्ञान इस स्वीकार का सूत्र है कि मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है। सिद्ध केवलज्ञान इस स्वीकृति का सूचक है कि मुक्त आत्मा में केवलज्ञान विद्यमान रहता सिद्ध केवलज्ञान ___जब केवली के भव प्रत्ययिक कर्म क्षीण हो जाते हैं, तब वह सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है। सिद्ध का केवलज्ञान सिद्ध केवलज्ञान कहलाता है / सिद्ध केवलज्ञान के दो भेद किए गये हैं—अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान और परम्पर सिद्ध केवलज्ञान / ये दो भेद काल-सापेक्ष किए गये हैं। अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान के पन्द्रह भेद सिद्ध होने की पूर्व अवस्था के आधार पर किए गये हैं / यह सूत्र जैनधर्म की विशुद्ध आध्यात्मिकता का प्रतिपादक है / इसमें लिंग, वेश आदि बाह्य परिस्थिति से मुक्त होकर केवल आत्मा के आन्तरिक विकास की स्वीकृति है। वे पन्द्रह भेद हैं .1: तीर्थ सिद्ध-जो श्रमणसंघ में प्रवजित होकर मक्त होता है। 2. अतीर्थ सिद्ध-चातुर्वर्ण श्रमणसंघ के अनस्तित्व काल में जो मुक्त होता है। चूर्णिकार ने मरुदेवी आदि का उदाहरण प्रस्तुत किया है / हरिभद्रसूरि ने बताया है—जो जातिस्मरण के द्वारा मोक्षमार्ग को प्राप्त कर सिद्ध होते हैं वे अतीर्थसिद्ध कहलाते हैं। चूर्णिकार ने जातिस्मरण का उल्लेख स्वयंबुद्ध के प्रसंग में किया है। स्वयंबुद्ध दो प्रकार के होते हैं—तीर्थंकर और तीर्थंकर से इतर / प्रस्तुत प्रंसग में तीर्थंकर से इतर विवक्षित है। 3. तीर्थंकर सिद्ध-ऋषभ आदि-जो तीर्थंकर अवस्था में मुक्त होते हैं। 4. अतीर्थंकर सिद्ध-जो सामान्य केवली के रूप में मुक्त होते हैं। . Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 5. स्वयंबुद्ध सिद्ध-जो स्वयंबुद्ध होकर मुक्त होता है। स्वयंबुद्ध के दो अर्थ किए गए हैं(क) जिसे जातिस्मरण के कारण बोधि प्राप्त हुई है। (ख) जिसे बाह्य निमित्त के बिना बोधि प्राप्त हुई है। मलयगिरि ने भी इस प्रसंग में जातिस्मरण का उल्लेख किया है। . 6. प्रत्येकबुद्ध सिद्ध-जो प्रत्येक बुद्ध होकर मुक्त होता है। प्रत्येक बुद्ध का अर्थ है किसी एक बाह्य निमित्त से प्रतिबुद्ध होने वाला। 7. बुद्धबोधित सिद्ध-जो बुद्धबोधित होकर मुक्त होता है। चर्णिकार ने बुद्धबोधित के चार अर्थ किए हैं१. स्वयंबुद्ध तीर्थंकर आदि के द्वारा बोधि प्राप्त / 2. कपिल आदि प्रत्येक बुद्ध के द्वारा बोधि प्राप्त। . 3. बुद्धबोधित के द्वारा बोधि प्राप्त। : 4. आचार्य के द्वारा प्रतिबुद्ध से बोधि प्राप्त। हरिभद्र और मलयगिरि ने बुद्धबोधित का अर्थ आचार्य के द्वारा बोधि प्राप्त किया है। . 8. स्त्रीलिंग सिद्ध-जो स्त्री की शरीर रचना में मुक्त होता है। लिंग के तीन अर्थ हैं—वेद (कामविकार) 2. शरीर रचना 3. नेपथ्य (वेशभूषा) / यहां लिंग का अर्थ शरीर रचना है। स्त्री, पुरुष और नपुंसक संबंधी भेद के दो हेतु हैं-१. शरीर नाम कर्म का उदय. 2. वेद का उदय। 9. पुरुषलिंग सिद्ध-जो पुरुष की शरीर रचना में मुक्त होता है। 10. नपुंसकलिंग सिद्ध–जो कृत्रिम नपुंसक के रूप में मुक्त होता है। चूर्णि और वृत्तिद्वय में नपुंसक की व्याख्या उपलब्ध नहीं है / भगवती के अनुसार नपुंसक चारित्र का अधिकारी होता है, कृत नपुंसक ही चारित्र का अधिकारी होता है। अभयदेवसूरि ने नपुंसक का अर्थ कृत नपुंसक किया है। 11. स्वलिंगसिद्ध-जो मुनि के वेश में मुक्त होता है। 12. अन्यलिंग सिद्ध-जो अन्यतीर्थी के वेश में मुक्त होता है। 13. गृहलिंग सिद्ध-जो गृहस्थ के वेश में मुक्त होता है। 14. एकसिद्ध-जो एक समय में एक जीव सिद्ध होता है। 15. अनेकसिद्ध-जो एक समय में अनेक जीव सिद्ध होते हैं। उनमें एका समय में जघन्यत: दो और उत्कृष्टत: एक सौ आठ सिद्ध हो सकते हैं / उत्तराध्ययन में उनकी Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान / 315 संख्या इस प्रकार- निर्दिष्ट है |1. नपुंसक स्त्री पुरुष 2. गृहलिंग अन्यलिंग स्वलिंग 10 20 108 4 10 108 3. उत्कृष्ट अवगाहना जघन्य अवगाहना मध्यम अवगाहना 108 4. ऊर्ध्वलोक समुद्र अन्य जलाशय नीचालोक तिरछालोक 20 108 सिद्ध के पन्द्रह भेद नंदी सत्रकार के स्वोपज्ञ हैं या इनका कोई प्राचीन आधार है? प्रतीत होता है यह परम्परा प्राचीन है। उमास्वाति ने सिद्ध की व्याख्या में बारह अनुयोग द्वार बतलाए हैं। वे प्रस्तुत सूत्र में निर्दिष्ट पन्द्रह भेदों की अपेक्षा अधिक व्यापक हैं। . स्थानांग में सिद्ध के पन्द्रह प्रकारों का उल्लेख मिलता है / प्रज्ञापना में भी इनका उल्लेख है / स्थानांग संकलन सूत्र है इसलिए इसकी प्राचीनता के बारे में निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता / प्रज्ञापना नन्दी की अपेक्षा प्राचीन है। इसलिए प्रज्ञापना उसके पश्चात् तत्त्वार्थ सूत्र और उसके पश्चात् नंदी में इन पन्द्रह भेदों का कालक्रम का निर्धारण किया जा सकता है। हो सकता है श्यामाचार्य ने किसी प्राचीन आगम से उनका अवतरण किया है। केवली : योगनिरोध की प्रक्रिया केवली का जीवनकाल जब अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहता है, तब वह मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का निरोध करता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है. शुक्ल ध्यान के तृतीय चरण (सूक्ष्म-क्रिया-अप्रतिपाति) में वर्तन करता हुआ वह सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करता है / जो जीव पर्याप्त है, संज्ञी है, जघन्य मनयोगी (सबसे कम मन की प्रवृत्ति करने वाला) है, उसके जितने मनोद्रव्य (मन के पुद्गल) है और उनके जितने व्यापार (प्रवृत्ति) हैं, उससे असंख्येय गुणहीन मनोद्रव्य और व्यापार का प्रतिसमय निरोध करते-करते असंख्य समयों में उसका पूर्ण निरोध करता है। उसके पश्चात् वचन योग का निरोध करता है। पर्याप्तमात्र द्वीन्द्रिय प्राणी के जघन्य वचनयोग के पर्यायों से असंख्येय गुणहीन वचन-योग-पर्यायों का प्रतिसमय निरोध करते-करते असंख्य समयों में वचनयोग का पूर्ण निरोध करता है / फिर काययोग Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 / आर्हती-दृष्टि का निरोध करता है। प्रथम समय के उत्पन्न सूक्ष्म पनक जीव के जघन्य काययोग के असंख्येय गुणहीन काययोग के पुद्गल और व्यापार का प्रति समय निरोध करते-करते तथा शरीर की अवगाहना के तीसरे भाग को छोड़ते (पोले भाग को पूरित करते) हुए असंख्य समयों में काययोग का (श्वासोच्छ्वास सहित) पूर्ण निरोध करता है। पूर्ण योगनिरोध होते ही अयोगी या शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है। ___'अ इ उ ऋ लु'-इन पांच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारणकाल तक केवली शैलेशी अवस्था में रहता है। यह उच्चारण न अतिशीघ्र होता है, न प्रलम्ब, किन्तु मध्यम भाव में होता है। काययोग के निरोध के प्रारंभ समय में सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती रूप शुक्लध्यान होता है और शैलेशी अवस्था के समान समुच्छिन्नक्रिया अनिवृत्ति रूप शुक्लध्यान होता है। केवलज्ञान और केवलदर्शन जैन दर्शन में उपयोग के दो प्रकार हैं-साकार और अनाकार / साकार उपयोग का अनाकार उपयोग के साथ क्या सम्बन्ध है ? कौन से ज्ञान से पूर्व कौन-सा दर्शन होता है आदि जैन ज्ञानमीमांसा के महत्त्वपूर्ण विषय हैं / केवलज्ञान और केवलदर्शन के विषय में जैन ज्ञानमीमांसा में तीन मत मुख्य रूप से प्रचलित हैं, जो संक्षेप में इस प्रकार हैं 1. क्रमपक्ष–इम मत के अनुसार केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों उपयोग भिन्न-भिन्न हैं। वे एक साथ नहीं होते क्योंकि आगमों में बताया गया है कि जिस समय केवली आकार, हेतु, उपमा, दृष्टान्त आदि से युक्त रलप्रभा पृथ्वी को जानता है उस समय देखता नहीं क्योंकि ज्ञान साकार होता है और दर्शन अनाकार / ऐतिहासिक दृष्टि से यह पक्ष आगमिक होने के कारण सबसे प्राचीन है, पर दार्शनिक युग में अन्य पक्षों का खण्डन कर इसकी स्थापना करने का श्रेय जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण को है जिन्होंने विशेषावश्यकभाष्य तथा विशेषणवती में अन्य दोनों पक्षों का खण्डन कर इसका युक्ति पुरःसर प्रतिपादन किया है। जिनदासगणी, हरिभद्रसूरि तथा मलयगिरि ने भी उन्हीं का अनुसरण कर क्रमपक्ष की प्रतिष्ठा की है। क्रमिक पक्ष न मानने पर मुख्यत: ये दोष आते हैं(क) ज्ञान और दर्शन को आवत करने वाली कर्मप्रकृतियां भिन्न-भिन्न हैं। अत: यदि दोनों को अभिन्न माना जाएगा तो या एक गुण का आवरण दो कामों से मानना होगा अथवा उनमें से एक आवरण के अभाव का प्रसंग आएगा। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान / 317 (ख) युगपद् उपयोगवादियों ने जो क्रमिक पक्ष के आधार पर केवली पर दोष दिए हैं वे सभी छद्मस्थों पर भी आएंगे, अत: दोनों पक्षों का योगक्षेम “तुल्य ही है। (ग) यदि उपयोगावस्था में ही ज्ञान, दर्शन आदि का सद्भाव माना जाए तो एक छदस्थ कभी भी चतुर्ज्ञानी और त्रिदर्शनी नहीं हो सकता, फलत: आगम विरोध आता है। (घ) क्रमिक-उपयोगवाद केवल छद्मस्थ के लिए ही उपन्यस्त है अथवा यह परवक्तव्यता है जैसा कि सन्मति तर्क प्रकरण में कहा गया है। उसकी अयुक्तता बताते हुए जिनभद्रगणी का मत है कि सूत्र में सर्वत्र जब छद्मस्थ के बाद छातीत का ही उपदेश है तब प्रथम कल्पना कैसे युक्तिसंगत होगी तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति के २५वें शतक में स्पष्टतया क्रमोपयोग का समर्थक सूत्र होने से उसे पर वक्तव्यता मानना भी समीचीन नहीं। इस प्रकार प्रस्तुत मत के अनुसार जीवत्व के समान एकान्तरोपयोग भी जीव का स्वभाव है, अत: उसकी सिद्धि के लिए अन्य हेतु की अपेक्षा नहीं है। युगपत् उपयोगवाद और अभिन्नोपयोगवाद की ओर से क्रमिक पक्ष पर जो-जो आक्षेप किए गये, जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने उन सबका, विशेषणवती एवं विशेषावश्यकभाष्य में युक्तिपुरसर समाधान किया है। जिनदासगणी ने विशेषणवती की 153 से 256 तक की गाथाओं में से कुछ का उपयोग किया है / हरिभद्र एवं मलयगिरि की टीका भी उसी पर अवलम्बित है। मुख्यत: उन आक्षेपों का समाधान इस प्रकार है(अ) केवलज्ञान केवलदर्शन को सादि अनन्त उपयोग की दृष्टि से नहीं कहा गया है। जैसे मति आदि तीनों ज्ञानों की कालस्थिति 66 सागरोपम बताई जाती है वह उनकी लब्धि की अपेक्षा से है। उपयोग की अपेक्षा तो वे आन्तमौहूर्तिक ही हैं। (आ) आवरणक्षय को मिथ्या कहना भी युक्त नहीं क्योंकि जिस प्रकार पंचविध अन्तराय के क्षय के बावजूद केवली सदा दान, भोग आदि नहीं करते, वैसे ही ज्ञानावरण-दर्शनावरण के विषय में समझना चाहिए। अन्तराय क्षय का तात्त्विक फल है- बाधा का अभाव, वैसे ही ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण के समूल क्षय का तात्त्विक फल है कृत्स्न ज्ञान-दर्शन। (इ) असर्वज्ञ-असर्वदर्शी के आक्षेप का समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि जैसे एक साथ कोई भी चार ज्ञानों का उपयोग नहीं करता फिर भी Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 / आर्हती-दृष्टि चतुर्ज्ञानी कहलाता है वैसे ही सर्वज्ञ-सर्वदर्शित्व में कोई बाधा नहीं। (ई) जिनकी युगपत् उत्पत्ति हो, उनका उपयोग भी युगपत् होता है—यह कोई नियम नहीं है। सम्यक्तव, मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान की उत्पत्ति एक साथ होती है पर वे न तो एक हैं और न समकालीन उपयोग, वैसे ही केवलज्ञान केवलदर्शन न अभिन्न हैं और न एककालीन उपयोग। (उ) अभेदवादी का यह कहना है कि 'क्षीणावरण में जैसे देशज्ञान सम्भव नहीं, वैसे ही केवलदर्शन भी सम्भव नहीं है। यह भी अयुक्त है क्योंकि जैसे देशज्ञान के अपगम से केवलज्ञान होता है वैसे ही चक्षु आदि देशदर्शन के अपगम से सर्वदर्शन क्यों नहीं होगा? केवल इच्छामात्र से वस्तुसिद्धि नहीं होती। (ऊ) अभेदवाद यह कहे कि-द्रव्यत: केवलज्ञानी सर्वद्रव्यों को जानता-देखता है इत्यादि सूत्र केवलज्ञान-दर्शन के अभेद का प्रतिपादन है तब तो उसके मत से अवधिज्ञान आदि में ज्ञानदर्शन की एकता का प्रसंग आएगा, जो उसे भी मान्य नहीं है। युक्तित: अबाधित एवं सूत्र में अनेकश: कथित होने से यह स्पष्ट है कि क्रमोपयोगवाद ही निर्दुष्ट है। जिनभद्रगणी का मत है कि जिस प्रकार अनाकार उपयोगी एवं साकारोपयोगी के विषय में सूत्र में बहुत से प्रश्न उपलब्ध हैं वैसे मिश्र उपयोगी के विषय में एक भी सूत्र नहीं है। 2. युगपत् उपयोग पक्ष—इस मत के अनुसार भी केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों भिन्न-भिन्न उपयोग हैं पर वे क्रमश: उत्पन्न नहीं होते। एक ही समय में केवली जानता भी है और देखता भी है / सम्पूर्ण दिगम्बर आम्नाय में एकमात्र इसी पक्ष के दर्शन होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द, पूज्यवाद और समन्तभद्र ने जहां दोनों मतों की चर्चा तक नहीं की है, वहां अकलंक ने अष्टशती एवं राजवार्तिक में क्रमिकपक्ष के मानने वालों को सर्वज्ञनिन्दक कहा है / श्वेताम्बर आम्नाय में इसके प्रवेश का श्रेय सम्भवतः उमास्वाति को है। उपाध्यायजी के अनुसार इस पक्ष को युक्तित: स्थापित करने का श्रेय मल्लवादि को है / इस पक्ष की मुख्य युक्ति है कि सूत्र में केवलज्ञान एवं केवलदर्शन को सादि-अपर्यवसित बताया है। अत: दोनों उपयोगों को युगपत् मानना आवश्यक है। इस मत के अनुसार क्रमिक उपयोगपक्ष में मुख्यत: निम्नलिखित दोषों का प्रसंग आता है (क) क्रमश: एक समय ज्ञान और दूसरे समय दर्शन मानने से दोनों सादि-सान्त Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान / 319 हो जाएंगे। (ख) प्रथम समय केवलज्ञान हुआ, दूसरे समय केवलदर्शन। इसका अभिप्राय यह होगा कि दूसरे समय केवलज्ञानावरण का क्षय और प्रथम समय केवलदर्शनावरण का क्षय व्यर्थ है। अत: आवरण रहित दो प्रदीपों के समान उन्हें युगपत् ही प्रकाश करना चाहिए। (ग) दोनों का एक साथ उपयोग न माना जाए तो परस्पर आवरण का प्रसंग आएगा क्योंकि कर्मावरण का अभाव होने पर भी एक के सद्भाव में दूसरे का अभाव माना जाता है। (घ) दोनों आवरणों के क्षय होने पर भी यदि केवलज्ञान-दर्शन का आविर्भाव न माना जाए तो दो भिन्न-भिन्न आवरण मानना समीचीन न होगा। (ङ) पाक्षिक सर्वज्ञत्व, सर्वदर्शित्व का प्रसंग आएगा क्योंकि जब सर्वज्ञ होगा तब असर्वदर्शी और सर्वदर्शी होगा तब असर्वज्ञ हो जाएगा। 3. अभेदपक्ष-अभेदपक्ष के अनुसार केवलज्ञान और केवलदर्शन नामक दो भिन्न-भिन्न उपयोग नहीं हैं, वस्तुत: उपयोग एक ही है। छद्मस्थ की चेतना सावरण होती है, अत: वह एक साथ सामान्य और विशेष को नहीं जान सकता। फलत: ज्ञान और दर्शन दो भिन्न-भिन्न समयवर्ती उपयोगों का कार्य है / पर जहां चेतना निरावरण हो गयी है वहां सामान्य और विशेष का समकालीन ग्रहण होता है। अत: कैवल्य अवस्था में ज्ञान और दर्शन में न अवस्था-भेद है और न कालभेद / जैन दर्शन के इतिहास में अभेद पक्ष के पुरस्कर्ता एकमात्र सिद्धसेन दिवाकर को कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उपाध्याय यशोविजय ने अभेद पक्ष के स्थापन में उन्हीं युक्तियों का अनुसरण किया है। सिद्धसेन के अनुसार अस्पृष्ट विषय का ग्रहण, सामान्य अवबोध दर्शन कहलाता है। केवली के केवलोपयोग में अस्पृष्ट एवं स्पृष्ट, सामान्य और विशेष, व्यक्त और अव्यक्त का भेद नहीं होता। अत: एक ही उपायोग को विशेषग्रहण की अपेक्षा ज्ञान और सामान्यग्रहण की अपेक्षा दर्शन कह दिया जाता है। यहां प्रवृत्तिनिमित्तक धर्मों का भेद है न कि प्रतिपाद्य उपयोग का। सिद्धसेन ने भी अभेदपक्ष के स्थापन में युगपत् पक्ष के समान केवल उपयोग की साद्यनन्तता की युक्ति का ही प्रयोग किया है / उनका मत है कि जो युक्तियां क्रमिकपक्ष की सदोषता के लिए उपन्यस्त की गई हैं वे ही * युगपत् पक्ष की भी सदोषता को ख्यापित करती हैं / अत: ये पक्ष वस्तुत: परवक्तव्यता की अपेक्षा से शास्त्रों में कहे गए हैं। उनके अनुसार केवलज्ञान और केवलदर्शन को Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 / आर्हती-दृष्टि भिन्न मानने पर निम्नांकित दोष आते हैं (क) केवलज्ञान और दर्शन की अनन्तता खण्डित हो जाएगी। . (ख) क्षीणावरण केवली में अव्यक्त-व्यक्त का भेद युक्तियुक्त नहीं है अत: अव्यक्त . (दर्शन) और व्यक्त (ज्ञान) ये दो उपयोग नहीं हो सकते। (ग) इन पक्षों के अनुसार केवली अज्ञातभाषी और अदृष्टभाषी हो जाएगा। (घ) केवलज्ञान मात्र विशेषग्राही और केवलदर्शन मात्र सामान्यग्राही माना जाए तो सर्वज्ञत्व एवं सर्वदर्शित्व की उत्पत्ति कैसे होगी? .. (ङ) अनाकार उपयोग साकार उपयोग की अपेक्षा नियमत: अल्पविषयक होता है अत: भिन्न-भिन्न उपयोग मानने पर केवलदर्शन को अनन्त नहीं माना जा सकता। (च) लब्धि की दृष्टि से केवली को सर्वज्ञ सर्वदर्शी कहना भी युक्त नहीं क्योंकि फिर तो उसे पंचज्ञानी भी कहा जा सकेगा, जो कि शास्त्रविरुद्ध है।। उपाध्याय यशोविजय जी ने ज्ञानबिन्दु में केवलज्ञान-दर्शन के विषय में मुख्यत: सिद्धसेन दिवाकर के ही मत का अवलम्बन लिया है / इसके साथ ही उन्होंने भिन्न-भिन्न नय-दृष्टियों से उनका समन्वय करते हुए कहा कि भेदस्पर्शी व्यवहार-नय की अपेक्षा से मल्लवादी का युगपद् उपयोगवाद, ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का क्रमिक पक्ष और अभेद प्रधान संग्रहालय की अपेक्षा से सिद्धसेन दिवाकर का अभिन्नोपयोगवाद युक्तिसंगत हैं। आचार्य महाप्रज्ञ जी ने केवलज्ञान और केवलदर्शन के क्रमिक पक्ष को स्वीकृत करते हुए लिखा है कि केवली की ज्ञानचेतना अनावृत होती है, अत: वह पहले द्रव्य के परिवर्तन और उसकी क्षमता को जानता है और उसके बाद उसकी एकता को जानता है। जहां एक सामान्य व्यक्ति को द्रव्य की सामान्य सत्ता को जानने में असंख्यात कालखण्ड लग जाते हैं फिर वह एक-एक कर उसकी विशेषता को जान पाता है वहां असीम चेतना में पहले द्रव्य की अनन्त शक्तियों का पृथक्-पृथक् आकलन होता है और बाद में उन-उन शक्तियों में अनुस्यूत एकता का ज्ञान होता है अर्थात् पहले क्षण में केवलज्ञान होता है उसके बाद केवलदर्शन होता है। सर्वज्ञवाद और विभिन्न दर्शन ज्ञान के दो विभाग है—क्षायोपशमिक और क्षायिक / मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यव-ये चार ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होते हैं इसलिए क्षायोपशमिक हैं। केवलज्ञान ज्ञानावरण के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होता है इसलिए वह क्षायिक है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान / 321 क्षायोपशमिक ज्ञान का विषय है मूर्त द्रव्य, पुद्गल द्रव्य / क्षायिक ज्ञान का विषय मूर्त और अमूर्त-दोनों द्रव्य हैं / धर्म, अधर्म, आकाश और जीव-ये अमूर्त द्रव्य हैं / क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा इनका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता। अमूर्त का परोक्षात्मक ज्ञान शास्त्र से होता है। दार्शनिक युग में केवलज्ञान की विषय-वस्तु के आधार पर सर्वज्ञवाद की विशद चर्चा हुई है / पण्डित सुखलालजी ने उस चर्चा का समवतार इस प्रकार किया है.... "न्याय वैशेषिक दर्शन जब सर्वविषयक साक्षात्कार का वर्णन करता है तब वह सर्व शब्द से अपनी परम्परा में प्रसिद्ध द्रव्य, गुण आदि सातों पदार्थों को संपूर्ण भाव से लेता है। सांख्ययोग जब सर्व विषयक साक्षात्कार का चित्रण करता है तब वह अपनी परम्परा में प्रसिद्ध प्रकृति, पुरुष आदि पच्चीस तत्त्वों के पूर्ण साक्षात्कार की बात कहता है। बौद्ध दर्शन पंच स्कन्धों को संपूर्ण भाव से लेता है। वेदान्त दर्शन सर्व शब्द से अपनी परम्परा में पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध एकमात्र पूर्ण ब्रह्म को ही लेता है / जैनदर्शन भी 'सर्व' शब्द से अपनी परम्परा में प्रसिद्ध सपर्याय षड्द्रव्यों को पूर्णरूपेण लेता है। इस तरह उपर्युक्त सभी दर्शन अपनी परम्परा के अनुसार माने जाने वाले सब पदार्थों को लेकर उनका पूर्ण साक्षात्कार मानते हैं और तदनुसारी लक्षण भी करते हैं। .... पण्डित सुखलालजी की सर्वज्ञता विषयक मीमांसा का स्पष्ट फलित है कि 'सर्व' पद के विषय में सब दार्शनिक एकमत नहीं हैं / इसका मूल हेतु आत्मा और ज्ञान के संबंध की अवधारणा है / जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वभाव है / वह एक है, अक्षर है, उसका नाम केवलज्ञान है। ___आचार्य कुन्दकुन्द ने केवलज्ञान का लक्षण व्यवहार और निश्चय-दो दृष्टियों से किया है-व्यवहार नय से केवली भगवान् सबको जानते हैं और देखते हैं। निश्चय से केवलज्ञानी अपनी आत्मा को जानते हैं और देखते हैं। जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान स्व-पर प्रकाशी है / इस आधार पर केवलज्ञानी निश्चय नय से आत्मा को जानता-देखता है, यह लक्षण संगत है। वह पर-प्रकाशी है, इस आधार पर वह सबको जानता-देखता है, यह लक्षण संगत है। . केवलज्ञान आत्मा का स्वभाव है / वह स्वभाव है इसलिए मुक्त अवस्था में भी विद्यमान रहता है / प्रत्यक्ष अथवा साक्षात्कारित्व उसका स्वाभाविक गुण है / ज्ञानावरण कर्म से आच्छन्न होने के कारण उसके चार भेद किए गए हैं—मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यव / तारतम्य के आधार पर असंख्य भेद बन सकते हैं / ज्ञानावरण का सर्वविलय होने पर ज्ञान के तारतम्यजनित भेद समाप्त हो जाते हैं और केवलज्ञान प्रकट हो जाता Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 / आहती-दृष्टि केवलज्ञान का अधिकारी सर्वज्ञ होता है। सर्वज्ञ और सर्वज्ञता न्याय प्रधान दर्शन युग का एक महत्वपूर्ण चर्चनीय विषय रहा है। जैन दर्शन को केवलज्ञान मान्य है इसलिए सर्वज्ञवाद उसका सहज स्वीकृत पक्ष है। आगम युग में उसके स्वरूप और कार्य का वर्णन मिलता है किन्तु उसकी सिद्धि के लिए कोई प्रयल नहीं किया गया। दार्शनिक युग में मीमांसक, चार्वक् आदि ने सर्वज्ञत्व को अस्वीकार किया तब जैन दार्शनिकों ने सर्वज्ञत्व की सिद्धि के लिए कुछ तर्क प्रस्तुत किए। ज्ञान का तारतम्य होता है, उसका अन्तिम बिन्दु तारतम्य रहित होता है। ज्ञान का तारतम्य सर्वज्ञता में परिनिष्ठित होता है / इस युक्ति का उपयोग मल्लवादी हेमचन्द्र, उपाध्याय यशोविजय आदि सभी दार्शनिकों ने किया है। ___ जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का गुण है / वह अनावृत अवस्था में भेद या विभाग शून्य होता है। आवरण के कारण उसके विभाग होते हैं और तारतम्य होता है। ज्ञान के तारतम्य के आधार पर उसकी पराकाष्ठा को केवलज्ञान मानना एक पक्ष है किन्तु इससे अधिक संगत पक्ष यह हैं कि केवलज्ञान आत्मा का स्वभाव अथवा गुण है। ज्ञानावरण कर्म के कारण उसमें तारतम्य होता है। ज्ञानावरण के क्षय होने पर स्वभाव प्रगट हो जाता है। किसी अन्य दर्शन में ज्ञान आत्मा स्वभाव या गुण रूप में स्वीकृत नहीं है, इसलिए उनमें सर्वज्ञता का वह सिद्धान्त मान्य नहीं है जो जैन दर्शन में है। पण्डित सुखलालजी ने सर्व शब्द को दर्शन के साथ जोड़ा है। उनके अनुसार जो दर्शन जितने तत्त्वों को मानता है, उन सबको अनने वाला सर्वज्ञ होता है / जैन दर्शन में 'सर्व' शब्द का स्वाभिमत द्रव्य की सीमा में आबद्ध नहीं किया है। अतिरिक्त क्षेत्र. काल और भाव उसे द्रव्य के साथ संयोजित किया है। केवलज्ञान का विषय है-सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभाव। द्रव्य का सिद्धान्त प्रत्येक दर्शन का अपना-अपना होता है किन्तु क्षेत्र, काल और भाव से सर्वसामान्य हैं / सर्वज्ञ सब द्रव्यों को सर्वथा, सर्वत्र और सर्वकाल में जानतादेखता है। न्याय, वैशेषिक आदि दर्शनों में ज्ञान आत्मा के गुण के रूप में सम्मत नहीं है इसलिए उन्हें मनुष्य की सर्वज्ञता का सिद्धान्त मान्य नहीं हो सकता। बौद्ध दर्शन में अन्वयी आत्मा मान्य नहीं है इसलिए बौद्ध भी सर्वज्ञवाद को स्वीकार नहीं करते। वेदान्त के अनुसार केवल ब्रह्म ही सर्वज्ञ हो सकता है, कोई मनुष्य नहीं / सांख्यदर्शन में केवलज्ञान अथवा कैवल्य की अवधारणा स्पष्ट है। . . जैनदर्शन सम्मत सर्वज्ञता के विरोध में मीमांसकों ने प्रबल तर्क उपस्थित किए। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान / 323 उनके अनुसार प्रत्यक्ष, उपमान, अनुमान, आगम, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि किसी भी प्रमाण से सर्वज्ञत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। न्याय और वैशेषिक ईश्वरवादी दर्शन हैं / वे ईश्वर को सर्वज्ञ मानते हैं / कालक्रम से उनमें योगी-प्रत्यक्ष की अवधारणा प्रविष्ट हुई है पर जैन दर्शन में केवलज्ञान या सर्वज्ञत्व मोक्ष की अनिवार्य शर्त है / न्याय और वैशेषिक का मत है कि ज्ञान मुक्त अवस्था में नहीं रहता। ईश्वर का ज्ञान नित्य है और योगि-प्रत्यक्ष अनित्य / शांतरक्षित ने कुमारिल के तर्कों का उत्तर दिया। किन्तु शांतरक्षित के उत्तर सर्वज्ञत्व की सिद्धि में बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकते / बौद्ध दर्शन सर्वज्ञत्व के विरोध में अग्रणी रहा है। उत्तरवर्ती बौद्धों ने सर्वज्ञत्व का जो स्वीकार किया है, वह अस्वीकार और स्वीकार के मध्य झूलता दिखाई देता है। सर्वज्ञत्व की सिद्धि में सर्वाधिक प्रयल जैन दार्शनिकों का है। इस प्रयत्न की पृष्ठभूमि में दो हेतु हैं 1. सर्वज्ञता आत्मा का स्वभाव है। 2. मोक्ष के लिए सर्वज्ञत्व अनिवार्य है। बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने सर्वज्ञता का खण्डन किया। उसका उत्तर आचार्य समंतभद्र, अकलंक, विद्यांनन्द, प्रभाचन्द आदि ने दिया है / यदि तर्क-जाल को सीमित करना चाहें तो वह सत्र पर्याप्त है-ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। ज्ञानावरण के क्षीण होने पर सकल ज्ञेय को जानने की उसमें क्षमता है। केवलज्ञान या सर्वज्ञत्व की इतनी विशाल अवधारणा किसी अन्य दर्शन में उपलब्ध नहीं है। पण्डित सुखलालजी ने 'निरतिशयं सर्वज्ञबीजम' योगदर्शन के इस सूत्र को सर्वज्ञ सिद्धि का प्रथम सूत्र माना है। जैन आचार्यों ने इस युक्ति का अनुसरण किया है किंतु सर्वज्ञता की सिद्धि का मूलसूत्र भगवती में विद्यमान है। वह प्राचीन है तथा योगदर्शन के सूत्र से सर्वथा भिन्न है / सर्वज्ञता की सिद्धि का हेतु है-अनिन्द्रियता / इन्द्रिय ज्ञान स्पष्ट है / उसका प्रतिपक्ष अवश्य है / सर्वज्ञता इन्द्रिय और मन से सर्वथा निरपेक्ष है। वह अतीन्द्रिय ज्ञान है। संदर्भ 1. आचार्य महाप्रज्ञ, नंदी सभाष्य सू. 26-33 / Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 / आर्हती-दृष्टि मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान की भेदरेखा प्राचीन कर्मशास्त्र में ज्ञानावरण कर्म की प्रकृतियों के उल्लेख के समय मतिज्ञानावरण एवं श्रुतज्ञानावरण—इन दो प्रकृतियों का पृथक्-पृथक् उल्लेख है। अतः इस कथन से स्पष्ट है कि इनके ज्ञान भी अलग-अलग हैं / प्राचीन परम्परा से ही मतिज्ञान एवं श्रुतिज्ञान को पृथक् स्वीकार किया गया है और आज भी उनका वही रूप स्वीकृत है, परन्तु इन दोनों का स्वरूप परस्पर इतना सम्मिश्रित है कि इनकी भेदरेखा करना कठिन हो जाता है / जैन-परम्परा में इनकी भेदरेखा स्थापित करने के लिए तीन प्रयत्न हुए 1. आगमिक, 2. आगममूलक तार्किक, 3. शुद्ध तार्किक। . आगमिक प्रयत्न आगम परम्परा में इन्द्रिय मनोजन्य ज्ञान अवग्रह आदि भेदवाला मतिज्ञान था तथा अंग-प्रविष्ट एवं अंग-बाह्य के रूप में प्रसिद्ध लोकोत्तर जैन-शास्त्र श्रुतज्ञान कहलाते थे। अनुयोगद्वार तथा तत्त्वार्थसूत्र में पाया जानेवाला श्रुतज्ञान का वर्णन इसी प्रथम प्रयत्न का फल है / आगमिक परम्परा में अंगोपांग के ज्ञान को ही श्रुतज्ञान कहा है, अंगोपांग के अतिरिक्त सारा मतिज्ञान है। अंगोपांग से भिन्न वेद, व्याकरण, साहित्य, शब्द संस्पर्शी ज्ञान, शब्द-संस्पर्शरहित ज्ञान सारा ही मतिज्ञान है / तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि किसी व्यक्ति में एक, दो, तीन और चार ज्ञान एक साथ हो सकते ___उमास्वाति के बाद की परम्परा ने ऐसा स्वीकार नहीं किया है। उसके अनुसार, किसी भी प्राणी में कम-से-कम दो ज्ञान तो होंगे ही। तत्त्वार्थ के एक ज्ञान के उल्लेख का तात्पर्य है-श्रतज्ञान अंगोपांग रूप है, वह सबमें हो यह जरूरी नहीं है। अतः अंगोपांगरहित सारा ज्ञान ही आगम परम्परा में मतिज्ञान था और इस अपेक्षा से व्यक्ति में एक ज्ञान माना जा सकता है। असोच्चा केवली का उल्लेख भी शायद इस एक ज्ञान की ही फलश्रुति है। जिसने अंगोपांग का श्रवण अध्ययन नहीं किया हो वह मतिज्ञानी है, वह जब केवली हो जाता है तब उसे 'असोच्चा केवली' कह दिया जाता हो, ऐसी सम्भावना की जा सकती है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान की भेदरेखा / 325 आगममूलक तार्किक इस दूसरे प्रयल ने मति, श्रुन के भेद को तो स्वीकार कर लिया किन्तु उनकी भेदरेखा स्थिर करने का व्यापक प्रयल किया गया। प्रथम परम्परा जो आगम को ही श्रुतज्ञान मानती थी इसके अतिरिक्त दूसरी परम्परा ने आगम के अतिरिक्त को भी श्रुतज्ञान के रूप में स्वीकार किया। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कहा इन्दियमणोनिमितं जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं / निययत्युत्तिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं / . विशेषा. भा. गा. 96 इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होनेवाला श्रुतानुसारी ज्ञान जो, स्वयं में प्रतिभासित घट, पट आदि पदार्थों को समझाने में समर्थ होता है, वह श्रुतज्ञान है। ज्ञान-बिन्दु में मति-श्रुत को परिभाषित करते हुए कहा गया है-'मतिज्ञानत्वं श्रुताननुसार्यनतिशयितज्ञानत्वम् अवग्रहादिक्रमवदुपयोगजन्यज्ञानत्वं वा, श्रुतं तु श्रुतानुसार्येव।' ___ जो श्रुतानुसारी होता है वह श्रुतज्ञान है तथा जो श्रुताननुसारी अर्थात् श्रुतानुसारी नहीं होता वह मतिज्ञान है। . . जब श्रुतानुसारी को श्रुतज्ञान कहा गया तो शंका करते हुए पूछा गया कि शब्दोल्लेखी श्रुतज्ञान है तो मतिज्ञान का भेद अवग्रह ही मतिज्ञान होगा। शेष ईहा आदि श्रुतज्ञान होंगे क्योंकि वे भी शब्दोल्लेख युक्त हैं / इस प्रकार मतिज्ञान का लक्षण अव्याप्त दोष से दूषित होगा तथा श्रुतज्ञान का लक्षण मतिज्ञान के भेदों में चले जाने से अतिव्याप्त लक्षणाभास से दूषित है / समाधान की भाषा में आचार्यों ने कहा कि ईहा आदि साभिलाप है किन्तु सशब्द हो जाने मात्र से वह श्रुतज्ञान नहीं है। जो श्रुतानुसारी साभिलाप ज्ञान है वही श्रुतज्ञान है। धारणात्मक ज्ञान के द्वारा वाच्य-वाचक सम्बन्ध संयोजन से जो ज्ञान होता है वह श्रुतानुसारी है। अतः मतिज्ञान साभिलाप होने पर भी श्रुतानुसारी न होने पे श्रुतज्ञान नहीं है / अतः मति का लक्षण अव्याप्त दोष से तथा श्रुत का लक्षण अतिव्याप्त दोष से दूषित नहीं है। साभिलाप अवग्रह आदि श्रुतनिश्रित मतिज्ञान है / वे श्रुतानुसारी नहीं है तथा मतिज्ञान साभिलाप एवं अनभिलाप उभय प्रकार का है, किन्तु श्रुतज्ञान तो साभिलाप ही होता है। श्रुत-निश्रित, अश्रुतनिश्रित तक मतिज्ञान है, जहां श्रुतानुसारित्व शुरू होता है वहां श्रुतज्ञान होता है। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 / आर्हती-दृष्टि - उमास्वाति ने कहा—जहां श्रुतज्ञान है वहां मतिज्ञान नियमतः है, किन्तु जहां मति हो वहां श्रुत हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है, वहां वह वैकल्पिक है। परन्तु नन्दीकार के अनुसार जहां मतिज्ञान है वहां श्रुतज्ञान निश्चित है। मति, श्रुत का अविनाभाव सम्बन्ध है-ऐसा नन्दी सूत्रकार, पूज्यपाद देवनन्दी तथा अकलंक मानते प्रश्न यह है कि यह अविनाभाव मत्युपयोग एवं श्रुतोपयोग का है अथवा उनकी लब्धि का है। इस प्रश्न का समाधान स्पष्ट रूप से ऊपरी सन्दर्भो में उपलब्ध नहीं है परन्तु यह बहुत सम्भव है कि लब्धि का सहभाव है, उपयोग का नहीं है, क्योंकि जैन-चिन्तकों का मानना है कि दो उपयोग युगपत् नहीं हो सकते तथा उमास्वाति का यह कथन कि मतिश्रत निश्चित रूप से अनुगमन करे यह जरूरी नहीं है। यह वक्तव्य उपयोग के आधार पर हो सकता है। मत्युपयोग होने पर श्रुतोपयोग हो यह जरूरी नहीं है / अतः उमास्वाति का कथन उपयोग को लेकर है न कि लब्धि के आधार पर / अन्य आचार्यों का कथन लब्धि के आधार पर है, उपयोग के आधार पर नहीं है। मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान के स्वामी, काल, विषय समान हैं अतः उनमें परस्पर अभिन्नता है तथा अन्य दृष्टि से उनमें परस्पर भिन्नता भी है.। मति तथा श्रुत का लक्षण भिन्न है, अतः वे भिन्न हैं / श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है जबकि मतिज्ञान श्रुतपूर्वक नहीं होता / आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने मति और श्रुत की भिन्नता के कारणों का निरूपण करते हुए कहा लक्खणभेआ हेऊफलभावओ भेय इन्दिय विभागा। वाग-क्खर-मूए-यर आभेओ मइमुयाणं / ___ वि. गा. 97 उन्होंने मति और श्रुति के भेद इस प्रकार किये हैं। . 1. लक्षण कृत भेद, 2. मतिज्ञान कारण है, श्रुतज्ञान कार्य है। 3. मतिज्ञान के 28 भेद हैं, श्रुतज्ञान के 14 भेद हैं। 4. श्रुतज्ञान श्रोत्रेन्द्रियों का विषय है जबकि मति श्रोत के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों का भी विषय है। 5. मतिमूककल्पा है, श्रुत अमूककल्प है। 6. मतिज्ञान अनक्षर होता है, श्रुतज्ञान अक्षर होता है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान की भेदरेखा / 327 7. मतिज्ञान स्वप्रत्यायक ही होता है, श्रुतज्ञान स्व-पर अवबोधक होता है। __ जो सम्मुख आए हुए को जानता है वह आभिनिबोधिक ज्ञान है। जो सुनता है वह श्रुतज्ञान है / वक्ता एवं श्रोता का जो श्रुतानुसारी ज्ञान है, वह श्रतज्ञान है तथा उनका श्रृतातीत ज्ञान मतिज्ञान है। श्रुतज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय लब्धि रूप ही होता है, किन्तु सारी श्रोत्रोपलब्धि श्रुतज्ञान नहीं होती है, वह मति भी होती है। मतिज्ञान वार्तमानिक है जबकि श्रुत त्रैकालिक है / इस प्रकार मति और श्रुत में परस्पर भेदाभेद है। मति एवं श्रुत की इस प्रकार की भेदरेखा का प्रयत्न आगममूलक तार्किक विचारधारा का परिणाम है। शुद्ध तार्किक दृष्टि ___मति-श्रुत के बारे में तीसरी दृष्टि के जनक सिद्धसेन दिवाकर हैं। उन्होंने मति एवं श्रुत के भेद को ही अमान्य किया है। उनके अनुसार श्रुतज्ञान, मतिज्ञान के ही अन्तर्गत है, जिस प्रकार स्मृति आदि मति के अन्तर्गत है। उनका कहना है कि श्रुतज्ञान को मतिज्ञान से पृथक् मानने पर कल्पना गौरव होता है / अर्थात् जब श्रुतज्ञान का जो कार्य बताया गया है वह मतिज्ञान के द्वारा ही सम्पादित हो जाता है ।तब श्रुतज्ञान को मति से पृथक स्वीकार करके कल्पना गौरव क्यों किया जाए? मति और श्रुत में अभेद है। इनको पृथक् मानने से वैयर्थ्यता एवं अतिप्रसंग ये दो दोष उपस्थित होते हैं-'वैयर्थ्यातिप्रसंगाभ्यां न मत्यभ्यधिकं श्रुतम्।' यह सिद्धसेन दिवाकर की शुद्ध तार्किक परम्परा है, जिन्होंने दोनों के भेद को ही अमान्य कर दिया है। उपर्युक्त सारी परम्पराओं का उल्लेख आचार्य यशोविजयजी ने ज्ञानबिन्दु नामक ग्रन्थ में सूक्ष्म दृष्टि से किया है। सन्दर्भ 1. श्रुतानुसारित्वं धारणात्मकपदपदार्थसम्बन्धप्रतिसंघानजन्यज्ञानत्वम् / ज्ञानबिन्दु पृ.६ 2. विशेषा. भा, गा. 100 की टीका। 3. Studies in Jain Philosophy, p. 55. . 4. विशेषा. भा, गा. 98. 5. विशेषा. भा, गा. 121. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 इन्द्रिय-प्रत्यक्ष प्रक्रिया : जैन एवं बौद्ध परम्परा दार्शनिकों ने अनेक तत्त्वों पर चिन्तन किया है तथा अपनी सूक्ष्म मेघा के द्वारा सत्य को प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया है / दार्शनिक चाहे वे किसी धर्म और दर्शन से सम्बन्धित हों, फिर भी वस्त-तथ्य को जांचने-परखने का उनका अपना एक स्वतन्त्र मापदण्ड होता है / अनेक तथ्यों के साथ उनका आपसी विचार-भेद होने पर भी बहुत-से ऐसे स्थल हैं जहां उनकी सोच, विचारधारा एक बिन्दु पर आकर परस्पर मिलती हुई-सी प्रतीत होती है। ___फलस्वरूप विभिन्न दर्शनों में भी कई स्थलों पर संज्ञान्तर से अमुक विषय पर मतैक्य उपलब्ध है / प्रस्तुत निबन्ध में हम इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया के सम्बन्ध में विचार कर रहे हैं। इन्द्रिय-प्रत्यक्ष की प्रक्रिया के सम्बन्ध में विभिन्न भारतीय दर्शनों में नामान्तर होने पर भी विचार-भेद नहीं है। न्याय-वैशेषिक आदि वैदिक दर्शन तथा जैन, बौद्ध दर्शन यही मानते हैं कि जहाँ इन्द्रियजन्य एवं मनोजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वहां सबसे पहले विषय और इन्द्रिय का सम्बन्ध होता है। तदनन्तर निर्विकल्पक एवं सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया का यह सामान्य क्रम सभी दार्शनिकों को मान्य है। जैन और बौद्ध ये दोनों श्रमण-परम्पराएं हैं। अनेक स्थलों पर परस्पर विचारभेद होने पर भी कई स्थलों पर समानता भी परिलक्षित होती है। प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया के सन्दर्भ में दोनों परम्पराओं में विचार करने पर नामान्तर से मतैक्य प्राप्त है। उन विचारों की तुलना करना प्रस्तुत निबन्ध का उद्देश्य है / यद्यपि पृथक् दो धाराओं के विचारों की तुलना करना निस्सन्देह कठिन कार्य है किन्तु ऐसा कहकर, उसे टाला भी नहीं जा सकता / अत्यन्त सावधानी से उस समानता का उल्लेख करना दोनों ही धाराओं से ज्ञान-प्राप्ति का विनम्र उपक्रम होगा। - बौद्ध परम्परा में प्रतिसन्धि, भवङ्ग, आवर्जन, दर्शन, श्रवण, घ्राण, आस्वादन, स्पर्शन, सम्पटिच्छन्न, सन्तीरण, वोट्ठपन, जवन, तदालम्बन एवं च्यूति ये चौदह प्रकार के कृत्य बतलाए गए हैं। बौद्ध-दर्शन चित्त को मानता है, चित्त आलम्बन के बिना नहीं रह सकता है। कर्मों के अनुसार अतीत भव के निरुद्ध हो जाने पर नवीन भव के उत्पाद Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय-प्रत्यक्ष प्रक्रिया : जैन एवं बौद्ध परम्परा/ 329 के लिए प्रतिसन्धिचित्त के द्वारा प्रतिसन्धान कृत्य पर दिए जाने पर स्वसदृश विपाक निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं। भव के निरन्तर प्रवाह के लिए प्रतिसन्धि के अनन्तर प्रतिसन्धि सदृश विपाक सन्तति का उत्पाद होता रहता है। संसार की अविच्छिन्न प्रवृत्ति के हेतुभूत चित्त को भवङ्ग कहते हैं। जैन परम्परा में उसे पर्यायात्मा कह सकते हैं। भवङ्गचित्त का उत्पाद तब तक रहता है जब तक कर्म अवशिष्ट रहते हैं। __भवङ्गचित्त अपने पूर्वभव में प्राप्त आलम्बन को लिए हुए चलता रहता है / अच्छे कर्म किए हैं तो विमान का और बुरे कर्म किए हैं तो अग्नि का आलम्बन उसे मिल जाता है / जब अभिनव आलम्बन अवभासित होता है तब पूर्व विद्यमान भवङ्ग सन्तति एकाएक विच्छिन्न होने में असमर्थ होती है अतः पूर्वगृहीत आलम्बन में ही दो बार भवङ्ग चलन होने के पश्चात् भवङ्ग सन्तति का विच्छेद हो जाता है, जैसे वेग से दौड़नेवाला पुरुष लक्ष्य को प्राप्त कर लेने पर भी एकाक रुक नहीं सकता, एक दो कदम आगे दौड़ता है वैसे ही दो बार भवङ्ग चलन होने से पूर्व भवङ्ग सन्तति के प्रवाह का विच्छेद होता है . यथा वेगेन धावतो ठातुकामो न तिट्ठति / एवं द्विक्खत्तुं भवङ्गं उप्पज्जित्वा व छिज्जति // अतीत भवङ्ग का एक क्षण एवं भवङ्ग चलन एवं भवङ्गोपच्छेद का भी क्रमशः एक-एक क्षण है। चित्त-क्षण के अतीत होने पर पाँच आलम्बन पाँच द्वारों में अभिनिपात अर्थात् गोचरभाव को प्राप्त होते हैं। जिसका एक चित्त-क्षण अतीत हो गया है ऐसा रूपालम्बन यदि चक्षुः प्रासाद में प्रादुर्भाव को प्राप्त होता है तो दो बार भवङ्ग के चलित होने पर भंवङ्ग स्रोत को विच्छिन्न करके उसी रूपालम्बन का आवर्जन करते हुए पञ्चद्वारावज्जनचित्त उत्पन्न होता है। यह पञ्चद्वारावज्जनचित्त भवङ्ग सन्तति के पूर्व गृहीत आलम्बन का विच्छेद करके चित्त सन्तति को उस नवीन आलम्बन के अभिमुख करता है। पञ्चद्वारावज्जनचित्त की तुलना जैन-दर्शन में ज्ञान प्रक्रिया के अन्तर्गत आगत दर्शन से की जा सकती है। बौद्ध-दर्शन में तीन प्रकार के चित्त का उल्लेख है-क्रियाचित्त, विपाकचित्त एवं बीजचित्त। यह पञ्चद्वारावज्जन शुद्ध क्रियाचित्त है, इसमें किसी भी प्रकार का भ्रम नहीं हो सकता। इसी प्रकार दर्शन भी निर्विशेषित सामान्य का ग्रहण है, यह अनाकार Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 / आहती-दृष्टि उपयोग है, इसमें किसी भी प्रकार का भ्रम नहीं हो सकता। भ्रम ज्ञान में हो सकता है, दर्शन में नहीं होता। पञ्चद्वारावजजनचित्त के विरुद्ध होने पर उसी रूपालम्बन को देखता हुआ चक्षुर्विज्ञानचित्त पैदा होत है / जैन सम्मत व्यञ्चनावग्रह से इसकी समानता है / इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध के द्वारा शब्दादि विषयों का अव्यक्त परिच्छेद व्यञ्जनावग्रह कहलाता है। इसमें ज्ञानमात्रा अव्यक्त रहती है, अतः स्पष्ट प्रतिभासित नहीं होती परन्तु इसके कार्य अर्थावग्रह या ईहा को देखकर इसकी ज्ञानमात्रा का अनुभव होता है / बौद्ध परम्परा में चक्षुर्विज्ञान का एक समय है किन्तु जैन-परम्परा व्यञ्जनावग्रह को आन्तर्मोहूर्तिक स्वीकार करती है अतः इन दोनों परम्पराओं में चक्षुर्विज्ञान एवं व्यञ्जनावग्रह में विषय की समानता होने पर भी कालकृत भेद भी है। .. सम्पटिच्छन्न की तुलना अर्थावग्रह से की जा सकती है / सम्पटिच्छन्न चक्षुर्विज्ञान के द्वारा विज्ञान आलम्बन का ही सम्यक् ग्रहण करता है / अर्थावग्रह भी व्यञ्जनावग्रह गृहीत विषय को ही ग्रहण करता है / अर्थावग्रह व्यञ्जनावग्रह की अपेक्षा कुछ व्यक्त होता है किन्तु इसमें जाति, गुण, द्रव्य आदि की कल्पना नहीं होती। 'इदं किञ्चिादस्ति' यह प्रतिभास इसमें होता है। अर्थावग्रह के स्वरूप के सम्बन्ध में जैन-दार्शनिकों के भी भिन्न-भिन्न विचार हैं, जिनका विमर्श अन्यत्र वाञ्छित है। अर्थावग्रह एकसामयिक है तथा सम्पटिच्छन्नभी एकक्षण वाला है / सम्पटिच्छन्न में पूर्वानुभूत संस्कार आ जाते हैं अतः यह विपाकचित्त होता है। विपाक स्वयं शुभ, अशुभ नहीं होता किन्तु यह शुभ, अशुभ का विपाक होता है। सन्तीरण चित्त की समानता ईहा से है। सम्पटिच्छन्न के द्वारा गृहीत आलम्बन का सम्यक् विचार ऊहापोह अर्थात् तुलना या मीमांसा सन्तीरण चित्त का कृत्य है। जैसे, भोज्य पदार्थों को देखकर यह खाने योग्य है या नहीं है, उसके लाभ, हानि, गुण और दोष की मीमांसा करता है, ठीक वैसे ही ईहा भी अवग्रह-गृहीत विषय में ऊहापोह करती है / सद्भूत का उपादान, असद्भूत का त्याग ईहा की मीमांसा से ही होता है। ईहा सत्य तक पहुँचने का उपक्रम करती है / सन्तीरण एवं ईहा में कालकृत भेद है / जैन ईहा को आन्तमौहूर्तिकी मानता है जबकि बौद्ध-परम्परा में सन्तीरण एकसामयिक है। सन्तीरण का कार्य मीमांसा करना है / मीमांसा एक क्षण में नहीं हो सकती, अतः सन्तीरण को एक सामयिक मानने से विरोध उपस्थित होता है। सन्तीरण के पश्चात् वोट्ठपनचित्त होता है / सन्तीरण के द्वारा मीमांसा के अनन्तर 'यह आलम्बन इष्ट है', अथवा 'यह आलम्बन अनिष्ट है' इस प्रकार प्रथक-पृथक Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय-प्रत्यक्ष प्रक्रिया : जैन एवं बौद्ध परम्परा/ 331 अवच्छेद करना वोट्ठपन है / यह चित्त व्यवस्थापन कर लेता है / इसका समय भी एक क्षण का है। इसके पश्चात् जवनचित्त होता है / जवन बड़े वेग से दौड़ता है। जवन का ‘कृत्य' आलम्बन का अनुभव करना है। यह सात क्षणवाला माना गया है। इन दोनों की तुलना अवाय से की जा सकती है। ____ अवाय में वस्तु का निश्चय हो जाता है / अवाय आन्तमौहूर्तिक है तथा जवन भी सात क्षणवाला है / वोट्ठपन में क्रियाचित्त है, इसमें क्लेश नहीं होता किन्तु जवनबीज एवं क्रियाचित्त दोनों है / कुशल-अकुशल चित्त जवन में ही होता है / जवन में ही बन्ध हो सकता है / जवन में वीतराग के क्रियाचित्त एवं छदस्थ के बीज चित्त होता है। जैन-परम्परा में दृष्टिपात करें तो इस प्रकार का उल्लेख प्राप्त नहीं है यद्यपि उमास्वाति ने बीजबन्धन एवं फलबन्धन इन दो बन्धों का उल्लेख किया है। ____घाती कर्म बीजबन्धन है, अघाती कर्म फलबन्धन है / बन्ध अवाय में होता है। ऐसा स्वीकार करने में जैन को भी शायद कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि ईहा आदि की स्थिति में सम्पूर्ण निश्चयात्मकता नहीं होती। निश्चयात्मकता अवाय में होती है, अतः बन्ध भी वहीं होना चाहिए। तदालम्बन चित्त संक्रमणकाल है। धारणा को अभिव्यञ्जित करनेवाला शब्द बौद्ध-परम्परा में नहीं है किन्तु जवन एवं तदालम्बन के संस्कार भवङ्ग चित्त में रहते हैं वह स्थिति धारणा की है। पण्डित सुखलालजी संघवी ने धारणा की तुलना जवनचित्त से की है परन्तु डॉ. नथमल टाटिया के अनुसार जवन अवाय रूप है। - जैन-परम्परा में अवग्रह आदि के स्वरूप को समझाने के लिए मल्लक, प्रतिबोधक आदि के दृष्टान्त दिए गए हैं। वैसे ही बौद्ध-परम्परा में भी चित्तवीथि को समझाने के लिए आम्रफल, इक्षुनाड़ी यन्त्र आदि उदाहरणों का उल्लेख है / जैन-परम्परा अवग्रह आदि को क्रमशः मानती है। उनमें व्युत्क्रम नहीं हो सकता अर्थात् अवग्रह से पहले ईहा या ईहा से पहले अवाय नहीं हो सकता, वैसे ही बौद्ध-परम्परा में भी इन चित्तों का उत्पाद क्रमशः ही होता है, इनमें परस्पर व्युत्क्रम नहीं होता। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित : उत्पत्ति एवं विकास मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान इन दोनों ज्ञानों में शब्द संयोजना है। इस शब्द संयोजना की समानता के कारण मति और श्रुत की भिन्नता का बोध अस्पष्ट हो जाता है / शब्द संयोग के कारण मति में भी श्रुत बुद्धि पैदा हो जाती है। इसके समाधानस्वरूप श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित का विभाग सामने आया। . समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि शब्द से युक्त हो जाने मात्र से कोई ज्ञान श्रुत नहीं हो जाता वह श्रुत तभी बनता है जब पद एवं पदार्थ के प्रतिसन्धान के द्वारा ज्ञान पैदा होता है / मतिज्ञान सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष है / इसके दो भेद किए गएश्रुतनिश्रित तथा अश्रुतनिश्रित। _ ऐतिहासिक दृष्टि से अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि ये दोनों भेद प्राचीन नहीं हैं / इनका उल्लेख अनुयोगद्वार तथा आवश्यक नियुक्ति में नहीं है। मतिज्ञान के अवग्रह आदि भेदों का निरूपण तथा उसके भी बहु क्षिप्र इत्यादि भेद श्वेताम्बर एवं दिगम्बर साहित्य में समान रूप से उपलब्ध होते हैं। जबकि श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित का उल्लेख मात्र श्वेताम्बरीय साहित्य में ही देखने को मिलता है। श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी इनका उल्लेक सर्वप्रथम नन्दीसूत्र में उपलब्ध होता है। वाचक के तत्त्वार्थ सत्र में इनका उल्लेख नहीं है। तत्त्वार्थ के उत्तरवर्ती साहित्य विशेषावश्यक में इनका वर्णन प्राप्त है। स्थानाङ्ग में भी इनकी चर्चा है / अवग्रहादि चार श्रुतनिश्रित मति के भेद हैं तथा औत्पत्तिकी आदि बुद्धि का समावेश अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान में है। यद्यपि स्वयं नन्दीकारक ने मतिज्ञान के श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित ये दो भेद किए हैं। फिर भी मतिज्ञान को 28 भेदवाला ही सूचित किया है। इससे यह प्रकट होता है कि औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों को मति में समाविष्ट करने के लिए मति के दो भेद किए पर प्राचीन परम्परा में मति में उनका स्थान न होने से नन्दीकार ने मतिज्ञान के 28 भेद ही किए हैं। अन्यथा चार बुद्धियों को मिलाने से तो मति के 32 भेद हो जाने चाहिए थे। आचार्य यशोविजयजी ने अपनी पूर्ववर्ती सम्पूर्ण परम्पराओं का सार ज्ञानबिन्द में स्थापित करने का प्रशस्य प्रयत्न किया है। इसी कारण श्रुतनिश्रित एवं अश्रुनिश्रित का उल्लेख ज्ञानबिन्दु में उपलब्ध है / अब एक प्रश्न उपस्थित होता है कि ये दो भेद Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित : उत्पत्ति एवं विकास / 333 करने की आवश्यकता क्यों हुई? इस विभाग के पीछे क्या पृष्ठभूमि रही होगी। इसका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं है। यशोविजयजी ने भी इसका कोई समाधान नहीं दिया है। अन्यान्य भारतीय दर्शन के अध्ययन से ही इनकी उत्पत्ति के कारण का ज्ञान हो सकता है / सविकल्पक एवं निर्विकल्पक ज्ञान की चर्चा भारतीय दर्शन का विमर्शनीय बिन्दु रहा है और सम्भव यही लगता है कि सविकल्पक एवं निर्विकल्पक ज्ञान निरूपण के सन्दर्भ में किसी के मन में श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित की अवधारणाओं की उत्पत्ति ___शब्दाद्वैतवाद के अनुसार कोई भी ज्ञान बिना शब्द के पैदा ही नहीं हो सकता। उनका कहना है कि न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके य शब्दानुगमादृते / अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते॥ न्याय-दर्शन में प्रत्यक्ष की परिभाषा देते हुए कहा गया'इन्द्रियार्थसन्निकर्वोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्' यहां व्यवसायात्मक और अव्यपदेश्य ये दो शब्द विमर्शनीय हैं। उनके अनुसार इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष के पश्चात् अव्यपदेश्य वस्तु का ज्ञान होता है अर्थात् पदरहित पदार्थ का ज्ञान होता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उस समय शब्द नहीं होता किन्तु उस समय शब्द और अर्थ के सम्बन्ध के उपयोग के बिना ही ज्ञान होता है, अस्य शब्दस्य इदं वाच्यमस्ति' इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता तथा वह ज्ञान व्यवसायात्मक होता है / विकल्प के बिना ज्ञान में व्यवसायात्मकता नहीं हो सकती। ___बौद्ध-दर्शन का अभिमत है कि प्रत्यक्ष ज्ञान निर्विकल्पक होता है, उसमें किसी भी प्रकार का विकल्प सम्भव नहीं है परन्तु उनका यह अभ्युपगम स्वयं उनके सिद्धान्त से ही निराकृत हो जाता है। . बौद्ध-दर्शन में तीन प्रकार के विकल्प माने गए हैं। स्वभाव, अभिनिरूपण और अनुस्मरण / इनमें से प्रथम स्वभाव विकल्प सारे ज्ञानों में रहता है, इसके बिना कोई ज्ञान हो ही नहीं सकता। अभिनिरूपण और अनुस्मरण विकल्प के अभाव में ज्ञान को निर्विकल्प कह दिया जाता है ठीक ऐसे ही स्वभाव विकल्प से युक्त ज्ञान को भी निर्विकल्पक कह दिया जाता है / वस्तुतः वह ज्ञान सविकल्पक ही है। ' मीमांसा दर्शन में भी सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञान की चर्चा है। प्रथम Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 / आईती-दृष्टि होनेवाला प्रत्यक्ष, जो शुद्ध वस्तु से पैदा होता है उसको निर्विकल्पक कहा है। बाद में बुद्धि आदि के द्वारा उसका निश्चय हो जाता है अस्ति ह्यालोचनं ज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकं, बालमूकादि विज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम्। / तत: परमपुनर्वस्तु नामजात्यादिभिर्यया, बुद्ध्यावसीयते सापि प्रत्यक्षत्वेन संमता / / कुमारिल्ल भट्ट जब यह निश्चित हो गया कि शब्द के बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान शब्द के सहारे होता है तो उस ज्ञान को प्रत्यक्ष कैसे कहा जा सकता है वह तो शब्द ही होना चाहिए। जैन ने इस समस्या का समाधान श्रुतनिश्रितत्व के द्वारा दिया ।उन्होंने कहा शब्द से युक्त हो जाने मात्र से कोई ज्ञान-शब्द नहीं हो जाता, वह ज्ञान श्रुत-निश्रित है अर्थात् जो विषय पहले श्रत-शास्त्र के द्वारा ज्ञान हो किन्तु वर्तमान में श्रत का आलम्बन लिए बिना उससे जानना श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान है। वह शाब्द ज्ञान नहीं है। प्रत्यक्षात्मक ही है, इसको श्रुतनिश्रित मतिज्ञान की सम्भावित पृष्ठभूमि मानने में शायद कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। तत्र श्रुतपरिकर्मितमतेरुत्पादकाले शास्त्रार्थपर्यालोचनमपेक्ष्यैव, .. यदुपजायते मतिज्ञानं तत् श्रुतनिश्रितम्-अवग्रहादि। अश्रुत-निश्रित की कल्पना जैन-दार्शनिकों की मौलिक है। व्यवहार में ऐसा अनुभव किया जाता है कि कभी-कभी व्यक्तियों को अपूर्व ज्ञान पैदा होता है जिसके बारे में सुना नहीं, पढ़ा नहीं अथवा जैसा सुन या पढ़ा है उससे विपरीत ज्ञान पैदा होता जैसे पहले Geocenteric की अवधारणा की हजारों सालों से यही बात चली आ रही थी। शास्त्रों में भी ऐसा लिखा हुआ था किन्तु गैलीलियों का ज्ञान इससे भिन्न प्रकार का था। यह औत्पत्तिकी बुद्धि का उदाहरण है / अतएव विशिष्ट क्षयोपशम के द्वारा निसर्ग रूप से जो ज्ञान पैदा होता है उसको अश्रुत-निश्रित मतिज्ञान कहते हैं। अश्रुत-निश्रित की उत्पत्ति का हेतु नैसर्गिक क्षयोपशम है। . संदर्भ 1. अभिधर्म कोश। (1/33 A, B.) Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतानुसारी अश्रुतानुसारी की अवधारणा जैन-परम्परा में पांच ज्ञान की अवधारणा भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती है। राजप्रश्नीय सूत्र में केशीश्रमण के सम्वाद से इसकी अवगति होती है / आगमकाल में मति आदि पांच ज्ञानों का उल्लेख प्राप्त है किन्तु तार्किक युग में इन अवधारणाओं में परिवर्तन हुआ है वह आचार्य सिद्धसेन की देन है / आचार्य सिद्धसेन ने मति-श्रुत एवं अवधि-मनःपर्यव में भेद नहीं माना है। निश्चयद्वात्रिंशिका में उन्होंने कहा 'वैयर्थ्यातिप्रसंगाभ्यां न मत्यभ्यधिकं श्रुतम्' मति से अतिरिक्त श्रुतज्ञान नहीं है। उसे अतिरिक्त मानने से व्यर्थता और अतिप्रसंगता उपस्थित होती है। किन्तु सिद्धसेन की इस मान्यता का समर्थन उनके उत्तरवर्ती आचार्यों ने नहीं किया। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने स्पष्ट रूप से पाँच ज्ञान की आगमिक परम्परा को ही स्वीकृति दी है / ज्ञान-बिन्दु के कर्ता आचार्य यशोविजयजी ने भी आगमिक परम्परा का साथ दिया है तथा सिद्धसेन के पूर्वपक्ष को ध्यान में रखकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की परिभाषा प्रस्तुत की है—मतिज्ञानत्वं श्रुताननुसार्यनतिशयित ज्ञानत्वम्, अवग्रहादिक्रमवदुपयोगजन्यज्ञानत्वं वा। श्रुततु श्रुतानुसार्येव। ज्ञान-बिन्दु पृ.६ उपर्युक्त परिभाषाओं में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा प्रदत्त परिभाषा का प्रति बिम्ब है इंदियमणोनिमितं जं विण्णाणं सुयानुसारेणं। निययत्युत्तिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं॥ विशेषावश्यक भाष्य गा. 100 - जो ज्ञान श्रुतानुसारी नहीं होता वह मतिज्ञान है तथा जो श्रुतानुसारी होता है वह श्रुतज्ञान है। प्रस्तुत प्रकरण में श्रुतानुसारित्व तथा श्रुताननुसारित्व की व्याख्या करना उपयुक्त होगा। श्रुतानुसारित्वं च धारणात्मकपदार्थसम्बन्धप्रतिसंधानजन्यत्व-ज्ञानत्वं . ज्ञानबिन्दु, पृ. 6 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 / आर्हती-दृष्टि धारणात्मक ज्ञान के द्वारा वाच्य वाचक सम्बन्ध के संयोजन से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह श्रुतानुसारी है। इसकी ही प्रतिध्वनि नन्दी टीका में है।- 'संकेतकालप्रवृत्तं श्रुतग्रन्थसम्बन्धिनं वाघटादिशब्दमनुसृत्य वाच्यवाचकभावेन संयोज्य 'घटो घटः' इत्याद्यन्त ल्पाकारमन्तशब्दोल्लेखान्वितमिन्द्रियादिनिमित्तं यज्ज्ञानमुदेति तच्छुतज्ञानमिति।' नन्दीसूत्रम्। - संकेतकाल में तथा श्रुतग्रन्थ से सम्बन्धित घटादि शब्द का अनुसरण करके वाच्यवाचक भाव से युक्त 'यह घट है' / इस प्रकार शब्दोल्लेख से सम्पन्न इन्द्रियादि के द्वारा उत्पन्न ज्ञान श्रुतानुसारी होने से श्रुतज्ञान है। संकेत, परोपदेश, श्रुतग्रन्थात्मकशब्द के अनुसार, उत्पन्न होनेवाला श्रुतानुसारी श्रुतज्ञान है। धारणात्मक ज्ञान के द्वारा वाच्य-वाचक सम्बन्ध संयोजन के बिना तथा संकेत परोपदेश आदि के बिना जो ज्ञान उत्पन्न होता है। वह अश्रुतानुसारी (श्रुताननुसारी) मतिज्ञान है। Those Congnitions of objects, which are totally free from all verbal associations or at best are conversant with the mere names of their objects, fall in the category of Math, which while their Further continuations with the help of the language fall in the category of Sruta. ___Studies in Jaina Philosophy. p.56. जो ज्ञान शब्दोल्लेखयुक्त होता है वह श्रुतज्ञान है तथा जो शब्दोल्लेखरहित होता है वह मतिज्ञान है / इस सन्दर्भ में शंका प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि यदि शब्दोल्लेखी श्रुतज्ञान ही है तब अवग्रह ही मति का भेद हो सकता है / अवशिष्ट ईहा आदि सामिलाप होने से मतिज्ञान के भेद नहीं हो सकते तथा ऐसा स्वीकार करने से श्रुतज्ञान का लक्षण अतिव्याप्ति दोष से तथा मतिज्ञान का लक्षण अव्याप्ति दोष से दूषित हो जाएगा। क्योंकि शब्दोल्लेख श्रुतज्ञान की तरह ईहा आदि में भी प्राप्त है तथा शब्दोल्लेख विकलता मतिज्ञान के सारे भेदों में नहीं है। समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि यद्यपि ईहा आदि साभिलापं है किन्तु सशब्द होने मात्र से वे श्रुतरूप नहीं हो सकते / मति के अंगभूत ईहा आदि साभिलाप होनेपर भी श्रुतानुसारी नहीं है, वे श्रुतज्ञान के भेद नहीं है। अतः मतिज्ञान के लक्षण Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतानुसारी अश्रुतानुसारी की अवधारणा | 337 में अव्याप्ति दोष की उद्भावना नहीं हो सकती तथा श्रुतज्ञान सशब्दता के साथ श्रुतानुसारी होगा। अतः इसका लक्षण भी अतिव्याप्ति दोष दूषित नहीं है। अतएव मतिज्ञान के भेद ईहा आदि में तथा श्रुतज्ञान में साक्षरत्व की समानता होने पर भी इनके लक्षणों में संकीर्णता नहीं हो सकती।। ____ पुनः शंका उपस्थित करते हुए कहा गया ईहा आदि का साभिलापत्वयुक्ति सिद्ध है क्योंकि संकेतकाल में सुने गए शब्दों के बिना यह उत्पन्न नहीं होती है, फिर इनको श्रुतानुसारी क्यों नहीं कहा गया है। समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि पहले श्रुतपरिकर्मित मति से उत्पन्न होने के कारण इनको श्रुतनिश्रित कहा गया किन्तु व्यवहारकाल में उनका श्रुतानुसारित्व नहीं है। अतएव वे श्रुतनिश्रित तो है : किन्तु श्रुतानुसारी नहीं है। ____ मतिज्ञान अश्रुतानुसारी ही होता है। किन्तु वह श्रुतनिश्रित भी होता है तथा अश्रुतनिश्रित भी होता है। स्थानांग-सूत्र में आभिनिबोधिक को श्रुत-अश्रुतनिश्रित के भेद से दो प्रकार का कहा गया है तथा उनके भी व्यञ्जनावग्रह अर्थावग्रह के भेद से दो प्रकार बतलाए गए हैं। "These avagraha the etc. can be either shrutanisrita backed by scriptural learning as asrutanisrita not backed by scriptural learning. -Studies in Jaina Philosophy--p.44. नन्दी में श्रुतनिश्रित, अश्रुतनिश्रित ये दोनों भेद मतिज्ञान के बताए हैं किन्तु अवग्रहादि श्रुतनिश्रित के भेद हैं तथा औत्पत्तिकी आदि अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के भेद के रूप में व्याख्यायित है तथा अश्रुतनिश्रित के अवग्रह आदि होते हैं या नहीं, इसका उल्लेख नहीं है / जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने स्थानांग की परम्परा का अनुपालन करते हुए श्रुत-अश्रुत निश्रित दोनों के अवग्रह आदि माने हैं तथा औत्पत्तिकी बुद्धि के अवग्रह आदि का कुक्कुट के दृष्टान्त से निरूपण किया है। . नन्दी के अनुसार, अवग्रह आदि केवल श्रुतनिश्रित मति के प्रकार हैं तथा 'स्थानांग के अनुसार दोनों के हैं। प्रश्न उपस्थित होता है औत्पत्तिकी बुद्धि से व्यञ्जनावग्रह कैसे हो सकता है क्योंकि बुद्धि इन्द्रिजाज नहीं किन्तु मानसिक है / मन अप्राप्यकारी होने से उसके व्यञ्जनावग्रह नहीं हो सकता। इसका समाधान स्थानांगवृत्तिकार ने दिया है। उन्होंने अश्रुतनिश्रित मति के भी दो प्रकार बतलाए हैं। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 / आहती-दृष्टि श्रुतनिश्रित-अश्रुतनिश्रित की परिभाषा 1. श्रुतनिश्रित-जो विषय पहले श्रुतशास्त्र के द्वारा ज्ञात हो किन्तु वर्तमान __ में श्रुत का आलम्बन लिए बिना ही उसे जानना श्रुत-निश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान है। तत्र शाखापरिकर्मितमतेरुत्पादकाले शास्त्रार्थपर्यालोचनमनपेक्ष्यैव यदुपजायते मतिज्ञानं तत् श्रुतनिश्रितम्-अवग्रहादि व्यवहारकाल से पूर्व जिसकी मतिश्रुत परिकर्मित (वासित) है किन्तु व्यवहारकाल में श्रुतनिरपेक्ष जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह श्रुतनिश्रित है। विशेषावश्यक में कहा गया है पुदि सुअपरिकम्मियमइस्स णं संपयं सुआईअं तं णिस्सियमियरं पुण अणिस्सियं मइ चउक्तं। . __ जैन तत्त्व विद्या में आचार्य श्री तुलसी ने कहा है -जो बुद्धि अतीत में शास्त्र पर्यालोचन से परिष्कृत हो गई हो, पर वर्तमान में शास्त्रपर्यालोचन के बिना उत्पन्न हो वह बुद्धि श्रुतनिश्रित मति कहलाती है। 2 अश्रुतनिश्रित-शास्त्रों के अभ्यास बिना ही विशिष्ट क्षयोपशम भाव से यथार्थ अवबोध करानेवाली बुद्धि अश्रुतनिश्रित मति कहलाती है। जो बुद्धि पूर्व में श्रुतपरिकर्मित नहीं होती स्वतः ही विशिष्ट प्रकार के क्षयोपशम से प्राप्त होती है वह अश्रुत-निश्रित है। औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियां अश्रुत-निश्रित मति के प्रकार हैं। ____घट सामने आया और जलादि आहरण-क्रिया समर्थ मृन्मयादि घट को जान लिया। यहां ज्ञानकाल में श्रुत का सहारा नहीं लिया गया। इसलिए यह श्रुत का अनुसारी नहीं है किन्तु इससे पूर्व घट शब्द का वाच्यार्थ यह पदार्थ होता है / यह जाना हुआ था, इसलिए वह श्रुत-निश्रित है। ____ जो पूर्व में न तो दृष्ट है, न श्रुत है किन्तु विशेष क्षयोपशम से ज्ञान प्राप्ति होती है वह अश्रुत-निश्रित मति है। जैसे गैलीलियो से पहले कोई जानता ही नहीं था कि पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ चक्कर लगाती है किन्तु यह ज्ञान था कि सूर्य चक्कर लगाता है। उसने कहा सूर्य नहीं अपितु पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ चक्कर लगाती है। यह अश्रुत-निश्रित मतिज्ञान का.उदाहरण है। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिक एवं उत्कालिक सूत्र प्राचीन जैन-परम्परा में श्रुतज्ञान का सम्बन्ध मात्र आगमों से था। यद्यपि उसके स्वरूप में बाद में परिवर्तन होता आया है परन्तु प्राचीन परम्परा में जिन प्रवचन को ही श्रुतज्ञान कहा जाता था। तत्त्वार्थ भाष्य में प्रदत्त उसके पर्यायवाची शब्दों से इसका स्पष्ट अवबोध हो जाता है। श्रुतमाप्तवचनमागम उपदेश ऐतिह्याम्नायः प्रवचनं जिनवचनमित्यनान्तरम्। . ___ नन्दीसूत्र में श्रुतज्ञान को चतुर्दश भेदवाला बतलाया है / संक्षेप में उसके दो भेद भी किए हैं—अंग-प्रविष्ट एवं अंग-बाह्य (अनंग प्रविष्ट / प्रश्न उपस्थित होता है, जब ये दो भेद चौदह भेदों के अन्तर्गत आ गए थे फिर इनका पृथक् व्याख्यान क्यों किया गया? टीकाकारों ने समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा कि उन चौदह भेदों का भी समावेश इन दो भेदों में हो जाता है। अतः अर्हत् प्रणीत होने से इनका वैशिष्ट्य स्थापित करने के लिए ही इनका पथक् व्याख्यान किया गया है। भगवान् महावीर द्वारा अर्थरूप में कहे गए तथा गणधरों एवं स्थविरों द्वारा सूत्ररूप में गूंथे गए शास्त्रों को आगम कहते हैं। . __ ये आगम दो भागों में विभक्त हैं—अंग-प्रविष्ट एवं अनंग-प्रविष्ट / अंग-प्रविष्ट आगम द्वादश भेदों में विभक्त है / नन्दी में श्रुत-पुरुष की कल्पना की गई है / अंग-प्रविष्ट आगमों को श्रुत-पुरुष के अवयव के रूप में स्वीकारा गया है। दो पैर, दो जंघा, एक पेट एक पीठ, दो बाह, दो उरु, एक ग्रीवा तथा एक सिर-ये बारह श्रुत-पुरुष के अंग है। अंग-बाह्य आगम भिन्न-भिन्न स्थविरों द्वारा रचे गए हैं। ये भी बारह प्रकार के है किन्तु ये श्रुत-पुरुष के अवयव नहीं है / द्वादशांग ही श्रुत पुरुष के अवयव है। ___ अंग-प्रविष्ट एवं अंग-बाह्य आगमों का विभाजन कालिक एवं उत्कालिक इन दो भेदों में किया गया है। कालिक-सत्र उन्हें कहा जाता है जिनका अध्ययन नियतकाल में किया जाता है अर्थात् उनके स्वाध्याय का समय नियत होता है। जो सूत्र दिवस और रात्रि के प्रथम एवं अन्तिम दो प्रहरों में पढ़े जाते हैं वे कालिक कहलाते हैं तथा जिनकी काल-बेला का कोई नियम नहीं होता वे उत्कालिक सूत्र है। जिन सूत्रों का अध्ययन दीक्षा-पर्याय के आधार पर किया जाता है वे भी कालिकसूत्र कहलाते हैं। (व्यवहारसूत्र, 298) Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 / आर्हती-दृष्टि . आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है कि कालिक-सूत्र वे कहलाते हैं जहां उनकी नय से व्याख्या नहीं की जाती है। आर्यवज्र के समय तक सारे सूत्रों का चाहे वे अंगप्रविष्ट थे या अंगबाह्य, उनकी व्याख्या चार अनुयोगों के साथ नयों के द्वारा की जाती थी। किन्तु उसके पश्चात् आर्यरक्षित ने चार अनुयोगों को पृथक् कर दिया। क्योंकि दुर्बलिका पुष्यमित्र जैसे धुरन्धर प्रतिभाशाली शिष्य भी जब चार अनुयोग-सहित सूत्रों का स्मरण करने में कठिनाई का अनुभव करने लगे तब शिष्यों की कमजोर बुद्धि के कारण इन चार अनुयोगों को पृथक् कर दिया गया। . .. विशेषावश्यक भाष्य में गमिक एवं अगमिक की भेद-रेखा करते समय कहा कि जिनके पाठ सदृश हैं, वे गमिक-सूत्र हैं, जैसे-दृष्टिवाद तथा जिनके पाठ असदृश हैं, गाथा, श्लोक आदि रूप में हैं वे अगमिक सूत्र है तथा वे ही कालिक सूत्र हैं।' विशेषावश्यक में ही अन्यत्र प्रथम अनुयोग (चरण करणानुयोग) से सम्बन्धित को 'कालिक-सूत्र कहा गया है / हरिभद्र तथा मल्लधारी हेमचन्द्र ने 11 अंगों को कालिक कहा है क्योंकि इनका अध्ययन मर्यादित समय में ही किया जाता है। ___नन्दी-सूत्र में प्रदत्त श्रुतज्ञान के भेद-प्रभेदों को तथा उनके कालिक-उत्कालिक भेदों को निम्न तालिका से समझ सकते हैं श्रुतज्ञान अंग-प्रविष्ट , अंग बाह्य द्वादशांग आवश्यकव्यतिरिक्त आवश्यक गमिक अगमिक छह विभागवाला दृष्टिवाद ११अंग कालिक * उत्कालिक उत्कालिक कालिक नन्दी-सूत्र में अंग-विष्ट के 12 भेद किए हैं / तालिका में प्रदत्त अन्य भेद उसके फलितार्थ के रूप में उपलब्ध होते हैं। नन्दी में श्रुतज्ञान के गमिक एवं अगमिक दो भेद किए गए हैं। वहां अगमिक सूत्र को कालिक कहा है / अगमिक एवं कालिक ये Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिक एवं उत्कालिक सूत्र / 341 दोनों शब्द पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। नन्दी के सन्दर्भ में हम द्वादशांग का विभाग करें तो वह दो भागों में विभक्त होता है-गमिक एवं अगमिक / गमिक दृष्टिवाद है तथा अगमिक कालिकसूत्र आचारांग आदि 11 अंग हैं। जब अगमिक को कालिक कहा गया तो उसका फलितार्थ हो जाता है कि गमिक दृष्टिवाद उत्कालिक है / दृष्टिवाद जो आज उपलब्ध नहीं है, कहा जाता है कि उसमें अन्य दर्शनों का वर्णन था। अन्य दार्शनिक जिस किसी भी समय चर्चा के लिए आ जाते थे, अतः उसका समय निश्चित नहीं था, इसलिए वह उत्कालिक सूत्र के रूप में परिगणित था। अनुयोग-द्वार में पांच ज्ञान की चर्चा करते समय सर्वप्रथम श्रुतज्ञान के भेदों-प्रभेदों का वर्णन है। वहां पर आगमों के कालिक, उत्कालिक की चर्चा है। नन्दी और अनुयोग-द्वार में उपलब्ध आगम-विभाग परस्पर समान हैं या विषम-इस विषय पर चिन्तन अपेक्षित है। अनुयोग-द्वार में श्रुतज्ञान के अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य ये दो भेद उपलब्ध हैं। अंग-बाह्य को यहां पर कालिक एवं उत्कालिक-इन दो भेदों में विभक्त किया है / उत्कालिक सूत्र आवश्यक एवं आवश्यकव्यतिरिक्त के भेद से दो प्रकार का माना गया है। नन्दी तथा अनुयोग में उपलब्ध आगम-विभाग में अंग-प्रविष्ट के कालिक, उत्कालिक ये भेद उपलब्ध नहीं हैं / नन्दी में जहां अंग-प्रविष्ट के 12 भेद हैं तथा फलितार्थ के रूप में हम उनका उत्कालिक के रूप में भेद कर चुके हैं, वहां अनुयोग-द्वार में अंग-प्रविष्ट के भेदों की चर्चा नहीं है। यहां केवल अंग-बाह्य के भेद ही प्राप्त हैं। अनुयोग-द्वार अंग-बाह्य के दो भेद करता है-कालिक एवं उत्कालिक तथा इसके पश्चात् उत्कालिक के दो भेद करता है—आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त / जबकि नन्दी में अंग-बाह्य के आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त ये दो भेद हैं तथा आवश्यकव्यतिरिक्त के कालिक एवं उत्कालिक ये दो भेद हैं। . अब एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होता है कि नन्दी में आवश्यक व्यतिरिक्त के कालिक एवं उत्कालिक ये दो भेद हैं जबकि अनुयोग-द्वार में उत्कालिक के आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त ये दो भेद हैं / स्थूल दृष्टि से यह विभाजन विरोधग्रस्त प्रतीत होता है, परन्तु इस विरोध का समाधान भी किया जा सकता है / अनुयोग-द्वार के वक्तव्य से हम ऐसा क्यों मानें कि सारे आवश्यक व्यतिरिक्त उत्कालिक ही हैं? इन आगमों में कुछ उत्कालिक भी हैं और कुछ कालिक भी हैं—ऐसा मानना Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 / आर्हती-दृष्टि अनुयोग-द्वार के कथन के विरुद्ध नहीं होगा, क्योंकि अनुयोग-द्वार अंग-बाह्य के भेद करते समय पहले ही आवश्यक व्यतिरिक्त के कालिक सूत्रों को पृथक् कर देता है, जबकि नन्दी आवश्यक व्यतिरिक्त के ही कालिक एवं उत्कालिक ये दो भेद करती है। अतः दोनों के तात्पर्यार्थ में कोई विरोध नहीं है। दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि आवश्यक सूत्र कालिक है या उत्कालिक / नन्दी ने आवश्यक को कालिक एवं उत्कालिक किसी भी विभाग में समाविष्ट नहीं किया है। अनुयोग-द्वार में आवश्यक के उत्कालिक होने का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त है / प्रश्न हो सकता है कि नन्दी ने इसको उत्कालिक क्यों नहीं कहा? किन्तु जरूरी नहीं है कि सबके बारे में सम्पूर्ण वक्तव्य प्राप्त हो / अपनी विवक्षा दृष्टि से ही वक्तव्य कहे जाते हैं। नन्दी की यह विवक्षा नहीं होगी ।नन्दीकार को यह कथन महत्त्वपूर्ण नहीं लगा होगा। कुछ भी हो, आवश्यक के उत्कालिक होने का स्पष्ट निर्देश अनुयोग में प्राप्त है जो समीचीन है / जयाचार्य ने उत्तराध्ययन के २६वें अध्ययन की जोड़ में आवश्यक सूत्र को कालिक एवं उत्कालिक से भिन्न कहा है। नन्दी एवं अनुयोग-द्वार दोनों के आगम विभाग को संयोजित करने पर कालिक एवं उत्कालिक से सम्बन्धित एक परिपूर्ण आगम विभाग हमें उपलब्ध होता है जो तालिका से स्पष्ट है। .. श्रुतज्ञान / अंग प्रविष्ट अंग बाह्य कालिक उत्कालिक कालिक उत्कालिक ११अंग दृष्टिवाद उत्तराध्ययन, जीवाभिगम दशाश्रुतस्कन्ध, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि आवश्यक व्यतिरिक्त आवश्यक दशवैकालिक, ओपपातिक, छह विभागवाला राजप्रश्नीय आदि Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिक एवं उत्कालिक सूत्र / 343 संदर्भ .. 1. तं समासओ दुविहं-अंगपविटुं अंगबाहिरं च। नन्दीसूत्र, 73 2. पादुदुर्ग जंघोरु गातदुगद्धं तु दो य बाहूओ।। गीवा सिरं च पुरिसो बारसअंगो सुतविसिट्ठो॥ नंदी चूर्णि, 56 3. यदिह दिवस-निशि प्रथम-पश्चिमपौरुषीद्वयं पठ्यते तत् कालेन निर्वतं कालिकम्। __ . यत् पुनः कालवेलावर्ज पठ्यते तदुत्कालिकम् // नन्दी वृत्ति, पृ.७० 4. मूढ़नइयं सुयं कालियं तु ण णया समोयरंति इहं।। अहुत्ते समोयारो नत्थि पहुत्ते समोयारो // आ. नि. गा, 762 5. आ नि. गा, 773 / 6. विशेषा. ग., 549 / 7. वि. गा, 2294-95 / . Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारावाहिक ज्ञान : प्रामाण्य एक चिंतन .. प्रत्येक भारतीय दार्शनिक ने प्रमेय की सिद्धि के लिए प्रमाण को स्वीकार किया है। चाहे वे दार्शनिक इंद्रियवादी थे, अनिन्द्रियवादी अथवा उभयवादी। किन्तु अपने मंतव्यानुसार उन्होंने प्रमाण को स्वीकृति दी। प्रमाण की स्वीकृति के बाद प्रश्न उभरा कौनसा ज्ञान प्रमाण है। प्रमाण के प्रामाण्य के बारे में विशद विवेचन किया गया। जैन दार्शनिकों के अतिरिक्त सभी भारतीय दार्शनिकों ने स्मृति को अप्रमाण स्वीकार किया। स्मृति के संदर्भ की चर्चा प्रमाण शास्त्र में शुरू से ही चली आ रही है। किंतु धारावाहिक ज्ञान प्रमाण है या अप्रमाण इस चर्चा का प्रारम्भ सम्भवतः सबसे पहले बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्ति ने किया। वे धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण मानने के पक्ष में नहीं थे। धारावाहिक ज्ञान का तात्पर्य है कि एक ही वस्तु का बार-बार ज्ञान होना। घट को जाना उसके बाद 'घटोऽयम्, घटोऽयम्' इस प्रकार, की आवृत्ति वाला ज्ञान धारावाहिक कहलाता है। . वाचस्पति श्रीधर, जयंत, उदयन प्रभृति संपूर्ण न्याय-वैशेषिक विद्वानों ने धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण माना है / अतएव उन्होंने अपने प्रमाण लक्षण में अनधिगत' पद का ही प्रयोग नहीं किया। मीमांसा दर्शन की प्रभाकरीय एवं कुमारिलीय दोनों परंपराओं ने धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण स्वीकार किया है पर उसका स्वीकरण तथा समर्थन भिन्न प्रकार से किया। प्रभाकर अनुगामी शालिकानाथ ‘कालकला का ज्ञान माने बिना अनुभति' होने मात्र से उसे प्रमाण माना हैं। उनके इस अभ्युपगम से प्रतीत होता है कि वे न्यायवैशेषिक परंपरा से प्रभावित हुए हैं / कुमारिल परंपरा ने प्रमाण लक्षण में 'अपूर्ण' शब्द का प्रयोग किया / कुमारिलानुगामी पार्थसारथी ने शास्त्रदीपिका में धारावाहिक ज्ञानों के मध्य 'सूक्ष्मकालकला' की प्रतीति मानकर उस ज्ञान के प्रामाण्य को स्वीकार किया है / ऐसी कल्पना किए बिना वे अपूर्व पद को व्याख्यायित भी नहीं कर सकते हैं / सूक्ष्मकालकला के ज्ञान से उन्होंने अपूर्व पद को भी स्पष्ट कर दिया है तथा धारावाहिक ज्ञान का प्रामाण्य भी स्वीकार कर लिया है। . दर्शन के क्षेत्र में इस नई चर्चा का सूत्रपात करने वाली बौद्ध परंपरा में भी प्रमाता भेद से धारावाहिक ज्ञान का प्रामाण्य-अप्रामाण्य स्वीकृत है। हेतु बिंदु की Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारावाहिक ज्ञान : प्रामाण्य एक चिंतन | 345 टीका में अर्चट ने योगिगत 'धारावाहिक ज्ञान में 'सूक्ष्मकालकला' का ज्ञान मानकर उसे प्रमाण कहा है तथा साधारण प्रमाताओं के धारावाहिक ज्ञान को सूक्ष्मकालकला का भेदग्राहक न होने से अप्रमाण कहा है। धर्मोत्तर ने स्पष्ट रूप से धारावाहिक ज्ञान का उल्लेख करके तो कुछ नहीं कहा किंतु उनके सामान्य कथन से उनका झुकाव धारावाहिक को अप्रमाण मानने का प्रतीत होता है। जैन परंपरा के अंतर्गत श्वेताम्बर एवं दिगम्बर विचारधारा का प्रायः सभी तार्किक मुद्दों में सामञ्जस्य है। किंतु धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य-अप्रमाण्य के प्रसंग में वह सामञ्जस्य नहीं है / धारावाहिक ज्ञान को लेकर जैन परंपरा में दो धाराएं चल पड़ी / दिगम्बर आचार्य धारावाहिक ज्ञान को अप्रमाण मानते थे। श्वेताम्बर आचार्य धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य के समर्थक थे। आचार्य अकलंक ने प्रमाण के लक्षण में 'अनधिगतार्थग्राही' विशेषण लगाकर एक नई परंपरा का सूत्रपात किया। आचार्य अकलंक बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्ति से प्रभावित हुए हैं ऐसा प्रतीत होता है। आचार्य अकलंक का प्रतिबिंब आचार्य माणिक्यनन्दी पर पड़ा। उन्होंने अपने प्रमाण लक्षण में 'अपूर्व' पद को देकर अकलंक के अनधिगतार्थ ग्राही विशेषण का समर्थन किया है। 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' अपना और अपूर्व अर्थ का निश्चय करने वाला ज्ञान प्रमाण है। अपूर्व शब्द जैन-परंपरा के लिए नया था। इसलिए माणिक्यनन्दी ने इसका अर्थ स्पष्ट करने के लिए एक अतिरिक्त सूत्र की रचना की 'अनिश्चितोऽपूर्वार्थः' जो अर्थ अनिश्चित है, अज्ञात है, वह अपूर्व है / इसके पश्चात् भी उन्होंने कहा-'दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् जो केवल अज्ञात है वही अपूर्व नहीं है किंतु जो ज्ञात है उसमें यदि संशय आदि उत्पन्न हो जाए तो वह अपूर्व ही है। माणिक्यनन्दी के व्याख्याकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने इन सूत्रों की व्याख्या करते हुए कहा है कि धारावाहिक ज्ञान प्रमाण नहीं है। इसे स्पष्ट करने के लिए ही आचार्य ने प्रमाण लक्षण में अपूर्व पद का ग्रहण किया है। अकलंक के अनुगामी विद्यानन्द एवं माणिक्यनन्दी के व्याख्याता प्रभाचन्द्र के टीका ग्रंथों का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि धारावाहिक ज्ञान तभी प्रमाण है जब वे क्षणभेदादि-विशेष ज्ञान करते हैं तथा विशिष्ट प्रमाजनक होते हैं / यदि वह ऐसा नहीं करते तब वह प्रमाण नहीं होते हैं। धारावाहिक ज्ञान जिस अंश में विशिष्ट प्रमाजनक नहीं हैं उस अंश में अप्रमाण तथा विशेषांश में विशिष्ट प्रमाजनक होने के Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 / आर्हती-दृष्टि कारण प्रमाण हैं / अन्य जैन दार्शनिकों की तरह स्मृति को प्रमाण मानने वाले अकलेक एवं माणिक्यनन्दी के अपूर्व एवं अनधिगत इस पद का सामञ्जस्य उपर्युक्त व्याख्या से ही हो सकता है। सर्वथा अगृहीतग्राही को ही प्रमाण मानने से स्मृति को वे प्रमाण कैसे कह सकते थे। आचार्य प्रभाचन्द्र ने कंथचिद् अपूर्वार्थग्राही ज्ञान के प्रामाण्य का समर्थन किया तथा सर्वथा अपूर्वार्थग्राही का निराकरण किया है। यदि अपूर्वार्थ का ज्ञान प्रमाण है तो तैमिरिक रोगी को आकाश में एक के दो चन्द्रमा दिखाई देते हैं जो कभी किसी को दिखाई नहीं देते। अतः वह भी प्रमाण हो जाएगा अतएव कथंचिद् अपूर्वार्थग्राही को ही प्रमाण मानना चाहिए। दिगम्बर आचार्य विद्यानन्द ने गृहीतग्राही एवं अगृहीतग्राही इस प्रश्न को उपस्थित करना भी उचित नहीं समझा उन्होंने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में कहा- ... गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति / तन्न लोके न शास्त्रेषु, विजहाति प्रमाणताम् / / ज्ञान चाहे गृहीतग्राही हो अथवा अगृहीतग्राही यदि वह स्वयं का एवं पदार्थ का निश्चय कारक है तो उसकी प्रामाणिकता में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं है। . उन्होंने स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान के अतिरिक्त अन्य विशेषणों के औचित्य को भी स्वीकार नहीं किया तत्त्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं मानमितीयता। लक्षणेन गतार्थत्वात्, व्यर्थमन्यद् विशेषणम् / / श्वेताम्बर परंपरा ने एक स्वर से धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य का समर्थन किया। धारावाहिक ज्ञान को अप्रमाण कहने वालों के साथ उनका विरोध था। किसी भी श्वेताम्बर दार्शनिक, तार्किक ने अपने प्रमाण लक्षण में अपूर्व तथा अनधिगत इस पद को स्वीकार नहीं किया। उनके विचारानुसार गृहीतग्राहित्व प्रामाण्य का विघातक नहीं है, अतएव उनके मत से धारावाहिक ज्ञान में विषय-भेद से अथवा प्रमाता-भेद की अपेक्षा से प्रमाण्य-अप्रामाण्य मानने की आवश्यकता ही नहीं है। ___ आचार्य हेमचन्द्र ने बड़ी ही सूक्ष्मता एवं सरलता के साथ अपनी प्रसन्न एवं सयुक्तिक शैली के द्वारा अगृहीतग्राही को ही प्रमाण मानने वालों का निराकरण किया। उन्होंने गृहीतग्राही एवं ग्रहीष्यमाणग्राही दोनों को ही प्रमाण माना है। उनका कहना है कि द्रव्य की अपेक्षा गृहीतग्राहित्व के प्रामाण्य का निषेध हैं अथवा पर्याय Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारावाहिक ज्ञान : प्रामाण्य एक चिंतन | 347 को अपेक्षा से। पर्याय की अपेक्षा से धारावाहिक ज्ञान गृहीतग्राही नहीं हो सकता। क्योंकि पर्याय क्षणिक है / वे नई-नई उत्पन्न होती रहती हैं। वे कभी भी गृहीतग्राही हो नहीं सकती, अतएव उसका निराकरण करने के लिए प्रमाण लक्षण में अपूर्वपद रखना व्यर्थ है। यदि द्रव्य की अपेक्षा गृहीतग्राही के प्रामाण्य का निषेध करते हैं तो यह भी युक्ति संगत नहीं है क्योंकि द्रव्य त्रैकालिक है नित्य है, अतः द्रव्य की अपेक्षा गृहीतग्राही एवं ग्रहीष्यमाणग्राही में कोई अंतर नहीं आता है। ऐसी स्थिति में गृहीतग्राही को अप्रमाण एवं गृहीष्यमाणग्राही को प्रमाण मानना तर्कसंगत नहीं हो सकता। जैन परंपरा में गृहीतग्राही होने पर भी अवग्रह, ईहा आदि को प्रमाण माना है, उनके विषय भिन्न-भिन्न नहीं हैं। यदि इनके विषय भिन्न माने जाएं तो अवग्रह से ज्ञात को ईहा ग्रहण नहीं कर सकती। ईहा से ज्ञात पदार्थ का अवाय निर्णय नहीं कर सकती। ऐसा कहा जाए अवग्रह ईहा आदि क्रमशः वस्तु की अपूर्व पर्याय को प्रकाशित करते हैं, अतएव अनधिगतग्राही है। इस कथन के आधार पर तो किसी भी ज्ञान को गृहीतग्राही कहा ही नहीं जा सकेगा। अतएव यह सुस्पष्ट है कि धारावाहिक ज्ञान प्रमाण है। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाण्य : स्वतः या परतः यथार्थ ज्ञान प्रमाण है। किन्तु उसकी यथार्थता का ज्ञान कैसे होता है ? ज्ञान स्वसंवेदी होता है। ज्ञान को अपना ज्ञान तो हो जाता है पर मैं सम्यक् हूँ अथवा असम्यक हूँ, इसकी अनुभूति ज्ञान को किस माध्यम से होती है? स्वतः होती है अथवा परतः / प्रामाण्य अप्रामाण्य के स्वतस्त्व एवं परतस्त्व की अवधारणा दार्शनिक क्षेत्र की प्रमुख चर्चा रही है। प्रामाण्य के स्वतस्त्व एवं परतस्त्व की चर्चा का उद्गम स्रोत वेदों को प्रमाण एवं अप्रमाण माननेवाले दो पक्ष हैं। जब जैन, बौद्ध आदि विद्वान वेदों के प्रामाण्य का निषेध करने लगे हैं। तब न्याय-वैशिषिक मीमांसक आदि विद्वानों ने वेदों के प्रामाण्य का समर्थन करना शुरू कर दिया। प्रारम्भ में प्रामाण्य के स्वतः-परतः की चर्चा शब्द प्रमाण तक ही सीमित थी किन्त एक बार दार्शनिक क्षेत्र में प्रवेश करने के पश्चात् यह चर्चा सम्पूर्ण प्रमाणों के सन्दर्भ में स्थापित कर दी गई। ... वेदों के प्रामाण्य को स्वीकार करनेवाले विद्वानों ने भी वेदों के प्रामाण्य का समर्थन भिन्न प्रकार से किया है। नैयायिक-वैशेषिक ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं। अतएव उन्होंने वेद का प्रामाण्य ईश्वरमूलक स्थापित किया। जब वेदों का प्रामाण्य स्वीकृत हुआ तो वैसे ही अन्य प्रमाणों का प्रामाण्य भी परतः माना गया। प्रामाण्य की तरह अप्रामाण्य को भी परतः स्वीकार किया। निषकर्षतः प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य को न्याय-वैशेषिक दर्शन में परतः स्वीकार किया गया। न्याय-वैशेषिक दर्शन के अनुसार अर्थ-क्रिया के ज्ञान से अर्थात् प्रवृत्ति साफल्य से प्रमाण के प्रामाण्य का निश्चय होता है / उनका अभ्युपगम है-'प्रमाणतोऽर्थप्रतिपतौ प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणम्।' प्रमाण से अर्थ प्रतिपति होने पर प्रवृत्ति साफल्य के द्वारा प्रमाण का प्रामाण्य निश्चित होता है अर्थात् नैयायिक-वैशेषिक का प्रामाण्य का नियामक तत्त्व-प्रवृत्ति साफल्य है / जलज्ञान होने के पश्चात् प्रमाता उसमें प्रवृत्ति करता है उसके द्वारा यदि उसकी पिपासा, उदन्या शान्त हो जाती है तो इससे ज्ञात होता है कि उसका जलज्ञान सत्य था यदि पिपासा, दाह शान्त नहीं होते हैं तो पूर्व-उपलब्ध जलज्ञान असत्य हो जाता है / इस प्रकार प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य दोनों की ज्ञप्ति प्रवृति साफल्य से होने के कारण परतः हुई। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाण्य : स्वतः या परतः / 349 मीमांसक वेदों के प्रामाण्य का समर्थन तो करते हैं किन्तु उनकी विचारधारा नैयायिकों से विपरीत है / वे ईश्वरवादी नहीं है अतएव वेदों का प्रामाण्य ईश्वरमूलक न कहकर स्वतः स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार वेद में कथित वाक्य स्वतः प्रमाण है उनके प्रामाण्य के लिए किसी अन्य की अपेक्षा नहीं है। इसलिए ही उन्होंने वेदों को अपौरुषेय स्वीकार किया है / पौरुषेय स्वीकार करने पर उनका प्रामाण्य षुरुषाश्रित होने से परतः होता है। ____ वेद-कथित सब स्वतः प्रमाण हैं / उनका ज्ञान किसी पुरुष विशेष को किसी भी अवस्था में नहीं हो सकता। मीमांसकों का मानना है कि अर्थ ज्ञात करने की शक्ति को अथवा अर्थ जाननेवाली क्रिया को प्रामाण्य कहते हैं। वह प्रामाण्य ज्ञानमात्र को उत्पन्न करनेवाली सामग्री से ही उत्पन्न होता है / उस प्रामाण्य के लिए ज्ञान को उत्पन्न करनेवाली सामग्री के अतिरिक्त अन्य किसी भी सामग्री की अपेक्षा नहीं होती। वेद का स्वतःप्रामाण्य स्वीकार करने से प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों का प्रामाण्य उन्होंने स्वतः स्वीकार किया स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम। न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येनपार्यते // . (मीमां. श्लो. 2-47) सारे प्रमाणों का प्रामाण्य स्वतः ही ज्ञात हो जाता है क्योंकि जो शक्ति स्वयं अविद्यमान है उसे कोई दूसरा उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकता। उनका कहना है यदि प्रामाण्य स्वतः नहीं माना जाएगा तो प्रामाण्य का ज्ञान कभी हो नहीं सकेगा। पूर्वज्ञान को प्रमाणित करने के लिए. अन्य ज्ञान की अपेक्षा होगी, फिर उसे अन्य की इस प्रकार अनवस्था की स्थिति उत्पन्न हो जाने से कभी भी प्रामाण्य निश्चय नहीं होगा / अतएव प्रामाण्य स्वतः ही होता है / मीमांसक ने प्रामाण्य को तो स्वतः स्वीकार किया है ।किन्तु अप्रामाण्य को परतः स्वीकार किया है / उनके अनुसार अप्रामाण्य की उत्पत्ति ज्ञान सामान्य के उत्पादक कारणों से अतिरिक्त दोष नामक कारण से होती है तथा अप्रामाण्य की ज्ञप्ति भी परतः होती है, क्योंकि ज्ञाता को जब तक ज्ञात नहीं होता कि यह ज्ञान अप्रमाण है तब तक वह उस ज्ञान के विषय से निवृत्त नहीं होता है / अतः अप्रामाण्य की ज्ञप्ति परतः होती है। यह स्पष्ट है। . प्रामाण्य-अप्रामाण्य की चर्चा में सांख्य का क्या चिन्तन है, इसका उल्लेख उसके वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थों से ज्ञात नहीं होता फिर भी कुमारिल, माधवाचार्य, Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणत्वा 350 / आर्हती-दृष्टि शान्तरक्षित आदि के कथनों से अवगत होता है / कि सांख्य प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य को स्वतः मानता थाप्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वत: सांख्या समाश्रिताः / सर्वद. जैमि, पृ. 279. . . कुमारिल्ल, शान्तरक्षित आदि आचार्य के ग्रन्थों में एक ऐसे मत का भी उल्लेख है जो मीमांसक से बिलकुल विपरीत है / वह अप्रामाण्य को स्वतः तथा प्रामाण्य को परतः स्वीकार करता है। सर्वदर्शन संग्रह में 'सौगताश्चरमं स्वतः' इस पक्ष को बौद्धपक्ष के रूप में वर्णित किया है। किन्तु तत्त्वसंग्रह में शान्तरक्षित ने जो बौद्धपक्ष स्थापित किया है वह इससे सर्वथा भिन्न है / सम्भवतः सर्वदर्शन-संग्रह में निर्दिष्ट बौद्धपक्ष किसी अन्य बौद्ध विशेष का रहा हो / शान्तरक्षित ने बौद्धपक्ष को प्रकट करते हुए कहा है-'प्रामाण्य अप्रामाण्य उभय स्वतः, परत: अथवा अप्रामाण्य.परतः प्रामाण्य स्वत: या परत: अप्रामाण्य स्वतः' ये चारों ही पक्ष नियम वाले हैं अतः बौद्धपक्ष नहीं है / बौद्धपक्ष अनियमवादी है अर्थात् प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को अभ्यासदशा में स्वतः एवं अनभ्यास दशा में परतः मानते हैं। जैन मान्यता शान्तरक्षित कथित बौद्धपक्ष के समान है। अभ्यास दशा में दोनों स्वतः तथा अनभ्यास अवस्था में परतः होते हैं। हेमचन्द्राचार्य ने कहा—'प्रामाण्यनिश्चयः स्वतः परतो वा।' प्रामाण्य का निश्चय अभ्यास दशा में स्वतः तथा अनभ्यास अवस्था में परतः होता है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने सूत्र में प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य दोनों का कथन नहीं किया है। उन्होंने परीक्षामुख की तरह केवल प्रामाण्य के स्वतः-परतः का निर्देश किया है किन्तु देवसूरि ने अपने 'प्रमाणनयतत्त्वलोक' में इस सन्दर्भ को प्रस्तुत करते हुए कहा तदुभयमुत्पत्तौ परतः एव ज्ञप्तौ स्वतः परतश्चेति / प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति परतः होती है। ज्ञानोत्पादक सामग्री में मिलनेवाले गुण और दोष क्रमशः प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य के निमित्त बनते हैं। यदि ये दोनों निर्विशेषण सामग्री से पैदा होते तो इनकी उत्पत्ति स्वतः मानी जा सकती थी किन्तु ये दोनों सविशेषण सामग्री से पैदा होते हैं, अतः इनकी उत्पत्ति परतः ही होती . Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाण्य : स्वतः या परतः / 351 प्रामाण्य-अप्रामाण्य की ज्ञप्ति स्वतः-परतः होती है। इसका निमित्त है विषय की परिचित एवं अपरिचित अवस्था। परिचित वस्तुओं के ज्ञान की सत्यता एवं असत्यता का बोध तत्काल हो जाता है क्योंकि वह विषय की अभ्यासजन्य अवस्था है। करतल ज्ञान अथवा स्नान, पान आदि अर्थक्रिया का प्रत्यक्षज्ञान होता है तब प्रत्यक्ष की प्रमाणता का स्वतः निश्चय हो जाता है / प्रेक्षावान् पुरुषों को इस प्रकार के ज्ञान के प्रामाण्य की परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं होती। जब किसी अनभ्यस्त वस्तु का प्रत्यक्ष होता है, उस प्रत्यक्ष का पदार्थ के साथ अव्यभिचार निश्चित नहीं होता है / इस स्थिति में उस प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रमाणता अन्य ज्ञान से जानी जाती है / वह दूसरा ज्ञान प्रथम ज्ञान के विषय को जाननेवाले अर्थात् प्रथम ज्ञान का पोषक होता है / अर्थक्रिया के निर्भास के द्वारा अथवा प्रथम ज्ञान द्वारा प्रदर्शित पदार्थ के द्वारा अविनाभावी पदार्थ का दर्शन होने से प्रथम ज्ञान का प्रामाण्य निश्चित होता है तथा प्रथमज्ञान के प्रामाण्य के निश्चायक इन तीनों प्रकार के ज्ञानों का प्रामाण्य स्वतः सिद्ध होने से अनवस्था आदि दोषों की सम्भावना ही नहीं है। अनुमान का प्रामाण्य स्वतः होता है / परतः नहीं होता क्योंकि अनुमान का उत्थान अव्यभिचरित लिङ्ग से होने के कारण उसमें व्यभिचार की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है / लिङ्ग का ज्ञान लिङ्ग के बिना नहीं होता और लिङ्ग लिङ्गी के बिना नहीं होता अतः अनुमान का प्रामाण्य स्वतः होता है। आगम प्रमाण जो प्रत्यक्ष अर्थ का प्रतिपादक है उसकी प्रमाणता यदि दुर्जेय हो तो संवादी प्रमाण से वह निश्चित हो जाती तथा आप्तकथित होने से भी उसकी प्रमाणता का निश्चय हो जाता है। जैन को एकान्ततः प्रामाण्य न स्वतः इष्ट है न परतः / इसलिए ही वह एकान्त रूप से प्रामाण्य को स्वतः माननेवाले मीमांसकों का तथा परतः माननेवाले नैयायिक, वैशेषिकों के अभिमत का निराकरण करता है। आचार्य यशोविजयजी ने अपने ज्ञानबिन्दु में इसकी समीक्षा की है तथा प्रमाण के प्रामाण्य के सम्बन्ध में अनेकान्त का अवलम्बन लेकर उसके प्रामाण्य का प्रतिपादन अनेकान्त दृष्टि से किया है। .. हम किसी भी वस्तु की प्रामाणिकता द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के आधार पर ही स्थापित कर सकते हैं। वस्तु-बोध की इन दृष्टियों का अवलम्बन लेने से ही प्रामाण्य की सम्यक् व्याख्या सम्भव है। एक वस्तु के सम्बन्ध में अनेक व्यक्तियों के पृथक विचार हो सकते हैं। चन्द्रमा को एक व्यक्ति पृथ्वी से देख रहा है दूसरा चन्द्रलोक से। उन दोनों व्यक्तियों के ज्ञान का विषय एक ही वस्तु है ।किन्तु दोनों के ज्ञान में Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 / आईती-दृष्टि समानता नहीं है / ऐसी स्थिति में किसको प्रमाण माने, किसको अप्रमाण ? इस समस्या का समाधान-क्षेत्र की दृष्टि से चिन्तन करने से प्राप्त हो सकता है / पृथ्वी से देखनेवाला की अपेक्षा चन्द्रमा दूर है इसलिए उसका ज्ञान चन्द्रमा के बारे में भिन्न प्रकार का है तथा चन्द्रलोक से देखनेवाला चन्द्रमा को निकटता से देख रहा है, अतः उसका ज्ञान पृथ्वीवाले से भिन्न प्रकार है। इसी प्रकार दैनिक जीवन में अनेक कारणों से प्रत्यक्षों द्वारा परस्पर विरोध ज्ञान मिलता है। उदाहरण के लिए एक ही वस्तु समीप से बड़ी और दूर से छोटी दिखाई पड़ती है। वस्तु दिन के प्रकाश में रंगीन रात्रि में रंगविहीन लगती है / इसी तरह वस्तुएं अन्य वस्तुओं की तुलना में हल्की भारी होती है / एक ही वस्तु किसी कोण से वर्गाकार और अन्य कोण से आयताकार दिखलाई पड़ती है। प्रश्न उपस्थित होता है इनमें से किस अनुभव को सही माना जाना चाहिए। स्वतः-परतः से इसका समाधान सम्भव नहीं लगता। ऐसी स्थिति में प्रामाण्य की व्यवस्था द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के अवलम्बन के बिना सम्भव नहीं / अतएव प्रामाण्यअप्रामाण्य की अवगति के लिए अनेकान्त अत्यावश्यक है। - नैयायिक वैशेषिकों ने प्रवृत्ति साफल्य को प्रामाण्य का नियामक तत्त्व स्वीकार . किया है। किन्तु उनका यह अभ्युपगम प्रामाण्य प्राप्ति का कहीं पर तो निमित्त बन सकता है किन्तु सर्वथा नहीं। क्योंकि प्रवृत्ति साफल्य होने पर भी वह ज्ञान सच्चा हो कोई आवश्यक नहीं है। उदाहरणतः ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता सूर्य पृथ्वी के चारों तरफ घूमता है। इसको आधार मानकर गणना करते हैं और उनकी वह गणना ठीक भी होती है किन्तु आज यह सिद्ध हो चुका है कि सूर्य पृथ्वी के चारों तरफ चक्कर नहीं लगाता किन्तु पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। ___ अतएव प्रवृत्ति साफल्य एवं वैफल्य के द्वारा प्रामाण्य और अप्रामाण्य का निर्णय करना सम्भव नहीं है / बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति ने प्रवृत्ति साफल्य प्रामाण्य का नियामक तत्त्व है इसका निराकरण करते हुए कहा मणिप्रदीपप्रभयोः मणिबुड्याभिधावतः मिथ्याज्ञानाविशेषेऽपि विशेषोऽर्थक्रियां प्रति। इस प्रकार अबाधित तत्त्व, अप्रसिद्ध अर्थख्यापन, अविसंवादित्व या संवादीप्रवृत्ति, प्रवृति साफल्य ये सत्य की कसौटियां भिन्न-भिन्न आचार्यों के द्वारा स्वीकृत Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाण्य : स्वतः या परतः / 353 एवं निराकृत होती रही है। जैन दृष्टि के अनुसार प्रामाण्य का नियामक तत्त्वप्रमेयाव्यभिचारित्व अर्थात् याथार्थ्य है / याथार्थ्य का अर्थ है—ज्ञान की तथ्य के साथ संगति ।ज्ञान अपने प्रति सत्य ही होता है। प्रमेय के साथ उसकी संगति निश्चित नहीं होती, इसलिए उसके दो रूप बनते हैं–तथ्य के साथ संगति हो वह सत्य ज्ञान और जिस ज्ञान की तथ्य के साथ विसंगति हो वह असत्य ज्ञान होता है। प्रामाण्य स्वतः होता है, या परतः , उसके नियामक तत्त्व क्या हैं ? उसकी अवगति के अन्य भी कोई साधन बन सकते हैं क्या? इत्यादि प्रश्न पुनः गहन विमर्श की अपेक्षा रखते हैं। शायद उस विमर्श से प्रामाण्य-अप्रामाण्य के सन्दर्भ में कुछ नए तथ्य उभरकर सामने आएं और दार्शनिक जगत् को विशेषित कर सके। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 / आर्हती-दृष्टि शरीर में अतीन्द्रियज्ञान के स्थान जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द एवं . अनन्त शक्ति-संपन्न है / प्रत्येक आत्मा में अनन्त चतुष्ट्य विद्यमान है / आत्मा अपनी अनन्त ज्ञान शक्ति के द्वारा सार्वकालिक संपूर्ण ज्ञेय पदार्थ को सर्वांगीण रूप में जानने में समर्थ है किंतु संसारावस्था में आत्मा का यह स्वरूप ज्ञान-आवारक ज्ञानावरणीय कर्म से आवृत्त रहता है, अतः आत्मा का वह मूल रूप प्रकट नहीं हो पाता / आवृत्त दशा में आत्मा का जितना-जितना आवरण दूर हटता है वह उतना ही ज्ञेय जगत् के साथ संपर्क स्थापित कर सकती है। ___ जैन-परंपरा में मति आदि पांच ज्ञानों का स्वीकरण है। ये पांच ज्ञान प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो भागों में विभक्त हैं। मति श्रत ये दो ज्ञान परोक्ष है। मति एवं श्रत ज्ञान की अवस्था में आत्मा पदार्थ से सीधा साक्षात्कार नहीं कर सकती। पदार्थ ज्ञान में उसे आत्म भिन्न इंद्रिय, मन, आलोक आदि की अपेक्षा रहती है, अतः इन ज्ञानों को परोक्ष कहा गया है। इंद्रिय ज्ञान प्राप्ति के स्थान शरीर में प्रतिनियत हैं / इंद्रियां अपने नियत स्थान से ही ज्ञान प्राप्त करती हैं। आवरण के विरल अथवा संपूर्ण रूप से हट जाने से आत्मा को ज्ञेय साक्षात्कार में बाह्य साधनों की अपेक्षा नहीं रहती अर्थात् इस अवस्था में इंद्रिय, मन आदि पौद्गलिक साधनों का उपयोग नहीं होता है। अवधि, मनःपर्यव एवं केवल ज्ञान ये अतीन्द्रिय ज्ञान हैं / जैन परंपरा में इन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण माना गया है।' अवधि एवं मनःपर्यव ये दो विकल/अपूर्ण प्रत्यक्ष है। तथा केवलज्ञान सकल/पूर्ण प्रत्यक्ष है।' अवधि मनः पर्यव ज्ञान की सीमारूपी द्रव्य है; जबकि केवलज्ञान की रूपी-अरूपी संपूर्ण द्रव्यों में निर्बाध गति है। जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा शरीर प्रमाण है। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि पारमार्थिक प्रत्यक्ष की ज्ञेय-प्रक्रिया में इंद्रियों की तो आवश्यकता नहीं है, किंतु आत्म-प्रदेश देहाधिष्ठित है। ऐसी अवस्था में शरीर के अंगोपांग उस ज्ञान-प्राप्ति के साधन बनते हैं या नहीं? इस प्रश्न का समाधान हमें नंदी-सूत्र एवं षटखण्डागम सूत्र में प्राप्त होता है। वहां पर अवधिज्ञान की चर्चा के प्रसंग में इस विषय से संदर्भित महत्त्वपूर्ण चर्चा हुई है, जो अन्य ग्रंथों में प्राप्त नहीं है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर में अतीन्द्रियज्ञान के स्थान /355 आत्मा शरीर के भीतर है और चेतना भी उसके भीतर है। इंद्रिय चेतना की रश्मियां अपने-अपने नियत स्थानों के माध्यम से बाहर आती है तथा पदार्थ जगत् के साथ संपर्क स्थापित करती है। अतीन्द्रियज्ञान के लिए शरीर में कोई नियत स्थान नहीं है किंतु शरीर का जो भी भाग करण बन जाता है उसके द्वारा अतीन्द्रिय चेतना का प्रकटीकरण हो जाता है / अतीन्द्रिय ज्ञान को प्रकट करने के स्थान शरीर में ही है। अवधि-ज्ञान के लिए कोई एक नियत प्रदेश या चैतन्य केन्द्र शरीर में नहीं है। अवधि ज्ञान की रश्मियों के बाहर आने के लिए शरीर के विभिन्न प्रदेश या चैतन्यकेन्द्र साधन बनते हैं। . नंदी-सूत्र में आनुगामिक-अवधिज्ञान के दो भेद किए गए हैं-अंतगत और मध्यगत / अंतगत अवधि वहां पर तीन प्रकार का निर्दिष्ट है—पुरतः अतंगत, मार्गत: (पृष्ठतः) अंतगत एवं पार्श्वतः अंतगत / अवधिज्ञान के ये भेद ज्ञाता शरीर के जिस प्रदेश से इस ज्ञान के द्वारा देखता है, उसके आधार पर किए गए हैं। अंतगत अवधिज्ञान की रश्मियां शरीर के पर्यंतवर्ती (अग्र, पृष्ठ और पार्श्ववर्ती) चैतन्यकेन्द्रों के माध्यम से बाहर आती हैं। पुरतः मार्गतः एवं पार्श्वतः अवधिज्ञान के भेद एवं नामकरण शरीर के आधार पर हुए हैं / शरीर के जिस भाग से अवधिज्ञान की रश्मियां निकलती हैं उसका वही नाम दे दिया गया है / मध्यगत अवधिज्ञान की रश्मियां शरीर के मध्यवर्ती चैतन्य केन्द्रों-मस्तक आदि से बाहर निकलती है। ___ सर्व-आत्म-प्रदेशों में आवरण विलय से विशुद्धि होने पर भी जो औदारिक शरीर की एक दिशा से देखता है, वह अंतगत अवधिज्ञान है / उसके तीन भेद हैं(क) पुरतः अंतगत-अवधिज्ञान औदारिक शरीर के आगे के भाग से ज्ञेय को प्रकाशित करता है। (ख) मार्गत: अंतगत-जो ज्ञान शरीर के पीछे के प्रदेश से ज्ञेय को प्रकाशित * करता है। (ग) पार्श्वत: अंतगत—जो अवधिज्ञान शरीर के एक पार्श्व अथवा दोनों - पार्श्व से पदार्थों को प्रकाशित करता है, वह पार्श्वतः अवधिज्ञान है। - मध्यगत अवधिज्ञान-जिस ज्ञान के द्वारा ज्ञाता चारों ओर से पदार्थों का ज्ञान करता है, वह मध्यगत अवधिज्ञान है / औदारिक शरीर के मध्यवर्ती स्पर्धकों की विशुद्धि सब आत्मप्रदेशों की विशुद्धि अथवा सब दिशाओं का ज्ञान होने के कारण यह मध्यगत अवधिज्ञान कहलाता है। एक दिशा में जाननेवाला अवधिज्ञान अंतगत अवधिज्ञान है / सब दिशाओं में Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 / आर्हती-दृष्टि जानने वाला अवधिज्ञान मध्यगत अवधिज्ञान है / षट्खण्डागम के एक क्षेत्र अवधिज्ञान की तुलना अंतगत एवं मध्यगत से की जा सकती है। जिस अवधिज्ञान का करण जीव के शरीर का एक देश होता है वह एकदेश अवधिज्ञान है जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्र की वर्जना कर शरीर के सब अवयवों में रहता है, वह अनेक क्षेत्र अवधिज्ञान ___ अवधिज्ञान के प्रसंग में आगत अंतगत एवं मध्यगत ये दोनों शब्द शरीर में स्थित चैतन्य केन्द्रों के गमक है / अप्रमाद के अध्यवसाय को जोड़ने वाले शरीरवर्ती साधन को चक्र या चैतन्यकेन्द्र कहा जाता है। ___ इन कर्म विवरों (चैतन्य केन्द्र) से ही अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियां बाहर निकलती हैं। शरीर का जो स्थान करण, चैतन्यकेन्द्र बन जाता है उसी के माध्यम से ज्ञान रश्मियां बाहर निकलती है अन्य स्थानों से नहीं निकल सकती हैं। जीव प्रदेशों के क्षायोपशमिक विकास के आधार पर चैतन्यकेन्द्रमय शरीर प्रदेशों के अनेक संस्थान बनते हैं। षट्खण्डागम में इसका स्पष्ट उल्लेख है। क्षेत्र की अपेक्षा से शरीर प्रदेश अनेक संस्थान में संस्थित होते हैं। जैसे—श्रीवात्स, कलश, शंख, स्वस्तिक, नंद्यावर्त आदि / भगवती-सूत्र में भी विभंग ज्ञान संस्थानों का उल्लेख किया गया है। उसमें अनेक संस्थानों के नाम उपलब्ध हैं, जैसे-वृषभ का संस्थान, पशु का संस्थान, पक्षी का संस्थान आदि / ____ अवधिज्ञान एवं विभंगज्ञान दोनों शरीरगत संस्थान होते हैं, यह मत निर्विवाद अवधिज्ञान के प्रसंग में षट्खंडागम में करण शब्द का प्रयोग हुआ है। इस प्रसंग में करण शब्द का अर्थ है-शरीर का अवयव, शरीर का एक भाग जिसके माध्यम से अवधिज्ञानी पुरुष विषय का अवबोध करता है। शरीर में कुछ विशिष्ट स्थान होते हैं जहां चेतना सघनता से रहती है / यह सिद्धान्त अनेक ग्रन्थों में स्वीकृत है / सुश्रुत संहिता में 210 संधियों और 107 मर्म-स्थानों का उल्लेख प्राप्त है।६ __अस्थि, पेशी और स्नायुओं का संयोग-स्थल संधि कहलाता है / मर्म-स्थानों में प्राण की बहुलता होती है। शरीर के वे अवयव मर्मस्थान कहलाते हैं। __ चैतन्य केन्द्र इन्हीं मर्म स्थानों के भीतर हैं। हठयोग में भी प्राण और चैतन्य प्रदेशों की सघनता के स्थल ध्यान के आधार-रूप में सम्मत है / जैन साधना पद्धति Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शरीर में अतीन्द्रियज्ञान के स्थान / 357 के रूप में विख्यात प्रेक्षाध्यान में भी शरीर के कुछ विशिष्ट स्थानों को चैतन्यकेन्द्र के रूप में स्वीकृत किया है। उन केन्द्रों पर ध्यान करने से वृत्तियों के परिमार्जन के साथ-साथ अतीन्द्रिय ज्ञान शक्ति का विकास होता है / यह अनुभूत तथ्य/सत्य है। नंदी, पंचसंग्रह, गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में अवधिज्ञान के उत्पत्ति-क्षेत्र की चर्चा की गई है। पंचसंग्रह एवं नंदी के अभिमतानुसार तीर्थंकर, नारकी एवं देवता को अवधिज्ञान सर्वांग से उत्पन्न होता है तथा मनुष्य एवं तिर्यंचों के शरीरवर्ती शंख, कमल, स्वस्तिक आदि करण चिन्हों से उत्पन्न होता है। जैसे शरीर में इन्द्रिय आदि का आकार नियत होता है वैसे शरीरवर्ती चिन्हों का आकार नियत नहीं हैं / एक जीव के शरीर के एक ही स्थान में अवधिज्ञान का करण होता है ऐसा कोई नियम नहीं है। किसी भी जीव के एक, दो, तीन, आदि क्षेत्र रूप शंख आदि शुभ स्थान संभव है। ये शुभ स्थान अवधिज्ञानी तिर्यश्च एवं मनुष्य के नाभि के ऊपर के भाग में होते हैं तथा विभंग अज्ञानी तिर्यञ्च एवं मनुष्य के नाभि से नीचे अधोभाग में गिरगिट आदि आकार वाले अशभ संस्थान होते हैं / 20 विभंगज्ञानियों के सम्यक्त्व आदि के फलस्वरूप अवधिज्ञान के उत्पन्न होने पर गिरगिट आदि अशुभ आकार मिटकर नाभि से ऊपर शंख आदि शुभ आकार हो जाते हैं। जो अवधिज्ञानी सम्यक्त्व के नाश से विभंगज्ञानी हो जाते हैं उनके शुभ संस्थान मिटकर अशुभ संस्थान हो जाते हैं। ____ अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान की उत्पत्ति के सम्बन्ध में गोम्मटसार के मन्तव्य से भी शरीरगत विशिष्ट अतीन्द्रिय केन्द्रों का बोध होता है / मनःपर्यवज्ञान की उत्पत्ति आत्मा के उन प्रदेशों से होती है जिनका सम्बन्ध द्रव्यमन से है / पंडित सुखलालजी के अनुसार द्रव्यमन का स्थान हृदय है। अतः हृदयभाग में स्थित आत्मप्रदेशों में ही मनःपर्यवज्ञान का क्षयोपशम है / परन्तु शंख आदि शुभ चिन्हों की उत्पति शरीर के सभी अंगों में हो सकती है। अतः अवधिज्ञान के क्षयोपशम की योग्यता शरीर में सर्वत्र है। _ साधना के द्वारा जो क्षेत्र अधिक सक्रिय हो जाता है उसके माध्यम से ही अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियों का निर्गम होता है। शरीर के स्थान-विशेष अतीन्द्रियज्ञान के निर्गमन . के पथ बन जाते हैं। .. योग दर्शन में भी शरीर के विशिष्ट स्थानों पर एकाग्र होने से विशेष प्रकार का : ज्ञान उत्पन्न होता है, ऐसा उल्लेख है। वहां उल्लेख है कि सूर्य में संयम करने से Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 / आर्हती-दृष्टि भुवनज्ञान होता है। नाभिचक्र में संयम करने से शारीरिक संरचना का ज्ञान हो जात है। ऐसे अनेक वर्णन वहां प्राप्त हैं। कुछ परामनोवैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य का मस्तिष्क रहस्यों के तंतुजाल से बना एक करिश्मा है / वह अपनी एकाग्रता का विकास कर ग्रहण और प्रेषण की कई ऐसी क्षमताओं को उजागर कर सकता है जो इन्द्रिय-बोध की मर्यादा में नहीं आती। कुछ परामनोवैज्ञानिकों की अवधारणा है ।हमारे शरीर से उत्सर्जित एवं विकीरित बायोप्लाज्मा एनर्जी या साइकोट्रोनिक एनर्जी अतीन्द्रिय शक्तियों का आधार है / ध्यान, साधना आदि के द्वारा इनकी लयबद्धता को विकसित कर विशिष्ट-बोध क्षमता का विकास किया जा सकता है। __ कुछ विद्वानों के अनुसार अतिन्द्रियज्ञान का आधार मनुष्य की छठी इन्द्रिय है। यह इन्द्रिय कोशिकाओं के एक-एक छोटे समूह के रूप में मस्तिष्क के नीचे रहती है, जो हर व्यक्ति में समान रूप से सक्रिय नहीं होती। ध्यान, साधना, अभ्यास, मनन आदि के द्वारा उत्पन्न आध्यात्मिक एकाग्रता इसकी सक्रियता को वृद्धिंगत करती है। कुछ विचारकों के अनुसार हमारे मनः संस्थान का केवल 9% भाग ही जान जा सका है। शेष 91% भाग जिसे डार्क एरिया कहा जाता है, वहीं अतीन्द्रिय क्षमताओं का निवास स्थान है / तालुतल से जीभ का स्पर्श कर मस्तिष्क की प्रसुप्त एवं अविज्ञात शक्तियों को जागृत एवं प्रदीप्त किया जा सकता है / वैज्ञानिक दृष्टि से इसे पिच्युटरी और पिनीयल का स्थान कहा जा सकता है। शरीरविज्ञान के अनुसार केन्द्रिय नाडीतंत्र का भाग अतीन्द्रियज्ञान की क्षमता का धारक हो सकता है। नाडीतन्त्र का वह भाग ग्रन्थियों का निवास है, अतीन्द्रियज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि पूरे शरीर में चैतन्यकेन्द्र अवस्थित हैं। साधना के तारतम्य के अनुसार जो चैतन्यकेन्द्र जागृत होता है उसी में से अतीन्द्रियज्ञान की रश्मियां बाहर निकलने लगती हैं / यदि पूरे शरीर को जागृत कर लिया जाता है तो पूरे शरीर में से अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियां निकलने लगती हैं / 25 कभी-कभी बिना साधना के ही चोट आदि लगने से भी शरीर का वह प्रदेश अतीन्द्रिय चेतना का वाहक बन जाता है। चैतन्य केन्द्र का विषय-साधना की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा पूरे शरीर में व्याप्त होती है किन्तु उसके प्रदेश या चैतन्य की सघनता एक जैसी नहीं होती। शरीर के कुछ भागों में चैतन्य सघन होता है और कुछ भागों में विरल / अतीन्द्रियज्ञान शक्ति विकास और आनन्द की अनुभूति के लिए उन सघन Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर में अतीन्द्रियज्ञान के स्थान / 359 क्षेत्रों की सक्रियता सबके लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। . इस दृष्टि से यह विषय बहुत मननीय है। अपेक्षा है, इस विषय पर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की अवधारणाओं के साथ विमर्श किया जाए जिससे ज्ञान के गूढ रहस्यों का व्यवहार-जगत् में सलक्ष्य प्रयोग हो सके। ___ संदर्भ 1. तत्त्वार्थ सू. 1/9 / / 2. वही. 1/11 / 3. साहाय्यापेक्षं परोक्षम् न्याय कर्णिका 3/1 / 4. तत्त्वार्थ सू.१/१२। 5. न्याय कर्णिका 2/4 / . 6. यौव यो दृष्ट गुणः स तत्र। अन्ययोगव्यवच्छेदिका गा. 9 7. नन्दी सू. 10-11 / 8. नन्दी चूं., पृ. 16. 9. वही. पृ.१६. 10. नन्दी सू. 16. .. 11. जस्स ओहिणाणस्स जीवसरीरस्स एगदेसो करण होदि तमोहिणाणमेगक्खेत्तं णाम। जमोहिणाणं पडिणियदखेत्तवज्जियसरीरसव्वावयवेसु वट्टदि तमणेयक्खेत्तं णाम। षटखण्डागम, पुस्तक 13 पृ., 294 / 12. अप्रमादाध्यवसायसंधानभूतं शरीरवर्तिकरणं चैतन्यकेन्द्रं चक्रमिति यावत् / - आचारांग भाष्यम् सू. 5/20 / . 13. खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा। सिरिवच्छ-कलस-संख-सोत्थियणंदावत्तादीणि संठाणाणि णादव्वाणि भवंति // षटखण्डागम, पु. 13 पृ. , 296 / 14. विभंगनाणे अणेगवि... नाणासंठाणसंठए पण्णत्ते। भगवई 8/103 15. अवधिज्ञानप्रसंगे करणपदस्यार्थों भवति शरीरावयवा, शरीरैकदेशो वा यस्माद् अवधिज्ञानी विषयं जानाति / आचारांग भाष्यम्, पृ. 247 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 / आर्हती-दृष्टि 16. सुश्रुतसंहिता, शरीरस्थानम्, 5/26, 6/31 / 17. बहुभिरात्मप्रदेशैरधिष्ठिता देहावयवाः मर्माणि।। ___ स्याद्वादमंजरी पृ. 77 / 18. प्रेक्षा सिद्धान्त और प्रयोग पृ., 98 / 19. (क) तीर्थकृच्छवाभ्रदेवानां सर्वांगोत्थोऽवधिर्भवेत् / नृतिरश्चां तु शंखाब्जस्वस्तिकाद्यङ्गचिह्नजम् // पंचसंग्रह (संस्कृत) 1/58 / (ख) नेरइयदेवतित्थंकरा य, ओहिस्सऽबाहिरा हुति। पासंति सव्वओ खलु, सेसा देसेण पासंति // नन्दी सू. 22 / 20. ‘ण च एक्कस्स जीवस्स एक्कम्हि पदेसे ओहिणाणकरणं होदित्ति णियमो अस्थि, एग दो तिण्णि-चत्तारि-पंच-छआदि खेताणमेगजीवम्हि संखादिसुहसंठाणाणं कम्हि वि संभवादो। एदाणि संठाणाणि तिरिक्ख-मणुस्साणं णाहीए उपरिमभागो होति, णो हेट्ठा सुहसंठाणमधोभागेण सह विरोहादो। तिरिक्खमणुस्सविहंगणाणीणं णाहीए हेट्ठा सरडादि असुहसंठाणाणि होति त्ति गुरुपदेसो ण सुत्तमत्थि। धवला 13/5, 5, 58/296/10 . 21. कर्मग्रन्थ, भाग 1 पृ., 111. .. 22. सव्वंग अंगसंभवविण्हादुप्पज्जदे जहा ओही। मणपज्जवं च दव्यमणादो उपज्जदे णियमा // गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. 441 / 23. भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात्। पातञ्जल योग सूत्र. 3/26 / 24. नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम्। . वही. 3/29' 25. जैन परामनोविज्ञान, पृ. 41. 26. अपना दर्पणः अपना बिम्ब, पृ. 129. मणपज्जन Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 361 मनोविज्ञान के सन्दर्भ में दस संज्ञाएं 'अणेग चित्ते खलु अयं पुरिसे' यह पुरुष अनेक चित्तवाला है। अनेक विचारधाराओं से युक्त है। व्यक्ति के भीतर नाना प्रकार के भावों की तरंगें उठती रहती हैं / प्रतिक्षण उसका चित्त, मन तरंगायित रहता है। कभी वह विचार के स्तर पर आनन्द के उदयाद्रि पर होता है तो कभी हीनता की गहन गम्भीर तलहटियों में विचरण करता है। व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का स्रष्टा स्वयं होता है। जैसे विचार होते हैं, वैसा ही उसका व्यवहार हो जाता है। ___व्यवहार विचारों का ही अनुगमन करता है / सन्तुलित व्यवहार के लिए विचारों का सन्तुलन अत्यन्त अपेक्षित रहता है / चित्त की निर्मलता एवं मलिनता व्यक्ति के व्यवहार की नियामक रेखा है / एक ध्यान साधक का लक्ष्य होता है, चित्त की विशुद्धता, उज्ज्वलता एवं पवित्रता / व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक होता है विधायक भावों की वरीयता एवं निषेधात्मक भावों का अल्पीकरण। __ व्यक्ति की चेतना अनेक स्तरों पर अपना कार्य करती है / जब प्राण का प्रवाह, चेतना का प्रवाह ऊर्ध्वमुखी होता है व्यक्ति स्वतः ही विधायक भावों से आप्लावित हो जाता है / अधोमुखी प्राण चेतन-प्रवाह व्यक्तित्व में किन्तु परन्तु पैदा करता रहता है / उद्दण्डता, क्रूरता, उच्छंखलता आदि दुर्गुण स्वतः ही वहां पर प्रकट होने लगते शरीर का रासायनिक परिवर्तन, अन्तस्रावी-ग्रन्थियों के स्राव की अल्पता, अधिकता भी व्यक्ति के व्यवहार की नियामक है ऐसा आज के विज्ञान का मन्तव्य है.। न्यूरो-इन्डोक्राइन तन्त्र की संयुक्त प्रणाली का फंक्शन व्यक्तित्व के घटक तत्त्वों में मुख्य तत्त्व है। उनकी पहुंच यहां तक ही है। मानसशास्त्री मन के विभिन्न स्तरों के आधार पर व्यक्तित्व की व्याख्या का प्रयत्न करते हैं। Conscious mind, sub conscious mind and unconscious mind of संयुक्त क्रियाशीलता व्यक्तित्व-व्याख्या का महत्त्वपूर्ण बिन्द बनती है। मनोवैज्ञानिक इनके आधार पर मन की मूलभूत समस्याओं को समाहित करने का प्रयत्न करते हैं। मूल प्रवृत्तियों के संवेग उद्दीपन आदि के द्वारा व्यवहार में परिवर्तन परिलक्षित होता Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 / आती-दृष्टि वे मौलिक मनोवृत्तियां सम्पूर्ण प्राणी जगत् में विद्यमान है / ये जन्मजात होती है। प्राणी इन्हें साथ में लेकर जन्म लेता है / जन्म के बाद में नहीं सीखता है / मूलप्रवृत्तियां सार्वलौकिक होती हैं। मूलप्रवृत्ति प्रकृति द्वारा दी गई प्रेरक शक्ति है। प्राणी जीवन की प्रत्येक क्रिया इसी मूलप्रवृत्ति के द्वारा संचालित होती है। जैन-दर्शन में प्राप्त दस संज्ञाओं का विवेचन आज के मनोविज्ञान के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण तुलनात्मक बिन्दु है। भगवान् महावीर ने आहार, भय, मैथुन आदि दस संज्ञाओं का उल्लेख भगवती आदि अनेक आगम में किया है। हमारे जितने आचरण हैं उनके पीछे हमारी दस प्रकार की चेतना काम करती हैं। संज्ञा का अर्थ है एक प्रकार की चित्तवृत्ति / आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के शब्दों में जिसमें चेतन और अचेतन, कॉन्शियस माइन्ड और सब-कॉन्शियस माइन्ड दोनों का योग होता है उसे संज्ञा कहते आज के मनोवैज्ञानिक जिस बात को आज कह रहे हैं उसका उल्लेख ढाई हजार वर्ष के प्राचीन आगम साहित्य में उपलब्ध है। ये दस संज्ञाएं एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक सम्पूर्ण प्राणी जगत में प्राप्त होती है / जीवन संचालन की प्रेरक शक्ति ये दस संज्ञाएं ही हैं। ____ मनोविज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न मनोवैज्ञानिकों के अलग-अलग विचार हमें प्राप्त होते हैं। फ्राइड के अनुसार ( libido ) ही वास्तव में एक मूलप्रवृत्ति है / उसके द्वारा ही प्राणी का सम्पूर्ण जीवन व्यवहार संचालित होता है 'कर्कपैट्रिक' इन मूल-प्रवृत्तियों को पाँच भागों में विभक्त करते हैं 1. आत्मरक्षा की शक्ति, 2. सन्तानोत्पत्ति की शक्ति, 3. आदर्श जीवन व्यतीत करने की प्रवृत्ति / 4. समायोजन की प्रवृत्ति, वुडवर्थ ने मूल प्रवृत्तियों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया है। 1. दैहिक आवश्यकताओं से सम्बन्धित क्रियाएं-जैसे निद्रा, क्षुधा, प्यास, थकावट आदि। 2. अन्य व्यक्तियों से सम्बन्धित—पुत्र कामना, काम तृप्ति, 3. खेल सम्बन्धी / इन तीन भागों में मूल-प्रवृत्तियों को विभाजित किया है। . प्रसिद्ध मनोविज्ञानवेत्ता मैक्डूगल का मूल-प्रवृत्तियों सम्बन्धी विभाग दस संज्ञाओं Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविज्ञान के सन्दर्भ में दस संज्ञाएं / 363 के साथ तुलनात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है / मैक्डूगल ने मूल प्रवृत्तियां 14 मानी हैं। उन मूल प्रवृत्तियों के उद्दीपन में सहायक सामग्री एवं संवेग हेतभूत बनते हैं। पलायन, भोजनान्वेषण, युयुत्सा, जिज्ञासा, विधायकता, संचय, विकर्षण, आत्म-गौरव, संघ-प्रवृत्ति, दीनता, पुत्रकामना, कामभावना, शरणागति, हास्य ये मूल प्रवृत्तियां हैं / भय, भूख, क्रोध, आश्चर्य, कृतिभाव, अधिकारभावना, घृणा, आत्माभिमान, एकाकीपन, आत्महीनता, वात्सल्य, कामुकता, करुणा, उल्लास ये क्रमशः इनके उद्दीपक संवेग हैं। इन प्रवृत्तियों से व्यक्ति का सम्पूर्ण आचार-व्यवहार प्रतिबन्धित है। - मानसिक परिवर्तन केवल उद्दीपन और परिवेश के कारण नहीं होते। उनमें नाड़ी संस्थान, जैविक विद्युत, जैविक रसायन, अन्तस्रावी-ग्रन्थियों के स्रावों का भी योग रहता है। इसके अतिरिक्त परिवर्तन में हेतुभूत बनता है हमारा सूक्ष्म जगत् / स्थूल जगत् से हम परिचित हैं। कर्मशास्त्र हमारे सूक्ष्म अज्ञात जगत् की व्याख्या करनेवाला है। मनोविज्ञान की अद्यप्रवृत्ति असमाहित जिज्ञासाओं का समाधान कर्म के क्षेत्र में चिन्तन से प्राप्त हो जाता है। भारतीय दर्शनों में व्यक्ति के आचरण व्यवहार का मुख्य घटक इस कर्म को स्वीकार किया है। कर्म की सूक्ष्म व्याख्या जैन-आगम दर्शन-साहित्य में जिस विस्तार से उपलब्ध है अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। मनोविज्ञान व्यक्तित्व व्याख्या में इन मूल-प्रवृत्तियों को प्रमुखता से व्याख्यायित करता है। जैन-दर्शन 10 संज्ञाओं के आधार पर इनकी व्याख्या करता है / परिवर्तन की प्रक्रिया में कर्म के स्पन्दन, मन की चंचलता, शरीर के संस्थान ये सभी सहभागी बनते हैं। कर्मशास्त्र के अनुसार मोहनीय कर्म के विपाक से व्यक्ति का चरित्र और व्यवहार बदलता है। मोहनीय-कर्म की प्रवृत्तियों एवं उनके विपाकों के साथ मूलप्रवृत्तियों और मूल-संवेगों की तुलना की जा सकती है। _ संज्ञाएं आत्मा और मन की प्रवृत्तियां हैं / वे कर्म द्वारा प्रभावित होती हैं / कर्म आठ हैं। उनमें प्रमुख सेनापति मोहकर्म है। चारित्र मोह के द्वारा प्राणी में विविध मनोवृत्तियां प्रादुर्भूत होती है। भय, घृणा, हास्य, कामभावना, संग्रह झगड़ालूपन भोगासक्ति में मूल कारणभूत मोह बनता है / बाह्य अथवा उद्दीपक सामग्री तो मात्र निमित्तभूत बनती है। कभी-कभी ऐसा भी घटित होता है कि बाह्य कारणों की अनुपस्थिति में भी व्यक्ति क्रोधित, उदास देखा जाता है। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक एवं ओघ इन दस Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 / आर्हती-दृष्टि संज्ञाओं का उल्लेख जैन-साहित्य में प्राप्त है और उनकी तुलना मूल-प्रवृत्तियों के . साथ बहुलता से होती है। लोक संज्ञा वैयक्तिक या विशिष्ट चेतना है। ओघ संज्ञा अनुकरण ती प्रवृत्ति सामुदायिकता की भावना है। इन 10 संज्ञाओं को तीन वर्गों - में विभाजित कर सकते हैं। 1. आहार, भय, मैथुन और परिग्रह / 2. क्रोध, मान, माया और लोभ / 3. लोक एवं ओघ। प्रथम वर्ग की चार वृत्तियों के कारण दूसरे वर्ग की ये चार वृत्तियां विकसित होती हैं। ये 10 ही संज्ञाएं सम्पूर्ण प्राणी जगत् में उपलब्ध है। कोई भी ऐसा प्राणी नहीं हैं, जिसमें ये न हो / मनुष्य में ये वृत्तियां जितनी विकसित होती हैं उतनी वनस्पति. या छोटे प्राणियों में विकसित नहीं हैं / इन संज्ञाओं को आचरण का स्रोत कहा जा सकता है, किन्तु इतना स्पष्ट है ये मूलस्रोत नहीं है / इनका भी उद्गम-स्थल कर्म शरीर ___जैन-दर्शन में इन संज्ञाओं पर विजय प्राप्त करने का आग्रह है / सन्तुलित व्यक्तित्व . के लिए आवश्यक है इन वृत्तियों पर व्यक्ति का अंकुश रहे। मनोविज्ञान भी इनके / . शोधन एवं मार्गान्तरीकरण की प्रक्रिया को प्रशस्त मानता है। .. दशवैकालिकसूत्र में कहा गया—'कामे कमाही कमियं खु दुक्खं / ' काम का अतिक्रमण करो दुःख स्वतः ही अतिक्रान्त हो जाएगा। क्रोध आदि के विजय के लिए -- प्रतिपक्ष भावना का उल्लेख भी इस सूत्र में प्राप्त है। उवसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे। मायं चज्ज्वभावेण लोहो सन्तोसओ जिणे॥ साधना के पथ पर अग्रसर साधक को पग-पग पर इन संज्ञाओं को जीतने का आदेश है। शरीर जब तक है तब तक क्रिया का सर्वथा परित्याग नहीं किया जा सकता किन्तु क्रिया को सम्यक् बनाया जा सकता है, अतः कहा गया जयं चरे जयं चिढ़े, जयमासे जयं सए, जयं (जंतो भासंतो पावं कम्मं ण बधई। उत्तराध्ययन-सूत्र का प्रारम्भ ही अधिकार भावना की समाप्ति के कथन से होता है- 'संजोगाविष्पमुक्कस्स अणगारस्स भिक्खुणो'। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविज्ञान के सन्दर्भ में दस संज्ञाएं / 365 भर्तृहरि ने तो पशु और मनुष्य की भेदरेखा इन मौलिक मनोवृत्तियों पर अंकुश के आधार पर ही स्थापित की है। आहार निद्रा भय मैथुनञ्च, सामान्यमेतत् पशुभिः नराणाम्। धर्मो हि तेषामधिको विशेष धर्मेण हीना पशुभिः समाना / / संज्ञा एवं मनोवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन मनोविज्ञान के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण आयाम उद्घाटित कर सकता है। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्ष प्रमाण की प्रामाणिकता प्रमेय का ज्ञान प्रमाण से होता है। प्रमेय का अस्तित्व स्वभाव सिद्ध है। किंतु उसके अस्तित्व का बोध प्रमाण के द्वारा ही संभव है। ‘मानाधीना हि मेयसिद्धिः' यह न्यायशास्त्र का सार्वभौम नियम है। जब तक प्रमाण का निर्णय नहीं होता तब तक प्रमेय की भी स्थापना नहीं की जा सकती। ___ दार्शनिक जगत् में प्रमेय के संबंध में विचार वैविध्य उपलब्ध हैं / कुछ दार्शनिक प्रमेय की वास्तविक सत्ता स्वीकार करते हैं, कुछ उसका निषेध करते हैं। किंतु प्रमेय की वास्तविकता एवं अवास्तविकता दोनों की सिद्धि प्रमाण से ही की जा सकती है अतः प्रमाण स्वीकृति में किसी की भी असहमति नहीं हैं। जैन दर्शन प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो प्रमाणों को स्वीकार करता है। अप्रत्यक्ष को चार्वाक् सहित सभी भारतीय चिंतकों ने प्रमाण रूप में मान्य किया है। यद्यपि चार्वाक् मात्र इंद्रिय-प्रत्यक्ष को ही स्वीकार करता है। जबकि अन्य दार्शनिक अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष को भी स्वीकृति देते हैं। प्रमाण के क्षेत्र में प्रत्यक्ष सर्वदर्शन सम्मत शब्द है.। किंतु परोक्ष शब्द का प्रयोग मात्र जैन तार्किकों ने किया है। प्रत्यक्ष प्रमाण विशद होता है। प्रत्यक्ष प्रमाण की विशदता का तात्पर्य है इदन्तया प्रतिभास एवं प्रमाणांतर की अनपेक्षा / इसके विपरीत परोक्ष प्रमाण में इदन्तया प्रतिभास नहीं होता तथा अन्य प्रमाण की भी आवश्यकता होती है / This इदन्तया प्रतिभास है, That तद्तया प्रतिभास है। आगमिक परंपरा अनुसार इंद्रिय एवं मन की सहायता से आत्मा को जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष है / आगम परंपरा में संव्यवहार प्रत्यक्ष वस्तुतः परोक्ष ही है / दर्शन जगत् में इंद्रिय से होने वाले ज्ञान को सभी दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष स्वीकार किया।जैन तार्किकों ने अपनी सैद्धांतिक अवधारणा को सुरक्षित रखते हुए भी इंद्रिय एवं मानस ज्ञान को संव्यवहार प्रत्यक्ष कहकर प्रत्यक्ष में परिगणित किया। ___मतिज्ञान के दो साधन हैं—इंद्रिय और मन / मन द्विविध धर्मा है-अवग्रह आदि धर्मवान् एवं स्मृति आदि धर्मवान् / इस स्थिति में मति दो भागों में विभक्त हो जाती है-व्यवहारप्रत्यक्षमति एवं परोक्षमति / इंद्रियात्मक और अवग्रह आदि मनरूप मति व्यवहारप्रत्यक्ष एवं स्मृति आदि मन रूप परोक्ष मति होती है। श्रुतं ज्ञान को तो परोक्ष ही स्वीकार किया है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्ष प्रमाण की प्रामाणिकता / 367 जैन के अनुसार-परोक्ष प्रमाण के पांच प्रकार हैं स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क (ऊह), अनुमान एवं आगम। स्मृति धारणामूलक, प्रत्यभिज्ञा, स्मृति एवं अनुभवमूलक, तर्क प्रत्यभिज्ञामूलक तथा अनुमान तर्क निर्णीत साधनमूलक होते हैं। इसलिए ये परोक्ष हैं / आगम वचनमूलक होता है, इसलिए परोक्ष है। स्मृति, तर्क एवं प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य के संबंध में दार्शनिकों में परस्पर मतैक्य नहीं है। किंतु अनुमान को चार्वाक् इतर सभी दार्शनिकों ने प्रमाण स्वीकार किया है। अनुमान प्रत्यक्ष भिन्न परोक्ष प्रमाण है / यद्यपि सभी जैन तार्किकों ने परोक्ष के पाँच भेद किए हैं किंतु अकलंकदेवकृत न्यायविनिश्चय के टीकाकार वादिराज ने परोक्ष के अनुमान एवं आगम ये दो ही भेद किए हैं तथा अनुमान को गौण एवं मुख्य भेद से द्विरूप स्वीकार किया है। गौण अनुमान के तीन भेद किए हैं—स्मृति, प्रत्यभिज्ञा एवं तर्क। ___ स्मृति आदि अपने-अपने उत्तरवर्ती के लिए हेतु हैं। स्मृति आदि परम्पा से अनुमान के कारण है अतः वादिराज ने इनको अनुमान में ही परिगणित किया है। अकलंकदेव ने प्रत्यक्ष अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का उल्लेख किया है। अतः वादिराज ने परोक्ष के अनुमान और आगम भेद करके स्मृति आदि का अन्तर्भाव अनुमान में कर लिया है / वादिराज ने स्मृति आदि का अनुमान में अन्तर्भाव करने का एक यह भी कारण हो सकता है कि अनुमान के प्रामाण्य को सभी दार्शनिकों ने स्वीकार किया है तथा अनुमान की प्रक्रिया में स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क का प्रयोग स्वीकार किया है अतः स्मृति आदि का अनुमान में अन्तर्भाव करने से जैनेतर दार्शनिकों से अनुमान चर्चा के सन्दर्भ में नैकट्य हो जाता है तथा अनेकान्त विचार-सरणी में इस प्रकार की प्रस्तुति युक्तिविहीन नहीं है। ___ उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट हो जाता है कि परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत अनुमान का अतिरिक्त वैशिष्ट्य है एवं उसका क्षेत्र भी व्यापक है / अनुमान न्यायशास्त्र का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। वात्स्यायनभाष्य में आन्वीक्षिकी का अर्थ न्यायविद्या किया है तथा प्रत्यक्ष और आगम के अनुकूल अनुमान को ही अन्वीक्षा कहते हैं / अतः प्रत्यक्ष और आगम दृष्ट वस्तु तत्त्व के युक्तायुक्त विचार का नाम अन्वीक्षा है और जिसमें वह होती है, उसे आन्वीक्षिकी कहते है अर्थात् न्यायविद्या / न्यायशास्त्र का आधारभूत तत्त्व अनुमान . ही है। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 / आर्हती-दृष्टि - अनु और मान इन दो शब्दों के योग से अनुमान शब्द निष्पन्न हुआ है। अनु अर्थात् पश्चात् मान अर्थात् ज्ञान / अनुमान में प्रयुक्त अनुपद प्रतियोगी की अपेक्षा रखता है / जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति से पूर्व अन्य ज्ञान की अपेक्षा रखता है। पूर्वज्ञान से यहां व्याप्तियुक्त पक्षधर्मता रूप एक विशिष्ट ज्ञान अभिप्रेत है / अतः इस विशिष्ट ज्ञान के पश्चात् होनेवाला ज्ञान अनुमान है / प्रत्यक्षपूर्वक होनेवाला ज्ञान अनुमान है। न्यायसूत्र में भी अनुमान को प्रत्यक्षपूर्वक स्वीकार किया है।" . . जैन-परम्परा में अनुमान का लक्षण सर्वप्रथम आचार्य सिद्धसेन ने किया। साध्य के अविनाभावी साधन से साध्य का निश्चयात्मक ज्ञान अनुमान है। अनुमान की इस परिभाषा का शब्दान्तर से उतरवर्ती सभी जैनतार्किकों ने अनुगमन किया है। जैनेतर दर्शनों मे अनुमान पर बहुत विचार हुआ है। न्याय-दर्शन में अनुमान की परिभाषा में अधिकांश रूप से अनुमान के कारण का निर्देश है ।उनसे अनुमान का स्वरूप किंरूप है, उसका अवबोध प्राप्त नहीं होता है। यथा—अक्षपाद का तत्पूर्वकम्, प्रशस्तपाद का लिङ्गदर्शनात् संजायमानं लैङ्गिगम् तथा उद्योतकर का लिंगपरामर्शोऽनुमानम् " आदि अनुमान के लक्षणों से अनुमान के स्वरूप की अवगति नहीं हो रही है / आचार्य अकलंक द्वारा प्रदत्त प्रमाण के लक्षण में अनुमान के कारण एवं स्वरूप दोनों का अवबोध प्राप्त हो जाता है। "लिंगज्ञान से साध्य का ज्ञान अनुमान है / आचार्य हेमचन्द्र ने साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहा है। 2. . ___आचार्य हेमचन्द्र ने अकलंक द्वारा प्रदत्त लिंगज्ञान इस विशेषण पर अनुमान प्रसंग में चिन्तन नहीं किया है। उन्होंने साधन ज्ञान से नहीं किन्तु साधन से साध्यज्ञान को ही अनुमान कहा जैसा कि दिङ्नाग के शिष्य शंकरस्वामी ने कहा है-'अनुमानं लिङ्गादर्थदर्शनम् 13, अनुमान के भेद अनुमान स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान के भेद से दो प्रकार का प्रज्ञप्त है।" अनुमान के मानसिक क्रम को स्वार्थानुमान तथा शाब्दिक-क्रम को परार्थानुमान कहा जाता है। स्वार्थानुमान में अनुमाता स्वयं अपने संशय की निवृत्ति करता है तथा परार्थानुमान में अन्य की संशय निवृत्ति हित वाक्य प्रयोग के द्वारा अनुमान की प्रक्रिया निष्पन्न करता है।५ आत्मगत ज्ञान स्वार्थ और वचनात्मक ज्ञान परार्थ होता है / वस्तुतः ज्ञान परार्थ नहीं होता / वचन में ज्ञान का आरोपण कर उसे परार्थ माना जाता है / उपचार से वचन को ज्ञान मानकर परार्थ कहा जाता है / वस्तुतः वचन ही परार्थ होता है / प्रमाण ज्ञानात्मक Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्ष प्रमाण की प्रामाणिकता / 369 होता है। और परार्थानुमान शब्दात्मक होता है / शब्दात्मक होने के कारण वह प्रमाण नहीं हो सकता / परार्थानुमान स्वार्थानुमान का कारण है। कारण को उपचार से कार्य मानकर परार्थानुमान को प्रमाण माना जाता है। ज्ञान के विषय में स्वार्थ और परार्थ की धारणा जैनों में प्राचीनकाल से है / किन्तु अनुमान के स्वार्थ और परार्थ ये दो प्रकार नैयायिक और बौद्ध-परम्परा से गृहीत हैं, ऐसा आचार्य महाप्रज्ञजी का मन्तव्य है।" अनुमान की व्यापकता प्रत्यक्ष प्रमाण सम्बद्ध एवं वर्तमानवी वस्तु का ही ग्राहक होता है / किन्तु अनुमान का क्षेत्र विशाल है। अनुमान सम्बद्ध असम्बद्ध, विप्रकट, सूक्ष्म, अतीन्द्रिय तथा भूत, भविष्य और वर्तमान सभी पदार्थों का बोध करने का सामर्थ्य रखता है, इसलिए यह प्रत्यक्ष पर आधारित होने पर भी उससे अधिक व्यापक है। अनुमान के अवयव ___ न्यायशास्त्र में अनुमान के पाँच अवयवों का उल्लेख प्राप्त होता है प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपनय एवं निगमन / जैन आचार्यों ने प्रत्येक विषय पर अनेकान्त दृष्टि से विचार किया है। अनुमान के अवयव प्रयोग के सन्दर्भ में अनेकान्त दृष्टि का प्रयोग स्पष्ट प्रतिभासित हो जाता है। प्राचीनकाल में दृष्टान्त का प्रयोग प्रचुरता से किया जाता था। प्रबुद्ध श्रोता के लिए हेतु का भी प्रयोग मान्य था। नियुक्तिकार भद्रबाहु ने लिखा है-जिनवचन स्वयंसिद्ध है, फिर भी उसे समझाने के लिए अपरिणत श्रोता के लिए उदाहरण का प्रयोग करना चाहिए। श्रोता के लिए हेतु का प्रयोग भी क्वचित् विहित है। ___नियुक्तिकार ने पांच तथा दस अवयवों के प्रयोग का निर्देश दिया है। आचार्य सिद्धसेन ने पक्ष, हेतु, दृष्टान्त–इन तीन अवयवों के प्रयोग की चर्चा की है। सामान्यतया प्रायः सभी तार्किकों ने स्वार्थानुमान में प्रतिज्ञा और हेतु तथा परार्थानुमान में उन दो के अतिरिक्त मन्दमति को व्युत्पन्न करने के लिए दृष्टान्त, उपनय और निगमन इन अवयवों के प्रयोग को स्वीकृत किया है / वादिदेव सूरी ने बौद्धों की भांति केवल हेतु के प्रयोग का समर्थन किया है। हेतु का स्वरुप ... बौद्धों ने हेतु को त्रैरूप्य माना है। पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व एवं विपक्षासत्व इन लक्षणों से युक्त ही हेतु ही अपने साध्य का साधक होता है। नैयायिकों ने हेतु का Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 / आर्हती-दृष्टि त्रैरूप्य तो स्वीकार किया है, कहीं-कहीं हेतु का पंचरूप्य का समर्थन भी किया है। जैन-तार्किकों ने हेतु के त्रैरूप्य का निरसन किया है। उन्होंने अन्यथानुपपत्ति या अविनाभाव को ही एकमात्र हेतु का लक्षण माना। स्वामी पात्रकेसरी ने त्रैरूप्य का निरसन कर अन्यथानुपपत्ति लक्षण हेतु का समर्थन किया। उनका प्रसिद्ध श्लोक है अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्। नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्॥ . . . ____ जहां अन्यथानुपपत्ति है, वहां हेतु का त्रैरुप्यलक्षण मानने से क्या लाभ? जहां . अन्यथा अनुपपत्ति नहीं है, वहां हेतु का त्रैरूप्य लक्षण मानने से क्या लाभ? जैन के अनुसार हेतु का अविनाभाव यह एक लक्षण ही अपने साध्य की सिद्धि करने में समर्थ है अतः हेतु को त्रैरूप्य अथवा पंचरूप्य मानने की आवश्यकता नहीं है। अविनाभाव ज्ञप्ति के उपाय ___अविनाभाव के लिए त्रैकालिक अनिवार्यता अपेक्षित है। अनिवार्यता की त्रैकालिकता का बोध हुए बिना अविनाभाव का नियम निर्धारित नहीं किया जा सकता। नैयायिक मानते हैं कि भूयो-दर्शन से अविनाभाव का बोध होता है। बार-बार दो वस्तुओं का साहचर्य देखते हैं, तब उस साहचर्य के आधार पर नियम का निर्धारण कर लेते हैं। नियम का आधार केवल साहचर्य ही नहीं होता, किन्तु व्यभिचार का अभाव भी होना चाहिए। इस प्रकार व्याप्ति ज्ञान के लिए दो विषयों का ज्ञान आवश्यक है—साहचर्य का ज्ञान तथा व्यभिचार ज्ञान का अभाव। धूम के साथ अग्नि का साहचर्य और धूम के साथ अग्नि का व्यभिचार कहीं भी प्राप्त नहीं है, अतः अव्यभिचारी साहचर्य सम्बन्ध से ही व्याप्ति का बोध होता है।" आचार्य महाप्रज्ञजी ने व्याप्ति निर्धारण की शर्त पर अपने मौलिक विचारों को प्रस्तुत करते हुए कहा—'अविनाभाव के नियम के साथ जुड़ी हुई त्रैकालिकता की शर्त अवश्य ही परीक्षा की कसौटी पर कसने योग्य है। अनुपलब्ध ज्ञान उपलब्ध ज्ञान से विशाल है / अविनाभाव का नियम उपलब्ध ज्ञान सापेक्ष ही होना चाहिए। जैन तार्किकों ने भी आविनाभाव के नियम का त्रैकालिक आधार माना है। पर निरन्तर विकासमान ज्ञान एवं अज्ञात से ज्ञात की ओर बढ़ते हुए मानवीय ज्ञान-विज्ञान के चरण यह सोचने को बाध्य करते हैं कि व्याप्ति के पीछे जुड़ा हुआ कालिकता का विशेषण निरपेक्ष नहीं है।" Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्ष प्रमाण की प्रामाणिकता / 371 'नया ज्ञान उपलब्ध होने पर नियम भी नए बन जाते हैं। इसलिए व्याप्ति की पृष्ठभूमि में त्रैकालिक बोध नहीं होता / द्वैकालिक फिर भी हो सकता है। भविष्य की बात भविष्य पर छोड़ देनी चाहिए / इन्द्रिय और मानसज्ञान की एक सीमा है। इसलिए उन पर हम एक सीमा तक ही विश्वास कर सकते हैं। कालिक-बोध अतीन्द्रिय ज्ञान का कार्य है और वह प्रत्यक्ष है, इसलिए वह अनुमान की सीमा से परे है।२२ __ आचार्य महाप्रज्ञजी का यह वक्तव्य तर्कसंगत ही प्रतीत होता है क्योंकि यदि त्रैकालिक ज्ञान किसी को हो जाए तो वह सर्वज्ञ ही हो जाता है / यद्यपि तार्किकों का मानना है कि व्याप्ति ग्रहणकाल में प्रमाता योगी जैसा हो जाता है।" तथापि उसका ज्ञान सीमित ही होगा। सर्वज्ञ जैसे त्रिकाल का ज्ञान करता है। वैसा त्रैकालिक ज्ञान व्याप्ति से सम्भव नहीं है / अतः व्याप्ति ग्रहण की त्रैकालिक शर्त सापेक्ष ही है। / यद्यपि यह यथार्थ है कि अनुमान प्रमाण के अभाव में हम व्यवहार जगत् के कार्य सम्पादन में भी समर्थ नहीं हो सकते / इन्द्रिय प्रत्यक्ष का क्षेत्र बहत सीमित है अतः अनुमान प्रमाण की अनिवार्य अपेक्षा है। इन्द्रिय ज्ञान की परिधि में आचार मीमांसीय, तत्त्व-मीमांसीय प्रश्न अनुत्तरित ही रहते हैं। उनके सम्यक समाधान के लिए परोक्ष प्रमाणान्तर्गत अनुमान प्रमाण के अस्तित्व की सहज स्वीकृति दर्शन जगत् में है। अनुमान पर आक्षेप भारतीय दर्शन में चार्वाक् के अलावा सभी दार्शनिकों ने अनुमान की प्रामाणिकता स्वीकार की है। चार्वाक् प्रत्यक्ष प्रमाण के अतिरिक्त किसी भी प्रमाण के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। इसी आधार पर दृश्य जगत् के अलावा अन्य किसी भी परोक्ष पदार्थ का अस्तित्व वे स्वीकार नहीं करते हैं। . .1. चार्वाक् का कहना है कि अनुमान प्रमाण का आधार व्याप्ति है एवं उसका निश्चय नहीं हो सकता। कोई व्यक्ति भूत, वर्तमान एवं भविष्य के उदाहरणों का निश्चय नहीं कर सकता है। व्याप्ति के निश्चित न होने पर अनुमान भी निश्चित नहीं होगा। 2. व्याप्ति या साहचर्य सम्बन्ध को नित्य तथा अनौपाधिक सम्बन्ध कहा जाता है। दो वस्तुओं में सम्बन्ध तभी हो सकता है, जब उनमें विपरीत " रूप न दिखलाई पड़े। धूम अग्नि अनौपाधिक सम्बन्ध नहीं है। धूम तभी निकलता है जब लकड़ी गीली हो, गर्म लोहे से धूम नहीं निकलता, गीली लकड़ी का होना उपाधि है। अतः धूम अग्नि का सम्बन्ध नित्य Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 / आर्हती-दृष्टि नहीं है। यदि दोनों का नित्य सम्बन्ध नहीं है। तो एक से दूसरे का अनुमान करना निश्चयात्मक नहीं हो सकता। 3. चार्वाक् का मन्तव्य है कि यदि अनुमान प्रमाण होता तो सब अनुमान फममेबलों का पिटाई एल दी निकलना चाहिए किन्तु सभी दार्शनिकों का अलग-अलग निष्कर्ष प्रमेय के क्षेत्र में प्रसिद्ध है। अतः अनुमान प्रमाण नहीं होता। 4. स्वर्ग-नरक आदि परोक्ष पदार्थों का अनुमान कैसे किया जा सकता है। अनुमान निश्चयात्मक नहीं होता, मात्र सम्भावना होता है। यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है कि कृषक सम्भावना के आधार पर ही कृषि-कार्य में प्रवृत्त होता है। कभी-कभी इसी सम्भावनात्मक ज्ञान को निश्चयात्मक मानकर मनुष्य कार्यों में प्रवृत्त होता है। ऐसी दशा में सम्भावनात्मक ज्ञान में ही निश्चयात्मकता का आरोप होता है। अतः प्रत्यक्ष ही निश्चयात्मक ज्ञान करवाने में समर्थ है। उसके अतिरिक्त अनुमान प्रमाण की यथार्थता ही नहीं हो सकती। आक्षेप परिहार चार्वाक् दर्शन को प्रत्यक्ष प्रमाणवादी कहा जाता है। उसकी ज्ञान-मीमांसा मात्र प्रत्यक्ष आधारित है। किन्तु उसे भी अनुमान प्रमाण को स्वीकार करना होगा। प्रमाण और अप्रमाण की व्यवस्था, स्वर्ग-नरक आदि पदार्थों के निषेध के लिए एवं अन्य पुरुष की बुद्धि के ज्ञान के लिए प्रत्यक्ष के अतिरिक्त प्रमाण को उन्हें स्वीकार करना ही होगा। चार्वाक् प्रत्यक्ष को प्रमाण एवं अन्य को अप्रमाण मानता है / इसका बोध प्रत्यक्ष से तो हो नहीं सकता क्योंकि वह सम्बद्ध वर्तमान का ही ग्राहक होता है / वह देशान्तर की सामर्थ्य नहीं रखता। - अनुमान प्रमाण के बिना चार्वाक् अपनी प्रतीति में अनुभूत प्रत्यक्ष का प्रामाण्य अन्य पुरुषों को प्रतिपादित भी नहीं कर सकते, क्योंकि अन्य पुरुषों की चित्तवृत्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा अवबोध ही नहीं हो सकता ।यदि कहा जाए कि चेष्टा विशेष के द्वारा उनकी विचारधारा का अवगम किया जा सकता है, ऐसा स्वीकार करने से कार्य द्वारा कारण का अनुमान ही स्वीकृत हो गया है। स्वर्ग, परलोक आदि अतीन्द्रिय पदार्थों की प्रत्यक्ष द्वारा उपलब्धि न हो सकने Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्ष प्रमाण की प्रामाणिकता / 373 के कारण जो प्रतिषेध किया जाता है / वह भी निषेध मुख से अनुपलब्धि हेतु से ही सम्पन्न होने से अनुमान ही है। प्रत्यक्ष द्वारा यह कार्य सम्पादित नहीं हो सकता, अतः अतीन्द्रिय पदार्थों के निषेध के लिए प्रमाणान्तर अनुमान की स्वीकृति अपरिहार्य है। प्रत्यक्ष निर्दोष ज्ञान का जनक होता है / अतः चार्वाक् उसे प्रमाण मानता है / इसी हेतु के आधार पर अनुमान को भी प्रमाण स्वीकार करने में उसे आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि अनुमान आदि प्रमाणों के द्वारा असंदिग्ध यथार्थज्ञान उत्पन्न होता है। ___ अनुमान कभी-कभी अयथार्थ होता है। यह स्थिति तो प्रत्यक्ष प्रमाण में भी है। वह भी कदाचित् अयथार्थ ज्ञान को पैदा करता है। यदि उसको प्रत्यक्षाभास कहा जाता है, जो अयथार्थ होता है, उसे अनुमानाभास ही कहा जाता है। अनुमान प्रमाण के अभाव में प्रत्यक्ष प्रमाण भी सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण की साधनभूत इन्द्रियां स्वयं अतीन्द्रिय है जो अपनी सिद्धि में अनुमान की अपेक्षा रखती है / यदि शरीर में स्थित उन-उन इन्द्रियों के स्थानों को ही इन्द्रियां मान ली जाए और अतीन्द्रिय कल्पना को स्वीकार नहीं किया जाए, तब भी उन स्थानात्मक इन्द्रियों की प्रमाणता भी अनुमान के बिना सिद्ध नहीं हो सकती / 25 . अनुमान का निराकरण करने के लिए भी अनुमान की ही आवश्यकता होती है। जैसे दर्शन के किसी सिद्धान्त का निराकरण अथवा स्वीकरण दार्शनिक सिद्धान्त के प्रस्तुतीकरण से ही हो सकता है। जैसा कि डॉ. सतकड़ी मुखर्जी ने कहा है : "Even the man, who decries philosophy and condemns its culture, can hope to make out his case by only having recourse to philosophy. The denunciation of philosophy itself result in the setting up of a rival philosophy. *". उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है चाहे या अनचाहे चार्वाक् को प्रत्यक्षके अतिरिक्त अन्य प्रमाण को स्वीकृत करना ही होगा। भले वह उसका नामकरण कुछ भी करे / .' चार्वाक् ने जो अनुमान के सन्दर्भ में आपत्तियां प्रस्तुत की हैं, उन पर भी भारतीय चिन्तकों ने विमर्श किया है। अनुमान का आधार व्याप्ति होता है। उसका ग्रहण अन्वय-व्यतिरेक हेतु रूप तर्क प्रमाण से हो जाता है / तर्क नियमों का अन्वेषण करती है / नियम निश्चित होते हैं / अतः उन नियमों के द्वारा व्याप्ति का ग्रहण निश्चित रूप से हो जाता है। कहीं नियम यदि मिथ्या होते हैं तो वहां अनुमानाभास.भी सम्भव है व्याप्ति ग्रहण, अनुमान ये सब परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत स्वीकृत है अतः परोक्ष की भी अपनी सीमाएं हैं, उन सीमाओं में ही व्याप्ति, अनुमान आदि की यथार्थता पर चिन्तन करना आवश्यक है। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 / आर्हती-दृष्टि . व्याप्ति कोई पारमार्थिक प्रत्यक्ष रूप केवलज्ञान नहीं है, जहां विसंवादन हो ही. नहीं अतः अनुमान को स्वीकार करनेवाले भी उसकी सामर्थ्य एवं योग्यता से परिचित हैं। अनुमान अत्यन्त व्यापक है। उससे यथार्थबोध होता है। अतः प्रमाण रूप से इसकी स्वीकृति अनिवार्य है। अनुमान ज्ञान सम्भावना भी नहीं है। सम्भावना से कदाचित् कोई प्रवृत्ति हो सकती है किन्तु वह समस्त कार्य-कलापों की आधार नहीं बन सकती / सम्भावना एक प्रकार का संशय ज्ञान है जबकि अनुमान निर्णयात्मक होता है। निश्चित ज्ञान संशय का विरोधी होता है / उदयनाचार्य ने इस प्रसंग पर विस्तार से चर्चा की है / 20 ____ अनुमान में साध्य एवं साधन के मध्य अनौपाधिक सम्बन्ध होना परमावश्यक है किन्तु चार्वाक् का मन्तव्य है कि सर्वथा उपाधिशून्य हेतुं मिलना दुष्कर है क्योंकि देशान्तर एवं कालान्तर में उसके उपाधियुक्त होने की सम्भावना सर्वदा बनी रहती है। आचार्य उदयन ने इसी हेतु से अनुमान को प्रस्थापित करते हुए संदेह रहने और न रहने दोनों अवस्थाओं में अनुमान यथार्थरूप से सम्पन्न हो सकता है। ___चार्वाक् ने कालान्तर तथा देशान्तर में उपाधि की सम्भावना से अनुमान दूषित बताया, यह तर्कसंगत नहीं है क्योंकि कालान्तर एवं देशान्तर प्रत्यक्षगम्य नहीं होने से उनके सद्भाव की सिद्धि नहीं होती, यदि दोनों का सद्भाव माना जाए तो उनके होने . का अनुमान किया जा सकता है। अतः चार्वाकों का सन्देह-उपाधि का होना अनुमान की यथार्थता की पूर्व-कल्पना है। __अनुमान को प्रमाण माननेवालों के सैद्धान्तिक निष्कर्ष भिन्न-भिन्न हैं, यह यथार्थ है। अविनाभाव के नियम-निर्धारण के आधार पर विषय में सबकी सम्मति होने पर भी उनके फलित समान नहीं है / इसका कारण यही प्रतीत होता है कि सूक्ष्म सत्यों के : विषय में सबके सिद्धान्त समान नहीं हैं / यह सैद्धान्तिक असमानता ही अविनाभाव . के नियमों में विभिन्नता लाती है। ___अनेकान्त दृष्टि से इस जिज्ञासा के समाधान में चिन्तन करने पर कुछ नए तथ्य सामने आते हैं। वस्तु अनन्त धर्मान्तक है। उसकी अवगति प्रमाण एवं नय के द्वारा होती है। प्रमाण से वस्तु का अखण्ड ज्ञान हो सकता है / वैसा प्रमाण सर्वज्ञ के हो सकता है। विभिन्न दार्शनिकों के निष्कर्ष की भिन्नता का आधार नय की प्रक्रिया है, जिसकी विचारधारा संग्रह नय के आधार पर अविनाभाव को ग्रहण करती है, उसे सम्पूर्ण विश्व में एकत्व दृष्टिगोचर होता है। जो विचारधारा पर्यायार्थिक का आश्रयण लेकर व्याप्ति को ग्रहण करती है। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्ष प्रमाण की प्रामाणिकता / 375 उसका निष्कर्ष क्षणिकवाद के रूप में उपलब्ध होता है। नैगमनय के आश्रयण से नैयायिक वैशेषिक सिद्धान्त का उद्भव होता है। अतः नयों की विभिन्नता से निष्कर्ष विभिन्न हैं / आचार्य सिद्धसेन ने इसे स्वीकार कर प्रस्तुत करते हुए कहा 'जावइया वयणपहा तावइया चेव होंति णयवाया।" ये नय परस्पर सापेक्ष होकर वस्तु के यथार्थ स्वरुप का प्रतिपादन करते हैं। निरपेक्ष होकर मिथ्या हो जाते हैं। निरपेक्ष नय के आधार पर निर्मित अनुमान अनुमानाभास होते हैं अतः उनको अनुमान स्वीकार करनेवाले भी यथार्थ नहीं मानते। स्वर्ग, परलोक आदि का निषेध करनेवाले चार्वाक् को अनुमान प्रमाण स्वीकार करना ही होगा। यह हम पहले ही कह चुके हैं तथा स्वर्ग आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के अवगम में आगम प्रमाण स्वीकृत है / आगम के द्वारा उनका बोध हो जाएगा। जैनाचार्य सिद्धसेन ने कहा है-हेतुपक्ष में आगम का एवं आगमपक्ष में हेतु का प्रयोग करनेवाला सिद्धान्त का सम्यक् व्याख्याता नहीं होता अपितु उसका विराधक होता है। अतः अनुमान प्रमाण माननेवाले अनुमान की सीमा से परिचित हैं अतः उसका उसी रूप में प्रयोग मान्य है। मैं आचार्य महाप्रज्ञजी के अभिमत से पूर्णतया सहमत हूं—'व्याप्ति और हेतु की सीमा का बोध न्यायशास्त्र के विद्यार्थी के लिए बहुत आवश्यक है। इस बोध के द्वारा हम अनिश्चय या सन्देह की कारा में बन्दी नहीं बनते किन्तु अवास्तविकता को वास्तविकता मानने के अभिनिवेश से मुक्त हो सकते हैं और नई उपलब्धियों के प्रति हमारी ग्रहणशीलता अबाधित रह सकती है। सन्दर्भ 1. 'प्रत्यक्षं परोक्षं च' प्रमाण मीमांसा 1/10 / 2. न प्रत्यक्षादन्यप्रमाणमिति लौकायतिकाः प्रमाण मीमांसा 1/10 / 3. विशदः प्रत्यक्षम् प्रमाण मीमांसा 1/13 / 4. इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवग्रहेहावायधारणात्मा सांव्यवहारिकम। प्रमाण मीमांसा 1/20 / 5. तच्च द्विविधमनुमनमागमश्चेति। अनुमानमपि द्विविधं गौणमुख्यवि कल्पात् / तत्र गौणमनुमानं त्रिविधं स्मरणं प्रत्यभिज्ञा तर्कश्चेति / तस्य चानुमानत्वं यथापूर्वमुत्तरोत्तरहेतुतयाऽनुमाननिबन्धनत्वात्।। प्रमाण निर्णय (पृ. 33) / Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 / आर्हती-दृष्टि 6. प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमानं साऽन्वीक्षा / प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा तया प्रवर्तत इत्यान्वीक्षिकी-न्यायविद्या-न्यायशास्त्रम् वात्स्यायन भाष्य 1/1/1 7. 'तत्पूर्वकम्' न्यायसूत्र 1/1/5 8. साध्यविनाभुवो लिङ्गात् साध्यनिश्चायकं स्मृतम् / अनुमान तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् सपक्षवत् // न्यायावतार श्लोक 5 9. प्रशस्तपादभाष्य सूत्र / 10. न्यायकिरणावली। 11. लिङ्गात्साध्याविनाभावाभिनिबोधैकलक्षणात् / लिङ्गिधीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः // लघीयस्त्रयी कारिका. 12 12. साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम्। प्रमाण मीमांसा 1/2/7 13. 'अनुमानं लिङ्गादर्थदर्शनम्'. जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 258 14. तत् द्विधा स्वार्थ परार्थ च। . प्रमाण मीमांसा 1/2/8 . 15. स्वव्यामोहनिवर्तनक्षम स्वार्थम्, परमोहनिवर्तनक्षम परार्थम्। प्रमाण मीमांसा 1/2/8 16. जैन न्याय का विकास पृ. 104 17. सम्बद्धं वर्तमान च गृह्यते चक्षुरादिना। -- श्लोकवार्तिक सूत्र 4 श्लोक 84 18. जिणवयणं सिद्धं चेव भण्णए कत्थई उदाहरणं, . आसज्ज उ सोयारं हेऊऽवि कहिंचि भण्णेज्जा। दशवैकालिक नियुक्ति गाथा 49 19. कत्थइ पंचावयवं दसहा वा सव्वहा न पडिसिद्धं / न च पुण सव्वं भण्णइ हंदी सविआरमक्खायं // दशवैकालिक नियुक्ति गाथा 50 20. जैन न्याय का विकास पृ. 115 21. जैन न्याय का विकास पृ. 116 22. वही. पृ. 119 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्ष प्रमाण की प्रामाणिकता / 377 23. व्याप्तिग्रहणकाले योगीव प्रमाता सम्पद्यते' 'प्रमाण मीमांसा 2/1/5 24. व्यवस्थान्यधीनिषेधानां सिद्धेः प्रत्यक्षतरप्रमाणसिद्धिः। प्रमाण मीमांसा 1/11 25. भारतीय दर्शन में अनुमान पृ. 38 (भूमिका) 26. The Jain philosophy of non-absolutism. 27. प्रमाण संग्रह 2/10. 28. प्रमाणनयैरधिगमः। तत्त्वार्थसूत्र 1/6 29. सन्मति तर्क प्रकरण 3/46 30. आप्तमीमांसा। श्लोक, 108 31. जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ आगमे य आगमिओ। सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविराहओ अण्णो // सन्मतितर्कप्रकरण 3/44 32. जैन न्याय का विकास पृ. 119 / 000 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची लेखक/सम्पादक ग्रन्थ प्रकाशक 1. अनुयोगद्वार आचार्यश्री तुलसी जैन विश्व भारती, लाडनूं . (नवसुत्ताणि) युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ (राजस्थान) 2. अन्ययोगव्यवच्छेदिका आचार्य हेमचन्द्र जैन विश्व भारती प्रकाशन, (मंगलवाणी) / लाडनूं (राज.) सन् 1990 3. अभिधान राजेन्द्रकोश श्रीमद् विजय राजेन्द्र अभिधान राजेन्द्र कार्यालय : सूरीश्वर रतलाम 4. आगमयुग का पं. दलसुख मालवणिया प्राकृत भारती अकादमी जैन-दर्शन जयपुर, द्वि. संस्करण 1990 5. आचारांग भाष्य आचार्य महाप्रज्ञ' जैन विश्व भारती लाडनूं (राज)". 6. आप्तमीमांसा प्रो. उदयचन्द्र जैन श्री गणेशवर्णी दिगम्बर जैन तत्वदीपिका संस्थान, नरिया, वाराणसी 7. आयारो आचार्यश्री तुलसी जैन विश्व भारती लाडनूं युवाचार्य महाप्रज्ञ (राजस्थान) 8. ईशउव्वट्कृतभाष्य उव्वट . मधुकर प्रकाशन, बाघम्बरी * हाउसिंग स्कीम अल्लापुर, प्रयाग -6, 1986 9. ईशावास्योपनिषद् शांकरभाष्य . गीताप्रेस, गोरखपुर, 10. उपनिषद् वाक्यकोश जी.ए. जैकब पल्लव प्रकाशन दिल्ली-१९८८ 11. ऋग्वेद संहिता भाष्य N.S. Sanatakka, Secretary Vaidika Samsathana Mandal Tilak Memorial Poona-2 12. एकार्थककोश सा. सिद्धप्रज्ञा जैन विश्व भारती लाडनूं सा. निर्वाणश्री (राजस्थान) 13. कठोपनिषद् पाण्डेय डॉ. बैजनाथ मोतीलाल बनारसीदास . शांकरभाष्य दिल्ली-१९८९ 14. काठकोपनिषद् आनन्दाश्रम संस्था पूणे सन् 1977 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 379 . ग्रन्थ .. लेखक/सम्पादक प्रकाशक 15. गोम्मटसार नेमिचन्द्र सिद्धान्त जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, जीवकाण्ड चक्रवर्ती कलकत्ता 16. छान्दोग्योपनिषद् गीताप्रेस, गोरखपुर वि.सं. 2023 17. जैन-धर्म-दर्शन डॉ. मोहनलाल मेहता पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी-५ सन् 1973 18. जैन-दर्शन मनन मुनि नथमल आदर्श साहित्यसंघ, चुरू और मीमांसा सम्पा. मुनि दुलहराज सन् 1973 19. जैन-न्याय का ले. मुनि नथमल जैन विद्या अनुशीलन-केन्द्र - विकास सम्पा. मुनि दुलहराज राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर 1978 20. जैन साहित्य का पं. बेचरदास दोशी पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसंस्थान, वृहद् इतिहास भाग-I, II जैनाश्रम हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी-५ 1967 21. जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश जिनेन्द्रवर्णी भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन : भाग 1 से 4 . नई दिल्ली द्वि संस्क. 1985 22. ज्ञानबिन्दु प्रकरण ' यशोविजयजी अंधेरी गुजराती जैन-संघ ___ मुंबई-५६ 23. ठाणं आचार्य तुलसी जैन विश्व भारती लाडनूं संपा. मुनि नथमल (राज) वि.सं. 2033 24. तत्त्वार्थ सूत्र विवे. पं सुखलाल संघवी पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संपा-डॉ. मोहनलाल मेहता संस्था, वाराणसी, 1976 25. तत्त्व संग्रह आ शांतरक्षित Bauddha Bharti Varanasi, 1982 26. तत्त्वार्थ राजवार्तिक आ अकंलक भट्ट भारतीय ज्ञानपीठ दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस सन् 1957 . जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) 27. तुलसी प्रज्ञा Vol-IV अंक 7-8 फरवरी-मार्च Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 / आर्हती-दृष्टि - ग्रन्थ लेखक/सम्पादक प्रकाशक 28. तैत्तरीयोपनिषद् नवलकिशोर प्रेस . लखनऊ, सन् 1924 29. दशवैकालिक आचार्य तुलसी जैन विश्व भारती लाडनूं संपा. मुनि नथमल (राजस्थान) . 30. दर्शन और चिन्तन पं. सुखलाल संघवी पंडित सुखलालजी सन्मानभद्र समिति, गुजरात विधानसभा,. . अहमदाबाद 31. धवला पुस्तक अमरावती प्रकाशन 32. नन्दीसूत्र आचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) 33. नन्दीसूत्र सहचूणी मुनि पुण्यविजयजी प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी - अहमदाबाद-१ 34. नियमसार आ कुन्दकुन्द * दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर, . मेरठ 1985 35. न्याय दर्शन गौतम गोविन्दराम हासानन्द 4408, नई सड़क, दिल्ली-६ सन् 1991 36. न्यायावतार परमश्रुत प्रभावक मण्डल, 1976 श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास 37. न्यायावतार मालवणिय पं. दलसुख सिन्धी जैनशास्त्र शिक्षापीठ वार्तिकवृत्ति भारतीय विद्याभवन, बंबई सन् 1949 38. पंचास्तिकाय आ. कुन्दकुन्द परमश्रुत प्रभावक मण्डल __ आगास, गुजरात / ३९.पातञ्जल योगदर्शन मोतीलाल बनारसीदास भाष्य दिल्ली 1987 40. प्रमाण मीमांसा आ हेमचन्द्र सुखलाल पण्डित, सरस्वती पुस्तक भण्डार, अहमदाबाद Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 381 अन्य लेखक/सम्पादक प्रकाशक 41. प्रमाणवार्तिक धर्मकीर्ति बौद्धभारती, वाराणसी 42. प्रशस्तपादभाष्य Director Research Institute Sampurnanand Sanskari Vishvavidyalaya Varanasi-1977 43. ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य चौखम्बा विद्याभवन 1988 44. बौद्ध-दर्शन मीमांसा नरेन्द्रदेव चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी 1989 45. भगवई (अंगसुत्ताणि) आचार्य तुलसी जैन विश्व भारती, लाडनूं भाग-II युवाचार्य महाप्रज्ञ _ (राजस्थान) 46. भगवद्गीता - गीताप्रेस, गोरखपुर 47. भिक्षु न्याय कर्णिका आचार्यश्री तुलसी आदर्श साहित्य संघ, चुरू (राज) 48. मनन और मूल्यांकन युवाचार्य महाप्रज्ञ आदर्श साहित्य संघ, चुरू (राज) 49. मध्यमक वृत्ति St-Petersboury, 1913 50. मीमांसा दर्शन * आनन्दाश्रम संस्था, पूणे, 1976 51. मीमांसाश्लोक दुर्गाधर झा कामेश्वर सिंह दरभंगा वार्तिक - संस्कृत विश्वविद्यालय, . दरभंगा 1979 52. रायपसेणियं . वाप्र आचार्य तुलसी जैन विश्व भारती, लाडनूं (उवंगसुत्ताणि) संपा युवाचार्य महाप्रज्ञ (राजस्थान) 53. विशेषावश्यकभाष्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण दिव्यदर्शन ट्रस्ट 58 गुलालबाड़ी, मुम्बई 54. वेदान्त ज्ञानमीमांसा घनश्यामदास रतनमल मध्यप्रदेश हिन्दी-ग्रन्थ मलकानी अकादमी 97 मालवीय नगर, . भोपाल 55. श्लोकवार्तिक शास्त्री द्वारिकादास तारा पब्लिकेशन्स, वाराणसी 1978 . 56. सन्मति तर्क प्रकरण सिद्धसेन दिवाकर पं. सुखलालजी, पं. बेचरदास ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद 1963 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 / आर्हती-दृष्टि . ग्रन्थ लेखक/सम्पादक प्रकाशक 57. समयसार आ. कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, मेरठ 1990 58, समवायांग आ. श्रीतुलसी जैन विश्व भारती, लाडनूं . आचार्य महाप्रज्ञ _ (राजस्थान) 59. सर्वदर्शन-संग्रह डॉ. उमाशंकर शर्मा चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी द्वि.सं. 1978 60. सर्वार्थसिद्धि पूज्यपाद देवनन्दि भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली 61. सांख्यकारिका चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, वाराणसी 1990 62. स्याद्वादमंजरी आ मल्लिषेण . परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, आगास 63. स्वरूप सम्बोधन आ. अकंलक जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) 64. Advanced Studies Sangwi Sukhlalji Indian Studies : Past and.. in Indian Logic and - Present-3, Calcutta-20, 1960 Metaphysics 65. Illuminator of Jain Acharya Tulsi Jain Vishva Bharti Ladny, Tenets (Rajsthan) 66. Jain Theories: YJ. Padmarajiah Jain Sahitya Vikas Mandal Reality and ___112 Ghodbunder Road, Knowledge Bombay, 1963. 67. Studies in Jain Dr. Nathmal Tatia Philosophy 68. The Jain Philosophy Mookrjee dr. of Non-Absolutism Satakari P.V. Research Institute Varanasi-5, 1951. Motilal Banarsidas ____Delhi 1978 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहती-दृष्टि