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________________ 332 श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित : उत्पत्ति एवं विकास मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान इन दोनों ज्ञानों में शब्द संयोजना है। इस शब्द संयोजना की समानता के कारण मति और श्रुत की भिन्नता का बोध अस्पष्ट हो जाता है / शब्द संयोग के कारण मति में भी श्रुत बुद्धि पैदा हो जाती है। इसके समाधानस्वरूप श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित का विभाग सामने आया। . समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि शब्द से युक्त हो जाने मात्र से कोई ज्ञान श्रुत नहीं हो जाता वह श्रुत तभी बनता है जब पद एवं पदार्थ के प्रतिसन्धान के द्वारा ज्ञान पैदा होता है / मतिज्ञान सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष है / इसके दो भेद किए गएश्रुतनिश्रित तथा अश्रुतनिश्रित। _ ऐतिहासिक दृष्टि से अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि ये दोनों भेद प्राचीन नहीं हैं / इनका उल्लेख अनुयोगद्वार तथा आवश्यक नियुक्ति में नहीं है। मतिज्ञान के अवग्रह आदि भेदों का निरूपण तथा उसके भी बहु क्षिप्र इत्यादि भेद श्वेताम्बर एवं दिगम्बर साहित्य में समान रूप से उपलब्ध होते हैं। जबकि श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित का उल्लेख मात्र श्वेताम्बरीय साहित्य में ही देखने को मिलता है। श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी इनका उल्लेक सर्वप्रथम नन्दीसूत्र में उपलब्ध होता है। वाचक के तत्त्वार्थ सत्र में इनका उल्लेख नहीं है। तत्त्वार्थ के उत्तरवर्ती साहित्य विशेषावश्यक में इनका वर्णन प्राप्त है। स्थानाङ्ग में भी इनकी चर्चा है / अवग्रहादि चार श्रुतनिश्रित मति के भेद हैं तथा औत्पत्तिकी आदि बुद्धि का समावेश अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान में है। यद्यपि स्वयं नन्दीकारक ने मतिज्ञान के श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित ये दो भेद किए हैं। फिर भी मतिज्ञान को 28 भेदवाला ही सूचित किया है। इससे यह प्रकट होता है कि औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों को मति में समाविष्ट करने के लिए मति के दो भेद किए पर प्राचीन परम्परा में मति में उनका स्थान न होने से नन्दीकार ने मतिज्ञान के 28 भेद ही किए हैं। अन्यथा चार बुद्धियों को मिलाने से तो मति के 32 भेद हो जाने चाहिए थे। आचार्य यशोविजयजी ने अपनी पूर्ववर्ती सम्पूर्ण परम्पराओं का सार ज्ञानबिन्द में स्थापित करने का प्रशस्य प्रयत्न किया है। इसी कारण श्रुतनिश्रित एवं अश्रुनिश्रित का उल्लेख ज्ञानबिन्दु में उपलब्ध है / अब एक प्रश्न उपस्थित होता है कि ये दो भेद
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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