________________ इन्द्रिय-प्रत्यक्ष प्रक्रिया : जैन एवं बौद्ध परम्परा/ 331 अवच्छेद करना वोट्ठपन है / यह चित्त व्यवस्थापन कर लेता है / इसका समय भी एक क्षण का है। इसके पश्चात् जवनचित्त होता है / जवन बड़े वेग से दौड़ता है। जवन का ‘कृत्य' आलम्बन का अनुभव करना है। यह सात क्षणवाला माना गया है। इन दोनों की तुलना अवाय से की जा सकती है। ____ अवाय में वस्तु का निश्चय हो जाता है / अवाय आन्तमौहूर्तिक है तथा जवन भी सात क्षणवाला है / वोट्ठपन में क्रियाचित्त है, इसमें क्लेश नहीं होता किन्तु जवनबीज एवं क्रियाचित्त दोनों है / कुशल-अकुशल चित्त जवन में ही होता है / जवन में ही बन्ध हो सकता है / जवन में वीतराग के क्रियाचित्त एवं छदस्थ के बीज चित्त होता है। जैन-परम्परा में दृष्टिपात करें तो इस प्रकार का उल्लेख प्राप्त नहीं है यद्यपि उमास्वाति ने बीजबन्धन एवं फलबन्धन इन दो बन्धों का उल्लेख किया है। ____घाती कर्म बीजबन्धन है, अघाती कर्म फलबन्धन है / बन्ध अवाय में होता है। ऐसा स्वीकार करने में जैन को भी शायद कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि ईहा आदि की स्थिति में सम्पूर्ण निश्चयात्मकता नहीं होती। निश्चयात्मकता अवाय में होती है, अतः बन्ध भी वहीं होना चाहिए। तदालम्बन चित्त संक्रमणकाल है। धारणा को अभिव्यञ्जित करनेवाला शब्द बौद्ध-परम्परा में नहीं है किन्तु जवन एवं तदालम्बन के संस्कार भवङ्ग चित्त में रहते हैं वह स्थिति धारणा की है। पण्डित सुखलालजी संघवी ने धारणा की तुलना जवनचित्त से की है परन्तु डॉ. नथमल टाटिया के अनुसार जवन अवाय रूप है। - जैन-परम्परा में अवग्रह आदि के स्वरूप को समझाने के लिए मल्लक, प्रतिबोधक आदि के दृष्टान्त दिए गए हैं। वैसे ही बौद्ध-परम्परा में भी चित्तवीथि को समझाने के लिए आम्रफल, इक्षुनाड़ी यन्त्र आदि उदाहरणों का उल्लेख है / जैन-परम्परा अवग्रह आदि को क्रमशः मानती है। उनमें व्युत्क्रम नहीं हो सकता अर्थात् अवग्रह से पहले ईहा या ईहा से पहले अवाय नहीं हो सकता, वैसे ही बौद्ध-परम्परा में भी इन चित्तों का उत्पाद क्रमशः ही होता है, इनमें परस्पर व्युत्क्रम नहीं होता।