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________________ 330 / आहती-दृष्टि उपयोग है, इसमें किसी भी प्रकार का भ्रम नहीं हो सकता। भ्रम ज्ञान में हो सकता है, दर्शन में नहीं होता। पञ्चद्वारावजजनचित्त के विरुद्ध होने पर उसी रूपालम्बन को देखता हुआ चक्षुर्विज्ञानचित्त पैदा होत है / जैन सम्मत व्यञ्चनावग्रह से इसकी समानता है / इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध के द्वारा शब्दादि विषयों का अव्यक्त परिच्छेद व्यञ्जनावग्रह कहलाता है। इसमें ज्ञानमात्रा अव्यक्त रहती है, अतः स्पष्ट प्रतिभासित नहीं होती परन्तु इसके कार्य अर्थावग्रह या ईहा को देखकर इसकी ज्ञानमात्रा का अनुभव होता है / बौद्ध परम्परा में चक्षुर्विज्ञान का एक समय है किन्तु जैन-परम्परा व्यञ्जनावग्रह को आन्तर्मोहूर्तिक स्वीकार करती है अतः इन दोनों परम्पराओं में चक्षुर्विज्ञान एवं व्यञ्जनावग्रह में विषय की समानता होने पर भी कालकृत भेद भी है। .. सम्पटिच्छन्न की तुलना अर्थावग्रह से की जा सकती है / सम्पटिच्छन्न चक्षुर्विज्ञान के द्वारा विज्ञान आलम्बन का ही सम्यक् ग्रहण करता है / अर्थावग्रह भी व्यञ्जनावग्रह गृहीत विषय को ही ग्रहण करता है / अर्थावग्रह व्यञ्जनावग्रह की अपेक्षा कुछ व्यक्त होता है किन्तु इसमें जाति, गुण, द्रव्य आदि की कल्पना नहीं होती। 'इदं किञ्चिादस्ति' यह प्रतिभास इसमें होता है। अर्थावग्रह के स्वरूप के सम्बन्ध में जैन-दार्शनिकों के भी भिन्न-भिन्न विचार हैं, जिनका विमर्श अन्यत्र वाञ्छित है। अर्थावग्रह एकसामयिक है तथा सम्पटिच्छन्नभी एकक्षण वाला है / सम्पटिच्छन्न में पूर्वानुभूत संस्कार आ जाते हैं अतः यह विपाकचित्त होता है। विपाक स्वयं शुभ, अशुभ नहीं होता किन्तु यह शुभ, अशुभ का विपाक होता है। सन्तीरण चित्त की समानता ईहा से है। सम्पटिच्छन्न के द्वारा गृहीत आलम्बन का सम्यक् विचार ऊहापोह अर्थात् तुलना या मीमांसा सन्तीरण चित्त का कृत्य है। जैसे, भोज्य पदार्थों को देखकर यह खाने योग्य है या नहीं है, उसके लाभ, हानि, गुण और दोष की मीमांसा करता है, ठीक वैसे ही ईहा भी अवग्रह-गृहीत विषय में ऊहापोह करती है / सद्भूत का उपादान, असद्भूत का त्याग ईहा की मीमांसा से ही होता है। ईहा सत्य तक पहुँचने का उपक्रम करती है / सन्तीरण एवं ईहा में कालकृत भेद है / जैन ईहा को आन्तमौहूर्तिकी मानता है जबकि बौद्ध-परम्परा में सन्तीरण एकसामयिक है। सन्तीरण का कार्य मीमांसा करना है / मीमांसा एक क्षण में नहीं हो सकती, अतः सन्तीरण को एक सामयिक मानने से विरोध उपस्थित होता है। सन्तीरण के पश्चात् वोट्ठपनचित्त होता है / सन्तीरण के द्वारा मीमांसा के अनन्तर 'यह आलम्बन इष्ट है', अथवा 'यह आलम्बन अनिष्ट है' इस प्रकार प्रथक-पृथक
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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