________________ इन्द्रिय-प्रत्यक्ष प्रक्रिया : जैन एवं बौद्ध परम्परा/ 329 के लिए प्रतिसन्धिचित्त के द्वारा प्रतिसन्धान कृत्य पर दिए जाने पर स्वसदृश विपाक निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं। भव के निरन्तर प्रवाह के लिए प्रतिसन्धि के अनन्तर प्रतिसन्धि सदृश विपाक सन्तति का उत्पाद होता रहता है। संसार की अविच्छिन्न प्रवृत्ति के हेतुभूत चित्त को भवङ्ग कहते हैं। जैन परम्परा में उसे पर्यायात्मा कह सकते हैं। भवङ्गचित्त का उत्पाद तब तक रहता है जब तक कर्म अवशिष्ट रहते हैं। __भवङ्गचित्त अपने पूर्वभव में प्राप्त आलम्बन को लिए हुए चलता रहता है / अच्छे कर्म किए हैं तो विमान का और बुरे कर्म किए हैं तो अग्नि का आलम्बन उसे मिल जाता है / जब अभिनव आलम्बन अवभासित होता है तब पूर्व विद्यमान भवङ्ग सन्तति एकाएक विच्छिन्न होने में असमर्थ होती है अतः पूर्वगृहीत आलम्बन में ही दो बार भवङ्ग चलन होने के पश्चात् भवङ्ग सन्तति का विच्छेद हो जाता है, जैसे वेग से दौड़नेवाला पुरुष लक्ष्य को प्राप्त कर लेने पर भी एकाक रुक नहीं सकता, एक दो कदम आगे दौड़ता है वैसे ही दो बार भवङ्ग चलन होने से पूर्व भवङ्ग सन्तति के प्रवाह का विच्छेद होता है . यथा वेगेन धावतो ठातुकामो न तिट्ठति / एवं द्विक्खत्तुं भवङ्गं उप्पज्जित्वा व छिज्जति // अतीत भवङ्ग का एक क्षण एवं भवङ्ग चलन एवं भवङ्गोपच्छेद का भी क्रमशः एक-एक क्षण है। चित्त-क्षण के अतीत होने पर पाँच आलम्बन पाँच द्वारों में अभिनिपात अर्थात् गोचरभाव को प्राप्त होते हैं। जिसका एक चित्त-क्षण अतीत हो गया है ऐसा रूपालम्बन यदि चक्षुः प्रासाद में प्रादुर्भाव को प्राप्त होता है तो दो बार भवङ्ग के चलित होने पर भंवङ्ग स्रोत को विच्छिन्न करके उसी रूपालम्बन का आवर्जन करते हुए पञ्चद्वारावज्जनचित्त उत्पन्न होता है। यह पञ्चद्वारावज्जनचित्त भवङ्ग सन्तति के पूर्व गृहीत आलम्बन का विच्छेद करके चित्त सन्तति को उस नवीन आलम्बन के अभिमुख करता है। पञ्चद्वारावज्जनचित्त की तुलना जैन-दर्शन में ज्ञान प्रक्रिया के अन्तर्गत आगत दर्शन से की जा सकती है। बौद्ध-दर्शन में तीन प्रकार के चित्त का उल्लेख है-क्रियाचित्त, विपाकचित्त एवं बीजचित्त। यह पञ्चद्वारावज्जन शुद्ध क्रियाचित्त है, इसमें किसी भी प्रकार का भ्रम नहीं हो सकता। इसी प्रकार दर्शन भी निर्विशेषित सामान्य का ग्रहण है, यह अनाकार