________________ 328 इन्द्रिय-प्रत्यक्ष प्रक्रिया : जैन एवं बौद्ध परम्परा दार्शनिकों ने अनेक तत्त्वों पर चिन्तन किया है तथा अपनी सूक्ष्म मेघा के द्वारा सत्य को प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया है / दार्शनिक चाहे वे किसी धर्म और दर्शन से सम्बन्धित हों, फिर भी वस्त-तथ्य को जांचने-परखने का उनका अपना एक स्वतन्त्र मापदण्ड होता है / अनेक तथ्यों के साथ उनका आपसी विचार-भेद होने पर भी बहुत-से ऐसे स्थल हैं जहां उनकी सोच, विचारधारा एक बिन्दु पर आकर परस्पर मिलती हुई-सी प्रतीत होती है। ___फलस्वरूप विभिन्न दर्शनों में भी कई स्थलों पर संज्ञान्तर से अमुक विषय पर मतैक्य उपलब्ध है / प्रस्तुत निबन्ध में हम इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया के सम्बन्ध में विचार कर रहे हैं। इन्द्रिय-प्रत्यक्ष की प्रक्रिया के सम्बन्ध में विभिन्न भारतीय दर्शनों में नामान्तर होने पर भी विचार-भेद नहीं है। न्याय-वैशेषिक आदि वैदिक दर्शन तथा जैन, बौद्ध दर्शन यही मानते हैं कि जहाँ इन्द्रियजन्य एवं मनोजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वहां सबसे पहले विषय और इन्द्रिय का सम्बन्ध होता है। तदनन्तर निर्विकल्पक एवं सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया का यह सामान्य क्रम सभी दार्शनिकों को मान्य है। जैन और बौद्ध ये दोनों श्रमण-परम्पराएं हैं। अनेक स्थलों पर परस्पर विचारभेद होने पर भी कई स्थलों पर समानता भी परिलक्षित होती है। प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया के सन्दर्भ में दोनों परम्पराओं में विचार करने पर नामान्तर से मतैक्य प्राप्त है। उन विचारों की तुलना करना प्रस्तुत निबन्ध का उद्देश्य है / यद्यपि पृथक् दो धाराओं के विचारों की तुलना करना निस्सन्देह कठिन कार्य है किन्तु ऐसा कहकर, उसे टाला भी नहीं जा सकता / अत्यन्त सावधानी से उस समानता का उल्लेख करना दोनों ही धाराओं से ज्ञान-प्राप्ति का विनम्र उपक्रम होगा। - बौद्ध परम्परा में प्रतिसन्धि, भवङ्ग, आवर्जन, दर्शन, श्रवण, घ्राण, आस्वादन, स्पर्शन, सम्पटिच्छन्न, सन्तीरण, वोट्ठपन, जवन, तदालम्बन एवं च्यूति ये चौदह प्रकार के कृत्य बतलाए गए हैं। बौद्ध-दर्शन चित्त को मानता है, चित्त आलम्बन के बिना नहीं रह सकता है। कर्मों के अनुसार अतीत भव के निरुद्ध हो जाने पर नवीन भव के उत्पाद