________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान की भेदरेखा / 327 7. मतिज्ञान स्वप्रत्यायक ही होता है, श्रुतज्ञान स्व-पर अवबोधक होता है। __ जो सम्मुख आए हुए को जानता है वह आभिनिबोधिक ज्ञान है। जो सुनता है वह श्रुतज्ञान है / वक्ता एवं श्रोता का जो श्रुतानुसारी ज्ञान है, वह श्रतज्ञान है तथा उनका श्रृतातीत ज्ञान मतिज्ञान है। श्रुतज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय लब्धि रूप ही होता है, किन्तु सारी श्रोत्रोपलब्धि श्रुतज्ञान नहीं होती है, वह मति भी होती है। मतिज्ञान वार्तमानिक है जबकि श्रुत त्रैकालिक है / इस प्रकार मति और श्रुत में परस्पर भेदाभेद है। मति एवं श्रुत की इस प्रकार की भेदरेखा का प्रयत्न आगममूलक तार्किक विचारधारा का परिणाम है। शुद्ध तार्किक दृष्टि ___मति-श्रुत के बारे में तीसरी दृष्टि के जनक सिद्धसेन दिवाकर हैं। उन्होंने मति एवं श्रुत के भेद को ही अमान्य किया है। उनके अनुसार श्रुतज्ञान, मतिज्ञान के ही अन्तर्गत है, जिस प्रकार स्मृति आदि मति के अन्तर्गत है। उनका कहना है कि श्रुतज्ञान को मतिज्ञान से पृथक् मानने पर कल्पना गौरव होता है / अर्थात् जब श्रुतज्ञान का जो कार्य बताया गया है वह मतिज्ञान के द्वारा ही सम्पादित हो जाता है ।तब श्रुतज्ञान को मति से पृथक स्वीकार करके कल्पना गौरव क्यों किया जाए? मति और श्रुत में अभेद है। इनको पृथक् मानने से वैयर्थ्यता एवं अतिप्रसंग ये दो दोष उपस्थित होते हैं-'वैयर्थ्यातिप्रसंगाभ्यां न मत्यभ्यधिकं श्रुतम्।' यह सिद्धसेन दिवाकर की शुद्ध तार्किक परम्परा है, जिन्होंने दोनों के भेद को ही अमान्य कर दिया है। उपर्युक्त सारी परम्पराओं का उल्लेख आचार्य यशोविजयजी ने ज्ञानबिन्दु नामक ग्रन्थ में सूक्ष्म दृष्टि से किया है। सन्दर्भ 1. श्रुतानुसारित्वं धारणात्मकपदपदार्थसम्बन्धप्रतिसंघानजन्यज्ञानत्वम् / ज्ञानबिन्दु पृ.६ 2. विशेषा. भा, गा. 100 की टीका। 3. Studies in Jain Philosophy, p. 55. . 4. विशेषा. भा, गा. 98. 5. विशेषा. भा, गा. 121.