SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 272 / आर्हती-दृष्टि है, अभ्यास और विचार से जो विस्तृत बनती है और जिससे प्रशंसा प्राप्त होती हैं वह कर्मजा बुद्धि कहलाती है। पारिणामिकी ___ परिणामजनिता पारिणामिकी अवस्था बढ़ने के साथ-साथ जो नाना प्रकार के अनुभव होते हैं, उनसे उत्पन्न होनेवाली बुद्धि पारिणामिकी कहलाती है। अनुमान, हेतु-दृष्टान्त से कार्य को सिद्ध करनेवाली, आयु के परिपक्व होने से पुष्ट, लोक.हितकारी तथा मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाली बुद्धि पारिणामिकी है। इन चारों का सामान्य तत्त्व एक ही है कि ये श्रुत से प्राप्त नहीं होतीं / स्वतः स्फूर्त, सेंवा, विनय, अभ्यास तथा वयपरिणति से क्रमशः प्राप्त होती हैं / मति के स्मृति आदि भेद ____मति के दो साधन हैं—इन्द्रिय और मन / मन द्विविध धर्मा है—अवग्रह आदि धर्मवान् / इस स्थिति में मति दो भागों में बंट जाती है—संव्यवहार-प्रत्यक्ष मति और परोक्ष मति / " संव्यवहार प्रत्यक्ष का विवेचन हो चुका है अब परोक्षात्मक मति का विवेचन करना काम्य है। - परोक्ष मति के चार भेद हैं-स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान। ... स्मृति-वासना का उद्बोध होने पर उत्पन्न होनेवाला 'वह' इस आकारवाला ज्ञान स्मृति है। स्मृति अतीत के अनुभव का स्मरण है / धारणा रूप संस्कार के जाग्रत होने पर तत्' इस उल्लेखवाली मति स्मृति कहलाती है / यथा-वह राजगही आदि / जैन दर्शन में स्मृति को प्रमाण माना गया है। जैनेतर सभी दार्शनिक गृहीतग्राही या अर्थ से उत्पन्न न होने से इसको प्रमाण नहीं मानते / जैन के अनुसार स्मृति अविसंवादी ज्ञान है अतः यह प्रमाण है। प्रत्यभिज्ञा-अनुभव और स्मृति से उत्पन्न यह वही है, यह उसके समान है, यह उससे विलक्षण है, यह उसका प्रतियोगी है, इस प्रकार का संकलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञा कहलाता है। प्रत्यभिज्ञा को दूसरे शब्दों में तुलनात्मक ज्ञान, उपमित करना या पहचानना भी कहा जा सकता है। प्रत्यभिज्ञा में दो अर्थों का संकलन होता है उसमें प्रत्यक्ष और स्मृति संकलन, प्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष का संकलन एवं स्मृति का भी संकलन हो सकता है। उसके तीन रूप बनते हैं१. (क) यह वही निर्ग्रन्थ है। (ख) यह उसके सदृश है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy