________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 271 व्यंजनावग्रह को कारणांश, अर्थावग्रह तथा ईहा को व्यापारांश, अवाय को फलांश और धारणा को परिपाकांश माना है।६७ बुद्धिचतुष्ट्य ___ मतिज्ञान के श्रुत-निश्रित एवं अश्रुत-निश्रित भेद सर्वविदित हैं / व्यवहार काल से पूर्व जो बुद्धि श्रुत परिकर्मित थी किन्तु व्यवहारकाल में जो श्रुतातीत है उसको श्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहा जाता है, जो सर्वथा श्रुतातीत है वह अश्रुत-निश्रित मतिज्ञान है।८ अवग्रह, ईहा, श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित उभयरूप हैं / स्थानांग में यह विवेचन है। नन्दी में अश्रुत निश्रित के औत्पत्तिक़ी आदि चार भेद किये गये हैं।" जिनभद्रगणि ने अवग्रह, ईहा आदि को श्रुत-निश्रित, अश्रुत-निश्रित, उभयरूप स्वीकार किया है। भाष्यकार ने औत्पत्तिकी आदि बुद्धि के भी अवग्रह, ईहा आदि स्वीकार किये हैं। मुर्गे को बिना दूसरे मुर्गे के योद्धा बनाना है। इस प्रसंग के विश्लेषण में आचार्य जिनभद्रगणि ने बुद्धियों के अवग्रह आदि को घटित किया है / " . औत्पत्तिकी. औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियां अध्ययन एवं शिक्षा से प्राप्त नहीं होती किन्तु स्वतः स्फुरित होती हैं / यह प्रकृति का उपहार है / आवश्यक नियुक्ति में औत्पत्तिकी बुद्धि को विवेचित करते हुए कहा गया जो बुद्धि पूर्व में अदृष्ट, अश्रुत वस्तु के स्वभाव को तत्काल ज्ञात कर लेती है तथा उसका वह आकलन सत्य ही होता है। नन्दी में भी नियुक्ति के इसी मत को उद्धृत किया गया है। दीपिका में भी अदृष्ट एवं अश्रुत अर्थ को ग्रहण करनेवाली को औत्पत्तिकी बुद्धि कहा गया है। वैनयिकी विनय का अर्थ है विधिपूर्वक शिक्षा / शिक्षा से उत्पन्न होनेवाली बुद्धि वैनयिकी कहलाती है। गुरु के प्रति विनय शुश्रूषा के निमित्त होनेवाली बुद्धि भी वैनयिकी है। वैनयिकी बुद्धि कठिन कार्य को निष्पादित करने में समर्थ है तथा धर्म, अर्थ एवं काम का शाब्दिक एवं आर्थिक हार्द को समझती है / इहभव-परभव दोनों के लिए हितावह होती है। कार्मिका “कर्मसमुत्था कार्मिकी' कर्म का अर्थ है अभ्यास / अभ्यास करते-करते जो बुद्धि पैदा होती है वह कार्मिकी कहलाती है। उपयोग से जिसका सार परमार्थ देखा जाता .