________________ 270 / आर्हती-दृष्टि यह निश्चित है उससे पूर्व अवग्रह हो चुका है। अपरिचित वस्तु के ज्ञान में इस क्रम का सहज अनुभव होता है। परिचित वस्तु को जानते समय हमें इस क्रम का स्पष्ट भान नहीं होता है, इसका कारण है ज्ञान का आशु उत्पाद / " वहां भी क्रम नहीं टूटता / अवग्रह आदि में परस्पर कार्य-कारण भाव है। पूर्व-पूर्व प्रमाण है, उत्तर-उत्तर फल है। जैसे अवग्रह प्रमाण एवं ईहा उसका फल। यह क्रम अनुमान तक क्रमशः चलता रहता है / 65 लौकिक प्रत्यक्ष ज्ञान प्रक्रिया लौकिक प्रत्यक्ष, आत्म प्रत्यक्ष की भांति समर्थ प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए इसमें क्रमिक ज्ञान होता है / वस्तु के सामान्य दर्शन से लेकर उसकी धारणा तक का क्रम इस प्रकार है * ज्ञाता और ज्ञेय वस्तु का उचित सन्निधान-व्यंजन। * वस्तु के सर्वसामान्य रूप का बोध-दर्शन / * वस्तु के व्यक्तिनिष्ठ सामान्य रूप का बोध-अवग्रह / * वस्तु स्वरूप के बारे में अनिर्णायक विकल्प-संशय / * वस्तु स्वरूप का परामर्श-वस्तु में प्राप्त और अप्राप्त धर्मों का पर्यालोचन / ईहा-निर्णय चेष्टा। * वस्तु स्वरूप का निर्णय-अवाय। * वस्तु स्वरूप की स्थिर अवगति या स्थिरीकरण-धारणा। प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया में शब्दभेद भले ही हो पर विचारभेद किसी का नहीं है। न्याय-वैशेषिक आदि वैदिक दर्शन तथा बौद्ध दार्शनिकों का यही मन्तव्य है कि जहां इन्द्रियजन्य एवं मनोजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वहां सबसे पहले विषय और इन्द्रिय का सन्निकर्ष, तत्पश्चात् निर्विकल्प ज्ञान आदि जो जैन प्रक्रिया में अवग्रह आदि का क्रम है उसी रूप से शब्दभेद से प्रत्यक्ष प्रक्रिया को प्रस्तुत किया है। प्रत्यक्ष प्रक्रिया का तुलनात्मक विवेचन जैन-जैनेतर दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में बड़ा महत्त्वपूर्ण हो सकता है। उपाध्याय यशोविजय जी ने ज्ञान बिन्दु में दर्शनान्तरीय परिभाषा के साथ अवग्रह आदि की तुलना की है। वैसी तुलना अन्य किसी जैन ग्रन्थ में प्राप्त नहीं है / न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया कारणांश, व्यापारांश, फलांश एवं परिपाकांश इन चार भेदों में विभक्त है। उपाध्यायजी ने व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह आदि पुरातन जैन परिभाषाओं को इन चार भागों में विभक्त करके यह स्पष्ट किया है कि जैनेतर दर्शन में जो प्रत्यक्ष की प्रक्रिया है वही शब्दान्तर से जैन दर्शन में है। उपाध्यायजी ने