________________ 322 / आहती-दृष्टि केवलज्ञान का अधिकारी सर्वज्ञ होता है। सर्वज्ञ और सर्वज्ञता न्याय प्रधान दर्शन युग का एक महत्वपूर्ण चर्चनीय विषय रहा है। जैन दर्शन को केवलज्ञान मान्य है इसलिए सर्वज्ञवाद उसका सहज स्वीकृत पक्ष है। आगम युग में उसके स्वरूप और कार्य का वर्णन मिलता है किन्तु उसकी सिद्धि के लिए कोई प्रयल नहीं किया गया। दार्शनिक युग में मीमांसक, चार्वक् आदि ने सर्वज्ञत्व को अस्वीकार किया तब जैन दार्शनिकों ने सर्वज्ञत्व की सिद्धि के लिए कुछ तर्क प्रस्तुत किए। ज्ञान का तारतम्य होता है, उसका अन्तिम बिन्दु तारतम्य रहित होता है। ज्ञान का तारतम्य सर्वज्ञता में परिनिष्ठित होता है / इस युक्ति का उपयोग मल्लवादी हेमचन्द्र, उपाध्याय यशोविजय आदि सभी दार्शनिकों ने किया है। ___ जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का गुण है / वह अनावृत अवस्था में भेद या विभाग शून्य होता है। आवरण के कारण उसके विभाग होते हैं और तारतम्य होता है। ज्ञान के तारतम्य के आधार पर उसकी पराकाष्ठा को केवलज्ञान मानना एक पक्ष है किन्तु इससे अधिक संगत पक्ष यह हैं कि केवलज्ञान आत्मा का स्वभाव अथवा गुण है। ज्ञानावरण कर्म के कारण उसमें तारतम्य होता है। ज्ञानावरण के क्षय होने पर स्वभाव प्रगट हो जाता है। किसी अन्य दर्शन में ज्ञान आत्मा स्वभाव या गुण रूप में स्वीकृत नहीं है, इसलिए उनमें सर्वज्ञता का वह सिद्धान्त मान्य नहीं है जो जैन दर्शन में है। पण्डित सुखलालजी ने सर्व शब्द को दर्शन के साथ जोड़ा है। उनके अनुसार जो दर्शन जितने तत्त्वों को मानता है, उन सबको अनने वाला सर्वज्ञ होता है / जैन दर्शन में 'सर्व' शब्द का स्वाभिमत द्रव्य की सीमा में आबद्ध नहीं किया है। अतिरिक्त क्षेत्र. काल और भाव उसे द्रव्य के साथ संयोजित किया है। केवलज्ञान का विषय है-सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभाव। द्रव्य का सिद्धान्त प्रत्येक दर्शन का अपना-अपना होता है किन्तु क्षेत्र, काल और भाव से सर्वसामान्य हैं / सर्वज्ञ सब द्रव्यों को सर्वथा, सर्वत्र और सर्वकाल में जानतादेखता है। न्याय, वैशेषिक आदि दर्शनों में ज्ञान आत्मा के गुण के रूप में सम्मत नहीं है इसलिए उन्हें मनुष्य की सर्वज्ञता का सिद्धान्त मान्य नहीं हो सकता। बौद्ध दर्शन में अन्वयी आत्मा मान्य नहीं है इसलिए बौद्ध भी सर्वज्ञवाद को स्वीकार नहीं करते। वेदान्त के अनुसार केवल ब्रह्म ही सर्वज्ञ हो सकता है, कोई मनुष्य नहीं / सांख्यदर्शन में केवलज्ञान अथवा कैवल्य की अवधारणा स्पष्ट है। . . जैनदर्शन सम्मत सर्वज्ञता के विरोध में मीमांसकों ने प्रबल तर्क उपस्थित किए।