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________________ केवलज्ञान / 321 क्षायोपशमिक ज्ञान का विषय है मूर्त द्रव्य, पुद्गल द्रव्य / क्षायिक ज्ञान का विषय मूर्त और अमूर्त-दोनों द्रव्य हैं / धर्म, अधर्म, आकाश और जीव-ये अमूर्त द्रव्य हैं / क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा इनका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता। अमूर्त का परोक्षात्मक ज्ञान शास्त्र से होता है। दार्शनिक युग में केवलज्ञान की विषय-वस्तु के आधार पर सर्वज्ञवाद की विशद चर्चा हुई है / पण्डित सुखलालजी ने उस चर्चा का समवतार इस प्रकार किया है.... "न्याय वैशेषिक दर्शन जब सर्वविषयक साक्षात्कार का वर्णन करता है तब वह सर्व शब्द से अपनी परम्परा में प्रसिद्ध द्रव्य, गुण आदि सातों पदार्थों को संपूर्ण भाव से लेता है। सांख्ययोग जब सर्व विषयक साक्षात्कार का चित्रण करता है तब वह अपनी परम्परा में प्रसिद्ध प्रकृति, पुरुष आदि पच्चीस तत्त्वों के पूर्ण साक्षात्कार की बात कहता है। बौद्ध दर्शन पंच स्कन्धों को संपूर्ण भाव से लेता है। वेदान्त दर्शन सर्व शब्द से अपनी परम्परा में पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध एकमात्र पूर्ण ब्रह्म को ही लेता है / जैनदर्शन भी 'सर्व' शब्द से अपनी परम्परा में प्रसिद्ध सपर्याय षड्द्रव्यों को पूर्णरूपेण लेता है। इस तरह उपर्युक्त सभी दर्शन अपनी परम्परा के अनुसार माने जाने वाले सब पदार्थों को लेकर उनका पूर्ण साक्षात्कार मानते हैं और तदनुसारी लक्षण भी करते हैं। .... पण्डित सुखलालजी की सर्वज्ञता विषयक मीमांसा का स्पष्ट फलित है कि 'सर्व' पद के विषय में सब दार्शनिक एकमत नहीं हैं / इसका मूल हेतु आत्मा और ज्ञान के संबंध की अवधारणा है / जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वभाव है / वह एक है, अक्षर है, उसका नाम केवलज्ञान है। ___आचार्य कुन्दकुन्द ने केवलज्ञान का लक्षण व्यवहार और निश्चय-दो दृष्टियों से किया है-व्यवहार नय से केवली भगवान् सबको जानते हैं और देखते हैं। निश्चय से केवलज्ञानी अपनी आत्मा को जानते हैं और देखते हैं। जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान स्व-पर प्रकाशी है / इस आधार पर केवलज्ञानी निश्चय नय से आत्मा को जानता-देखता है, यह लक्षण संगत है। वह पर-प्रकाशी है, इस आधार पर वह सबको जानता-देखता है, यह लक्षण संगत है। . केवलज्ञान आत्मा का स्वभाव है / वह स्वभाव है इसलिए मुक्त अवस्था में भी विद्यमान रहता है / प्रत्यक्ष अथवा साक्षात्कारित्व उसका स्वाभाविक गुण है / ज्ञानावरण कर्म से आच्छन्न होने के कारण उसके चार भेद किए गए हैं—मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यव / तारतम्य के आधार पर असंख्य भेद बन सकते हैं / ज्ञानावरण का सर्वविलय होने पर ज्ञान के तारतम्यजनित भेद समाप्त हो जाते हैं और केवलज्ञान प्रकट हो जाता
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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