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________________ 320 / आर्हती-दृष्टि भिन्न मानने पर निम्नांकित दोष आते हैं (क) केवलज्ञान और दर्शन की अनन्तता खण्डित हो जाएगी। . (ख) क्षीणावरण केवली में अव्यक्त-व्यक्त का भेद युक्तियुक्त नहीं है अत: अव्यक्त . (दर्शन) और व्यक्त (ज्ञान) ये दो उपयोग नहीं हो सकते। (ग) इन पक्षों के अनुसार केवली अज्ञातभाषी और अदृष्टभाषी हो जाएगा। (घ) केवलज्ञान मात्र विशेषग्राही और केवलदर्शन मात्र सामान्यग्राही माना जाए तो सर्वज्ञत्व एवं सर्वदर्शित्व की उत्पत्ति कैसे होगी? .. (ङ) अनाकार उपयोग साकार उपयोग की अपेक्षा नियमत: अल्पविषयक होता है अत: भिन्न-भिन्न उपयोग मानने पर केवलदर्शन को अनन्त नहीं माना जा सकता। (च) लब्धि की दृष्टि से केवली को सर्वज्ञ सर्वदर्शी कहना भी युक्त नहीं क्योंकि फिर तो उसे पंचज्ञानी भी कहा जा सकेगा, जो कि शास्त्रविरुद्ध है।। उपाध्याय यशोविजय जी ने ज्ञानबिन्दु में केवलज्ञान-दर्शन के विषय में मुख्यत: सिद्धसेन दिवाकर के ही मत का अवलम्बन लिया है / इसके साथ ही उन्होंने भिन्न-भिन्न नय-दृष्टियों से उनका समन्वय करते हुए कहा कि भेदस्पर्शी व्यवहार-नय की अपेक्षा से मल्लवादी का युगपद् उपयोगवाद, ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का क्रमिक पक्ष और अभेद प्रधान संग्रहालय की अपेक्षा से सिद्धसेन दिवाकर का अभिन्नोपयोगवाद युक्तिसंगत हैं। आचार्य महाप्रज्ञ जी ने केवलज्ञान और केवलदर्शन के क्रमिक पक्ष को स्वीकृत करते हुए लिखा है कि केवली की ज्ञानचेतना अनावृत होती है, अत: वह पहले द्रव्य के परिवर्तन और उसकी क्षमता को जानता है और उसके बाद उसकी एकता को जानता है। जहां एक सामान्य व्यक्ति को द्रव्य की सामान्य सत्ता को जानने में असंख्यात कालखण्ड लग जाते हैं फिर वह एक-एक कर उसकी विशेषता को जान पाता है वहां असीम चेतना में पहले द्रव्य की अनन्त शक्तियों का पृथक्-पृथक् आकलन होता है और बाद में उन-उन शक्तियों में अनुस्यूत एकता का ज्ञान होता है अर्थात् पहले क्षण में केवलज्ञान होता है उसके बाद केवलदर्शन होता है। सर्वज्ञवाद और विभिन्न दर्शन ज्ञान के दो विभाग है—क्षायोपशमिक और क्षायिक / मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यव-ये चार ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होते हैं इसलिए क्षायोपशमिक हैं। केवलज्ञान ज्ञानावरण के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होता है इसलिए वह क्षायिक है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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