________________ केवलज्ञान / 319 हो जाएंगे। (ख) प्रथम समय केवलज्ञान हुआ, दूसरे समय केवलदर्शन। इसका अभिप्राय यह होगा कि दूसरे समय केवलज्ञानावरण का क्षय और प्रथम समय केवलदर्शनावरण का क्षय व्यर्थ है। अत: आवरण रहित दो प्रदीपों के समान उन्हें युगपत् ही प्रकाश करना चाहिए। (ग) दोनों का एक साथ उपयोग न माना जाए तो परस्पर आवरण का प्रसंग आएगा क्योंकि कर्मावरण का अभाव होने पर भी एक के सद्भाव में दूसरे का अभाव माना जाता है। (घ) दोनों आवरणों के क्षय होने पर भी यदि केवलज्ञान-दर्शन का आविर्भाव न माना जाए तो दो भिन्न-भिन्न आवरण मानना समीचीन न होगा। (ङ) पाक्षिक सर्वज्ञत्व, सर्वदर्शित्व का प्रसंग आएगा क्योंकि जब सर्वज्ञ होगा तब असर्वदर्शी और सर्वदर्शी होगा तब असर्वज्ञ हो जाएगा। 3. अभेदपक्ष-अभेदपक्ष के अनुसार केवलज्ञान और केवलदर्शन नामक दो भिन्न-भिन्न उपयोग नहीं हैं, वस्तुत: उपयोग एक ही है। छद्मस्थ की चेतना सावरण होती है, अत: वह एक साथ सामान्य और विशेष को नहीं जान सकता। फलत: ज्ञान और दर्शन दो भिन्न-भिन्न समयवर्ती उपयोगों का कार्य है / पर जहां चेतना निरावरण हो गयी है वहां सामान्य और विशेष का समकालीन ग्रहण होता है। अत: कैवल्य अवस्था में ज्ञान और दर्शन में न अवस्था-भेद है और न कालभेद / जैन दर्शन के इतिहास में अभेद पक्ष के पुरस्कर्ता एकमात्र सिद्धसेन दिवाकर को कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उपाध्याय यशोविजय ने अभेद पक्ष के स्थापन में उन्हीं युक्तियों का अनुसरण किया है। सिद्धसेन के अनुसार अस्पृष्ट विषय का ग्रहण, सामान्य अवबोध दर्शन कहलाता है। केवली के केवलोपयोग में अस्पृष्ट एवं स्पृष्ट, सामान्य और विशेष, व्यक्त और अव्यक्त का भेद नहीं होता। अत: एक ही उपायोग को विशेषग्रहण की अपेक्षा ज्ञान और सामान्यग्रहण की अपेक्षा दर्शन कह दिया जाता है। यहां प्रवृत्तिनिमित्तक धर्मों का भेद है न कि प्रतिपाद्य उपयोग का। सिद्धसेन ने भी अभेदपक्ष के स्थापन में युगपत् पक्ष के समान केवल उपयोग की साद्यनन्तता की युक्ति का ही प्रयोग किया है / उनका मत है कि जो युक्तियां क्रमिकपक्ष की सदोषता के लिए उपन्यस्त की गई हैं वे ही * युगपत् पक्ष की भी सदोषता को ख्यापित करती हैं / अत: ये पक्ष वस्तुत: परवक्तव्यता की अपेक्षा से शास्त्रों में कहे गए हैं। उनके अनुसार केवलज्ञान और केवलदर्शन को