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________________ 318 / आर्हती-दृष्टि चतुर्ज्ञानी कहलाता है वैसे ही सर्वज्ञ-सर्वदर्शित्व में कोई बाधा नहीं। (ई) जिनकी युगपत् उत्पत्ति हो, उनका उपयोग भी युगपत् होता है—यह कोई नियम नहीं है। सम्यक्तव, मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान की उत्पत्ति एक साथ होती है पर वे न तो एक हैं और न समकालीन उपयोग, वैसे ही केवलज्ञान केवलदर्शन न अभिन्न हैं और न एककालीन उपयोग। (उ) अभेदवादी का यह कहना है कि 'क्षीणावरण में जैसे देशज्ञान सम्भव नहीं, वैसे ही केवलदर्शन भी सम्भव नहीं है। यह भी अयुक्त है क्योंकि जैसे देशज्ञान के अपगम से केवलज्ञान होता है वैसे ही चक्षु आदि देशदर्शन के अपगम से सर्वदर्शन क्यों नहीं होगा? केवल इच्छामात्र से वस्तुसिद्धि नहीं होती। (ऊ) अभेदवाद यह कहे कि-द्रव्यत: केवलज्ञानी सर्वद्रव्यों को जानता-देखता है इत्यादि सूत्र केवलज्ञान-दर्शन के अभेद का प्रतिपादन है तब तो उसके मत से अवधिज्ञान आदि में ज्ञानदर्शन की एकता का प्रसंग आएगा, जो उसे भी मान्य नहीं है। युक्तित: अबाधित एवं सूत्र में अनेकश: कथित होने से यह स्पष्ट है कि क्रमोपयोगवाद ही निर्दुष्ट है। जिनभद्रगणी का मत है कि जिस प्रकार अनाकार उपयोगी एवं साकारोपयोगी के विषय में सूत्र में बहुत से प्रश्न उपलब्ध हैं वैसे मिश्र उपयोगी के विषय में एक भी सूत्र नहीं है। 2. युगपत् उपयोग पक्ष—इस मत के अनुसार भी केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों भिन्न-भिन्न उपयोग हैं पर वे क्रमश: उत्पन्न नहीं होते। एक ही समय में केवली जानता भी है और देखता भी है / सम्पूर्ण दिगम्बर आम्नाय में एकमात्र इसी पक्ष के दर्शन होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द, पूज्यवाद और समन्तभद्र ने जहां दोनों मतों की चर्चा तक नहीं की है, वहां अकलंक ने अष्टशती एवं राजवार्तिक में क्रमिकपक्ष के मानने वालों को सर्वज्ञनिन्दक कहा है / श्वेताम्बर आम्नाय में इसके प्रवेश का श्रेय सम्भवतः उमास्वाति को है। उपाध्यायजी के अनुसार इस पक्ष को युक्तित: स्थापित करने का श्रेय मल्लवादि को है / इस पक्ष की मुख्य युक्ति है कि सूत्र में केवलज्ञान एवं केवलदर्शन को सादि-अपर्यवसित बताया है। अत: दोनों उपयोगों को युगपत् मानना आवश्यक है। इस मत के अनुसार क्रमिक उपयोगपक्ष में मुख्यत: निम्नलिखित दोषों का प्रसंग आता है (क) क्रमश: एक समय ज्ञान और दूसरे समय दर्शन मानने से दोनों सादि-सान्त
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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