SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवलज्ञान / 317 (ख) युगपद् उपयोगवादियों ने जो क्रमिक पक्ष के आधार पर केवली पर दोष दिए हैं वे सभी छद्मस्थों पर भी आएंगे, अत: दोनों पक्षों का योगक्षेम “तुल्य ही है। (ग) यदि उपयोगावस्था में ही ज्ञान, दर्शन आदि का सद्भाव माना जाए तो एक छदस्थ कभी भी चतुर्ज्ञानी और त्रिदर्शनी नहीं हो सकता, फलत: आगम विरोध आता है। (घ) क्रमिक-उपयोगवाद केवल छद्मस्थ के लिए ही उपन्यस्त है अथवा यह परवक्तव्यता है जैसा कि सन्मति तर्क प्रकरण में कहा गया है। उसकी अयुक्तता बताते हुए जिनभद्रगणी का मत है कि सूत्र में सर्वत्र जब छद्मस्थ के बाद छातीत का ही उपदेश है तब प्रथम कल्पना कैसे युक्तिसंगत होगी तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति के २५वें शतक में स्पष्टतया क्रमोपयोग का समर्थक सूत्र होने से उसे पर वक्तव्यता मानना भी समीचीन नहीं। इस प्रकार प्रस्तुत मत के अनुसार जीवत्व के समान एकान्तरोपयोग भी जीव का स्वभाव है, अत: उसकी सिद्धि के लिए अन्य हेतु की अपेक्षा नहीं है। युगपत् उपयोगवाद और अभिन्नोपयोगवाद की ओर से क्रमिक पक्ष पर जो-जो आक्षेप किए गये, जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने उन सबका, विशेषणवती एवं विशेषावश्यकभाष्य में युक्तिपुरसर समाधान किया है। जिनदासगणी ने विशेषणवती की 153 से 256 तक की गाथाओं में से कुछ का उपयोग किया है / हरिभद्र एवं मलयगिरि की टीका भी उसी पर अवलम्बित है। मुख्यत: उन आक्षेपों का समाधान इस प्रकार है(अ) केवलज्ञान केवलदर्शन को सादि अनन्त उपयोग की दृष्टि से नहीं कहा गया है। जैसे मति आदि तीनों ज्ञानों की कालस्थिति 66 सागरोपम बताई जाती है वह उनकी लब्धि की अपेक्षा से है। उपयोग की अपेक्षा तो वे आन्तमौहूर्तिक ही हैं। (आ) आवरणक्षय को मिथ्या कहना भी युक्त नहीं क्योंकि जिस प्रकार पंचविध अन्तराय के क्षय के बावजूद केवली सदा दान, भोग आदि नहीं करते, वैसे ही ज्ञानावरण-दर्शनावरण के विषय में समझना चाहिए। अन्तराय क्षय का तात्त्विक फल है- बाधा का अभाव, वैसे ही ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण के समूल क्षय का तात्त्विक फल है कृत्स्न ज्ञान-दर्शन। (इ) असर्वज्ञ-असर्वदर्शी के आक्षेप का समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि जैसे एक साथ कोई भी चार ज्ञानों का उपयोग नहीं करता फिर भी
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy