________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 279 एक व्यक्ति के विचार को दूसरे व्यक्ति तक ले जाने के दो साधन हैं—वचन और संकेत / वचन एवं संकेत को ग्रहण करनेवाली इन्द्रियां हैं। श्रोता अपनी इन्द्रियों से उन्हें ग्रहण करता है फिर वक्ता के अभिप्राय को समझता है / वह श्रोता का भावश्रुत बन जाता है। ___मति एवं श्रुतज्ञान परस्पर कार्य-कारण भाव से रहते हैं। संसार के सभी प्राणियों के कम से कम दो ज्ञान तो अवश्य रहते हैं / जैन दर्शन के ज्ञान-मीमांसीय चिन्तन का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण मतिश्रुत ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में महत्त्वपूर्ण हो सकता है। संदर्भ 1. रायपसेणियं सू. 739 2. तत्वार्थ सू. 1/1 3. जे आया से विनाया, जे विनाया से आया आचारांग 5/104 4. समयसार श्लो. 6-7 5. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, का. 8, 6. नंदी सूत्र सू. 34 7. विशेषावश्यक भा. गा. 79, C. Studies in Jain philosophy, P. 30 9. तदिन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तम् तत्वा. सू. 1/14, 10. नंदी सू., 5 11. इंदियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं // विशेषा. भा. गा. 95 12. से किं तं इंदियपच्चक्ख..... नंदी सू.५ से 13. अत्थाभिमुहो नियओबोहो... वि. भा. गा. 80 * ब. अत्थाभिमुहो णियतोबोध..... नंदी चूर्णि. पृ. 13 14. वि. भा. हे. वृ. गाथा, 80 15. ईहा अपोह वीमांसा, मग्गणा य गवसणा। . सना-सई-मई-पन्ना, सव् आभिणिबो हियं // नंदी सू. 54/6 16. विशेषा. भा. गाथा-३९६ 17. मति: स्मृति: संज्ञा चिंताऽभिनिबोध इत्यनान्तरम्। तत्वा. सू. 1/13 18. तत्वा. रा. वा. 1/13