________________ 278 / आर्हती-दृष्टि (1) मति एवं श्रुतज्ञान का लक्षण पृथक्-पृथक् है / मति श्रुतानुसारी नहीं होता जबकि श्रुत्त श्रुतानुसारी ही होता है। (2) मतिज्ञान हेतु है तथा श्रुत उसका फल, कार्य है। (3) मतिज्ञान के 28 भेद हैं जबकि श्रुत के 14 भेद हैं। (4) श्रुतज्ञान को श्रोत्रेन्द्रिय का विषय कहा गया है जबकि मति श्रोत्र के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों का भी विषय है। (5) वल्क के समान मतिज्ञान है, वह कारण रूप है। शुम्ब के समान श्रुतज्ञान है, जो कार्य रूप है। (6) मूक के समान मति अमूक सदृश श्रुत है। . . (7) मति अनक्षर एवं श्रुत अक्षरात्मक होता है इत्यादि अनेक प्रकार उनके पारस्परिक भिन्नता के गिनाये गये हैं। 3. शुद्ध तार्किक –मतिश्रुत के बारे में तीसरी दृष्टि के जनक सिद्धसेन दिवाकर . हैं। उन्होंने मतिश्रुत के भेद को ही अमान्य कर दिया। 'वैयर्थ्यातिप्रसंगाभ्यां न मत्यभ्यधिकं श्रुतम्।१२° उनका मानना है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञान में ही अन्तर्भूत हो : जाता है। उसको पृथक् मानना कल्पनागौरव है। अर्थात् जब श्रृतज्ञान का जो कार्य बताया गया है, वह मति से सम्पादित हो जाता है, तब श्रुत को पृथक् मानने से व्यर्थता. एवं अति प्रसंग ये दोष उपस्थित हो जाते हैं / दिवाकर श्री की यह शुद्ध तार्किक परम्परा है। जिनभद्रगणि आगमिक आचार्य हैं, फिर भी इन्होंने भी ज्ञान क्रम के वर्णन के समय श्रुतज्ञान को मतिभेद के रूप में स्वीकार किया है / 21 उनके इस कथन का सिद्धसेन के विचार आलोक में चिन्तन करने पर नया तथ्य उपलब्ध हो सकता है। श्रुतज्ञान प्रक्रिया श्रुतज्ञान उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार होता है१. भावश्रुत-वक्ता के वचनाभिमुख विचार / 2. वचन-वक्ता के लिए वचनयोग और श्रोता के लिए द्रव्यश्रुत। . 3. मति-मतिज्ञान के प्रारम्भ में होनेवाला मत्यंश-इन्द्रिय ज्ञान / 4. भाव-श्रुत-इन्द्रिय ज्ञान के द्वारा हुए शब्दज्ञान एवं संकेत ज्ञान के द्वारा होनेवाला अर्थ-ज्ञान / 22 . वक्ता बोलता है वह उसकी अपेक्षा वचनयोग है, श्रोता के लिए वह भावश्रुत का साधन होने के कारण द्रव्यश्रुत है। एक व्यक्ति का श्रुतज्ञान दूसरे व्यक्ति के लिए श्रुतज्ञान बनता है। उससे पूर्व उस प्रक्रिया के दो अंश होते हैं-द्रव्यश्रुत और मत्यंश /