SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 277 पौर्वापर्य का कथन भाष्य में हुआ है / 14 मति-श्रुत भेद प्राचीन कर्मशास्त्र में ज्ञानावरण की प्रकृतियों के उल्लेख के समय मतिज्ञानावरण एवं श्रुतज्ञानावरण इन दो प्रकृतियों का पृथक्-पृथक् उल्लेख है अतः स्पष्ट है कि प्राचीन परम्परा में दोनों को पृथक् स्वीकार किया गया है। आज भी उनका वही स्वरूप स्वीकृत है, परन्तु इन दोनों का स्वरूप परस्पर इतना सम्मिश्रित है कि इनकी भेद-रेखा स्थापित करना कठिन हो जाता है। जैन परम्परा में इनकी भेद-रेखा स्थापित करने के तीन प्रयत्ल हुए हैं 1. आगमिक, 2. आगम आधारित तार्किक, एवं 3. तार्किक। 1. आगमिक परम्परा में इन्द्रिय मनो जन्य ज्ञान अवग्रह आदि भेद वाला मतिज्ञान था तथा अंगप्रविष्ट एवं अंग बाह्य रूप में प्रसिद्ध लोकोत्तर जैन-शास्त्र श्रुतज्ञान कहलाते थे। अनुयोग द्वार एवं तत्त्वार्थ में पाया जानेवाला श्रुतज्ञान का वर्णन इसी प्रथम प्रयल का फल है / 15 प्राचीन परम्परा में अंग, उपांग से भिन्न वेद, व्याकरण, साहित्य, शब्द, संस्पर्श से युक्त-रहित सारा ज्ञान मतिज्ञान कहलाता था। ... 2. आगम मूलक तार्किक प्रयत्न में मति श्रुत के भेद को तो स्वीकार कर लिया किन्तु उनकी भेदरेखा स्थिर करने का व्यापक प्रयल किया गया। प्रथम परम्परा जो मात्र आगम को ही श्रुतज्ञान मानती थी। इस दूसरी परम्परा ने आगम के अतिरिक्त को भी श्रुतज्ञान माना एवं श्रुतज्ञान की स्पष्ट परिभाषा दी / क्षमाश्रमणजी ने भाष्य में श्रुत एवं मति को विभक्त करते हुए कहा-इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होनेवाला श्रुतानुसारी ज्ञान जो स्वयं में प्रतिभासित घट, पट आदि पदार्थों को दूसरों को समझाने में समर्थ होता है वह भावश्रुत है। शेष मतिज्ञान है। नन्दीकार ने मतिश्रुत को अन्योन्यानुगत माना है तथा नन्दी में किसी आचार्य के मत को उद्धृत करके कहा गया है -'मइपुव्वं जेण सुयं न मई सुयपुब्विया। "मति श्रुत की इस भेदरेखा को मानकर उमास्वाति ने इसे और भी अधिक स्पष्ट किया है। उत्पन्न, अविनष्ट, अर्थग्राही, वर्तमानग्राही मंतिज्ञान है एवं श्रुतज्ञान का त्रिकाल विषय है / वह उत्पन्न, विनष्ट एवं अनुत्पन्न अर्थ का ग्राहक है।इसी भेदरेखा को आचार्य जिनभद्र ने और पुष्ट किया है। मति-श्रुत की भिन्नता को प्रकट करते हुए कहा गया है लक्खणभेआ हेऊफलभावओ भेयइन्दियविभागा। वाग-क्खर-मुए-यरभेआ भेओ मइसुयाणं // 19
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy