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________________ 176 / आर्हती-दृष्टि भगवान्–जयन्ती ! कुछ जीवों का सोना अच्छा है, कुछ का जागना अच्छा है जयन्ती—इसका क्या कारण है ? भगवान्—जो जीव अधार्मिक है उनका सोना अच्छा है क्योंकि जब तक वे सोये रहेंगे तब तक अनेक जीवों को पीड़ा नहीं देंगे। अपने को और दूसरों को अधार्मिक क्रिया में नहीं लगायेंगे। धार्मिक जीवों का जागना अच्छा है। क्योंकि वे अपने को एवं दूसरों को धार्मिक क्रिया में संलग्न करते हैं / इस प्रकार के अनेक प्रश्नोत्तर भगवती में उपलब्ध हैं जो विभज्यवाद पर आधारित हैं। __ चूर्णिकार ने विभज्यवाद के दो अर्थ किये हैं-भजनीयवाद और अनेकान्तवाद / प्रस्तुत प्रसंग में विभज्यवाद के दूसरे अर्थ अनेकान्त की व्याख्या करना समुचित होगा। जहां जैसा उपयुक्त हो वहां वैसी अपेक्षा का सहारा लेकर वैसा प्रतिपादन करे / अमक नित्य है या अनित्य है ? ऐसा प्रश्न करने पर द्रव्य की अपेक्षा नित्य है, पर्याय की अपेक्षा अनित्य है, इस प्रकार उसको सिद्ध करे। . शीलांकवृत्तिकार ने विभज्यवाद के तीन अर्थ किये हैं(१) पृथक्-पृथक् अर्थों का निरूपण करनेवाला वाद। (2) स्याद्वाद। (3) अर्थों का सम्यग् विभाजन करने वाला वाद-जैसे द्रव्य की अपेक्षा से नित्यवाद पर्याय की अपेक्षा से अनित्यवाद इत्यादि। बौद्ध साहित्य में भी विभज्यवाद, विभज्यवाक् आदि का उल्लेख अनेक स्थानों पर प्राप्त होता है / विभज्य के दो अर्थ हैं—(१) विश्लेषणपूर्वक कहना, (2) संक्षेप का विस्तार करना / विभज्यवाद का मूल आधार विभागपूर्वक उत्तर देना है। दो विरोधी बातों को एक सामान्य में स्वीकार करके उसी एक को विभक्त करके दो भागों में विरोधी धर्म का संगत बताना विभज्यवाद का फलितार्थ है / अनेकान्तवाद विभज्यवाद का ही विकसित रूप है तथा वह मौलिक भी है / अनेकान्त सबका मूल है / विभज्यवाद भी अनेकान्त की एक शाखा है जैसे नय निक्षेप, किन्तु इनका मूल अनेकान्त ही है। भगवान् महावीर विभज्यवाद के मूल में गये और उसके उत्स को खोजा, वह अनेकान्त __ आगमकालीन अनेकान्तवाद या विभज्यवाद को स्याद्वाद कहा जाए तो अनुचित नहीं है। विभज्यवाद अनेकान्तवाद का प्राचीन स्वरूप रहा है। विभज्यवाद में प्रश्न को विश्लेषणपूर्वक समाहित किया जाता है। किस दृष्टि या अपेक्षा से इसका क्या उत्तर दिया जा सकता है / इस प्रकार एक प्रश्न के सन्दर्भ में जितनी दृष्टियां उपस्थित
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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