________________ विभज्यवाद ज्ञानी मनुष्य सत्य के प्रति समर्पित होता है / वह ऐसा कोई वचन नहीं बोलता जिससे सत्य की प्रतिमा खण्डित हो। सत् द्रव्यपर्यायात्मक है। अनेक द्रव्य और अनन्त पर्याय का अस्तित्व है / उन सबको जानना प्रत्येक सत्यान्वेषी के लिए सम्भव नहीं है / सत्य का अन्वेषण करनेवाला जितने सत्य को जान जाता है उसे मध्यस्थता से स्वीकार करता है। सत्य व्याकरण में वह अनाग्रह का प्रयोग करता है। आग्रही व्यक्ति सत्यान्वेषण नहीं कर सकता। सूत्रकृताङ्ग सूत्र में भिक्षु को भाषा-प्रयोग का निर्देश देते हुए कहा गया कि वह विभज्यवाद के माध्यम से व्याख्या करे। विभज्यवाद के तात्पर्य-बोध के लिए जैन टीका ग्रन्थों के अतिरिक्त बौद्ध ग्रन्थ भी सहायक होंगे। मज्झिमनिकाय में शुभमाणवक के प्रश्न के उत्तर में भगवान् बुद्ध ने कहा हे माणवक ! मैं यहां विभज्यवादी हूं एकांशवादी नहीं हूं / माणवक ने प्रश्न करते हुए पूछा - 'मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ आराधक होता है, प्रवजित आराधक नहीं होता। इस विषय में आपका क्या चिन्तन है? भगवान् बुद्ध ने इस प्रश्न का समाधान हां या ना में नहीं दिया किन्तु उन्होंने विभागपूर्वक प्रश्न का समाधान प्रस्तुत किया / यदि गृहस्थ या त्यागी मिथ्यात्वी है तो वे आराधक नहीं हो सकते तथा यदि वे दोनों सम्यक् प्रतिपन्न है तो आराधक है / इसलिए कुछ कथन ऐसे होते हैं जिनका परा विश्लेषण किये बिना वे असत्य हैं या सत्य हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रस्तुत प्रसंग में बुद्ध ने आराधकता और अनाराधकता में जो कारण था, उसे बताकर दोनों को आराधक और अनाराधक बताया है। अर्थात् प्रश्न का उत्तर विभाग करके दिया है अतएव वे अपने को विभाज्यवादी कहते हैं। भगवान् बुद्ध सर्वत्र विभज्यवादी नहीं थे किन्तु जिन प्रश्नों का समाधान विभज्यवाद से ही सम्भव था। उन कुछ ही प्रश्नों का उत्तर देते समय वे विभज्यवाद का अवलम्बन लेते थे। भगवान् महावीर के विभज्यवाद का क्षेत्र व्यापक था। भगवान् बुद्ध का विभज्यवाद कुछ मर्यादित क्षेत्र में था। यही कारण है कि जैन दर्शन आगे जाकर अनेकान्तवाद में परिणत हो गया। भगवान् बुद्ध के विभज्यवाद की तरह भगवान् महावीर का विभज्यवाद भी भगवतीगत प्रश्नोत्तरों से स्पष्ट होता है। जयन्ती-भन्ते ! जीव का सोना अच्छा है या जागना?