________________ परिणामवाद | 105 की प्रकृति को मूल अवस्था की पुनः प्राप्ति हो सकती है। वेदान्त दर्शन में परिवर्तन को विवर्त, बौद्ध में प्रतीत्यसमुत्पाद, सांख्य में परिणाम एवं न्याय वैशेषिक दर्शन में उसे आरम्भवाद कहा जाता है। . भारतीय दर्शन के क्षेत्र में ऐसे भी दार्शनिक हैं जो being और becoming दोनों का एकसाथ सापेक्ष अस्तित्व स्वीकार करते हैं। इस सिद्धान्त के समर्थक जैनचिन्तक है। उनके अनुसार अस्तित्व द्रव्यपर्यायात्मक है। उत्पाद-व्यय भी उतने ही सत्य है जितनी ध्रुवता / अस्तित्व उभयात्मक है / जैन का परिवर्तन का सिद्धान्त सदसद् कार्यवाद कहलाता है / वस्तुतः जैन दर्शन परिणामवादी है। सांख्य योग तथा प्राचीन वेदान्त आदि के परिणामवाद से जैन-परिणामवाद का विशिष्ट अन्तर यह है कि सांख्य के अनुसार परिणाम चेतन तत्त्व का स्पर्श ही नहीं कर सकता, वह मात्र जड़ रूप प्रकृति में ही होता है / तथा भर्तृप्रपञ्च आदि का परिणामवाद मात्र चेतन तत्त्व स्पर्शी है किन्तु जैन परिणामवाद जड़-चेतन, सूक्ष्म-स्थूल समग्र वस्तु स्पर्शी है अतएव जैन परिणामवाद को सर्वव्यापक परिणामवाद समझना चाहिए। आरम्भवाद एवं परिणामवाद का जैन दर्शन में व्यापक रूप में समग्र स्थान तथा समन्वय है पर उसमें प्रतीत्यसमुत्पाद एवं विवर्तवाद का कोई स्थान नहीं है। यद्यपि भारतीय एवं पाश्चात्य प्रायः दार्शनिकों ने परिणामवाद पर विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण चर्चा प्रस्तुत की है। परन्तु उनकी चर्चा अन्यत्र वाञ्छित है। प्रस्तुत निबन्ध में हम सांख्य एवं जैन दर्शन के परिणामवाद की चर्चा में ही सीमित रहेंगे। सांख्य के अनुसार जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं कि पुरुष में परिणाम नहीं होता सिर्फ वह प्रधान परिणामवादी है / परिणाम को परिभाषित करते हुए योगभाष्य (3/13) में कहा गया 'अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृतौ धर्मान्तरोत्पतिः परिणाम:' तथा ऐसी परिभाषा युक्ति दीपिका में दी गई है जहत् धर्मान्तरं पूर्वं उपादत्ते यदा परम् / तत्त्वाद् अप्रच्युतो धर्मी परिणामः स उच्यते // कूटस्थ अवस्थित द्रव्य के पूर्व धर्म का नाश होना तथा उत्तर धर्म का उत्पाद होना परिणाम है / सांख्य ने तीन प्रकार के परिणाम माने हैं धर्म परिणाम, लक्षण परिणाम और अवस्था परिणाम / धर्मों के द्वारा धर्मी का परिणाम होता है लक्षण के द्वारा धर्म में परिणाम होता है तथा लक्षण का भी अवस्था