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________________ 106 / आर्हती-दृष्टि के द्वारा परिणाम है। गुणवृत धर्म, लक्षण एवं अवस्था परिणाम शून्य एक क्षण भी नहीं रह सकता। सांख्य के अनुसार द्रव्य कूटस्थ रहता है उसके गुणों में परिवर्तन होता है जैसा कि उपर्युक्त परिणाम लक्षण से स्पष्ट है। जैन परिणाम सिद्धान्त के अनुसार द्रव्य और पर्याय दोनों में परिवर्तन होता है। पर्याय जो नष्ट हो गई है उसका पुनरागमन नहीं होता है / द्रव्य जो सर्व पर्यायों में अनुस्यूत रहता है वह भी परिणाम का विषय बनता है / जैन के अनुसार परिणाम की परिभाषा है—'तद्भावः परिणामः' / जैन के द्रव्य की नित्यता की अवधारणा भिन्न प्रकार की है। 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' अपने स्वरूप का नाश न होना ही नित्यता है। द्रव्य परिवर्तन में गुजरकर भी अपने अस्तित्व को नहीं छोड़ता है / जैन के अनुसार द्रव्य का नवीनीकरण होने पर भी वह स्थिर रहता है। उसके अनुसार अपरिवर्तित द्रव्य मात्र भ्रान्ति है / जैन परिवर्तनशील द्रव्य को स्वीकार करता है / सांख्य और जैन के परिवर्तन के सिद्धान्त में एक मौलिक मतभेद है / सांख्य द्रव्य को सर्वथा कूटस्थ स्वीकार करता है। जबकि जैन के अनुसार जैसे गुण और पर्याय में परिवर्तन होता है वैसे ही द्रव्य / में भी परिवर्तन होता है। . जैन ने वस्तु लक्षण को परिभाषित किया है—'उत्पादव्ययधौव्यात्मकं सत्' यहां ध्रुवता का तात्पर्य वेदान्त के ब्रह्म जैसी कूटस्थता से नहीं है किन्तु जैन के अनुसार परिवर्तन होने के बावजूद स्वरूप का नाश न होना ही ध्रुवता है / सांख्य त्रिविध परिणाम के द्वारा अपने परिणाम सिद्धान्त को व्याख्यायित करता है किन्तु अन्ततोगत्वा वह कह देता है 'परमार्थस्त्वेक एव परिणाम: धर्मिस्वरूपमात्रो हि धर्म, धर्मिविक्रियैवैषा धर्मद्वाराः प्रपञ्चयते।' यो (3/13) . __ वह धर्मी में भी विक्रिया (परिवर्तन) को मान्य कर लेता है। ऐसा होने से उसका अवस्थित द्रव्यस्य.... वाला परिणाम सिद्धान्त स्वतः निराकृत हो जाता है तथा उसका परिणाम जैन परिणाम सिद्धान्त के तुल्य हो जाता है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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