________________ तत्त्ववाद के क्षेत्र में जैन दर्शन की मौलिक देन विश्व की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए प्रत्येक दार्शनिकों ने तत्त्वों की संख्या का निर्धारण किया है। यह जगत् क्या है ? किससे बना है ? इत्यादि प्रश्न प्राचीन काल से ही चले आ रहे हैं। जिन व्यक्तियों ने इनके बारे में चिन्तन प्रस्तुत किया उनका ही स्वतन्त्र दर्शन हो गया। ___ वेदान्त के अनुसार यह सारा जगत् ब्रह्ममय है। 'सर्व वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन' यह जो नानात्व है वह माया के कारण दृष्टिगोचर है। इसकी व्यावहारिक सत्ता है पारमार्थिक सत्ता केवल ब्रह्म की है / सांख्य दर्शन ने प्रकृति और पुरुष के समन्वय से इसकी व्याख्या की। सांख्य का पुरुष चेतन, अमूर्त भोगी कूटस्थ नित्य है। प्रकृति ही पुरुष के सन्निधान को प्राप्त कर इस संसार की रचना करती है। नैयायिक वैशेषिक ने जगत् का निमित्त कारण तो ईश्वर को स्वीकार किया किन्तु उपादान कारण चेतन और जड़ को ही माना। उसने तत्त्व व्याख्या में द्रव्य, गुण, कर्म इत्यादि 6 पदार्थ माने, फिर 9 द्रव्य, 24 गुण, 5 कर्म इस प्रकार विश्व-व्यवस्था को प्रकट करने का प्रयत्न किया। जैन-दर्शन ने इस दृश्य जगत् को लोक की अभिधा से अभिव्यक्त किया। धर्म, अधर्म, आकाश, काल पुद्गल और जीव इन छहों द्रव्यों की सह स्थिति जहाँ है वह लोक है। पञ्चास्तिकाय का सहावस्थान ही लोक है / संक्षेप में जीव और अजीव की सह स्थिति लोक है। विश्व-व्याख्या में जीव पुद्गल, आकाश तथा काल इन तत्त्वों की प्रस्तुति कई भारतीय पाश्चात्य दार्शनिकों ने दी किन्तु धर्म-अधर्म की स्वीकृति तत्त्ववाद के क्षेत्र में जैन दर्शन की मौलिक देन है। जैनेतर किसी भी दर्शन ने इस प्रकार की अभिव्यक्ति नहीं दी। भारतीय दर्शन में धर्म एवं अधर्म शब्द का प्रयोग तो हुआ है जिसका अभिप्राय है क्रमशः शुभ कर्म एवं अशुभकर्म से है किन्तु जैन की तत्त्वमीमांसा में आगत धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय का प्रयोजन उस अर्थ से सर्वथा भिन्न है। जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय का विश्व व्याख्या में महत्त्वपूर्ण स्थान है। ... जीव और पुद्गल की गति में उदासीन भाव से सहायक होनेवाले द्रव्य को धर्मास्तिकाय की अभिधा से सम्बोधित किया गया है। गति का असाधारण कारण धर्मास्तिकाय है। धर्मास्तिकाय सम्पूर्ण लोकव्यापी है / स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण से रहित