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________________ परिणामवाद परिणाम या परिवर्तन की समस्या दार्शनिक क्षेत्र की मौलिक समस्या रही है। दार्शनिकों ने इस तरफ गम्भीरता से ध्यान केन्द्रित किया है। अस्तित्व के सम्बन्ध चिन्तकों की दो प्रकार की विचारधारा रही है / एक अवधारणा के अनुसार तत्त्व कूटस्थ है तथा इसके विपरीत दूसरी विचारधारा के समर्थक क्षणिक को वास्तविक सत् मानते हैं / जो सत् को सर्वथा कूटस्थ मानते हैं वे The Philosophy of being के समर्थक हैं तथा जो सत् के अनित्य मानते हैं वो The Philosophy of becoming के अनुगामी हैं। पहली विचारधारा के अनुसार परिवर्तन सर्वथा अवास्तविक है जबकि दूसरी विचारधारा के अनुसार वस्तु का परिवर्तन ही सत्व है / प्रथम के अनुसार कूटस्थ द्रव्य की सत्ता ही वास्तविक है जबकि दूसरे के अनुसार द्रव्यरहित पर्याय ही वास्तविक कूटस्थता के समर्थकों का मानना है कि परिवर्तन भ्रान्ति है और वह अज्ञान अथवा माया के द्वारा निर्मित है। क्षणिकता के समर्थकों का अभ्युपगम है कि द्रव्य की कल्पना निरर्थक है तथा स्वयं के प्रति राग एवं संसार के प्रति राग के कारण व्यक्ति द्रव्य की कल्पना करता है। भारतीय चिन्तन में being की फिलोसॉफी को आत्मवाद कहा जाता है तथा becoming की Philosophy को अनात्मवाद कहा जाता है / कूटस्थ द्रव्यवाद के समर्थक वेदान्ती हैं। उनके अनुसार ब्रह्म ही सत्य है वह कूटस्थ है, एक है। संसार की विविधता अवास्तविक है / 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' का सिद्धान्त उनके चिन्तन का महत्त्वपूर्ण घटक है। माया के कारण संसार का नानात्व दृष्टिगम्य होता है, माया ब्रह्म विरोधी है / सांख्य योग जिसने पुरुष और प्रकृति इन दो तत्त्वों को स्वीकार किया है। उसका पुरुष भी वेदान्त के ब्रह्म की तरह कूटस्थ नित्य है। वह अपरिणामी है। जबकि प्रकृति परिणामधर्मा है पुरुष के लिए ही वह प्रवृति करती है / अनात्मवाद के प्रबल समर्थक बौद्ध हैं। इनके अनुसार परिवर्तन ही सत्य है / इनका द्रव्य जैसी किसी भी सत्ता में विश्वास नहीं है। ये द्रव्य को काल्पनिक मानते हैं। सांख्य की प्रकृति की अवधारणा बौद्ध एवं ब्रह्मवादी का मध्यममार्ग है / अर्थात् उसमें परिवर्तन भी है और वह नित्य भी है / बौद्ध के अनुसार अतीत कभी पुनः नहीं आ सकता। किन्तु सांख्य
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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