SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 144 / आर्हती-दृष्टि की तरह अयथार्थ है" / सामान्य विशेष का सह-अस्तित्व है / ये एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते / इसका तात्पर्य यह हुआ कि पर्याय रहित द्रव्य एवं द्रव्य रहित पर्याय सत्य नहीं है। अनेकान्त का तात्त्विक आधार वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं, यह महत्त्वपूर्ण स्वीकृति नहीं है। किन्तु जैन दर्शन का यह महत्त्वपूर्ण अभ्युपगम है कि एक ही वस्तु में एक ही काल में अनन्त विरोधी धर्म युगपत् रहते हैं / अनेकान्त सिद्धान्त के उत्थान का आधार एक ही वस्तु में युगपत् विरोधी धर्मों के सहावस्थान की स्वीकृति है। वस्तु का द्रव्यपर्यायात्मक स्वरूप ही अनेकान्त के उद्भव का मूल स्रोत है / यदि वस्तु विरोधी धर्मों की समन्विति नहीं होती तो अनेकान्त की भी कोई अपेक्षा नहीं होती चूंकि वस्तु वैसी है अतः अनेकान्त की अनिवार्य अपेक्षा है। अनेकान्त के उद्भव का मूल स्रोत वस्तु की विरोधी अनन्त धर्मात्मकता ही है। सत् की परिभाषा . भगवती सूत्र में भगवान् महावीर ने कहा जो उत्पन्न, नष्ट एवं स्थिर रहता है वही तत्त्व है"। आचार्य उमास्वाति के शब्दों में भी यह ही सत्य अनुगूजित है। उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्" / सत् अनेक धर्मों का समुदायमात्र नहीं है किन्तु परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले अनेक धर्मों का आधार है। अनेकान्त उस वस्तु की व्याख्या करता है। . आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार एक ही वस्तु सत्, असत्, एक, अनेक, नित्य, अनित्य स्वभाववाली है, ऐसी एक ही वस्तु के वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरोधी शक्तियुक्त धर्मों को प्रकाशित करनेवाला अनेकान्त है" / वस्तु सत् ही है, असत् ही है। इस प्रकार के एकान्तवाद को निरसित करनेवाला अनेकान्त है / ऐसा आचार्य अकलंक का मंतव्य है। वस्तु का लक्षण अर्थ क्रिया कारित्व एकान्त द्रव्यवाद, एकान्त पर्यायवाद एवं निरपेक्ष द्रव्य एवं पर्यायवाद के आधार पर वस्तु की व्यवस्था नहीं हो सकती क्योंकि एकान्त एवं निरपेक्ष द्रव्य या पर्याय में अर्थक्रिया ही नहीं हो सकती और वस्तु का लक्षण अर्थक्रिया है" / जब क्रम या अक्रम से वस्तु में अर्थक्रिया घटित ही नहीं हो सकती" तब उस वस्तु का अस्तित्व ही नहीं हो सकता।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy