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________________ अनेकान्त का तात्त्विक एवं तार्किक आधार | 145 जैनदर्शन के अनुसार वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है। इस प्रसंग में अन्य दार्शनिकों का आक्षेप है कि जो दोष एकान्त नित्यपक्ष अथवा क्षणिक पक्ष में उपस्थित होते हैं वे ही दोष द्विगुणित होकर जैन वस्तुवाद पर क्यों नहीं आते ? जैन इस तर्क का समाधान करते हुये कहता है यदि जैन मान्य वस्तु का स्वरूप कोरा उभयरूप होता तो इन दोषों का अवकाश वहां हो सकता था किन्तु जैन की वस्तु न द्रव्य रूप है न पर्यायरूप एवं नहीं उभयरूप है वह तो नित्य-नित्यात्मक स्वरूप जात्यन्तर है / एक नई प्रकार की वस्तु की स्वीकृति जैन में है / अतः जैन वस्तुवाद पर किसी प्रकार का दोष उपस्थित नहीं हो सकता। ____धवलाकार ने तो अनेकान्त को ही जात्यन्तर कहा है" / वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। इसका तात्पर्य मात्र इतना ही नहीं है कि वस्तु में सामान्य एवं विशेष नामक विरोधी धर्म एक साथ रहते हैं। अपितु इस कथन का ऐदम्पर्यार्थ यह है कि ये विरोधी धर्म एकरसीभूत अर्थात् एकात्मक रूप में रहते हैं। एक नई ही वस्तु जात्यन्तर के रूप में जैन को मान्य है। Neither the pure identity view nor the pure difference view nor even the composite view of identity and difference but only an integral view of identity in difference offers an adequate definition of reality. Jaina regards every real as not merely an indissoluble union of identity in difference but also this is the matter of immediate concern as something sui generis." (Jatyantara) . जैनदर्शन में द्रव्य पर्यायात्मक एक नई जात्यन्तर वस्तु स्वीकृत है अतः उस पर एकान्त नित्य एवं अनित्य एवं निरपेक्ष नित्य, अनित्य पर लगनेवाले दोषों की उद्भावना ही नहीं हो सकती। जैनाचार्यों ने अपने तर्क की पुष्टि में गुड़ और सोंठ का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है / जैसे-गुड़ एवं सोंठ क्रमशः कफ एवं पित्त के कारण होते हैं किन्तु उन दोनों के सम्मिश्रण से बनी हुई वस्तु उन दोषों की शामक हो जाती है। ____ जैनदर्शन के अनुसार पदार्थ में वस्तुगत भेद नहीं है / उसमें मात्र ज्ञानगत भेद है। अनुगत आकार वाली बुद्धि सामान्य एवं व्यावृत्त आकारवाली बुद्धि विशेष का बोध कराती है / बुद्धि से ही वस्तु की द्वयात्मकता सिद्ध होती है / सामान्य विशेषात्म स्वरूपवाला प्रमेय तो एक ही है / वस्तु में कोई विभाग नहीं होता / वह अभिन्न है। ज्ञान से वह द्विधा विभक्त है तथा नय से उसका कथन होता है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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