________________ 146 / आर्हती-दृष्टि जैनदर्शन के अनुसार प्रमेय का स्वरूप ही द्वन्द्वात्मक है किन्तु उसको विभक्त नहीं किया जा सकता। वस्तु में रहनेवाले विरोधी धर्म युगपत्, एकदा एवं एकात्म होकर ही वस्तु के अस्तित्व को बनाये रखते हैं। मीमांसा दर्शन में वस्तु को उत्पाद भंग स्थिति लक्षण त्रयात्मक स्वीकार किया है। उनके अनुसार वस्तु अनेकान्तात्मक है जिसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। ___आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों में Hegal द्वारा मान्य वस्तु की अवधारणा जैन वस्तुवाद के बहुत समीप प्रतीत होती है "Substantiality and relativity are" says Caird, describing Hegel's Philosophy, "thus seen to be not two ideas, but one, and the truth is to be found not in either separately but in their union; which means that nothing can be said to be substantial in the sense of having existence independent of relation, but only in the sense of including its relativity in its own being." "Neither Being alone nor 'Non-Being' alone, but 'Determinate Being', the union of the two constitutes reality." हीगल के अनुसार अस्तित्व एवं नास्तित्व दोनों साथ मिलकर ही वस्तु के स्वरूप का निर्माण करते हैं। अनेकान्त का तार्किक आधार . अविनाभाव हेतु जैनदर्शन के अनुसार वस्तु के स्वरूप में विरोधी धर्मों की सहअवस्थिति है, यह स्पष्ट हो चुका है / वैचारिक जगत् की यह सामान्य अवधारणा है कि दो विरोधी धर्म एकत्र नहीं रह सकते। अस्तित्व-नास्तित्व परस्पर विरोधी है। अतः उनका सहावस्थान सम्भव नहीं है। इसके विपरीत जैन दर्शन के अनुसार विरोधी धर्मों के सहावस्थान से ही वस्तु का वस्तुत्व बना हुआ है। द्रव्य का द्रव्यत्व बनाये रखने के लिए विरोधी धर्मों का सहभाव होना अत्यन्त अपेक्षित है। अस्ति नास्ति का परस्पर अविनाभाव है। ये एक-दूसरे के अभाव में नहीं रह सकते / आचार्य समन्तभद्र ने इनके अविनाभाव का निरूपण करते हुए कहा है कि एक ही वस्तु के विशेषण होने से अस्तित्व, नास्तित्व का एवं नास्तित्व अस्तित्व का अविनाभावी है। जैसे साधर्म्य एवं - अविनाभाव होता है वैसा ही परस्पर इनमें है।