________________ अनेकान्त का तात्त्विक एवं तार्किक आधार / 141 आकर्षित करता है। जैन की विचार सरणी नयात्मक है अतः संग्रह नय की दृष्टि से आत्मा के एकत्व की स्वीकृति है। जैन दृष्टि के अनुसार उपयोग सब आत्माओं का सदृश लक्षण है अतः उपयोग की दृष्टि से आत्मा एक है। निश्चय नय के पुरस्कर्ता आचार्य कुन्दकुन्द ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि केवल ज्ञानी सब कुछ जानता है, यह व्यवहार नय की वक्तव्यता है / निश्चय नय से तो केवलज्ञानी केवल अपनी आत्मा को ही जानते हैं। समयसार की आत्मख्याति टीका के रचनाकार ने तो यहां तक कह दिया है कि आत्मा का अनुभव हो जाने पर द्वैत दृष्टिपथ में ही नहीं आता है / भगवान् महावीर के उत्तरकाल में भी आत्मतत्त्व का एकत्व एवं नानात्व प्रतिपादित होता रहा है। आचार्य अकलंक ने नाना ज्ञान स्वभाव की दृष्टि से आत्मा की अनेकता और चैतन्य के एक स्वभाव की दृष्टि से उसकी एकता का प्रतिपादन किया है। ठाणं सूत्र केभाष्य में अपने मंतव्य को प्रस्तुत करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा-'जैन दर्शन अनेकान्तवादी है, इसलिए वह केवल द्वैतवादी नहीं है, वह अद्वैतवादी भी है। उसकी दृष्टि में केवल द्वैत और केवल अद्वैतवाद की संगति नहीं है। इन दोनों की सापेक्ष संगति है२ / ' जैन संग्रह नय की पद्धति से संश्लेषण करते-करते 'विश्वमेकं सतो विशेषात्' की स्थिति पर पहुंच जाता है तथा पर्यायार्थिक नय से विश्लेषण करते-करते अन्तिम भेद तक पहुंच जाता है / जैन दर्शन के अनुसार द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक दोनों ही नय सत्य है / नयों की सापेक्ष विचारधारा से ही. जैन दर्शन में वस्तु की व्यवस्था की गयी है। संग्रह नय की दृष्टि से जैन का प्रत्ययवादी होना असंगत नहीं है किन्तु उसका यह कथन निरपेक्ष नहीं है। इन दोनों विरोधी विचारधाराओं का सापेक्ष अस्तित्व उसे मान्य है अतः जैन को निर्विवाद रूप से प्रत्ययवादी + वस्तुवादी माना जा सकता है। . भारतीय दर्शनों की प्रमुख विचारधाराओं का समावेश प्रत्ययवाद एवं वस्तुवाद में हो जाता है। वैसे ही कुछ अन्य चिन्तकों ने उसे नित्य-अनित्य, भेद-अभेद आदि विभागों में समाहित किया है। मूर्धन्य जैन विद्वान् पण्डित सुखलाल जी ने नित्य एवं अनित्य इन दो अवधारणाओं को पांच भागों में विभक्त करके इनमें सभी प्रमुख भारतीय दर्शनों को समाविष्ट किया है। उनके मतानुसार ये पाँच विभाग निम्नलिखित है" (All) Philosophical systems can broadly be divided into five classes, viz. (1). Doctrine of absolute permanence [Kevel nityatvavad), (2) Doctrine of absolute change (Keval antiyatvavada),