________________ 172 // अनि दृष्टि (3) Doctrine of changing permanent [Pasitansi minyatva vadal, (4) Doctrine of the changing and the permanent [nitya-nitya ubyavada) and (5) Doctrine of permanence coupled with change {nitya-nitya tmakavada]. . पं सुखलाल जी के अनुसार ब्रह्मवादी वेदान्त प्रथम विभाग में बौद्ध द्वितीय सांख्य तृतीय न्याय वैशेषिक चतुर्थ एवं जैन पाँचवें विभाग के अन्तर्गत आते हैं। भारतीय दर्शनों का ऐसा ही विभाग Jain Theories of Reality and Knowledge में Dr. YJ. Padmarajaih ने किया है। उन्होंने नित्य-अनित्य के स्थान पर अभेद एवं भेद शब्द का प्रयोग किया है In surveying the field of Indian Philosophy from the point of view of the problem of the nature of reality, We may adopt, as our guiding principal the following five-fold, classification which includes, within its scope, the different schools of philosophical thought in term of their adherence to 'identity' alone, or to 'difference' alone, or to both in unequal or equal proportion. डॉ. रज्जैया ने सुखलाल जी के विभाग को ही स्वीकृत किया है / इन्होंने भर्तृप्रपञ्च, भास्कर, यादव, रामानुज और निम्बार्क दर्शन का समाहार तृतीय विभाग में तथा मध्य के द्वैतवाद को चतुर्थ विभाग में रखा है। इन दोनों विद्वानों ने पूर्व मीमांसा दर्शन का स्पष्ट रूप से किसी विभाग में समावेश नहीं किया है। पूर्व मीमांसा के प्रमेय विवेचन का अध्ययन करने से प्रतीत होता है उसकी प्रमेय मीमांसा जैन वस्तुवाद के सदृश है। पूर्व मीमांसक भी वस्तु को उत्पाद व्यय एवं धोव्य युक्त त्रयात्मक स्वीकार करता है। वस्तु की त्रयात्मकता की सिद्धि में वह वर्धमान, रुचक एवं स्वर्ण का उदाहरण भी प्रस्तुत करता है / जैन दार्शनिकों ने भी वस्तु की त्रयात्मकता की सिद्धि में शब्दभेद मात्र से यही उदाहरण प्रस्तुत किया है जो श्लोकवार्तिक के सन्दर्भ में विमर्शनीय है। श्लोकवार्तिक में वस्तु को अनेकान्तात्मक कहा है / जैन चिन्तक भी वस्तु को अनेकान्तात्मक कहते हैं। उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर पूर्व मीमांसा को पांचवें विभाग में समाहित किया जा सकता है। यद्यपि पं. सुखलाल जी का मंतव्य है कि पूर्व मीमांसा का