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________________ जैनज्ञानमीमांसा का विकास / 257 प्रत्यक्ष में अवधि, मनःपर्यव एवं केवलज्ञान का उल्लेख है / आभिनिबोध एवं श्रुतज्ञान को परोक्षान्तर्गत स्वीकार किया गया है। परोक्ष आभिनिबोध के श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित ये दो भेद हैं / श्रुतनिश्रित के अवग्रह आदि चार भेद है / अश्रुतनिश्रित औत्पतिकी आदि चार बुद्धियों को माना है। इस विभाजन की यह विशेषता है कि इसमें इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों भेदों के अन्तर्गत स्वीकार किया है। ऐसा भेद उपर्युक्त दो भूमिकाओं में नहीं है। जैनेतर सभी दर्शनों ने इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है अतः जैन परम्परा में नन्दीकार ने इनको प्रत्यक्ष में समाविष्ट करके लौकिक मत का समन्वय करने का प्रयत्न किया है। आचार्य जिनभद्र ने इस समन्वय को ही लक्ष्य में रखकर स्पष्टीकरण किया है कि इन्द्रिय प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहना चाहिए। ऐदम्पर्यार्थ यही है कि इन्द्रिय ज्ञान वस्तुतः तो परोक्ष ही है किन्तु लोक व्यवहार के कारण उसको प्रत्यक्ष कहा गया है। वास्तविक प्रत्यक्ष तो अवधि मनःपर्यव और केवलज्ञान ही है। परमार्थ रूप से जो ज्ञान आत्ममात्र सापेक्ष है वही प्रत्यक्ष है / उपर्युक्त विवेचन से ये तथ्य स्पष्ट हो जाते हैं कि... 1.. अवधि मनःपर्यव और केवल ये ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। . 2. श्रुत परोक्ष ही है। 3. इन्द्रियजन्य मतिज्ञान पारमार्थिक दृष्टि से परोक्ष है और व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष है। . 4.. मनोजन्य मतिज्ञान परोक्ष ही है। ज्ञान चर्चा की स्वतन्त्रता __पंचज्ञान चर्चा के क्रमिक विकास की इन तीनों आगमिक भूमिकाओं की विशिष्टता यह है कि इनमें ज्ञान चर्चा के साथ इतर दर्शनों में प्रसिद्ध प्रमाण-चर्चा का कोई समन्वय स्थापित नहीं किया। ज्ञान को अधिकारी की अपेक्षा से सम्यक् एवं मिथ्या माना गया। इस सम्यक् एवं मिथ्या विशेषण रूप ज्ञान के द्वारा ही आगमिक युग में प्रमाण एवं अप्रमाण के प्रयोजन को सिद्ध किया गया / आगम युग में प्रमाण अप्रमाण ऐसे विशेषण नहीं दिये गये हैं। किन्त प्रथम तीन मति, श्रुत, अवधि को ज्ञाता की अपेक्षा मिथ्या तथा सम्यक स्वीकार किया है तथा अन्तिम दो को सम्यक् ही माना है। अतः ज्ञान को साक्षात् प्रमाण न कहकर भी भिन्न प्रकार से उस प्रयोजन को निष्पादित कर लिया है। ज्ञानविचार विकास - जैन परम्परा में ज्ञान सम्बन्धी विचारों का विकास दो अलग-अलग दिशाओं से हुआ है / 1. स्वदर्शनाभ्यास और 2. दर्शनान्तराभ्यास / स्वदर्शन अभ्यासजनित ज्ञान
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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