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________________ 258 / आर्हती-दृष्टि विचार विकास के अन्तर्गत दर्शनान्तरीय परिभाषाओं को अपनाने का प्रयत्न नहीं देखा जाता तथा परमतखण्डन इत्यादि न्यायशास्त्र प्रसिद्ध तत्त्वों का उल्लेख प्राप्त नहीं है। दर्शनान्तर अभ्यास क्रम में ज्ञान विकास में दर्शनान्तरीय परिभाषाओं को आत्मसात् करने का प्रयत्न है तथा परमत खण्डन के साथ-साथ कभी-कभी जल्पकथा का भी अवलम्बन देखा जाता है। ज्ञान सम्बन्धी जैन विचार विकास का जब हम अध्ययन करते हैं तब उसकी अनेक ऐतिहासिक भूमिकाएं जैन साहित्य में उपलब्ध होती है। ज्ञान-विचार विकास को हम कुछ भूमिकाओं में विभक्त कर अवलोकन करें तो यह तथ्य स्पष्ट रूप से बुद्धि गम्य हो जाता है। आगम युग से लेकर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण तक ज्ञान विकास की भूमिकाओं को छह भागों में विभक्त कर सकते हैं। सातवीं उनके उत्तरवर्ती आचार्यों की हो सकती है। 1. कर्मशास्त्रीय तथा आगमिक युग 2. नियुक्तिगत 3. अनुयोगगत 4. तत्त्वार्थगत 5. सिद्धसेनीय 6. जिनभद्रीय एवं 7. उत्तरवर्ती आचार्य परम्परा कर्मशास्त्रीय तथा आगमिक युग कर्मशास्त्रीय तथा आगमिक भूमिका में मति या अभिनिबोध आदि पाँच ज्ञानों के नाम मिलते हैं तथा इन्हीं नामों के आस-पास से स्वदर्शन अभ्यास जनित ज्ञान के भेदों प्रभेदों का विचार दृष्टिगोचर होता है। नियुक्तिगत ज्ञानमीमांसा नियुक्तियों को आगमों की प्रथम व्याख्या माना गया है। नियुक्ति का वह भाग जो विक्रम की दूसरी शताब्दी का माना जाता है उसमें पंचविधज्ञान की चर्चा है तथा नियुक्ति में मति और अभिनिबोध शब्द के अतिरिक्त संज्ञा, स्मृति आदि पर्यायवाची शब्दों की वृद्धि देखी जाती है तथा उसमें ज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ये दो विभाग भी उपलब्ध है / यह वर्गीकरण न्यूनाधिक रूप से दर्शनान्तर के अभ्यास का सूचक है। अनुयोगगत अनुयोगद्वार सूत्र जिसको विक्रम की दूसरी शताब्दी का माना जाता है। उसमें
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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