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________________ 78 / आर्हती-दृष्टि है। इस आसक्ति के विधूनन के बिना काम तृष्णा का विधूनन सम्भव नहीं है। शरीरासक्ति त्याग के लिए रस परित्याग एवं काय-क्लेश अत्यन्त आवश्यक है। रस-भोक्ता शरीर आसक्ति से विरत नहीं हो सकता तथा काम-तृष्णा पर भी विजय प्राप्त नहीं कर सकता, इसीलिए साधक के लिए प्रकाम रसों के सेवन का निषेध किया गया—'रसों का प्रकाम सेवन नहीं करना चाहिए। वे प्रायः मनुष्य की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं / जिसकी धातुएं उद्दीप्त होती हैं उसे काम-भोग सताते हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी। ___ काम-तृष्णा पर विजय पाने के इच्छुक को रस-परित्याग करना अपेक्षित है। देहाध्यास मोक्ष साधना में बाधक है। देहाध्यास काय-क्लेश के द्वारा प्रनष्ट हो सकता है। काय-क्लेश सहनशक्ति की क्रमिक वृद्धि के साथ-साथ शील, समाधि एवं प्रज्ञा को परिपक्व करता है / धुताध्ययन में कहा गया है—'जैसे-जैसे शरीर कृश होता है एवं मांस-शोणित सूखते हैं वैसे-वैसे प्रज्ञा का उदय पुष्ट होता है। प्रज्ञा के पुष्ट होने पर वैराग्य की पुष्टि होती है, वैराग्य की पुष्टि के साथ-साथ साधक अरति को अभिभूत कर सकता है जैसा कि इसी अध्ययन के सूत्र संख्या 70 में कहा गया है-'विरयं भिक्खु रीयंतं चिररातो सियं, अरती तत्थ किं विधारए' ? 'चिरकाल से प्रव्रजित, संयम में (उत्तरोत्तर) गतिशील विरत भिक्षु को क्या अरति अभिभूत कर पाएगी?' धुताध्ययन के उपर्युक्त दो सूत्रों का उल्लेख हमने इसलिए किया है कि ठीक यही बात बौद्धों के ‘सुत्तनिपात' के 'प्रधान सुत्त' में कही गई है। ‘मार' को सम्बोधित करके बुद्ध कह रहे हैं, 'खून के सूखने पर पित्त और कफ सूखते हैं, मांस के क्षीण होने पर चित्त अधिकाधिक प्रसन्न होता है, अर्थात् श्रद्धा का उन्मेष होता है। श्रद्धा का उन्मेष होने पर स्मृति, समाधि एवं प्रज्ञा पुष्ट होती है। उत्तमोत्तम वेदना की अधिवासना के साथ-साथ काम-तृष्णा पर पूर्ण विजय प्राप्त होती है एवं आत्मा परम शुद्धि में प्रतिष्ठित होती है। इस अध्ययन में साधक के लिए विभिन्न शब्द प्रयुक्त हुए हैं। यथा—शीलवान्, उपशान्त, प्रज्ञावान् / इन्हीं शब्दों के सम्पोषक अन्य शब्दों का उल्लेख भी प्राप्त है, जैसे-णिक्खित्तदण्डाणं, समाहियाणं, पण्णाणमंताणं-ये शब्द साधक की विभिन्न उत्तरोत्तर विकासशील अवस्थाओं का सूचन कर रहे हैं। शील, समाधि एवं प्रज्ञा-ये तीन शब्द बौद्ध परम्परा में भी प्रचलित हैं तथा साधना के विभिन्न स्तरों के निदर्शन के लिए ही इनका प्रयोग हुआ है / शील सम्पन्न साधक के मन में काम-तृष्णा विद्यमान रहती है किन्तु वह अनाचार का सेवन नहीं करता। सपाधि में काम तुम" "पशान्त
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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