________________ .. घुताध्ययन : एक परिशीलन / 79 हो जाती है / मन में भी उसका प्रादुर्भाव नहीं होता किन्तु अन्तःकरण में वह बीज रूप में विद्यमान रहती है। प्रज्ञा काम-तृष्णा के बीज को ही नष्ट कर देती है। शील की भूमिका छठे गुणस्थान तक है। उपशम श्रेणी समाधि की भूमिका है तथा क्षपक श्रेणी से प्रज्ञा का उदय होता है। दूसरे शब्दों में शील क्षायोपशमिक भाव है, समाधि औपशमिक एवं प्रज्ञा क्षायिक भाव के समान हैं। इन्द्रियाँ स्वभाव से ही अपने विषयों के प्रति आकर्षित होती हैं। इन्द्रियासक्ति आत्म-प्रज्ञा के उदय में बाधा रूप है / इन्द्रियासक्त व्यक्ति साधना की उच्च भूमिका में बरणन्यास नहीं कर सकता / साधक के इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता आवश्यक है। आचारांग में कहा है कि-'मुनि इन्द्रिय-विषयों की आकांक्षा न करने से आत्मज्ञ होते हैं।" आत्मज्ञ के लिए इन्द्रियासक्ति का परित्याग आवश्यक है। इन्द्रियासक्त अपने गृहीत ब्रतों की भी सम्यक परिपालना नहीं कर सकता। कषाय भी साधक की आत्म-साधना के पलिमन्थु हैं जो वशार्त एवं कातर होते हैं, वे व्रतों का विध्वंस करने वाले होते है। चार प्रकार के वशातों का उल्लेख उपलब्ध होता है-क्रोधवशात, मानवशात, मायावशात एवं लोभवशात / अनुप्रेक्षा के प्रयोग से वशार्तता को समाप्त किया जा सकता है। दशवैकालिक सूत्र में कषाय शमन के उपायों का निर्देश करते हुए कहा गया है-'उपशम से क्रोध का हनन करे, मृदुता से मान को जीते, ऋजुभाव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीते / 3 / प्रज्ञा का उदय करना साधक का लक्ष्य है। वह प्रज्ञा प्राप्ति का उपक्रम करता है। आयारो के सर्वेक्षण से ज्ञात होता है कि वह प्रज्ञा प्रधान है अर्थात् सारे आयारो में धर्म ध्यान की व्याख्या है / जैनों का ध्यान चिन्तन-प्रधान है—यह आयारो से स्पष्ट है। तपस्या का ध्येय है-प्रज्ञा का उन्मेष / तपस्या के माध्यम से प्रज्ञा का उन्मेष होता है। तपस्या साधना है, साध्य नहीं / साध्य की सम्पूर्ति के पश्चात् साधन की आवश्यकता नहीं होती। ध्येय के साक्षात्कार के पश्चात् साधक को तपःसाधना की आवश्यकता नहीं रहती। 'धुतवाद' का तात्पर्य यह है कि विवेकपूर्वक तपस्या को मात्र साधना मार्ग मानकर उसका अभ्यास करना परन्तु.तपस्या ध्येय नहीं है। धुत साधना की पद्धति है। धुत की उत्कृष्ट स्थिति महापरिज्ञा है / अन्तर्मन के मोह का विवेक करना महापरिज्ञा है। महापरिज्ञा महाधुत है, यह भी साधन है, साध्य नहीं / इसका पर्यवसान मोक्ष में होता है जो आठवें अध्ययन का विषय है / शस्त्र परिज्ञा से लेकर विमोक्ष पर्यन्त सम्पूर्ण साधना-पद्धति भगवान् महावीर के जीवन में फलित हुई जिसका साक्ष्य ‘उवहाण' . अध्ययन है जो आयारो का अन्तिम अध्ययन है।