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________________ धुताध्ययन : एक परिशीलन / 77 इस अध्ययन में इन पांच धुतों का वर्णन तो मुख्य रूप से है ही साथ ही अनेक दूसरे धुतों का भी प्रतिपादन है जैसा कि 'धुताध्ययन' के सूत्रों के अध्ययन से ज्ञात होता है। यथा-सूत्र संख्या 8 से 23 तक अचिकित्साधुत का वर्णन है। ऐसे ही विनय, संयम इत्यादि धुतों का उल्लेख प्राप्त है। साधना मार्ग पर अग्रसर साधक को स्वजन विचलित करना चाहते हैं। प्रव्रज्या के समय आक्रन्दन से अथवा विषण्ण बनते हुए उसको रोकने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु आत्मसाधक उनको छोड़ देता है, उनका परित्याग कर देता है / यह स्वजन परित्याग - उपकरण एवं शरीर के प्रति ममत्व भाव होना सहज है। ये सब ममत्व चेतना को पुष्ट करते हैं। ममत्व भाव संसार वृद्धि का हेतु बनता है। अतएव ममत्व चेतना का परित्याग ही धुत साधना का प्रयोजन है। गौरव, अहंकार एवं मद व्यक्ति को अभिभूत कर देते हैं। इनके द्वारा आत्म-प्रज्ञा परास्त हो जाती है। आत्म-प्रज्ञा प्रापक के लिए गौरव त्रिक का परित्यागं करना आवश्यक है / ऋद्धि, रस एवं साता के गौरव से साधक उन्मत्त हो जाता है। पण्डितमन्य व्यक्ति ज्ञान के लव मात्र को प्राप्त करकेउन्मत्त हो जाता है / आत्मश्लाघा करने में संलग्न वह आचार्य की भी अवमानना करने लगता है / रस गौरव-युक्त व्यक्ति आहार-शुद्धि का ध्यान नहीं रखते। ऐसे व्यक्तियों को अपना व्रत-त्याग करने में भी संकोच नहीं होता है / साता गौरव वाले अपने साधुत्व को विस्मृत करके शरीर विभूषा में सम्पृक्त हो जाते हैं / उनका आत्म-साधना का लक्ष्य धूमिल हो जाता है। अतएव गौरव विधूनन अत्यन्त अपेक्षित है / अनुप्रेक्षा के प्रयोग से गौरव त्रिक पर सरलता से विजय प्राप्त की जा सकती है। इन सभी विधूननों में कर्म विधूनन ही प्रधान है / वस्तुतः स्वजन विधूनन, उपकरण, शरीर आदि विधूननों का पर्यवसान कर्म विधूनन में होता है / हम ऐसा भी कह सकते है कि राग-द्वेषं एवं मोह के विधूनन से कर्म विधूनन सम्पन्न होता है। कर्म-विधूनन प्रधान है अतः साधक को इसके लिए प्रयल करना अपेक्षित है। एकत्व अनुप्रेक्षा के द्वारा कर्म-विधूनन सम्पादित होता है / इसी तथ्य को प्रस्तुत करते हुए आचारांग कहता है कि साधक सब प्रकार के संग का परित्याग करे (यह भावना करे)-मेरा कोई नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं। स्वजन के प्रति आसक्ति, उपकरण एवं शरीर के प्रति आसक्ति, अहंकार एवं मद के द्वारा अभिभूत होना, ज्ञान गौरव से उन्मत्त होना—इन सबका उल्लेख धुताध्ययन में किया गया है। इन सब प्रकार की आसक्तियों में शरीर के प्रति आसक्ति सर्व प्रधान
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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