________________ धुताध्ययन : एक परिशीलन आचारांग, साधना का प्रतिपादक सूत्र है / इसमें आचार से भी अधिक व्याख्या साधना की है। इसके नौ अध्ययन हैं-शस्त्र परिज्ञा, लोक-विजय, शीतोष्णीय, सम्यक्त्व, लोकसार, धुत, महापरिज्ञा जो वर्तमान में अनुपलब्ध है, विमोक्ष एवं उपधान / प्रस्तुत निबन्ध में धुताध्ययन का विमर्श वाञ्छित है। धुत लक्ष्य को प्राप्त करने की साधनापद्धति है। इसके द्वारा साधक अपने लक्ष्य की प्राप्त की ओर अग्रसर होता है तथा अन्ततः उसको प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। संयम एवं मोक्ष की आराधना के लिए निःसंगता एवं कर्म-विधूनन अनिवार्य आवश्यकता है। आसक्ति एवं कर्म, ये दोनों साधक को पथच्युत करने में पर्याप्त हैं अतएव इनका अपनयन एवं विधूनन अत्यन्त अपेक्षित है। _ 'धुत' भारतीय साधना-पद्धति का प्रचलित शब्द था तथा भारत के सभी धर्मों में इसको सम्मानजनक स्थान प्राप्त था / बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'विसुद्धिमग्ग' में 13 धुताङ्गों का उल्लेख उपलब्ध है / भागवत में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है / अवधूत परम्परा धुत की साधना-पद्धति पर आधारित है, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। जैन-परम्परा में 'आयारी' जैसे प्राचीन आगम में इसका निरूपण प्राप्त है। धुत का अर्थ है-प्रकम्पित और पृथक्कृत / आचारांग भाष्यकार ने 'धुत' को तप की पद्धति के रूप में व्याख्यायित किया है। धृतवाद कर्म निर्जरा का सिद्धान्त है। जिन-जिन हेतुओं से कर्मों की निर्जरा होती है उन सबकी धुत संज्ञा होती है। प्रस्तुत अध्ययन में 'धुतवाद' का वर्णन हुआ है / इस अध्ययन के पांच उद्देशक हैं। नियुक्तिकार ने इन पांच उद्देशकों में पांच धुतों के वर्णन का उल्लेख किया है।' विधूनन के पांच प्रकार हैं जिनका क्रमशः उल्लेख इस अध्ययन के प्रथमादि उद्देशकों में उपलब्ध है 1. स्वजन विधूनन। 2. कर्म विधूनन। 3. शरीरोपकरण विधूनन / 4. गौरव विधूनन। 5. उपसर्ग सम्मान विधूनन /