________________ जैनयोग में अनुप्रेक्षा / 75 13. उत्तराध्ययन 29/23 14. तत्त्वार्थराजवार्तिक 9/36/13 . * 15. जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं / .. तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिन्त // ध्यान-शतक, गा. 2 16. ठाणं 5/220 17. सूत्रवदर्थेऽपि संभवति विस्मरमतः सोऽपि परिभावनीय इत्यनुप्रेक्षा। उत्तरा शा. वृ, पृ. 584 18. अणुप्पेहा नाम जो मणसा परियट्टेइ णो वायाए। दशवै. जि. चूर्णि, पृ. 29 19. ठाणं 4/68,72 . : 20. उवसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे।। ___ मायं चज्जवभावेण लोहं संतोसओ जिणे // दशवै. 8/38 . 21. लोभं अलोभं दुगञ्छमाणे, लद्धे कामे नाभिगाहइ। आचारांग 2/36 22. प्रतिपक्षभावनोपहताः क्लेशास्तनवो भवन्ति। पात. यो. सू. या 2/4, 23. ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः। पा. यो. सू. 2/10, 24. जं जं भावं आविसइ। 25. कल्याणमन्दिर, श्लो. 17 . 26. यदा ध्यान-बलाद् ध्याता शून्यीकृत्य स्वविग्रहम्। ध्येयस्वरूपाविष्टत्वात्तादृक् सम्पद्यते स्वयम् // .. तदा तथाविध-ध्यान-संवित्ति-ध्वस्तकल्पनः।। स एव परमात्मा स्याद्वैनतेयश्च मन्मथः / तत्त्वानुशासन, श्लो. 135-36 27. बलेषु हस्तिबलादीनि। पात. यो. सू. 3/24 -- 28. तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तन्निवेसणे। आचारांग 5/110 29. मैत्रीकरुणामुदितेति तिस्रो भावनाः / पा. यो. सू. भा. 3/23 30. अभिधम्मत्थसंगहो, ९वां अध्याय। 31. विशुद्धिमग्ग, परिच्छेद 7-8, पृ. 133-200 /