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________________ धारावाहिक ज्ञान : प्रामाण्य एक चिंतन | 345 टीका में अर्चट ने योगिगत 'धारावाहिक ज्ञान में 'सूक्ष्मकालकला' का ज्ञान मानकर उसे प्रमाण कहा है तथा साधारण प्रमाताओं के धारावाहिक ज्ञान को सूक्ष्मकालकला का भेदग्राहक न होने से अप्रमाण कहा है। धर्मोत्तर ने स्पष्ट रूप से धारावाहिक ज्ञान का उल्लेख करके तो कुछ नहीं कहा किंतु उनके सामान्य कथन से उनका झुकाव धारावाहिक को अप्रमाण मानने का प्रतीत होता है। जैन परंपरा के अंतर्गत श्वेताम्बर एवं दिगम्बर विचारधारा का प्रायः सभी तार्किक मुद्दों में सामञ्जस्य है। किंतु धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य-अप्रमाण्य के प्रसंग में वह सामञ्जस्य नहीं है / धारावाहिक ज्ञान को लेकर जैन परंपरा में दो धाराएं चल पड़ी / दिगम्बर आचार्य धारावाहिक ज्ञान को अप्रमाण मानते थे। श्वेताम्बर आचार्य धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य के समर्थक थे। आचार्य अकलंक ने प्रमाण के लक्षण में 'अनधिगतार्थग्राही' विशेषण लगाकर एक नई परंपरा का सूत्रपात किया। आचार्य अकलंक बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्ति से प्रभावित हुए हैं ऐसा प्रतीत होता है। आचार्य अकलंक का प्रतिबिंब आचार्य माणिक्यनन्दी पर पड़ा। उन्होंने अपने प्रमाण लक्षण में 'अपूर्व' पद को देकर अकलंक के अनधिगतार्थ ग्राही विशेषण का समर्थन किया है। 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' अपना और अपूर्व अर्थ का निश्चय करने वाला ज्ञान प्रमाण है। अपूर्व शब्द जैन-परंपरा के लिए नया था। इसलिए माणिक्यनन्दी ने इसका अर्थ स्पष्ट करने के लिए एक अतिरिक्त सूत्र की रचना की 'अनिश्चितोऽपूर्वार्थः' जो अर्थ अनिश्चित है, अज्ञात है, वह अपूर्व है / इसके पश्चात् भी उन्होंने कहा-'दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् जो केवल अज्ञात है वही अपूर्व नहीं है किंतु जो ज्ञात है उसमें यदि संशय आदि उत्पन्न हो जाए तो वह अपूर्व ही है। माणिक्यनन्दी के व्याख्याकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने इन सूत्रों की व्याख्या करते हुए कहा है कि धारावाहिक ज्ञान प्रमाण नहीं है। इसे स्पष्ट करने के लिए ही आचार्य ने प्रमाण लक्षण में अपूर्व पद का ग्रहण किया है। अकलंक के अनुगामी विद्यानन्द एवं माणिक्यनन्दी के व्याख्याता प्रभाचन्द्र के टीका ग्रंथों का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि धारावाहिक ज्ञान तभी प्रमाण है जब वे क्षणभेदादि-विशेष ज्ञान करते हैं तथा विशिष्ट प्रमाजनक होते हैं / यदि वह ऐसा नहीं करते तब वह प्रमाण नहीं होते हैं। धारावाहिक ज्ञान जिस अंश में विशिष्ट प्रमाजनक नहीं हैं उस अंश में अप्रमाण तथा विशेषांश में विशिष्ट प्रमाजनक होने के
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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