________________ अवधिज्ञान / 289 वर्धमान अवधिज्ञान के दो हेतु बतलाए गए हैं 1. प्रशस्त अध्यवसाय में प्रवर्तन एवं 2. चारित्र की विशद्धि। धवला के अनुसार वर्धमान अवधिज्ञान बढ़ता हुआ केवलज्ञान की उत्पत्ति के पूर्व क्षण तक चला जाता है। इसका देशावधि, परमावधि और सर्वावधि इन तीनों में अन्तर्भाव किया गया है। 4. हीयमान __ जो अप्रशस्त अध्यवसायों में वर्तमान और अप्रशस्त चारित्र में वर्तमान है, जो संक्लिश्यमान अध्यवसाय और संक्लिश्यमान चारित्र वाला है, उसका अवधिज्ञान सब ओर से घटता है / वह हीयमान अवधिज्ञान है। धवला में कहा गया है कि अवधिज्ञान उत्पन्न होकर कृष्णपक्ष के चन्द्रमण्डल के समान विनष्ट होने तक घटता ही जाता है / वह हीयमान अवधिज्ञान है। इसका अन्तर्भाव देशावधि में होता है। परमावधि और सर्वावधि में हानि नहीं होती इसलिए हीयमान का अन्तर्भाव उसमें नहीं होता। 5. प्रतिपाति जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मूल नष्ट हो जाता है / अप्रशस्त अध्यवसाय और संक्लेश ही प्रतिपाति के कारण बनते हैं। प्रतिपाति अवधिज्ञान देशावधि है। 6. अप्रतिपाति .. ___जो अवधिज्ञान अलोकाकाश के एक आकाश प्रदेश को अथवा उससे आगे देखने की क्षमता रखता है, वह अप्रतिपाति अवधिज्ञान है / अप्रतिपाति अवधिज्ञान केवलज्ञान उत्पन्न होने पर ही विनष्ट होता है / परमावधि और सर्वावधिदोनों अप्रतिपाति षट्खण्डागम में अवधिज्ञान के तेरह प्रकार बतलाए गए हैं 1. देशावधि, 2. परमावधि, 3. सर्वावधि, 4. हीयमान, 5. वर्धमान, 6. अवस्थित, 7. अनवस्थित, 8. अनुगामी, 9. अननुगामी, 10. सप्रतिपाति, 11. अप्रतिपाति, 12. एकक्षेत्र, 13. अनेक क्षेत्र। ___ठाणं में देशावधि का, प्रज्ञापना में देशावधि एवं सर्वावधि दोनों का तथा विशेषावश्यक भाष्य में परमावधि का उल्लेख मिलता है। एक क्षेत्र; अनेक क्षेत्र का समावेश अंतगत और मध्यगत में हो जाता है। विशेषावश्यक भाष्य में अवस्थित का