________________ मन : पर्यवज्ञान | 309 मार्क ट्वेन ने कागजों को टटोला, उनको वह लेख उसमें मिल गया जिसकी वे व्यग्रता से प्रतीक्षा एवं खोज कर रहे थे। मार्क ट्वेन का मत है कि यदि ऐसा कोई तरीका उपलब्ध हो जाए जिससे दो मस्तिष्कों में इच्छानुसार सामञ्जस्य स्थापित किया जा सके तो टेलीफोन, टेलीग्राम आदि धीमे संचार साधनों का परित्याग कर व्यक्ति मुक्तरूप से विचारों का आदान-प्रदान कर सकता है। . परामनोविज्ञान के क्षेत्र में टेलीपैथी (विचार-सम्प्रेषण) के बहुत प्रयोग किए जा रहे हैं एवं उनमें आश्चर्यकारी सफलता भी प्राप्त हो रही है / टेलीपैथी के इन प्रयोगों के साथ मनःपर्यवज्ञान की आंशिक तुलना ही हो सकती है / टेलीपैथी एवं मनःपर्यवज्ञान दोनों ही संज्ञात्मक हैं / इनकी प्रक्रिया में इन्द्रिय एवं अन्य भौतिक संसाधनों की अपेक्षा नहीं है / ये दोनों ही देशकाल की सीमाओं से निरपेक्ष हैं / टेलीपैथी में विचार-सम्प्रेषित किए जाते हैं जबकि मनःपर्यवज्ञान में अन्य व्यक्ति के मन को/विचारों को जाना जाता है। व्यक्ति जैसा चिन्तन करता है उसके अनुरूप मनोवर्गणा के पुद्गल आकार ग्रहण करते हैं / उनको मनःपर्यवज्ञानी जानता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि टेलीपैथी आदि ज्ञान को जैनमीमांसा के अनुसार पूर्ण मनःपर्यवज्ञान तो नहीं कहा जा सकता किन्तु उनको मनःपर्यवज्ञान के एक अंश अथवा विशिष्ट प्रकार का ज्ञान स्वीकार करने में तो कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। संदर्भ नंदी ( सभाष्य)