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________________ 308 / आर्हती-दृष्टि से इसकी तुलना की जा सकती है। पातञ्जल योग-दर्शन में ताराव्यूह ज्ञान आदि का उल्लेख है जो अतीन्द्रिय ज्ञान के सूचक हैं। परामनोविज्ञान में मनःपर्यवज्ञान जैन-दर्शन में जिसे मनःपर्यवज्ञान कहा जाता है उसकी आंशिक तुलना परामनोविज्ञान में प्रचलित दूरबोध, विचार-सम्प्रेषण, विचार-संक्रमण (Telepathy). आदि संज्ञानों से की जा सकती है / परामनोविज्ञान में परीक्षित घटनाएं, जो परचित्त-बोध या दूरबोध के नाम से जानी जाती है, वे प्रायः मन-संचार से सम्बन्धित हैं जिसमें एक व्यक्ति बहुत दूरी पर स्थित दूसरे व्यक्ति के विचारों का ग्रहण कर लेता है। अधिकांशतया ऐसी घटनाओं में प्रेषक एवं ग्राहक इन दोनों के मस्तिष्क एक विशिष्ट अनुकूल अवस्था में होने अपेक्षित हैं जिनमें प्रेषक के प्रयत्न बिना ही ग्राहक ने कुछ ग्रहण किया है। जिन मनुष्यों में दूरबोध की क्षमता होती है वे दूसरे के विचारों को इन्द्रिय सहयोग के बिना भी जान सकते हैं / वस्तुतः यह एक विशिष्ट क्षमता है जो सामान्य मनुष्यों में नहीं पाई जाती है। अपितु अपवाद रूप में कुछ विशिष्ट व्यक्ति ही इसके परिज्ञाता होते हैं और वे बिना किसी प्रयास के सहज ही इसका प्रयोग करते हैं। .. .. डॉ०. बेविंक ने अपनी पुस्तक (Anatomy of Modern Science) में लिखा है कि–'मैं सहमत हूं कि ऐसा कोई प्रत्यय है जिसे दूसरे व्यक्ति के मानसिक जीवन की यथार्थ जानकारी कहा जा सकता है।' जो ज्ञान-इन्द्रियों के माध्यम से नहीं हो सकता एवं सम्प्रेषित नहीं किया जा सकता। विचार-सम्प्रेषण से उसे दूसरे तक पहुँचाया जा सकता है। विचार-सम्प्रेषण के प्रसंग में मार्क ट्वेन की घटना मननीय है / सन् 1906 की बात है। उन्हें 1885 में स्वयं अपने द्वारा लिखित एवं क्रिश्चियन यूनियन द्वारा प्रकाशित एक लेख की अत्यन्त आवश्यकता हुई। किन्तु बहुत परिश्रम करने के बावजूद वे उसको प्राप्त नहीं कर सके / यूनियन कार्यालय भी उनकी मदद नहीं कर सका। उनके विचारों में एवं प्रयत्नों में लेख-प्राप्ति का उपक्रम चल रहा था। दूसरे दिन वे न्यूयार्क के फिफ्थ एवेन्यू से ४०वीं स्ट्रीट को पार कर खड़े ही थे कि एक अपरिचित व्यक्ति भागता हुआ उनके पास पहुँचा और कागजों का एक पुलिन्दा उन्हें थमाते हुए बोला—ये कागज बीस साल से मेरे पास है, पता नहीं क्यों आज सुबह से मुझे ऐसा लगा कि इन्हें मैं आपको भेज दूं। मैं अभी इन्हें पोस्ट करने जा रहा था कि आप स्वयं ही मुझे मिल गए।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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