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________________ निक्षेपवाद / 127 युक्तिपूर्वक प्रयोजन युक्त नाम आदि चार भेद से वस्तु को स्थापित करना निक्षेप है। धवला में निक्षेप को परिभाषित करते हुए कहा-'संशयविपर्यये अनध्यवसाये वा स्थितस्तेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः' संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय में स्थित वस्तु को उनसे हटाकर निश्चय में स्थापित करना निक्षेप है अर्थात् निक्षेप वस्तु को निश्चयात्मकता एवं निर्णायकता के साथ प्रस्तुत करता है / जैन सिद्धान्त दीपिका में भी यही भाव अभिव्यञ्जित है-'शब्देषु विशेषणबलेन प्रतिनियतार्थप्रतिपादनशक्तेनिक्षेपणं निक्षेपः' शब्दों में विशेषण के द्वारा प्रतिनियत अर्थ का प्रतिपादन करने की शक्ति निहित करने को निक्षेप कहा जाता है। निक्षेप पदार्थ और शब्द प्रयोग की संगति का सूत्रधार है / निक्षेप भाव और भाषा, वाच्य और वाचक की सम्बन्ध पद्धति है। संक्षेप में, शब्द और अर्थ की प्रासंगिक सम्बन्ध संयोजना को निक्षेप कहा जा सकता है। निक्षेप के द्वारा पदार्थ की स्थिति के अनुरूप शब्द संयोजना का निर्देश प्राप्त होता है / निक्षेप सविशेषण सुसम्बद्ध भाषा का प्रयोग है। निक्षेप का लाभ प्रत्येक शब्द में असंख्य अर्थों को द्योतित करने की शक्ति होती है. एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। वह अनेक वाच्यों का वाचक बन सकता है, ऐसी स्थिति में वस्तु के अवबोध में भ्रम हो सकता है। निक्षेप के द्वारा अप्रस्तुत अर्थ को दूर कर प्रस्तुत अर्थ का बोध कराया जाता है / अप्रस्तुत कां अपाकरण एवं प्रस्तुत का प्रकटीकरण ही निक्षेप का फल है / लघीयस्त्रयी में यही भाव अभिव्यजित हुए हैं 'अप्रस्तुतार्थापाकरणात् प्रस्तुतार्थव्याकरणाच्च निक्षेपः फलवान्।' निक्षेप के भेद पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है अतः विस्तार में जायें तो कहना होगा कि वस्तुविन्यास के जितने प्रकार हैं उतने ही निक्षेप के भेद है किन्तु संक्षेप में चार निक्षेपों का निर्देश प्राप्त होता है। अनुयोगद्वार में भी कहा गया है 'जत्य यजं जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं। जत्व वि य न जाणेज्जा चउक्कगं निक्खिवे तत्व। जहाँ जितने निक्षेप ज्ञात हों वहां उन सभी का उपयोग किया जाये और जहां अधिक निक्षेप ज्ञात न हों वहां कम से कम नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव इन चार निक्षेपों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। पदार्थ का कोई न कोई नाम तथा आकार होता है तथा उसके भूत, भावी एवं
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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