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________________ 128 / आईती-दृष्टि वर्तमान पर्याय होते हैं अतः निक्षेप चतुष्टयी स्वत: फलित हो जाती है / पदार्थ के नाम के आधार पर नाम निक्षेप, आकार के आधार पर स्थापना, भूत, भावी पर्याय के आधार पर द्रव्य एवं वर्तमान पर्याय के आधार पर भाव निक्षेप का निर्धारण होता है। निक्षेप काल्पनिक नहीं है अपितु वस्तु के स्वरूप पर आधारित यथार्थ हैं। नाम आदि चारों निक्षेपों का संक्षिप्त विवेचन यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। . 1. नाम-निक्षेप वस्तु का इच्छानुसार अभिधान किया जाता है, वह नाम निक्षेप है। नाम मूल अर्थ से सापेक्ष या निरपेक्ष दोनों प्रकार का हो सकता है, किन्त जो नामकरण संकेतमात्र से होता है, जिसमें जाति, गुण, द्रव्य, क्रिया, लक्षण आदि निमित्तों की अपेक्षा नहीं होती है, वह नाम निक्षेप है। एक अनक्षर व्यक्ति का नाम अध्यापक रख दिया। एक गरीब का नाम लक्ष्मीपति रख दिया। अध्यापक और लक्ष्मीपति का जो अर्थ होना चाहिए वह उनमें नहीं मिलता इसलिए ये नाम निक्षिप्त कहलाते हैं। नाम निक्षेप में शब्द के अर्थ की अपेक्षा नहीं रहती है। जैन सिद्धान्त दीपिका में नाम निक्षेप को परिभाषित करते हुए कहा गया—'तदर्थनिरपेक्षं संज्ञाकर्म नाम' मूल शब्द के अर्थ की अपेक्षा न रखनेवाले संज्ञाकरण को नाम निक्षेप कहा जाता है। जैसे'अनक्षरस्य उपाध्याय इति नाम'। - 2. स्थापना-निक्षेप–पदार्थ का आकाराश्रित व्यवहार स्थापना निक्षेप है / मूल अर्थ से शून्य वस्तु को उसी अभिप्राय से स्थापित करने को स्थापना निक्षेप कहा जाता है- 'तर्थशून्यस्य तदभिप्रायेण प्रतिष्ठापनं स्थापना' अर्थात् जो अर्थ तद्प नहीं है उसको तद्प मान लेना स्थापना निक्षेप है। जैसे 'उपाध्यायप्रतिकृतिः स्थापनोपाध्यायः'। स्थापना सद्भाव एवं असद्भाव के भेद से दो प्रकार की होती है अतः स्थापना निक्षेप भी दो प्रकार का हो जाता है (1) सद्भाव स्थापना—एक व्यक्ति अपने गुरु के चित्र को गुरु मानता है। यह सद्भाव स्थापना है—'मुख्याकारसमाना सद्भावस्थापना'। (2) असद्भाव स्थापना—एक व्यक्ति ने शंख आदि में अपने गुरु का आरोप कर लिया, यह असद्भाव स्थापना है—'तदाकारशून्या चासद्भाव-स्थापना'। नाम और स्थापना दोनों वास्तविक अर्थ से शून्य होते हैं। नाम और स्थापना में अन्तर यह है कि जिसकी स्थापना होती है उसका नाम अवश्य होता है किन्तु नाम निक्षिप्त की स्थापना होना आवश्यक नहीं है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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