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________________ मन : पर्यवज्ञान | 303 प्रमत्त मनःपर्यवज्ञानी की अर्हता नन्दीसूत्र में मनःपर्यवज्ञानी के लिए नवअर्हताएं निर्धारित हैं 1. ऋद्धि प्राप्त, 2. अप्रमत्त, 3. संयत, 4. सम्यग्दृष्टि, 5. पर्याप्तक, 6. संख्येयवर्षायुष्क, 7. कर्मभूमिज, 8. गर्भावक्रांतिक, 9. मनुष्य, देखें यन्त्र अस्वामी स्वामी अमनुष्य मनुष्य संमूर्छिम मनुष्य गर्भावक्रान्तिक मनुष्य अकर्मभूमिज और अन्तीपक मनुष्य कर्मभूमिज मनुष्य असंख्येयवर्षायुष्क मनुष्य संख्येयवर्षायुष्क मनुष्य अपर्याप्तक मनुष्य पर्याप्तक मनुष्य मिथ्यादृष्टि और सम्यगदृष्टि / सम्यग्दृष्टि मनुष्य असंयत और संयतासंयत संयत अप्रमत्त अनृद्धिप्राप्त ऋद्धिप्राप्त गौतम पूछते हैं-भगवन् ! मनःपर्यवज्ञान मनुष्यों के उत्पन्न होता है अथवा मनुष्य इतर प्राणियों के ? भगवान् उन्हें समाहित करते हैं—मनःपर्यवज्ञान मनुष्यों के उत्पन्न होता है। मनुष्येतर-तिर्यञ्च, देव और नारक के उत्पन्न नहीं होता है / मनःपर्यवज्ञान केवल उन मनुष्यों के ही हो सकता है जो गर्भज, कर्मभूमिज, संख्येयवर्ष आयुष्यवाले पर्याप्त अर्थात् सभी पौद्गलिक शक्तियों-इन्द्रिय, भाषा, मन आदि से युक्त होते हैं तथा साथ ही जो सम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयत एवं ऋद्धि सम्पन्न होते हैं। मनःपर्यवज्ञान और अवधिज्ञान में अन्तर / ___ मनःपर्यवज्ञान से मन की पर्यायों को जाना जाता है। मन का निर्माण मनोद्रव्य की वर्गणा से होता है। मन पौद्गलिक है और मनःपर्यवज्ञानी मनोवर्गणा के पर्यायों को जानता है / अवधिज्ञान का विषयरूपी द्रव्य है और मनोवर्गणा के स्कन्ध भी रूपीद्रव्य हैं / इस प्रकार दोनों का विषय एक ही बन जाता है / मनःपर्यवज्ञान अवधिज्ञान का एक अवान्तर भेद जैसा प्रतीत होता है। इसीलिए आचार्य सिद्धसेन ने अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान को एक माना है। उनकी परम्परा को सिद्धान्तवादी आचार्यों ने मान्य नहीं किया है / उमास्वाति ने सम्भवतः पहली बार अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान के भेद-ज्ञापक हेतुओं का निर्देश किया है-विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय /
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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