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________________ 302 / आर्हती-दृष्टि 1. द्रव्यदृष्टि-द्रव्य की दृष्टि से मनःपर्यवज्ञानी मनोवर्गणा के अनन्त-अनन्त प्रदेशी स्कन्धों को जानता है / मनःपर्यवज्ञान के द्वारा समस्त पुद्गलास्तिकाय . को नहीं जाना जा सकता क्योंकि उसकी क्षमता अनन्त प्रदेशी स्कन्धों को जानने की है। एक पुद्गल परमाणु यावत् संख्यात प्रदेशी और असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध उसकी विषय सीमा से बाहर है। अनन्तप्रदेशी पुद्गल स्कन्धों की अनन्त प्रकार की वर्गणाएं मानी गई हैं। एक उत्कृष्ट मनःपर्यवलब्धि सम्पन्न व्यक्ति भी उन सबका साक्षत् नहीं कर सकता / अतः द्रव्य की दृष्टि से ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी अनन्तप्रदेशी स्कन्धों को जानता है और विपुलमति उन्हें अभ्यधिक रूप में जानता है। 2. क्षेत्रदृष्टि-क्षेत्र की दृष्टि से मनःपर्यवज्ञानी मनुष्य-क्षेत्र के भीतर अढ़ाई द्वीप समुद्र तक पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस अकर्मभूमियों और छप्पन अन्तीपों में वर्तमान पर्याप्त समनस्क पञ्चेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जानता-देखता है / आवश्यक नियुक्ति में मनःपर्यवज्ञान को मनुष्य-क्षेत्र तक सीमित बताया गया है। दिगम्बर परम्परा में षटखण्डागम के अनुसार ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान का जघन्य क्षेत्र गव्यूति पृथक्त्व एवं उत्कृष्ट क्षेत्र मानुषोत्तर पर्वत तक है। श्वेताम्बर परम्परा में पृथक्त्व शब्द दो से नौ तक की संख्या का संकेत करता है जबकि दिगम्बर आम्नाय में वह आठ और नौ का वाचक है। कालदृष्टि-काल की दृष्टि से मनःपर्यवज्ञानी जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग अतीत और भविष्य को जानता-देखता है। दिगम्बर परम्परा में मनःपर्यवज्ञान की काल मर्यादा का कथन ‘भव' के आधार पर किया गया है, एल्योपम आदि के आधार पर नहीं / ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान जघन्यतः दो-तीन भवों को और उत्कृष्टतः सात-आठ भवों को साक्षात् जान-देख सकता है। विपुलमति मनःपर्यवज्ञान कालतः कम-से-कम सात-आठ भवों को और उत्कृष्टः असंख्यात भवों को जानने-देखने की क्षमता रखता है। 4. भावदृष्टि-भाव की दृष्टि से मनःपर्यवज्ञानी अनन्तभावों को जानता देखता है पर वे अनन्तभाव सब भावों के अनन्तवें भाग जितने होते हैं / विपुलमति . मनःपर्यवज्ञान का विषय भी इतना ही है, केवल वह उन्हें अभ्यधिकतर, विशुद्धतर और वितिमिरतर रूप में जानता है / तत्त्वार्थसूत्र में मनःपर्यवज्ञान का विषय सर्वावधि का अनन्तवां भाग बताया गया है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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